Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
অধিকার-২ : দোহা-১৬৫ ]পরমাত্মপ্রকাশ: [ ৪৮৭
तथा । निश्चयेन पुनर्लोकमात्रासंख्येयप्रदेशोऽपि सन् व्यवहारेण पुनः शरीरकृतोपसंहार-
विस्तारवशाद्विवक्षितभाजनस्थप्रदीपवत् देहमात्र इति भावार्थः ।।१६४।।
अथ —
२९६) देहि वसंतु वि णवि मुणिउ अप्पा देउ अणंतु ।
अंबरि समरसि मणु धरिवि सामिय णट्ठु णिभंतु ।।१६५।।
देहे वसन्नपि नैव मतः आत्मा देवः अनन्तः ।
अम्बरे समरसे मनः धृत्वा स्वामिन् नष्टः निर्भ्रान्तः ।।१६५।।
देहि वसंतु वि इत्यादि । देहि वसंतु वि व्यवहारेण देहे वसन्नपि णवि मुणिउ नैव ज्ञातः ।
ব্যবহারনযথী বিবক্ষিত ভাজনমাং রাখেলা দীবানী পেঠে শরীরকৃত সংকোচবিস্তারনে কারণে দেহ
প্রমাণ ছে, এবো ভাবার্থ ছে. (দীবো জে জে ভাজনমাং রাখবামাং আবে তে তে প্রমাণে তেনো প্রকাশ
ফেলায ছে তেবী রীতে আত্মা চার গতিমাং জেবুং শরীর ধারণ করে তে তে প্রমাণে আত্মপ্রদেশো সংকোচ
-বিস্তার পামে ছে. ১৬৪.
হবে, শিষ্য পশ্চাত্তাপ করে ছে : —
ভাবার্থ : — ব্যবহারে দেহমাং রহ্যো হোবা ছতাং, নিজশুদ্ধাত্মানে কে জে কেবল জ্ঞানাদি
आत्मा जो पदार्थोंको तन्मयी होके जाने, तो परके सुख-दुःखसे तन्मयी होनेसे इसको भी
दूसरेका सुख-दुःख मालूम होना चाहिए, पर ऐसा होता नहीं है । इसलिए निश्चयसे आत्मा
असर्वगत है, और व्यवहारनयसे सर्वगत है, प्रदेशोंकी अपेक्षा निश्चयसे लोकप्रमाण
असंख्यातप्रदेशी है, और व्यवहारनयकर पात्रमें रखे हुए दीपककी तरह देहप्रमाण है, जैसा
शरीर-धारण करे, वैसा प्रदेशोंका संकोच विस्तार हो जाता है ।।१६४।।
आगे फि र प्रश्न करता है —
गाथा – १६५
अन्वयार्थ : — [स्वामिन् ] हे स्वामी, [देहे वसन्नपि ] व्यवहारनयकर देहमें रहता हुआ
भी [आत्मा देवः ] आराधने योग्य आत्मा [अनंतः ] अनंत गुणोंका आधार [नैव मतः ] मैंने
अज्ञानतासे नहीं जाना । क्या करके [समरसे ] समान भावरूप [अंबरे ] निर्विकल्पसमाधिमें
[मनः धृत्वा ] मन लगा कर । इसलिए अब तक [नष्टो निर्भ्रांतः ] निस्संदेह नष्ट हुआ ।
भावार्थ : — प्रभाकरभट्ट पछताता हुआ श्री योगीन्द्रदेवसे बिनंती करता है, कि हे