Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
অধিকার-২ : দোহা-১৬৬-১৬৭ ]পরমাত্মপ্রকাশ: [ ৪৮৯
२९८) घोरु ण चिण्णउ तव-चरणु जं णिय-बोहहं सारु ।
पुण्णु वि पाउ वि दड्ढु णवि किमु छिज्जइ संसारु ।।१६७।।
सकला अपि संगाः न मुक्त ाः नैव कृत उपशमभावः ।
शिवपदमार्गोऽपि मतो नैव यत्र योगिनां अनुरागः ।।१६६।।
घोरं न चीर्णं तपश्चरणं यत् निजबोधस्य सारम् ।
पुण्यमपि पापमपि दग्धं नैव किं छिद्यते संसारः ।।१६७।।
सयल वि इत्यादि । सयल वि समस्ता अपि संग मिथ्यात्वादिचतुर्दशभेदभिन्ना
आभ्यन्तराः क्षेत्रवास्त्वादिबहुभेदभिन्ना बाह्या अपि संगाः परिग्रहाः ण मिल्लिया न मुक्त ाः ।
पुनरपि किं न कृतम् । णवि किउ उवसम-भाऊ जीवितमरणलाभालाभसुखदुःखादिसमता-
भावलक्षणो नैव कृतः उपशमभावः । पुनश्च किं न कृतम् । सिव-पय-मग्गु वि मुणिउ
ভাবার্থ : — জো মিথ্যাত্ব, রাগ, দ্বেষ, চার কষায, হাস্য, রতি, অরতি, শোক, ভয,
গ্লানি অনে বেদ এ চৌদ প্রকারনা ভেদথী ভেদবালা অভ্যন্তর পরিগ্রহো তথা ক্ষেত্র, বাস্তু
আদি অনেক প্রকারনা ভেদথী ভেদবালা (ক্ষেত্র, বাস্তু, হিরণ্য, সুবর্ণ, ধন, ধান্য, দাসী, দাস,
কুপ্য, ভাংড এ দশ প্রকারনা) বাহ্য পরিগ্রহো – এ রীতে সমস্ত পরিগ্রহোনে পণ ছোড্যা নহি.
জীবিত-মরণ, লাভ-অলাভ, সুখ-দুঃখাদিমাং সমতাভাব জেনুং লক্ষণ ছে এবো উপশমভাব ন
गाथा – १६६-१६७
अन्वयार्थ : — [सकला अपि संगाः ] सब परिग्रह भी [न मुक्ताः ] नहीं छोडे,
[उपशमभावः नैव कृतः ] समभाव भी नहीं किया [यत्र योगिनां अनुरागः ] और जहाँ
योगीश्वरोंका प्रेम है, ऐसा [शिवपदमार्गोऽपि ] मोक्ष-पद भी [नैव मतः ] नहीं जाना, [घोरं
तपश्चरणं ] महा दुर्धर तप [न चीर्णं ] नहीं किया, [यत् ] जो कि [निजबोधेन सारम् ]
आत्मज्ञानकर शोभायमान है, [पुण्यमपि पापमपि ] और पुण्य तथा पाप ये दोनों [नैव दग्धं ]
नहीं भस्म किये, तो [संसार ] संसार [किं छिद्यते ] कैसे छूट सकता है ?
भावार्थ : — मिथ्यात्व, (अतत्त्व श्रद्धान) राग, (प्रीतिभाव दोष) दोष, (वैरभाव) देव,
(स्त्री, पुरुष, नपुंसक) क्रोध-मान-माया-लोभरूप चार कषाय, और हास्य, रति, अरति, शोक,
भय, ग्लानि — ये चौदह अंतरंग परिग्रह, क्षेत्र, (ग्रामादिक) वास्तु, (गृहादिक) हिरण्य, (रुपया,
पैसा, मुहर आदि) सुवर्ण, (गहने आदि) धन, (हाथी, घोड़ा आदि) धान्य, (अन्नादि) दासी,