परमात्मनो लोको लोकनमवलोकनं वीतरागपरमानन्दसमरसीभावानुभवनं लोक इति परलोक-
शब्दस्यार्थः । अथवा पूर्वोक्त लक्षणः परमात्मा परशब्देनोच्यते । निश्चयेन परमशिवशब्दवाच्यो मुक्तात्मा
शिव इत्युच्यते तस्य लोकः शिवलोक इति । अथवा परमब्रह्मशब्दवाच्यो मुक्तात्मा परमब्रह्म इति
तस्य लोको ब्रह्मलोक इति । अथवा परम विष्णुशब्दवाच्यो मुक्तात्मा विष्णुरिति तस्य लोको
विष्णुलोक इति परलोकशब्देन मोक्षो भण्यते परश्चासौ लोकश्च परलोक इति । परलोकशब्दस्य
व्युत्पत्त्यर्थो ज्ञातव्यः न चान्यः कोऽपि परकल्पितः शिवलोकादिरस्तीति । अत्र स एव
परलोकशब्दवाच्यः परमात्मोपादेय इति तात्पर्यार्थः ।।४।।
अथ तमेव मोक्षं सुखदायकं दृष्टान्तद्वारेण दृढयति —
१३१) उत्तमु सुक्खु ण देइ जइ उत्तमु मुक्खु ण होइ ।
तो किं इच्छहिँ बंधणहिँ बद्धा पसुय वि सोइ ।।५।।
उत्तमं सुखं न ददाति यदि उत्तमो मोक्षो न भवति ।
ततः किं इच्छन्ति बन्धनै बद्धा पशवोऽपि तमेव ।।५।।
ब्रह्मलोक है, अथवा उसीका नाम परमविष्णु है, उसका लोक अर्थात् स्थान वह विष्णुलोक
है, ये सब मोक्षके नाम हैं, यानी जितने परमात्माके नाम हैं, उनके आगे लोक लगानेसे मोक्षके
नाम हो जाते हैं, दूसरा कोई कल्पना किया हुआ शिवलोक, ब्रह्मलोक या विष्णुलोक नहीं है ।
यहाँ पर सारांश यह हुआ कि परलोकके नामसे कहा गया परमात्मा ही उपादेय है, ध्यान करने
योग्य है, अन्य कोई नहीं ।।४।।
आगे मोक्ष अनंत सुख देनेवाला है, इसको दृष्टांतके द्वारा दृढ़ करते हैं —
गाथा – ५
अन्वयार्थ : — [यदि ] जो [मोक्षः ] मोक्ष [उत्तमं सुखं ] उत्तम सुखको [न ददाति ]
पर लोक ते परलोक छे ए प्रमाणे ‘परलोक’ शब्दनो व्युत्पत्ति-अर्थ समजवो; पर कल्पित
(परे कल्पेलो) एवो बीजो कोई शिवलोकादि (शिवलोक, ब्रह्मलोक, विष्णुलोक) नथी. (परलोक
शब्दनो अर्थ न समजवो.)
अहीं, ते ज ‘परलोक’ शब्दथी वाच्य एवो परमात्मा उपादेय छे, एवुं तात्पर्य छे. ४.
हवे, ते ज मोक्ष सुखनो देनार छे एम द्रष्टान्त द्वारा द्रढ करे छेः —
२०६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-५