परमनिरञ्जनाभिधाने निजपरमात्मस्वरूपे । मणु मनः धरिवि विषयकषायेषु गच्छत् सद्
व्यावृत्त्य धृत्वा पश्चात् मुक्खु जि मोक्षमेव झायहिं ध्यायन्ति सव्व सर्वेऽपि इति । तद्यथा ।
हरिहरादयः सर्वेऽपि प्रसिद्धपुरुषाः ख्यातिपूजालाभादिसमस्तविकल्पजालेन शून्ये, शुद्धबुद्धैक-
स्वभावनिजात्मद्रव्यसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेदरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नवीतराग-
सहजानन्दैकसुखरसानुभवेन पूर्णकलशवत् भरितावस्थे निरञ्जनशब्दाभिधेयपरमात्मध्याने स्थित्वा
मोक्षमेव ध्यायन्ति । अयमत्र भावार्थः । यद्यपि व्यवहारेण सविकल्पावस्थायां वीतराग-
सर्वज्ञस्वरूपं तत्प्रतिबिम्बानि तन्मन्त्राक्षराणि तदाराधकपुरुषाश्च ध्येया भवन्ति तथापि वीतराग-
निर्विकल्पत्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधिकाले निजशुद्धात्मैव ध्येय इति ।।८।।
अथ भुवनत्रयेऽपि मोक्षं मुक्त्वा अन्यत्परमसुखकारणं नास्तीति निश्चिनोति —
श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप जो अभेदरत्नत्रयमय समाधिकर उत्पन्न वीतराग सहजानंद
अतीन्द्रियसुखरस उसके अनुभवसे पूर्ण कलशकी तरह भरे हुए निरंतर निराकार निजस्वरूप
परमात्माके ध्यानमें स्थिर होकर मुक्त होते हैं । कैसा वह ध्यान है, कि ख्याति (प्रसिद्धि) पूजा
(अपनी महिमा) और धनादिकका लाभ इत्यादि समस्त विकल्प – जालोंसे रहित है । यहाँ
केवल आत्म – ध्यान ही को मोक्ष – मार्ग बतलाया है, और अपना स्वरूप ही ध्यावने योग्य है ।
तात्पर्य यह है कि यद्यपि व्यवहारनयकर प्रथम अवस्थामें वीतरागसर्वज्ञका स्वरूप अथवा
वीतरागके नाममंत्रके अक्षर अथवा वीतरागके सेवक महामुनि ध्यावने योग्य हैं, तो भी वीतराग
निर्विकल्प तीन गुप्तिरूप परमसमाधिके समय अपना शुद्ध आत्मा ही ध्यान करने योग्य है, अन्य
कोई भी दूसरा पदार्थ पूर्ण अवस्थामें ध्यावने योग्य नहीं है ।।८।।
अब तीन लोकमें मोक्षके सिवाय अन्य कोई भी परमसुखका कारण नहीं है, ऐसा
निश्चय करते हैं —
सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्चारित्ररूप अभेद रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधिथी उत्पन्न मात्र
वीतराग सहजानंदरूप सुखरसना अनुभवथी पूर्णकलशनी जेम परिपूर्ण एवा निरंजन शब्दथी
कहेवा योग्य परमात्माना ध्यानमां स्थित थईने एक मोक्षने ज ध्यावे छे.
अहीं, आ भावार्थ छे के जो के व्यवहारनयथी सविकल्प अवस्थामां वीतराग सर्वज्ञनुं
स्वरूप, वीतरागनी प्रतिमा, तेना मंत्राक्षरो अने तेना आराधक पुरुषो ध्याववा योग्य छे तो पण
वीतराग निर्विकल्प त्रिगुप्ति वडे गुप्त परमसमाधिकाळमां शुद्ध आत्मा ज ध्याववा योग्य छे. ८.
हवे, त्रण लोकमां मोक्ष सिवाय बीजुं कोई पण (बीजी कोई पण वस्तु) परमसुखनुं
कारण नथी, एम नक्की करे छेः —
अधिकार-२ः दोहा-८ ]परमात्मप्रकाशः [ २१३