१३५) तिहुयणि जीवहँ जत्थि णवि सोक्खहँ कारणु कोइ ।
मुक्सु मुएविणु एक्कु पर तेणवि चिंतहि सोइ ।।९।।
त्रिभुवने जीवानां अस्ति नैव सुखस्य कारणं किमपि ।
मोक्षं मुक्त्वा एकं परं तेनैव चिन्तय तमेव ।।९।।
तिहुयणि इत्यादि । तिहुयणि त्रिभुवने जीवहं जीवानां जत्थि णवि अस्ति नैव । किं
नास्ति । सोक्खहं कारणु सुखस्य कारणम् । कोइ किमपि वस्तु । किं कृत्वा । मुक्सु मुएविणु
एक्कु मोक्षं मुक्त्वेकं पर नियमेन तेणवि तेनैव कारणेन चिंतहि चिंतय सोइ तमेव मोक्षमिति ।
तथाहि । त्रिभुवनेऽपि मोक्षं मुक्त्वा निरन्तरातिशयसुखकारणमन्यत्पञ्चेन्द्रियविषयानुभवरूपं
किमपि नास्ति तेन कारणेन हे प्रभाकरभट्ट वीतरागनिर्विकल्पपरमसामायिके स्थित्वा
गाथा – ९
अन्वयार्थ : — [त्रिभुवने ] तीन लोकमें [जीवानां ] जीवोंको [मोक्षं मुक्त्वा ] मोक्षके
सिवाय [किमपि ] कोई भी वस्तु [सुखस्य कारणं ] सुखका कारण [नैव ] नहीं [अस्ति ] है,
एक सुखका कारण मोक्ष ही है [तेन ] इस कारण तू [परं एकं तम् एव ] नियमसे एक
मोक्षका ही [विचिंतय ] चिंतवन कर जिसे कि महामुनि भी चिंतवन करते हैं ।
भावार्थ : — श्रीयोगींद्राचार्य प्रभाकरभट्टसे कहते हैं कि वत्स; मोक्षके सिवाय अन्य
सुखका कारण नहीं है, और आत्म – ध्यानके सिवाय अन्य मोक्षका कारण नहीं है, इसलिये तू
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिमें ठहरकर निज शुद्धात्म स्वभावको ही ध्या । यह श्रीगुरुने आज्ञा की ।
तब प्रभाकरभट्टने बिनती की, हे भगवन्; तुमने निरंतर अतींद्रीय मोक्ष – सुखका वर्णन किया है,
सो ये जगतके प्राणी अतींद्रिय सुखको जानते ही नहीं हैं, इंद्रिय सुखको ही सुख मानते हैं ।
तब गुरुने कहा कि हे प्रभाकरभट्ट; कोई एक पुरुष जिसका चित्त व्याकुलता रहित है, पंचेन्द्रियके
भावार्थः — श्री योगीन्द्राचार्य प्रभाकर भट्टने कहे छे के हे शिष्य! त्रण लोकमां पण
मोक्ष सिवाय पंचेन्द्रियना विषयना अनुभवरूप बीजुं कोई पण निरंतर अतिशय सुखनुं कारण
नथी, तेथी हे प्रभाकरभट्ट! तुं वीतराग निर्विकल्प परम सामायिकमां स्थित थईने निज
शुद्धात्मस्वभावने ध्याव.
अहीं, प्रभाकरभट्ट पूछे छे के हे भगवान! आप अतीन्द्रिय मोक्षसुखनुं निरंतर वर्णन
करो छो, परंतु ते सुखने जगतना जीवो जाणता नथी. (तो ते सुखनी अन्य जीवोने प्रतीति
शी रीते थाय?)
२१४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-९