निजशुद्धात्मस्वभावं ध्याय त्वमिति । अत्राह प्रभाकरभट्टः हे भगवन्नतींन्द्रियमोक्षसुखं निरन्तरं
वर्ण्यते भवद्भिस्तच्च न ज्ञायते जनैः । भगवानाह हे प्रभाकरभट्ट कोऽपि पुरुषो निर्व्याकुलचित्तः
प्रस्तावे पञ्चेन्द्रियभोगसेवारहितस्तिष्ठति स केनापि देवदत्तेन पृष्टः सुखेन स्थितो भवान् । तेनोक्तं
सुखमस्तीति तत्सुखमात्मोत्थम् । कस्मादिति चेत् । तत्काले स्त्रीसेवादिस्पर्शविषयो नास्ति
भोजनादिजिह्वेन्द्रियविषयो नास्ति विशिष्टरूपगन्धमाल्यादिघ्राणेन्द्रियविषयो नास्ति दिव्यस्त्री-
रूपावलोकनादिलोचनविषयो नास्ति श्रवणरमणीयगीतवाद्यादिशब्दविषयोऽपि नास्तीति तस्मात्
ज्ञायते तत्सुखमात्मोत्थमिति । किं च । एकदेशविषयव्यापाररहितानां तदेकदेशेनात्मोत्थसुख-
मुपलभ्यते वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानरतानां पुनर्निरवशेषपञ्चेन्द्रियविषयमानसविकल्पजाल-
निरोधे सति विशेषेणोपलभ्यते । इदं तावत् स्वसंवेदनप्रत्यक्षगम्यं सिद्धात्मनां च सुखं
पुनरनुमानगम्यम् । तथाहि । मुक्तात्मनां शरीरेन्द्रियविषयव्यापाराभावेऽपि सुखमस्तीति साध्यम् ।
कस्माद्धेतोः इदानीं पुनर्वीतरागनिर्विकल्पसमाधिस्थानां परमयोगिनां पञ्चेन्द्रियविषय-
भोगोंसे रहित अकेला स्थित है, उस समय किसी पुरुषने पूछा कि तुम सुखी हो । तब उसने
कहा कि सुखसे तिष्ट रहे हैं, उस समय पर विषय – सेवनादि सुख तो है ही नहीं, उसने यह
क्यों कहा कि हम सुखी हैं । इसलिए यह मालूम होता है, सुख नाम व्याकुलता रहितका है,
सुखका मूल निर्व्याकुलपना है, वह निर्व्याकुल अवस्था आत्मामें ही है, विषय – सेवनमें नहीं ।
भोजनादि जिह्वा इंद्रियका विषय भी उस समय नहीं है, स्त्रीसेवनादि स्पर्शका विषय नहीं है,
और गंधमाल्यादिक नाकका विषय भी नहीं है, दिव्य स्त्रियोंका रूप अवलोकनादि नेत्रका विषय
भी नहीं, और कानोंका मनोज्ञ गीत वादित्रादि शब्द विषय भी नहीं हैं, इसलिये जानते हैं कि
सुख आत्मामें ही है । ऐसा तू निश्चय कर, जो एकादेश विषय – व्यापारसे रहित हैं, उनके एकोदेश
थिरताका सुख है, तो वीतराग निर्विकल्पस्वसंवेदन ज्ञानियोंके समस्त पंच इंद्रियोंके विषय और
त्यारे भगवान श्रीगुरु कहे छे के – हे प्रभाकरभट्ट! कोई पण पुरुष निर्व्याकुळ चित्तवाळो
थईने पंचेन्द्रिय भोगना सेवनथी रहित एकलो आराममां बेठो छे, ते वखते कोई देवदत्त नामना
पुरुषे तेने पूछ्युं के ‘तमे आनंदमां छो ने? त्यारे तेणे कह्युं के ‘आनंद वर्ते छे’ ते सुख आत्माथी
उत्पन्न थयुं छे. जो तमे कहो के शा माटे? तो तेनो उत्तर ए छे के ते समये स्त्रीसेवनादि
स्पर्शनो विषय नथी, भोजनादि जिह्वा-इन्द्रियनो विषय नथी, विशिष्टरूप गंधमाळादि घ्राणेन्द्रियनो
विषय नथी, दिव्य स्त्री-पुरुषनां अवलोकनादि नेत्रनो विषय नथी, कर्णने प्रिय गीत वाद्यादि
शब्दनो विषय नथी, तेथी एम जणाय छे के ते सुख आत्माथी उत्पन्न थयुं छे.
हवे, विशेष कहेवामां आवे छे एकदेशविषयव्यापार रहित जीवोने ते एकदेश आत्माथी
उत्पन्न सुख प्राप्त थाय छे अने वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनरूप ज्ञानमां रत जीवोने समस्त
अधिकार-२ः दोहा-९ ]परमात्मप्रकाशः [ २१५