Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration).

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व्यापाराभावेऽपि स्वात्मोत्थवीतराग परमानन्दसुखोपलब्धिरिति अत्रेत्थंभूतं सुखमेवोपादेयमिति
भावार्थः तथागमे चोक्त मात्मोत्थमतीन्द्रियसुखम्‘‘अइसयमादसमुत्थं विसयातीदं
अणोवममणंतं अव्वुच्छिण्णं च सुहं सुद्धुवओगप्पसिद्धाणं ।।’’ ।।९।।
मनके विकल्पजालोंकी रुकावट होने पर विशेषतासे निर्व्याकुल सुख उपजता है इसलिये
ये दो बातें प्रत्यक्ष ही दृष्टि पड़ती हैं जो पुरुष निरोग और चिंता रहित हैं, उनके विषयसामग्रीके
बिना ही सुख भासता है, और जो महामुनि शुद्धोपयोग अवस्थामें ध्यानारूढ़ हैं, उनके
निर्व्याकुलता प्रगट ही दिख रही है, वे इंद्रादिक देवोंसे भी अधिक सुखी हैं
इस कारण जब
संसार अवस्थामें ही सुखका मूल निर्व्याकुलता दीखती है, तो सिद्धोंके सुखकी बात ही क्या
है ? यद्यपि वे सिद्ध दृष्टिगोचर नहीं हैं, तो भी अनुमान कर ऐसा जाना जाता है, कि सिद्धोंके
भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म नहीं, तथा विषयोंकी प्रवृत्ति नहीं है, कोई भी विकल्प
जाल नहीं
है, केवल अतींद्रिय आत्मीकसुख ही है, वही सुख उपादेय है, अन्य सुख सब दुःस्वरूप
ही हैं जो चारों गतियोंकी पर्यायें हैं, उनमें कदापि सुख नहीं है सुख तो सिद्धोंके है, या
महामुनीश्वरोंके सुखका लेशमात्र देखा जाता है, दूसरेके जगतकी विषयवासनाओंमें सुख नहीं
है ऐसा ही कथन श्रीप्रवचनसारमें किया है ‘‘अइसय’’ इत्यादि सारांश यह है, कि जो
शुद्धोपयोगकर प्रसिद्ध ऐसे श्रीसिद्धपरमेष्ठी हैं, उनके अतींद्रिय सुख है, वह सर्वोत्कृष्ट है, और
आत्मजनित है, तथा विषय
वासनासे रहित है, अनुपम है, जिसके समान सुख तीन लोकमें
भी नहीं है, जिसका पार नहीं ऐसा बाधारहित सुख सिद्धोंके है ।।९।।
पंचेन्द्रियविषय अने मनना विकल्पजाळनो निरोध थतां, विशेषपणे आत्माथी उत्पन्न सुख प्राप्त
थाय छे. आ सुख तो स्वसंवेदनप्रत्यक्षथी गम्य छे अने सिद्धोनुं सुख तो अनुमानथी पण
जणाय छे. ते आ प्रमाणेः
मुक्त आत्माने शरीर अने इन्द्रियना विषयना व्यापारनो
अभाव होवा छतां, सुख छे ए साध्य छे. तेनो हेतु ए छे के अहीं वीतराग निर्विकल्प
समाधिस्थ परमयोगीओने, पंचेन्द्रिविषय व्यापारनो अभाव होवा छतां पण, पोताना आत्माथी
उत्पन्न वीतराग परमानंदरूप सुखनी उपलब्धि होय छे.
अहीं, आवुं सुख ज उपादेय छे एवो भावार्थ छे. वळी आगम (श्री प्रवचनसार-१-
१३)मां आत्माथी उत्पन्न अतीन्द्रिय सुखनुं स्वरूप पण कह्युं छे केः
‘‘अइसयमादसमुत्थं विषयातीदं अणोवममणंतं
अव्वुच्छिण्णं च सुहं सुद्धुवओगप्पसिद्धाणं ।।’’
(अर्थःशुद्धोपयोगथी निष्पन्न थयेला आत्माओनुं (केवळी भगवंतोनुं अने सिद्ध
भगवंतोनुं) सुख अतिशय, आत्मोत्पन्न, विषयातीत (अतीन्द्रिय), अनुपम (उपमा विनानुं)
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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-९