आत्मना कृत्वा पश्यति निर्विकल्परूपेणावलोक यति । अथवा तत्त्वार्थश्रद्धानापेक्षया चलमलिनागाढ-
परिहारेण शुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपेण निश्चिनोति न केवलं निश्चिनोति वीतरागस्वसंवेदन-
लक्षणाभेदज्ञानेन जानाति परिच्छिनत्ति । न केवलं परिच्छिनत्ति । अनुचरति रागादिसमस्त-
विकल्पत्यागेन तत्रैव निजस्वरूपे स्थिरीभवतीति स निश्चयरत्नत्रयपरिणतः पुरुष एव
निश्चयमोक्षमार्गो भवतीति । अत्राह प्रभाकरभट्टः । तत्त्वार्थश्रद्धानरुचिरूपं सम्यग्दर्शनं मोक्षमार्गो
भवति नास्ति दोषः, पश्यति निर्विकल्परूपेणावलोकयति इत्येवं यदुक्तं तत्सत्तावलोकदर्शनं कथं
मोक्षमार्गो भवति यदि भवति चेत्तर्हि तत्सत्तावलोकदर्शनमभव्यानामपि विद्यते तेषामपि मोक्षो
१
भवति स चागमविरोधः इति । परिहारमाह । तेषां निर्विकल्पसत्तावलोकदर्शनं बहिर्विषये विद्यते
न चाभ्यन्तरशुद्धात्मतत्त्वविषये । कस्मादिति चेत् । तेषामभव्यानां मिथ्यात्वादिसप्त-
प्रकृत्युपशमक्षयोपशमक्षयाभावात् शुद्धात्मोपादेय इति रुचिरूपं सम्यग्दर्शनमेव नास्ति
प्रश्न किया कि हे प्रभो; तत्त्वार्थश्रद्धान रुचिरूप सम्यग्दर्शन वह मोक्षका मार्ग है, इसमें तो दोष
नहीं और तुमने कहा कि जो देखे वह दर्शन, जानें वह ज्ञान, और आचरण करे वह चारित्र
है । सो यह देखनेरूप दर्शन कैसे मोक्षका मार्ग हो सकता है ? और जो कभी देखनेका नाम
दर्शन कहो तो देखना अभव्यको भी होता है, उसके मोक्ष – मार्ग तो नहीं माना है ? यदि
अभव्यके मोक्ष – मार्ग होवे, तो आगमसे विरोध आवे । आगममें तो यह निश्चय है कि
अभव्यको मोक्ष नहीं होता । उसका समाधान यह है कि अभव्योंके देखनेरूप जो दर्शन है,
वह बाह्यपदार्थोंका है, अंतरंग शुद्धात्मतत्त्वका दर्शन तो अभव्योंके नहीं होता, उसके मिथ्यात्व
आदि सात प्रकृतियोंका उपशम क्षयोपशम क्षय नहीं है, तथा शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसी
एवुं कथन सांभळीने अहीं प्रभाकरभट्ट पूछे छे के-हे प्रभु! तत्त्वार्थश्रद्धानरुचिरूप
सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग छे, एमां तो दोष नथी. (ए तो बराबर छे.) पण ‘देखे छे-निर्विकल्परूपे
अवलोके छे ते दर्शन’ ए प्रमाणे आपे जे कह्युं ते सत्तावलोकनरूप दर्शन केवी रीते मोक्षनुं कारण
थाय? जो आप कहेशो के तेवुं देखवारूप दर्शन मोक्षनुं कारण थाय तो ते सत्तावलोकनदर्शन
अभव्योने पण वर्ते छे, तो तेमनो पण मोक्ष थाय. पण अभव्यनो मोक्ष थाय तो आगमनो
विरोध आवे छे.
तेनो परिहारः — अभव्योने निर्विकल्पसत्तावलोकनदर्शन बहारना विषयमां वर्ते छे, पण
अंतरंग शुद्धात्मतत्त्वना विषयमां वर्ततुं नथी, (अभव्योने जे देखवारूप दर्शन छे ते बाह्यपदार्थोनुं
छे, अंतरंग शुद्धात्मतत्त्वनुं दर्शन तो अभव्योने होतुं नथी.) तमे कहेशो के केम? तो तेनुं
समाधाानः — ते अभव्योने मिथ्यात्वादि सात प्रकृतिनो उपशम, क्षयोपशम अने क्षयनो अभाव
१ पाठान्तरः — भवति=भवतु
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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१३