चारित्रमोहोदयात् पुनर्वीतरागचारित्ररूपं निर्विकल्पशुद्धात्म सत्तावलोकनमपि न संभवतीति
भावार्थः । निश्चयेनाभेदरत्नत्रयपरिणतो निजशुद्धात्मैव मोक्षमार्गो भवतीत्यस्मिन्नर्थे संवाद-
गाथामाह — ‘‘रयणत्तयं ण वट्टइ अप्पाणं मुइत्तु अण्णदवियम्हि । तम्हा तत्तियमइओ होदि हु
मोक्खस्स कारणं आदा ।।’’ ।।१३।।
अथ भेदरत्नत्रयात्मकं व्यवहारमोक्षमार्गं दर्शयति —
१४०) जं बोल्लइ ववहारु-णउ दंसणु णाणु चरित्तु ।
तं परियाणहि जीव तुहुँ जेँ परु होहि पवित्तु ।।१४।।
यद् ब्रूते व्यवहारनयः दर्शनं ज्ञानं चारित्रम् ।
तत् परिजानीहि जीव त्वं येन परः भवसि पवित्रः ।।१४।।
रुचिरूप सम्यग्दर्शन भी उसके नहीं है, और चारित्रमोहके उदयसे वीतराग चारित्ररूप निर्विकल्प
शुद्धात्माका सत्तावलोकन भी उसके कभी नहीं है । तात्पर्य यह है, निश्चयकर अभेदरत्नत्रयको
परिणत हुआ निज शुद्धात्मा ही मोक्षका मार्ग है । ऐसी ही द्रव्यसंग्रहमें साक्षीभूत गाथा कही
है । ‘‘रयणत्तयं’’ इत्यादि । उसका अर्थ ऐसा है कि रत्नत्रय आत्माको छोड़कर अन्य (दूसरी)
द्रव्योंमें नहीं रहता, इसलिये मोक्षका कारण उन तीनमयी निज आत्मा ही है ।।१३।।
आगे भेदरत्नत्रयस्वरूप – व्यवहार वह परम्पराय मोक्षका मार्ग है, ऐसा दिखलाते हैं । —
गाथा – १४
अन्वयार्थ : — [जीव ] हे जीव, [व्यवहारनयः ] व्यवहारनय [यत् ] जो [दर्शनं ज्ञानं
होवाथी ‘एक शुद्धात्मा ज उपादेय छे’ एवुं रुचिरूप सम्यग्दर्शन ज होतुं नथी, अने
चारित्रमोहना उदयथी वीतरागचारित्ररूप निर्विकल्प शुद्धात्मसत्तावलोकन पण तेने संभवतुं नथी,
एवो भावार्थ छे.
निश्चयनयथी अभेदरत्नत्रय परिणत निजशुद्धात्मा ज मोक्षमार्ग छे एवा अर्थना संवादनी
गाथा (द्रव्यसंग्रहनी गाथा ४०) कहे छे के – ‘‘रयणत्तयं ण वट्टइ अप्पाणं भुइत्तु अण्णदवियम्हि । तम्हा
तत्तियमइओ होदि हु मोक्खस्स कारणं आदा ।।’’ (अर्थ : — आत्मा सिवाय अन्य द्रव्यमां रत्नत्रय
रहेतां नथी ते कारणे रत्नत्रयमयी आत्मा ज खरेखर मोक्षनुं कारण छे.) १३.
हवे, भेदरत्नत्रयात्मक व्यवहारमोक्षमार्गने दर्शावे छेः —
अधिकार-२ः दोहा-१४ ]परमात्मप्रकाशः [ २२३