२५८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-२८
पुनर्यद्यपि गुरुशिष्यादिरूपेण परस्परोग्रहं करोति तथापि पुद्गलादिपञ्चद्रव्याणां किमपि न
करोतीत्यकारणम् । ‘कत्ता’ शुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन यद्यपि बन्ध-
मोक्षद्रव्यभावरूप पुण्यपापघटपटादीनामकर्ता जीवस्तथाप्यशुद्धनिश्चयेन शुभाशुभोपयोगाभ्यां
परिणतः सन् पुण्यपापबन्धयोः कर्ता तत्फलभोक्ता च भवति विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिज-
शुद्धात्मद्रव्यसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपेण शुद्धोपयोगेन १
तत्परिणतः सन् मोक्षस्यापि कर्ता
तत्फलभोक्ता च । शुभाशुभशुद्धपरिणामानां परिणमनमेव कर्तृत्वम् सर्वत्र ज्ञातव्यमिति ।
पुद्गलादिपञ्चद्रव्याणां च स्वकीयस्वकीयपरिणामेन परिणमनमेव कर्तृत्वम् । वस्तुवृत्त्या पुनः
पुण्यपापादिरूपेणाकर्तृत्वमेव । ‘सव्वगदं’ लोकालोकव्याप्त्यपेक्षया सर्वगतमाकाशं भण्यते धर्माधर्मौ
कार्यो करे छे तेथी कारणो छे, ज्यारे जीवद्रव्य तो जोके गुरुशिष्यादिरूपे परस्पर उपकार करे
छे तोपण – पुद्गलादि पांच द्रव्योनुं कांई पण करतो नथी, तेथी जीव अकारण छे.
(१०) ‘कत्ताकत्ता’ जीव शुद्धपारिणामिक परमभावग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिकनयथी – जोके
बंधमोक्षनो, द्रव्यभावरूप पुण्य-पापनो अने घट पट आदिनो अकर्ता छे तोपण
अशुद्धनिश्चयनयथी शुभाशुभ उपयोगरूपे परिणमतो थको पुण्य-पापबंधनो कर्ता अने तेनां फळनो
भोक्ता छे. अने विशुद्धज्ञान-विशुद्धदर्शन जेनो स्वभाव छे एवा निजशुद्धात्मद्रव्यना
सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान, सम्यग् अनुष्ठानरूप शुद्धोपयोग वडे ते-रूपे परिणमतो थको मोक्षनो
पण कर्ता छे अने तेना फळनो भोक्ता छे. शुभ, अशुभ, शुद्धपरिणामोरूपे परिणमवुं ते ज
कर्तापणुं सर्वत्र जाणवुं अने पुद्गलादि पांचद्रव्योने पोतपोताना परिणामरूप परिणमवुं ते ज
कर्तापणुं छे अने वस्तुद्रष्टिथी तो पुण्य-पाप आदिरूपे कर्तापणुं नथी ज.
(११) ‘सव्वगदंसव्वगदं’ आकाश लोकालोकमां व्यापवानी अपेक्षाए, सर्वगत छे, अने
धर्मद्रव्य तथा अधर्मद्रव्य, लोकमां व्यापवानी अपेक्षाए सर्वगत छे. वळी जीवद्रव्य एक एक
उनके फलका भोक्ता होता है, तथा विशुद्ध ज्ञान दर्शनरूप निज शुद्धात्मद्रव्यका श्रद्धान ज्ञान
आचरणरूप शुद्धोपयोगकर परिणत हुआ मोक्षका भी कर्ता होता है, और अनंतसुखका भोक्ता
होता है । इसलिये जीवको कर्ता भी कहा जाता है, और भोक्ता भी कहा जाता है । शुभ, अशुभ,
शुद्ध परिणमन ही सब जगह कर्तापना है, और पुद्गलादि पाँच द्रव्योंको अपने अपने परिणामरूप
जो परिणमन वही कर्तापना है, पुण्य पापादिका कर्तापना नहीं है, सर्वगतपना लोकालोक
व्यापकताकी अपेक्षा आकाश ही में है, धर्मद्रव्य-अधर्मद्रव्य ये दोनों लोकाकाशव्यापी हैं,
अलोकमें नहीं है, और जीवद्रव्यमें एक जीवकी अपेक्षा केवलसमुद्घातमें लोकपूरण अवस्थामें
लोकमें सर्वगतपना है, तथा नाना जीवकी अपेक्षा सर्वगतपना नहीं है, पुद्गलद्रव्य लोकप्रमाण
१. पाठान्तरः — तत्परिणतः = तु परिणतः