अधिकार-२ः दोहा-२८ ]परमात्मप्रकाशः [ २५९
च लोकव्याप्त्यपेक्षया जीवद्रव्यं तु पुनरेकैकजीवापेक्षया लोकपूरणावस्थां विहायासर्वगतंनाना-
जीवापेक्षया सर्वगतमेव भवतीति । पुद्गलद्रव्यं पुनर्लोकरूपमहास्कन्धापेक्षया सर्वगतं
शेषपुद्गलापेक्षया सर्वगतं न भवतीति । कालद्रव्यं पुनरेककालाणुद्रव्यापेक्षया सर्वगतं न भवति
लोकप्रदेशप्रमाणनानाकालाणुविवक्षया लोके सर्वगतं भवति । ‘इदरम्हि यपवेसो’ यद्यपि
सर्वद्रव्याणि व्यवहारेणैकक्षेत्रावगाहेनान्योन्यानुप्रवेशेन तिष्ठन्ति तथापि निश्चयनयेन
चेतनादिस्वकीयस्वकीयस्वरूपं न त्यजन्तीति । तथा चोक्त म् — ‘‘अण्णोण्णं पविसंता दिंता
ओगासमण्णमण्णस्स । मेलंता वि य णिच्चं सगसब्भावं ण विजहंति ।।’’ । इदमत्र तात्पर्यम् ।
जीवनी अपेक्षाए केवळी समुद्घातमां लोकपूरणनी अवस्थाने छोडीने असर्वगत छे, अनेक
जीवनी अपेक्षाए, सर्वगत ज छे. वळी पुद्गलद्रव्य लोकरूप महास्कंधनी अपेक्षाए सर्वगत
छे, बाकीना पुद्गलनी अपेक्षाए सर्वगत नथी, वळी काळद्रव्य एक एक काळाणुद्रव्यनी अपेक्षाए
सर्वगत नथी, लोकना प्रदेशो जेटला अनेक काळाणुनी विवक्षाथी लोकमां सर्वगत छे.
(१२) ‘इदरम्हि यपवेसोइदरम्हि यपवेसो’ जोके सर्व द्रव्यो व्यवहारनयथी एकक्षेत्रावगाहे-करीने एक
बीजामां प्रवेशीने रहे छे तोपण निश्चयनयथी चेतनादि पोतपोतानुं स्वरूप छोडतां नथी. (श्री
पंचास्तिकाय गाथा ७मां) कह्युं पण छे के ‘‘अण्णोण्णं पविसंता दिंता ओगासमण्णस्स । मेलंता वि
य णिच्चं सगं सब्भावं ण विजहंति ।। (अर्थः — तेओ ( – छए द्रव्यो) एक बीजामां प्रवेश करे छे,
अन्योन्य अवकाश आपे छे परस्पर (क्षीर नीरवत्) मळी जाय छे तोपण सदा पोतपोताना
स्वभावने छोडतां नथी.)
महास्कंधकी अपेक्षा सर्वगत है, अन्य पुद्गलकी अपेक्षा सर्वगत नहीं है, कालद्रव्य एक
कालाणुकी अपेक्षा तो एकप्रदेशगत है, सर्वगत नहीं है, और नाना कालाणुकी अपेक्षा
लोकाकाशके सब प्रदेशोंमें कालाणु है, इसलिये सब कालाणुओंकी अपेक्षा सर्वगत कह सकते
हैं । इस नयविवक्षासे सर्वगतपनेका व्याख्यान किया । और मुख्यवृत्तिसे विचारा जावे, तो
सर्वगतपना आकाशमें ही है, अथवा ज्ञानकी अपेक्षा जीवमें भी है, जीवका केवलज्ञान लोकालोक
व्यापक है, इसलिये सर्वगत कहा । ये सब द्रव्य यद्यपि व्यवहारनयकर एक क्षेत्रावगाही रहते
हैं, तो भी निश्चयनयकर अपने अपने स्वभावको नहीं छोड़ते, दूसरे द्रव्यमें जिनका प्रवेश नहीं
है, सभी द्रव्य निज निज स्वरूपमें हैं, पररूप नहीं हैं – कोई किसीका स्वभाव नहीं लेता । ऐसा
ही कथन श्रीपंचास्तिकायमें है । ‘‘अण्णोण्णं’’ इत्यादि । इसका अर्थ ऐसा है, कि यद्यपि ये छहों
द्रव्य परस्परमें प्रवेश करते हुए देखे जाते हैं, तो भी कोई किसीमें प्रवेश नहीं करता, यद्यपि
अन्यको अन्य अवकाश देता है, तो भी अपना अपना अवकाश आपमें ही है, परमें नहीं है,
यद्यपि ये द्रव्य हमेशासे मिल रहे हैं, तो भी अपने स्वभावको नहीं छोड़ते । यहाँ तात्पर्य यह