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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-२९
व्यवहारसम्यक्त्वविषयभूतेषु षड्द्रव्येषु मध्ये वीतरागचिदानन्दैकादिगुणस्वभावं शुभाशुभमनोवचन-
कायव्यापाररहितं निजशुद्धात्मद्रव्यमेवोपादेयम् ।।२८।। एवमेकोनविंशतिसूत्रप्रमितस्थले निश्चय-
व्यवहारमोक्षमार्गप्रतिपादकत्वेन पूर्वसूत्रत्रयं गतम् । इदं १पुनरन्तरं स्थलं चतुर्दशसूत्रप्रमितं
षड्द्रव्यध्येयभूतव्यवहारसम्यक्त्वव्याख्यानमुख्यत्वेन समाप्तमिति ।
अथ संशयविपर्ययानध्यवसायरहितं सम्यग्ज्ञानं प्रकटयति —
१५५) जं जह थक्कउ दव्वु जिय तं तह जाणइ जो जि ।
अप्पहं केरउ भावडउ णाणु मुणिज्जहि सो जि ।।२९।।
यद् यथा स्थितं द्रव्यं जीव तत् तथा जानाति य एव ।
आत्मनः संबन्धी भावः ज्ञानं मन्यस्व स एव ।।२९।।
अहीं, आ तात्पर्य छे के व्यवहारसम्यक्त्वनां विषयभूत छ द्रव्योमां एक (केवळ) वीतराग
चिदानंद आदि अनंतगुणस्वरूप, शुभाशुभ मन, वचन, कायाना व्यापारथी रहित एक
निजशुद्धात्मद्रव्य ज उपादेय छे. २८.
ए प्रमाणे ओगणीस गाथासूत्रोना स्थळमां निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गना कथननी मुख्यताथी
पूर्वना त्रण सूत्रो समाप्त थयां. अने आ चौद सूत्रोनुं अन्तरस्थळ, छ द्रव्यो जेनुं ध्येय छे (जेनो
विषय छे) एवा व्यवहार सम्यक्त्वनां व्याख्याननी मुख्यताथी समाप्त थयुं.
हवे संशय, विपर्यय अने अध्यवसाय रहित जे सम्यग्ज्ञान छे, तेने प्रगट करे छेः —
है, कि व्यवहारसम्यक्त्वके कारण छह द्रव्योंमें वीतराग चिदानंद अनंत गुणरूप जो शुद्धात्मा है,
वह शुभ, अशुभ, मन, वचन, कायके व्यापारसे रहित हुआ ध्यावने योग्य है ।।२८।।
इसप्रकार उन्नीस दोहोंके स्थलमें निश्चय व्यवहार मोक्षमार्गके कथनकी मुख्यतासे तीन
दोहा कहे । ऐसे चौदह दोहों तक व्यवहारसम्यक्त्वका व्याख्यान किया, जिसमें छह द्रव्योंका
श्रद्धान मुख्य है ।
आगे संशय विमोह विभ्रम रहित जो सम्यग्ज्ञान है, उसका स्वरूप प्रगट करते हैं —
गाथा – २९
अन्वयार्थ : — [जीव ] हे जीव; [यत् ] ये सब द्रव्य [यथा स्थितं ] जिस तरह
अनादिकालके तिष्ठे हुए हैं, जैसा इनका स्वरूप है, [तत् तथा ] उनको वैसा ही संशयादि
१. पाठान्तरः — पुनरन्तरं स्थलं = पुनरन्तरस्थलं