अधिकार-२ः दोहा-२९ ]परमात्मप्रकाशः [ २६१
जं इत्यादि । जं यत् जह यथा थक्कउ स्थितं दव्वु द्रव्यं जिय हे जीव तं तत् तह तथा
जाणइ जानाति जो जि य एव । य एव कः । अप्पहं केरउ भावडउ आत्मनः संबन्धी भावः
परिणामः णाणु मुणिज्जहि ज्ञानं मन्यस्व जानीहि सो जि स एव पूर्वोक्त आत्मपरिणाम इति । तथा
च यद् द्रव्यं यथा स्थितं सत्तालक्षणं उत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणं वा गुणपर्यायलक्षणं वा सप्त-
भङ्गयात्मकं वा तत् तथा जानाति य आत्मसंबन्धी स्वपरिच्छेदको भावः परिणामस्तत् सम्यग्-
ज्ञानं भवति । अयमत्र भावार्थः । व्यवहारेण सविकल्पावस्थायां तत्त्वविचारकाले स्वपरपरिच्छेदकं
ज्ञानं भण्यते । निश्चयनयेन पुनर्वीतरागनिर्विकल्पसमाधिकाले बहिरुपयोगो यद्यप्यनीहितवृत्त्या
निरस्तस्तथापीहापूर्वकविकल्पाभावाद्गौणत्वमितिकृत्वा स्वसंवेदनज्ञानमेव ज्ञानमुच्यते ।।२९।।
अथ स्वपरद्रव्यं ज्ञात्वा रागादिरूपपरद्रव्यविषयसंकल्पविकल्पत्यागेन स्वस्वरूपे अवस्थानं
भावार्थः — जे द्रव्य जेवी रीते स्थित छे तेवी रीते अर्थात् जे सत्तास्वरूप छे,
उत्पादव्ययध्रौव्यस्वरूप छे अथवा गुणपर्यायस्वरूप छे अथवा सप्त भंगीस्वरूप छे तेवी रीते तेने
जे आत्मानो स्व-परपरिच्छेदक भाव-परिणाम-जाणे छे, ते सम्यग्ज्ञान छे.
अहीं, ए भावार्थ छे के व्यवहारनयथी सविकल्प-अवस्थामां तत्त्वना विचारकाळे
स्वपरिच्छेदक ज्ञानने ज्ञान कहेवामां आवे छे; अने निश्चयनयथी वीतरागनिर्विकल्प समाधिना
काळे, जोके बहिर उपयोग अनीहित छे खरो तोपण इहापूर्वक विकल्पनो अभाव होवाने लीधे
तेनुं गौणपणुं होवाथी स्वसंवेदनज्ञानने ज ज्ञान कहेवामां आवे छे. २९.
हवे, स्व-परद्रव्यने जाणीने रागादिरूप जे परद्रव्यना संकल्प-विकल्पनो त्याग करीने
रहित [य एव जानाति ] जो जानता है, [स एव ] वही [आत्मनः संबंधी भावः ] आत्माका
निजस्वरूप [ज्ञानं ] सम्यग्ज्ञान है, ऐसा [मन्यस्व ] तू मान ।
भावार्थ : — जो द्रव्य है, वह सत्ता लक्षण है, उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप है, और सभी
द्रव्य गुण पर्यायको धारण करते हैं, गुण पर्यायके बिना कोई नहीं हैं । अथवा सब ही द्रव्य
सप्तभंगीस्वरूप हैं, ऐसा द्रव्योंका स्वरूप जो निःसंदेह जाने, आप और परको पहचाने, ऐसा
जो आत्माका भाव (परिणाम) वह सम्यग्ज्ञान है । सारांश यह है, कि व्यवहारनयकर विकल्प
सहित अवस्थामें तत्त्वके विचारके समय आप और परका जानपना ज्ञान कहा है, और
निश्चयनयकर वीतराग निर्विकल्प समाधिसमय पदार्थोंका जानपना मुख्य नहीं लिया, केवल
स्वसंवेदनज्ञान ही निश्चयसम्यग्ज्ञान है । व्यवहारसम्यग्ज्ञान तो परम्पराय मोक्षका कारण है, और
निश्चयसम्यग्ज्ञान साक्षात् मोक्षका कारण है ।।२९।।
आगे निज और परद्रव्यको जानकर रागादिरूप जो परद्रव्यमें संकल्प-विकल्प हैं, उनके