अधिकार-२ः दोहा-३३ ]परमात्मप्रकाशः [ २६९
स्वसंवेदनपरिणामः तस्य भावस्य परमाणुशब्देन सूक्ष्मावस्था ग्राह्या । सूक्ष्मा कथमिति चेत् ।
वीतरागनिर्विकल्पसमरसीभावविषयत्वेन पञ्चेन्द्रियमनोविषयातीतत्वादिति । पुनरप्याह । इदं
परद्रव्यावलम्बनं ध्यानं निषिद्धं किल भवद्भिः निजशुद्धात्मध्यानेनैव मोक्षः १कुत्रापि भणितमास्ते ।
परिहारमाह — ‘अप्पा झायहि णिम्मलउ’ इत्यत्रैव ग्रन्थे निरन्तरं भणितमास्ते, ग्रन्थान्तरे च
समाधिशतकादौ पुनश्चोक्तं तैरेव पूज्यपादस्वामिभिः — ‘‘आत्मानमात्मा आत्मन्येवात्मनासौ
क्षणमुपजनयन् स स्वयंभूः प्रवृत्तः’’ अस्यार्थः । आत्मानं कर्मतापन्नं आत्मा कर्ता
अतीत होवाथी तेने सूक्ष्मपणुं होय छे.
‘भाव’ शब्दथी स्वसंवेदनपरिणाम समजवा, ते भावनी ‘परमाणु’ शब्दथी सूक्ष्म अवस्था
समजवी.
शंका : — ते (सूक्ष्म अवस्था) सूक्ष्म कई रीते छे?
तेनुं समाधाान : — वीतराग निर्विकल्प समरसीभावनो विषय होवाथी अने पंचेन्द्रिय,
मनना विषयथी रहित होवाथी तेने सूक्ष्मपणुं छे. शिष्य फरी पूछे छे के खरेखर आपे आ
परद्रव्यना आलंबनरूप ध्याननो निषेध कर्यो ने निजशुद्धात्माना ध्यानथी ज मोक्ष छे एम कह्युं,
तो आवुं कथन क्यां कहेल छे?
तेनो परिहार कहे छे ‘अप्पा झायहि णिम्मलउ’
(अर्थः — निर्मळ आत्मानुं ध्यान करो) एवुं कथन आ ग्रंथमां ज निरंतर कहेता आव्या
छीए. ते ज पूज्यपादस्वामीए समाधिशतकना प्रारंभमां कह्युं छे के ‘‘आत्मानमात्मा
आत्मन्येवात्मनासौ क्षणमुपजनयन् स स्वयंभूः प्रवृत्तः’’ १तेनो अर्थः — पोते पोताने पोतामां पोताथी
भी परमसूक्ष्म हैं, वीतराग निर्विकल्प परमसमरसीभावरूप हैं, वहाँ मन और इन्द्रियोंको गम्य
नहीं हैं, इसलिये सूक्ष्म है । ऐसा कथन सुनकर फि र शिष्यने पूछा, कि तुमने परद्रव्यके
आलम्बनरूप ध्यानका निषेध किया, और निज शुद्धात्माके ध्यानसे ही मोक्ष कहा । ऐसा कथन
किस जगह कहा है ? इसका समाधान यह है — ‘‘अप्पा झायहि णिम्मलउ’’ निर्मल आत्माको
ध्यावो, ऐसा कथन इस ही ग्रंथमें पहले कहा है, और समाधिशतकमें भी श्रीपूज्यपादस्वामीने
कहा है ‘‘आत्मानम्’’ इत्यादि । अर्थात् जीवपदार्थ अपने स्वरूपको अपनेमें ही अपने करके
१पाठान्तरः — कुत्रापि=कुत्र
२. आत्मा कर्तापणे आत्मस्वरूप अधिकरणमां आत्मारूप करण वडे (साधन वडे) आत्मारूप कर्मने
क्षण – अन्तर्मुहूर्तमात्र उपजावतो थको – निर्विकल्प समाधि वडे आराधतो थको स्वयमेव ज सर्वज्ञ
थाय छे.