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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-३३
आत्मन्येवाधिकरणभूते असौ पूर्वोक्तात्मा आत्मना करणभूतेन क्षणमन्तर्मुहूर्तमात्रं उपजनयन्
निर्विकल्पसमाधिनाराधयन् स स्वयंभूः प्रवृत्तः सर्वज्ञो जात इत्यर्थः । ये च तत्र
द्रव्यभावपरमाणुध्येयलक्षणे शुक्लध्याने द्वयाधिकचत्वारिंशद्विकल्पा भणितास्तिष्ठन्ति ते
पुनरनीहितवृत्त्या ग्राह्याः । केन द्रष्टान्तेनेति चेत् । यथा प्रथमौपशमिकसम्यक्त्वग्रहणकाले
परमागमप्रसिद्धाधःप्रवृत्तिकरणादिविकल्पान् जीवः करोति न चात्रेहादिपूर्वकत्वेन स्मरणमस्ति
तथात्र शुक्लध्याने चेति । इदमत्र तात्पर्यम् । प्राथमिकानां चित्तस्थितिकरणार्थं विषय-
कषायदुर्ध्यानवञ्चनार्थं च परंपरया मुक्ति कारणमर्हदादिपरद्रव्यं ध्येयम्, पश्चात् चित्ते स्थिरीभूते
साक्षान्मुक्ति कारणं स्वशुद्धात्मतत्त्वमेव ध्येयं नास्त्येकान्तः, एवं साध्यसाधकभावं ज्ञात्वा ध्येयविषये
अन्तर्मुहूर्तमात्र निर्विकल्प समाधि वडे आराधतो थको स्वयंभू थाय छे — सर्वज्ञ थाय छे.
द्रव्यभावपरमाणुं (द्रव्यसूक्ष्मपणुं अने भावसूक्ष्मपणुं) ध्येयस्वरूपे होय छे एवा शुक्लध्यानमां
सिद्धांतमां जे बेतालीश भेदो कह्या छे ते पण अनीहित वृत्तिथी समजवा. क्या द्रष्टांतथी? एवा
प्रश्नना उत्तरमां तेनुं द्रष्टांत आपवामां आवे छे.
जेवी रीते प्रथम औपशमिक सम्यक्त्वना ग्रहण समये परमागममां प्रसिद्ध
अधःप्रवृत्तिकरणादि भेदोने जीव करे छे पण अहीं इहाआदिपूर्वकपणाथी होतुं नथी, तेवी रीते
अहीं शुक्लध्यानमां पण समजवुं.
अहीं, आ तात्पर्य छे के प्राथमिक जीवोने चित्तने स्थिर करवा माटे अने विषयकषायरूप
दुर्ध्याननी वंचनार्थे परंपराए मुक्तिनुं कारण एवुं अर्हंतादि परद्रव्य ध्याववा योग्य छे, पछी चित्त
ज्यारे स्थिर थाय त्यारे साक्षात् मुक्तिनुं कारण एवुं स्वशुद्धात्मतत्त्व ज ध्याववा योग्य छे, त्यां
एक क्षणमात्र भी निर्विकल्प समाधिकर आराधता हुआ वह सर्वज्ञ वीतराग हो जाता है । जिस
शुक्लध्यानमें द्रव्यपरमाणुकी सूक्ष्मता और भावपरमाणुकी सूक्ष्मता ध्यान करने योग्य है, ऐसे
शुक्लध्यानमें निजवस्तु और निजभावका ही सहारा है, परवस्तुका नहीं । सिद्धान्तमें
शुक्लध्यानके ब्यालीस भेद कहे हैं, वे अवाँछीक वृत्तिसे गौणरूप जानना, मुख्य वृत्तिसे न
जानना । उसका दृष्टांत — जैसे उपशमसम्यक्त्वके ग्रहणके समय परमागममें प्रसिद्ध जो
अधःकरणादि भेद हैं, उनको जीव करता है, वे वाँछापूर्वक नहीं होते, सहज ही होते हैं, वैसे
ही शुक्लध्यानमें भी ऐसे ही जानना । तात्पर्य यह है कि प्रथम अवस्थामें चित्तके थिर करनेके
लिए और विषयकषायरूप खोटे ध्यानके रोकनेके लिये परम्पराय मुक्तिके कारणरूप अरहंत
आदि पंचपरमेष्ठी ध्यान करने योग्य है, बादमें चित्तके स्थिर होने पर साक्षात् मुक्तिका कारण
जो निज शुद्धात्मतत्त्व है, वही ध्यावने योग्य है । इसप्रकार साध्य – साधकभावको जानकर
ध्यावने योग्य वस्तुमें विवाद नहीं करना, पंचपरमेष्ठीका ध्यान साधक है, और आत्मध्यान