अधिकार-२ः दोहा-३४ ]परमात्मप्रकाशः [ २७१
विवादो न कर्तव्यः इति ।।३३।।
अथ सामान्यग्राहकं निर्विकल्पं सत्तावलोकदर्शनं कथयति —
१६०) सयल – पयत्थहँ जं गहणु जीवहँ अग्गिमु होइ ।
वत्थु – विसेस – विवज्जयउ तं णिय – दंसणु जोइ ।।३४।।
सकलपदार्थानां यद् ग्रहणं जीवानां अग्रिमं भवति ।
वस्तुविशेषविवर्जितं तत् निजदर्शनं पश्य ।।३४।।
सयल इत्यादि । सयल-पयत्थहं सकलपदार्थानां जं गहणु यद् ग्रहणमवलोकनम् ।
कस्य । जीवहं जीवस्य अथवा बहुवचनपक्षे ‘जीवहं’ जीवानाम् । कथंभूतमवलोकनम् । अग्गिमु
अग्रिमं सविकल्पज्ञानात्पूर्वं होइ भवति । पुनरपि कथंभूतम् । वत्थु-विसेस-विवज्जियउ
एकांत नथी, ए प्रमाणे साध्यसाधकभाव जाणीने ध्येयना विषयमां विवाद करवो नहि. ३३.
हवे सामान्यनुं ग्राहक, निर्विकल्प सत्तावलोकनरूप दर्शननुं कथन करे छेः —
भावार्थः — शंका : — अही प्रभाकरभट्ट पूछे छे के निज आत्मा तेनुं दर्शन-अवलोकन
ते दर्शन छे एम आपे कह्युं, आ सत्तावलोकनरूपदर्शन तो मिथ्याद्रष्टिओने पण होय छे, तेमनो
पण मोक्ष थाय.
तेनो परिहार : — चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवळदर्शनना भेदथी दर्शन चार
साध्य है, यह निःसंदेह जानना ।।३३।।
आगे सामान्य ग्राहक निर्विकल्प सत्तावलोकनरूप दर्शनको कहते हैं —
गाथा – ३४
अन्वयार्थ : — [यत् ] जो [जीवानां ] जीवोंके [अग्रिमं ] ज्ञानके पहले
[सकलपदार्थानां ] सब पदार्थोंका [वस्तुविवर्जितं ] यह सफे द है, इत्यादि भेद रहित [ग्रहणं ]
सामान्यरूप देखना, [तत् ] वह [निजदर्शनं ] दर्शन है, [पश्य ] उसको तू जान ।
भावार्थ : — यहाँ प्रभाकरभट्ट पूछता है, कि आपने जो कहा कि निजात्माका देखना
वह दर्शन है, ऐसा बहुत बार तुमने कहा है, अब सामान्य अवलोकनरूप दर्शन कहते हैं । ऐसा
दर्शन तो मिथ्यादृष्टियोंके भी होता है, उनको भी मोक्ष कहनी चाहिये ? इसका समाधान —
चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन ये दर्शनके चार भेद हैं । इन चारोंमें मनकर