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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-३४
वस्तुविशेषविवर्जितं शुक्लमिदमित्यादिविकल्परहितं तं तत्पूर्वोक्त लक्षणं णिय-दंसणु निज आत्मा
तस्य दर्शनमवलोकनं जोइ पश्य जानीहीति । अत्राह प्रभाकरभट्टः । निजात्मा तस्य
दर्शनमवलोकनं दर्शनमिति व्याख्यातं भवद्भिरिदं तु सत्तावलोकदर्शनं मिथ्याद्रष्टीनामप्यस्ति
तेषामपि मोक्षो भवतु । परिहारमाह । चक्षुरचक्षुरवधिकेवलभेदेन चतुर्धा दर्शनम् । अत्र चतुष्टयमध्ये
मानसमचक्षुर्दर्शनमात्मग्राहकं भवति, तच्च मिथ्यात्वादिसप्तप्रकृत्युपशमक्षयोपशम क्षयजनिततत्त्वार्थ-
श्रद्धानलक्षणसम्यक्त्वाभावात् शुद्धात्मतत्त्वमेवोपादेयमिति श्रद्धानाभावे सति तेषां मिथ्याद्रष्टीनां न
भवत्येवेति भावार्थः ।।३४।।
अथ छद्मस्थानां सत्तावलोकदर्शनपूर्वकं ज्ञानं भवतीति प्रतिपादयति —
१६१) दंसणपुव्वु हवेइ फु डु जं जीवहँ विण्णाणु ।
वत्थु - विसेसु मुणंतु जिय तं मुणि अविचलु णाणु ।।३५।।
प्रकारनुं छे. आ चार भेदोमां मानस-अचक्षुदर्शन (मनसंबंधी अचक्षुदर्शन) आत्मग्राहक होय
छे अने ते, मिथ्यात्वादि सात प्रकृतिओना उपशम, क्षयोपशम तथा क्षयजनित तत्त्वार्थश्रद्धानरूप
सम्यक्त्वनो अभाव होवाथी ‘शुद्धात्मतत्त्व ज उपादेय छे’ एवी श्रद्धानो अभाव होतां, ते
मिथ्याद्रष्टिओने होतुं नथी, एवो भावार्थ छे. ३४.
हवे, छद्मस्थ जीवोने सत्तावलोकनदर्शनपूर्वक ज्ञान थाय छे, एम कहे छेः —
जो देखना वह अचक्षुदर्शन है, जो आँखोंसे देखना वह चक्षुदर्शन है । इन चारोंमेंसे आत्माका
अवलोकन छद्मस्थअवस्थामें मनसे होता है और वह आत्म – दर्शन मिथ्यात्व आदि सात
प्रकृतियोंके उपशम, क्षयोपशम तथा क्षयसे होता है । सो सम्यग्दृष्टिके तो यह दर्शन
तत्त्वार्थश्रद्धानरूप होनेसे मोक्षका कारण है, जिसमें शुद आत्म - तत्त्व ही उपादेय है, और
मिथ्यादृष्टियोंके तत्त्वश्रद्धान नहीं होनेसे आत्माका दर्शन नहीं होता । मिथ्यादृष्टियोंके स्थूलरूप
परद्रव्यका देखना – जानना मन और इन्द्रियोंके द्वारा होता है, वह सम्यग्दर्शन नहीं है, इसलिए
मोक्षका कारण भी नहीं है । सारांश यह है — कि तत्त्वार्थश्रद्धानके अभावसे सम्यक्त्वका अभाव
है, और सम्यक्त्वके अभावसे मोक्षका अभाव है ।।३४।।
आगे केवलज्ञानके पहले छद्मस्थोंके पहले दर्शन होता है, उसके बाद ज्ञान होता है,
और केवली भगवान्के दर्शन और ज्ञान एक साथ ही होते हैं — आगे-पीछे नहीं होते, यह कहते
हैं —