Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration).

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अधिकार-२ः दोहा-३५ ]परमात्मप्रकाशः [ २७३
दर्शनपूर्वं भवति स्फु टं यत् जीवानां विज्ञानम्
वस्तुविशेषं जानन् जीव तत् मन्यस्व अविचलं ज्ञानम् ।।३५।।
दंसणपुव्वु इत्यादि दंसणपुव्वु सामान्यग्राहकनिर्विकल्पसत्तावलोकनदर्शनपूर्वकं हवेइ
भवति फु डु स्फु टं जं यत् जीवहं जीवानाम् किं भवति विण्णाणु विज्ञानम् किं कुर्वन्
सन् वत्थु-विसेसु मुणंतु वस्तुविशेषं वर्णसंस्थानादिविकल्पपूर्वकं जानन् जिय हे जीव तं तत्
मुणि मन्यस्व जानीहि किं जानीहि अविचलु णाणु अविचलं संशयविपर्ययानध्यवसायरहितं
ज्ञानमिति तत्रेदं दर्शनपूर्वकं ज्ञानं व्याख्यातम् यद्यपि शुद्धात्मभावनाव्याख्यानकाले प्रस्तुतं न
भवति तथापि भणितं भगवता कस्मादिति चेत् चक्षुरचक्षुरवधिकेवलभेदेन दर्शनोपयोगश्चतुर्विधो
भावार्थअहीं आ दर्शनपूर्वक ज्ञाननुं व्याख्यान करवामां आव्युं छे जोके आ
व्याख्यान शुद्ध आत्मानी भावनाना व्याख्यानकाळे प्रस्तुत नथी तोपण आपे केम कह्युं?
उत्तर :::::चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन अने केवळदर्शनना भेदथी दर्शनोपयोग
चार प्रकारनो छे. भव्य जीवने दर्शनमोह चारित्रमोहना उपशम, क्षयोपशम अने क्षय थतां
शुद्ध आत्मानी अनुभूतिरूप-रुचिरूप-वीतराग सम्यक्त्व होय छे तेम ज शुद्धात्मानी अनुभूतिमां
स्थिरतारूप वीतराग चारित्र होय छे ते काळे ते चार भेदोमां जे बीजुं मन संबंधी निर्विकल्प
-अचक्षुदर्शन छे ते मन संबंधी पूर्वोक्त सत्तावलोकनरूप निर्विकल्प दर्शन पूर्वोक्त
निश्चयसम्यक्त्व अने निश्चयचारित्रना बळथी निर्विकल्प निज शुद्ध आत्मानुभूतिरूप ध्यान वडे
गाथा३५
अन्वयार्थ :[यत् ] जो [जीवानां ] जीवोंके [विज्ञानम् ] ज्ञान है, वह [स्फु टं ]
निश्चयकरके [दर्शनपूर्वं ] दर्शनके बादमें [भवति ] होता है, [तत् ज्ञानम् ] वह ज्ञान
[वस्तुविशेषं जानन् ] वस्तुकी विस्तीर्णताको जाननेवाला है, उस ज्ञानको [जीव ] हे जीव
[अविचलं ] संशय विमोह विभ्रमसे रहित [मन्यस्व ] तू जान
भावार्थ :जो सामान्यको ग्रहण करे, विशेष न जाने, वह दर्शन है, तथा जो वस्तुका
विशेष वर्णन आकार जाने वह ज्ञान है यह दर्शन ज्ञानका व्याख्यान किया यद्यपि वह
व्यवहारसम्यग्ज्ञान शुद्धात्माकी भावनाके व्याख्यानके समय प्रशंसा योग्य नहीं है, तो भी प्रथम
अवस्थामें प्रशंसा योग्य है, ऐसा भगवानने कहा है
क्योंकि चक्षु-अचक्षु अवधि केवलके
भेदसे दर्शनोपयोग चार तरहका होता है उन चार भेदोंमें दूसरा भेद अचक्षुदर्शन मनसंबंधी
निर्विकल्प भव्यजीवोंके दर्शनमोह, चारित्रमोहके उपशम तथा क्षयके होने पर शुद्धात्मानुभूति
रुचिरूप वीतराग सम्यक्त्व होता है, और शुद्धात्मानुभूतिमें स्थिरतारूप वीतरागचारित्र होता है,