Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 36 (Adhikar 2).

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२७४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-३६
भवति तत्र चतुष्टयमध्ये द्वितीयं यदचक्षुर्दर्शनं मानसरूपं निर्विकल्पं यथा भव्यजीवस्य
दर्शनमोहचारित्रमोहोपशमक्षयोपशमक्षयलाभे सति शुद्धात्मानुभूतिरुचिरूपं वीतरागसम्यक्त्वं भवति
तथैव च शुद्धात्मानुभूतिस्थिरतालक्षणं वीतरागचारित्रं भवति तदा काले तत्पूर्वोक्तं सत्तावलोक-
लक्षणं मानसं निर्विकल्पदर्शनं कर्तृ पूर्वोक्त निश्चयसम्यक्त्वचारित्रबलेन निर्विकल्पनिजशुद्धात्मा-
नुभूतिध्यानेन सहकारिकारणं भवति
कस्य भवति पूर्वोक्त भव्यजीवस्य न चाभव्यस्य कस्मात्
निश्चयसम्यक्त्वचारित्राभावादिति भावार्थः ।।३५।।
अथ परमध्यानारूढो ज्ञानी समभावेन दुःखं सुखं सहमानः स एवाभेदेन
निर्जराहेतुर्भण्यते इति दर्शयति
१६२) दुक्खु वि सुक्खु सहंतु जिय णाणिउ झाणणिलीणु
कम्महँ णिज्जरहेउ तउ वुच्चइ संगविहीणु ।।३६।।
दुःखमपि सुखं सहमानः जीव ज्ञानी ध्याननिलीनः
कर्मणः निर्जराहेतुः तपः उच्यते संगविहीनः ।।३६।।
पूर्वोक्त भाव जीवने जेवी रीते सहकारी कारण थाय छे तेवी रीते अभव्य जीवने
निश्चयसम्यक्त्व अने चारित्रनो अभाव होवाथी सहकारी कारण थतुं नथी. ३५.
हवे, परमध्यानमां ‘आरूढ’ जे ज्ञानी समभावथी (तपोधन) दुःख अने सुखने सहे छे
ते ज मुनि अभेदनयथी निर्जरानुं कारण छे, एम कहे छेः
उस समय पूर्वोक्त सत्ताके अवलोकनरूप मनसंबंधी निर्विकल्पदर्शन निश्चयचारित्रके बलसे
विकल्प रहित निज शुद्धात्मानुभूतिके ध्यानकर सहकारी कारण होता है
इसलिये
व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञान भव्यजीवके ही होता है, अभव्यके सर्वथा नहीं,
क्योंकि अभव्यजीव मुक्तिका पात्र नहीं है
जो मुक्तिका पात्र होता है, उसीके व्यवहाररत्नत्रयकी
प्राप्ति होती है व्यवहाररत्नत्रय परम्पराय मोक्षका कारण है, और निश्चयरत्नत्रय साक्षात् मुक्तिका
कारण है, ऐसा तात्पर्य हुआ ।।३५।।
आगे परमध्यानमें आरूढ़ ज्ञानी जीव समभावसे दुःख-सुखको सहता हुआ अभेदनयसे
निर्जराका कारण होता है, ऐसा दिखाते हैं
गाथा३६
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, [ज्ञानी ] वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी [ध्याननिलीनः ]