अधिकार-२ः दोहा-३६ ]परमात्मप्रकाशः [ २७५
दुक्खु वि इत्यादि । दुक्खु वि सुक्खु सहंतु दुःखमपि सुखमपि समभावेन सहमानः
सन् जिय हे जीव । कोऽसौ कर्ता । णाणिउ वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी । किंविशिष्टः । झाण-णिलीणु
वीतरागचिदानन्दैकाग्र्यध्याननिलीनो रतः स एवाभेदेन कम्माहं णिज्जर-हेउ शुभाशुभकर्मणो
निर्जराहेतुरुच्यते न केवलं ध्यानपरिणतपुरुषो निर्जराहेतुरुच्यते तउ परद्रव्येच्छानिरोधरूपं
बाह्याभ्यन्तरलक्षणं द्वादशविधं तपश्च । किंविशिष्टः स तपोधनस्तत्तपश्च । संगविहीनो संग-विहीणु
बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहित इति । अत्राह प्रभाकरभट्टः । ध्यानेन निर्जरा भणिता भवद्भिः
उत्तमसंहननस्यैकाग्रचित्तनिरोधो ध्यानमिति ध्यानलक्षणं, उत्तमसंहननाभावे कथं ध्यानमिति ।
भगवानाह । उत्तमसंहननेन यद्धयानं भणितं तदपूर्वगुणस्थानादिषूपशमक्षपकश्रेण्योर्यत् शुक्लध्यानं
भावार्थः — अही प्रभाकरभट्ट पूछे छे के आपे ध्यानथी निर्जरा कही पण
उत्तमसंहननवाळाने एकाग्रचित्तनिरोध ते ध्यान छे, एवुं ध्याननुं लक्षण छे तो पछी (अत्यारे)
उत्तमसंहनना अभावमां ध्यान केवी रीते होय?
भगवान श्रीगुरु कहे छे – उत्तमसंहनन वडे जे ध्यान कहेवामां आव्युं छे ते अपूर्व
गुणस्थानादिमां उपशम-क्षपक श्रेणीओमां जे शुक्लध्यान होय छे तेनी अपेक्षाए कहेवामां आव्युं
छे. पण अपूर्वकरण गुणस्थानथी नीचेना गुणस्थानोमां ते धर्मध्याननुं निषेधक नथी (धर्मध्याननी
आगममां ना कही नथी) (श्री रामसेन कृत) तत्त्वानुशासन नामना ग्रंथमां (गाथा ८४मां)
आत्मध्यानमें लीन [दुःखम् अपि सुखं ] दुःख और सुखको [सहमानः ] समभावोंसे सहता
हुआ अभेदनयसे [कर्मणः निर्जराहेतुः ] शुभ अशुभ कर्मोंकी निर्जराका कारण है, ऐसा
भगवान्ने [उच्यते ] कहा है, और [संगविहीनः तपः ] बाह्य अभ्यंतर परिग्रह रहित परद्रव्यकी
इच्छाके निरोधरूप बाह्य अभ्यंतर अनशनादि बारह प्रकारके तपरूप भी वह ज्ञानी है ।
भावार्थ : — यहाँ प्रभाकरभट्टने प्रश्न किया, कि हे प्रभो; आपने ध्यानसे निर्जरा कही,
वह ध्यान एकाग्र चित्तका निरोधरूप उत्तम संहननवाले मुनिके होता है, जहाँ उत्तमसंहनन
ही नहीं है, वहाँ ध्यान किस तरहसे हो सकता है ? उसका समाधान श्रीगुरु कहते हैं —
उत्तम संहननवाले मुनिके जो ध्यान कहा है, वह आठवें गुणस्थानसे लेकर उपशम
क्षपकश्रेणीवालोंके जो शुक्लध्यान होता है, उसकी अपेक्षा कहा गया है । उपशमश्रेणी
वज्रवृषभनाराच, वज्रनाराच, नाराच इन तीन संहननवालोंके होती है, उनके शुक्लध्यानका पहला
पाया है, वे ग्यारहवें गुणस्थानसे नीचे आते हैं, और क्षपकश्रेणी एक वज्रवृषभनाराच
संहननवालेके ही होती है, वे आठवें गुणस्थानमें क्षपकश्रेणी माँड़ते (प्रारंभ करते) हैं, उनके
आठवें गुणस्थानमें शुक्लध्यानका पहला पाया (भेद) होता है, वह आठवें, नववें, दशवें