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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-३६
तदपेक्षया भणितम् । अपूर्वगुणस्थानादधस्तनगुणस्थानेषु धर्मध्यानस्य निषेधकं न भवति ।
तथाचोक्तं तत्त्वानुशासने ध्यानग्रन्थे — ‘‘यत्पुनर्वज्रकायस्य ध्यानमित्यागमे वचः । श्रेण्योर्ध्यानं
प्रतीत्योक्तं तन्नाधस्तान्निषेधकम् ।।’’ । किं च । रागद्वेषाभावलक्षणं परमं यदाख्यातरूपं स्वरूपे चरणं
निश्चयचारित्रं भणन्ति इदानीं तद्भावेऽन्यच्चारित्रमाचरन्तु तपोधनाः । तथा चोक्तं तत्रेदम् —
‘‘चरितारो न सन्त्यद्य यथाख्यातस्य संप्रति । तत्किमन्ये यथाशक्ति माचरन्तु तपस्विनः ।।’’
ध्यानना विषयमां कह्युं छे के ‘‘यत्पुनर्वज्रकायस्य ध्यानमित्यागमे वचः । श्रेण्योर्ध्यानं प्रतीत्योक्तं
तन्नाधस्तान्निषेधकम् ।।’’ अर्थः — वज्रकायवाळाने ध्यान होय छे एवुं आगमनुं वचन छे ते ते
उपशम अने क्षपक ए बे श्रेणीओमां शुक्लध्यानने लक्षमां राखीने कहेल छे, पण आ कथन
तेनाथी नीचेना गुणस्थानमां थता ध्यानने कोईपण संहननमां निषेध करनारुं नथी.
वळी, राग-द्वेषना अभावस्वरूप परम यथाख्यातरूप स्वरूपमां चरवुं ते
निश्चयचारित्र कहेवाय छे, तेनो आ काळमां अभाव होवाथी तपोधनो अन्य चारित्र
आचरो. श्री तत्त्वानुशासन (गाथा ८६मां) पण तेवुं कह्युं छे के ‘‘चरितारो न सन्त्यध
यथाख्यातस्य संप्रति । तत्किमन्ये यथाशक्तिमाचरन्तु तपस्विनः ।’’ अर्थः — आ पंचमकाळमां
यथाख्यात चारित्रना आचरनारा नथी, तो शुं थयुं? तपस्वीओ पोतानी शक्ति अनुसार
तथा दशवेंसे बारहवें गुणस्थानमें स्पर्श करते हैं, ग्यारहवेंमें नहीं, तथा बारहवेमें शुक्लध्यानका
दूसरा पाया होता है, उसके प्रसादसे केवलज्ञान पाता है, और उसी भवमें मोक्षको जाता
है । इसलिये उत्तम संहननका कथन शुक्लध्यानकी अपेक्षासे है । आठवें गुणस्थानसे नीचेके
चौथेसे लेकर सातवें तक शुक्लध्यान नहीं होता, धर्मध्यान छहों संहननवालोंके है, श्रेणीके
नीचे धर्मध्यान ही है, उसका निषेध किसी संहननमें नहीं है । ऐसा ही कथन तत्त्वानुशासन
नामक ग्रंथमें कहा है ‘‘यत्पुनः’’ इत्यादि । उसका अर्थ ऐसा है, कि जो वज्रकायके ही
ध्यान होता है, ऐसा आगमका वचन है, वह दोनों श्रेणियोंमें शुक्लध्यान होनेकी अपेक्षा है,
और श्रेणीके नीचे जो धर्मध्यान है, उसका निषेध (न होना) किसी संहननमें नहीं कहा
है, यह निश्चयसे जानना । राग-द्वेषके अभावरूप उत्कृष्ट यथाख्यातस्वरूप स्वरूपाचरण ही
निश्चयचारित्र है, वह इस समय पंचमकालमें भरतक्षेत्रमें नहीं है, इसलिये साधुजन अन्य
चारित्रका आचरण करो । चारित्रके पाँच भेद हैं, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि,
सूक्ष्मसांपराय, यथाख्यात । उनमें इस समय इस क्षेत्रमें सामायिक छेदोपस्थापना ये दो ही
चारित्र होते हैं, अन्य नहीं, इसलिये इनको ही आचरो । तत्त्वानुशासनमें भी कहा है ‘चरितारो’
इत्यादि । इसका अर्थ ऐसा है, कि इस समय यथाख्यातचारित्रके आचरण करनेवाले मौजूद
नहीं हैं, तो क्या हुआ अपनी शक्तिके अनुसार तपस्वीजन सामायिक छेदोपस्थापनाका आचरण