Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 40 (Adhikar 2).

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२८२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-४०
अथ यः समभावं करोति तस्यैव निश्चयेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि नान्यस्येति
दर्शयति
१६६) दंसणु णाणु चरित्तु तसु जो सम - भाउ करेइ
इयरहँ एक्कु वि अत्थि णवि जिणवरु एउ भणेइ ।।४०।।
दर्शनं ज्ञानं चारित्रं तस्य यः समभावं करोति
इतरस्य एकमपि अस्ति नैव जिनवरः एवं भणति ।।४०।।
दंसणु इत्यादि दंसणु णाणु चरित्तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयं तसु निश्चयनयेन तस्यैव
भवति कस्य जो सम-भाउ करेइ यः कर्ता समभावं करोति इयरहं इतरस्य समभावरहितस्य
वाङ्मय (द्वादशांग) आनी (समभावनी) प्रक्रियामात्र ज छे.] ३९.
हवे, जे समभाव करे छे तेने ज निश्चयथी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र
होय छे, अन्यने नहि एम दर्शावे छेः
भावार्थनिश्चयनयथी ‘निज शुद्ध आत्मा ज उपादेय छे’ एवी रुचिरूप
सम्यग्दर्शन तेने ज होय छे, निजशुद्धात्मानी संवित्तिथी उत्पन्न वीतराग परमानंदना मधुर-
रसस्वादवाळो आ आत्मा छे अने निरंतर आकुळताना उत्पादक होवाथी कटुक-
अन्य ग्रंथके विस्तारोंसे क्या, समस्त पंथ तथा सकल द्वादशांग इस समभावरूप सूत्रकी ही
टीका है
।।३९।।
आगे जो जीव समभावको करता है, उसीके निश्चयसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान,
सम्यक्चारित्र होता है, अन्यके नहीं, ऐसा दिखलाते हैं
गाथा४०
अन्वयार्थ :[दर्शनं ज्ञानं चारित्रं ] सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र [तस्य ] उसीके
निश्चयसे होते हैं, [यः ] जो यति [समभावं ] समभाव [करोति ] करता है, [इतरस्य ] दूसरे
समभाव रहित जीवके [एकं अपि ] तीन रत्नोंमेंसे एक भी [नैव अस्ति ] नहीं है, [एवं ] इस-
प्रकार [जिनवरः ] जिनेन्द्रदेव [भणति ] कहते हैं
भावार्थ :निश्चयनयसे निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसी रुचिरूप सम्यग्दर्शन उस
समभावके धारकके होता है, और निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न हुआ जो वीतराग परमानंद