Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 43 (Adhikar 2).

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२८६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-४२
रागद्वेषरहितं ज्ञानमिति तथाहि निर्मोहनिजशुद्धात्मध्यानेन निर्मोहस्वशुद्धात्मतत्त्वविपरीतं हे जीव
मोहं मुञ्च, येन मोहेन मोहनिमित्तवस्तुना वा निष्कषायपरमात्मतत्त्वविनाशकाः क्रोधादिकषाया
भवन्ति पश्चान्मोहकषायाभावे सति रागादिरहितं विशुद्धज्ञानं लभसे त्वमित्यभिप्रायः
तथा
चोक्त म्‘‘तं वत्थुं मुत्तव्वं जं पडि उपज्जए कसायग्गी तं वत्थुमल्लिएज्जो (तद् वस्तु
अंगीकरोति, इति टिप्पणी) जत्थुवसम्मो कसायाणं ।।’’ ।।४२।।
अथ हेयोपादेयतत्त्वं ज्ञात्वा परमोपशमे स्थित्वा येषां ज्ञानिनां स्वशुद्धात्मनि रतिस्त एव
सुखिन इति कथयति
१६९) तत्तातत्तु मुणेवि मणि जे थक्का समभावि
ते पर सुहिया इत्थु जगि जहँ रइ अप्पसहावि ।।४३।।
रहित विशुद्ध ज्ञानने पामीश एवो अभिप्राय छे. वळी भगवती आराधना गाथा २६२मां कह्युं
पण छे के
‘‘तं वत्थुं मुत्तव्व जं पडि उपज्जए कसायग्गी तं वत्थुमल्लिएज्जो जत्थुवसम्मो कसायाणं ।।’’
(अर्थजेना निमित्तथी कषायरूपी अग्नि उत्पन्न थाय छे ते वस्तु छोडवी जोईए अने जेना
निमित्तथी कषायो उपशांत थाय छे ते वस्तुनो आश्रय करवो जोईए-ते वस्तुने अंगीकार करवी
जोईए.) ४२.
हवे, हेय-उपादेय तत्त्वने जाणीने परम उपशमभावमां स्थित थईने जे ज्ञानीओने
स्वशुद्धात्मामां रति थई तेओ ज सुखी छे, एम कहे छेः
दूसरी जगह भी कहा है ‘‘तं वत्थुं’’ इत्यादि अर्थात् वह वस्तु मन वचन कायसे छोड़नी
चाहिये, कि जिससे कषायरूप अग्नि उत्पन्न हो, तथा उस वस्तुका अंगीकार करना चाहिये,
जिससे कषायें शांत हों
तात्पर्य यह है, कि विषयादिक सब सामग्री और मिथ्यादृष्टि
पापियोंका संग सब तरहसे मोहकषायको उपजाते हैं, इससे ही मनमें कषायरूपी अग्नि
दहकती रहती है
वह सब प्रकारसे छोड़ना चाहिये, और सत्संगति तथा शुभ सामग्री
(कारण) कषायोंको उपशमाती है,कषायरूपी अग्निको बुझाती है, इसलिये उस संगति
वगैरहको अंगीकार करनी चाहिये ।।४२।।
आगे हेयोपादेय तत्त्वको जानकर परम शांतभावमें स्थित होकर जिनके निःकषायभाव
हुआ और निजशुद्धात्मामें जिनकी लीनता हुई, वे ही ज्ञानी परम सुखी हैं, ऐसा कथन करते
हैं