अधिकार-२ः दोहा-४३ ]परमात्मप्रकाशः [ २८७
तत्त्वातत्त्वं मत्वा मनसि ये स्थिताः समभावे ।
ते परं सुखिनः अत्र जगति येषां रतिः आत्मस्वभावे ।।४३।।
तत्तातत्तु इत्यादि । तत्तातत्तु मुणेवि अन्तस्तत्त्वं बहिस्तत्त्वं मत्वा । क्व । मणि मनसि
जे ये केचन वीतरागस्वसंवेदनप्रत्यक्षज्ञानिनः थक्का स्थिता । क्व । सम-भावि परमोशमपरिणामे
ते पर त एव सुहिया सुखिनः इत्थु जगि अत्र जगति । के ते । जहं रइ येषां रतिः ।
क्व । अप्प-सहावि स्वकीयशुद्धात्मस्वभावे इति । तथाहि । यद्यपि व्यवहारेणानादिबन्धनबद्धं
तिष्ठति तथापि शुद्धनिश्चयेन प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबन्धरहितं, यद्यप्यशुद्धनिश्चयेन स्वकृत-
शुभाशुभकर्मफलभोक्ता तथापि शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन निजशुद्धात्मतत्त्वभावनोत्थवीतरागपरमानन्दैक-
सुखामृतभोक्ता, यद्यपि व्यवहारेण कर्मक्षयानन्तरं मोक्षभाजनं भवति तथापि शुद्धपारिणामिक-
परमभावग्राहकेण शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन सदा मुक्त मेव, यद्यपि व्यवहारेणेन्द्रियजनितज्ञानदर्शनसहितं
भावार्थः — जोके आ शुद्धात्मद्रव्य व्यवहारनयथी अनादिकाळथी बंधनथी बंधायेलो छे
तोपण शुद्ध निश्चयनयथी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश ए चार प्रकारना बंधथी रहित छे,
तथा अशुद्धनिश्चयनयथी स्वप्रकृत (पोते उपार्जन करेला) शुभ-अशुभ कर्मना फळनो भोक्ता
छे तोपण शुद्धद्रव्यार्थिकनयथी निजशुद्धात्मतत्त्वनी भावनाथी उत्पन्न एक (केवळ) वीतराग
परमानंदरूप सुखामृतनो भोक्ता छे, तेमज व्यवहारनयथी कर्मना क्षय टाणे ज मोक्षनुं भाजन
थाय छे तोपण शुद्ध पारिणामिक परमभावग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिकनयथी सदा मुक्त ज छे, जो-
गाथा – ४३
अन्वयार्थ : — [ये ] जो कोई वीतराग स्वसंवेदन प्रत्यक्षज्ञानी जीव [तत्त्वातत्त्वं ]
आराधने योग्य निज पदार्थ और त्यागने योग्य रागादि सकल विभावोंको [मनसि ] मनमें
[मत्वा ] जानकर [समभावे स्थिताः ] शांतभावमें तिष्ठते हैं, और [येषां रतिः ] जिनकी लगन
[आत्मस्वभावे ] निज शुद्धात्म स्वभावमें हुई है, [ते परं ] वे ही जीव [अत्र जगति ] इस
संसारमें [सुखिनः ] सुखी हैं ।
भावार्थ : — यद्यपि यह आत्मा व्यवहारनयकर अनादिकालसे कर्मबंधनकर बँधा है, तो
भी शुद्धनिश्चयनयकर प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश — इन चार तरहके बंधनोंसे रहित है,
यद्यपि अशुद्धनिश्चयनयसे अपने उपार्जन किये शुभ-अशुभ कर्मोंके फलका भोक्ता है, तो भी
शुद्धद्रव्यार्थिकनयसे निज शुद्धात्मतत्त्वकी भावनासे उत्पन्न हुए वीतराग परमानंद सुखरूप
अमृतका ही भोगनेवाला है, यद्यपि व्यवहारनयसे कर्मोंके क्षय होनेके बाद मोक्षका पात्र है,
तो भी शुद्ध पारिणामिक परमभावग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे सदा मुक्त ही है, यद्यपि