Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration).

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२८८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-४३
तथापि निश्चयेन सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनस्वभावं, यद्यपि व्यवहारेण स्वोपात्तदेहमात्रं तथापि
निश्चयेन लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशं, यद्यपि व्यवहारेणोपसंहारविस्तारसहितं तथापि
मुक्तावस्थायामुपसंहारविस्ताररहितं चरमशरीरप्रमाणप्रदेशं, यद्यपि पर्यायार्थिकनयेनोत्पादव्यय-
ध्रौव्ययुक्तं तथापि द्रव्यार्थिकनयेन नित्यटङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावं निजशुद्धात्मद्रव्यं पूर्वं ज्ञात्वा
तद्विलक्षणं परद्रव्यं च निश्चित्य पश्चात् समस्तमिथ्यात्वरागादिविकल्पत्यागेन वीतराग-
चिदानन्दैकस्वभावे स्वशुद्धात्मतत्त्वे ये रतास्त एव धन्या इति भावार्थः
तथा चोक्तं परमात्म-
तत्त्वलक्षणे श्रीपूज्यपादस्वामिभिःनाभावो सिद्धिरिष्टा न निजगुणहतिस्तत्तपोभिर्न युक्तै :
के व्यवहारनयथी इन्द्रियजनित ज्ञानदर्शन सहित छे तोपण निश्चयनयथी सकळ-विमळ
केवळज्ञान-केवळदर्शनस्वभाववाळो छे, तथा व्यवहारनयथी पोताना उपार्जेला देह जेवडो ज छे
तोपण निश्चयनयथी लोकाकाशप्रमाण असंख्यातप्रदेशी छे, व्यवहारनयथी प्रदेशोना संकोच
-विस्तार सहित छे तोपण मुक्त-अवस्थामां संकोच-विस्तार रहित चरमशरीरप्रमाण प्रदेशवाळो
छे, जोके पर्यायार्थिकनयथी उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त छे तोपण द्रव्यार्थिकनयथी नित्य टंकोत्कीर्ण
ज्ञायक ज जेनो एक स्वभाव छे. एवा निजशुद्धात्मद्रव्यने प्रथम जाणीने अने निजशुद्धात्म
द्रव्यथी विलक्षण परद्रव्यनो निश्चय करीने पछी समस्त मिथ्यात्वरागादि विकल्पनो त्याग करीने
वीतराग चिदानंद ज जेनो एक स्वभाव छे, एवा स्वशुद्धात्मतत्त्वमां जेओ रत थया तेओ
ज धन्य छे, श्री पूज्यपादस्वामीए परमात्मतत्त्वना लक्षणमां पण कह्युं छे केः
‘‘नाभावो सिद्धिरिष्टा न निजगुणहतिस्तत्तपोभिर्न युक्तै :
अस्त्यात्मानादिबद्धः स्वकृतजफलभुक् तत्क्षयान्मोक्षभाजी ।।
व्यवहारनयकर इंद्रियजनित मति आदि क्षयोपशमिकज्ञान तथा चक्षु आदि दर्शन सहित है तो भी
निश्चयनयसे सकल विमल केवलज्ञान और केवलदर्शन स्वभाववाला है, यद्यपि व्यवहारनयकर
यह जीव नामकर्मसे प्राप्त देहप्रमाण है, तो भी निश्चयनयसे लोकाकाशप्रमाण असंख्यातप्रदेशी
है, यद्यपि व्यवहारनयसे प्रदेशोंके संकोच विस्तार सहित है, तो भी सिद्ध
अवस्थामें संकोच
विस्तारसे चरमशरीरप्रमाण प्रदेशवाला है, और यद्यपि पर्यायार्थिकनयसे उत्पाद व्यय ध्रौव्यकर
सहित है, तो भी द्रव्यार्थिकनयकर टंकोत्कीर्ण ज्ञानके अखंड स्वभावसे ध्रुव ही है
इस तरह
पहिले निज शुद्धात्मद्रव्यको अच्छी तरह जानकर और आत्मस्वरूपसे विपरीत पुद्गलादि
परद्रव्योंको भी अच्छी तरह निश्चय करके अर्थात् आप परका निश्चय करके बादमें समस्त
मिथ्यात्व रागादि विकल्पोंको छोड़कर वीतराग चिदानंद स्वभाव शुद्धात्मतत्त्वमें जो लीन हुए
हैं, वे ही धन्य हैं
ऐसा ही कथन परमात्मतत्त्वके लक्षणमें श्रीपूज्यपादस्वामीने कहा है,
‘‘नाभाव’’ इत्यादि अर्थात् यह आत्मा व्यवहारनयकर अनादिका बँधा हुआ है, और अपने
यह श्लोक अपूर्ण है, भाषामें ‘नाभाव’ आदि लिखा है