अधिकार-२ः दोहा-४४ ]परमात्मप्रकाशः [ २८९
अस्त्यात्मानादिबद्धः स्वकृतजफलभुक् तत्क्षयान्मोक्षभाजी । ज्ञाताद्रष्टा स्वदेहप्रमितिरुपसमाहार-
विस्तारधर्मा । ध्रौव्योत्पत्तिव्ययात्मा स्वगुणयुत इतो नान्यथा साध्यसिद्धिः’’ ।।४३।।
अथ योऽसावेवोपशमभावं करोति तस्य निन्दाद्वारेण स्तुतिं त्रिकलेन कथयति —
१७०) बिण्णि वि दोस हवंति तसु जो सम – भाउ करेइ ।
बंधु जि णिहणइ अप्पणउ अणु जगु गहिलु करेइ ।।४४।।
द्वौ अपि दोषौ भवतः तस्य यः समभावं करोति ।
बन्धं एव निहन्ति आत्मीयं अन्यत् जगद् ग्रहिलं करोति ।।४४।।
ज्ञाताद्रष्टा स्वदेहप्रमितिरुपसमाहारविस्तार धर्मा ।
ध्रौव्योत्पत्तिव्ययात्मा स्वगुणयुत इतो नान्यथा साध्यसिद्धिः ।।’’
(सिद्धभक्ति-२)
(अर्थः — कोई पोतानो के पोताना गुणनो अभाव करवा माटे तपश्चर्यादि विधिनी प्रवृत्ति
करे ज नहि.
आत्मा अनादिथी कर्मो वडे बंधायेलो, पोते उपार्जेला शुभाशुभ कर्मनो भोक्ता तेना
क्षयथी मोक्षनो भोक्ता, ज्ञाता-द्रष्टा, संसार-अवस्थामां स्वदेह प्रमाणरूप, संकोच-
विस्तारना स्वभाववाळो, उत्पाद व्ययध्रौव्यस्वरूप अने पोताना गुणथी युक्त छे, आवा
स्वरूपे आत्माने जाणवाथी साध्यनी सिद्धि छे, अन्य प्रकारे जाणवाथी साध्यनी सिद्धि थती
नथी. ४३.
किये हुए कर्मोंके फलका भोक्ता है, उन कर्मोंके क्षयसे मोक्षपदका भोक्ता है, ज्ञाता है,
देखनेवाला है, अपनी देहके प्रमाण हैं, संसार – अवस्थामें प्रदेशोंके संकोच विस्तारको धारण
करता हैं, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य सहित है, और अपने गुण पर्याय सहित है । इसप्रकार आत्माके
जाननेसे ही साध्यकी सिद्धि है, दूसरी तरह नहीं है ।।४३।।
आगे जो संयमी परम शांतभावका ही कर्ता है, उसकी निंदा द्वारा स्तुति तीन गाथाओंमें
करते हैं —
गाथा – ४४
अन्वयार्थ : — [यः ] जो साधु [समभावं ] राग-द्वेषके त्यागरूप समभावको
[करोति ] करता है, [तस्य ] उस तपोधनके [द्वौ अपि दोषौ ] दो दोष [भवतः ] होते हैं ।