जीवः पुण्णें अमरु वियाणु पुण्येनामरो देवो भवतीति जानीहि । मिस्सें माणुस-गइ लहइ मिश्रेण
पुण्यपापद्वयेन मनुष्यगतिं लभते । दोहि वि खइ णिव्वाणु द्वयोरपि कर्मक्षयेऽपि निर्वाणमिति ।
तद्यथा । सहजशुद्धज्ञानानन्दैकस्वभावात्परमात्मनः सकाशाद्विपरीतेन छेदनादिनारकतिर्यग्गति-
दुःखदानसमर्थेन पापकर्मोदयेन नारकतिर्यग्गतिभाजनो भवति जीवः । तस्मादेव शुद्धात्मनो
विलक्षणेन पुण्योदयेन देवो भवति । तस्मादेव शुद्धात्मनो विपरीतेन पुण्यपापद्वयेन मनुष्यो भवति ।
तस्यैव विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावेन निजशुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपेण शुद्धोपयोगेन
मुक्तो भवतीति तात्पर्यार्थः । तथा चोक्त म् — ‘‘पावेण णरयतिरियं गम्मइ धम्मेण देवलोयम्मि ।
मिस्सेण माणुसत्तं दोण्हं पि खएण णिव्वाणं ।।’’ ।।६३।।
अथ निश्चयप्रतिक्रमणप्रत्याख्यानालोचनस्वरूपे स्थित्वा व्यवहारप्रतिक्रमण प्रत्याख्याना-
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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-६३
उसके उदयसे नरक तिर्यंचगतिका पात्र होता है, आत्मस्वरूपसे विपरीत शुभ कर्मोंके उदयसे
देव होता है, दोनोंके मेलसे मनुष्य होता है, और शुद्धात्मस्वरूपसे विपरीत इन दोनों पुण्य
-पापोंके क्षयसे निर्वाण (मोक्ष) मिलता है । मोक्षका कारण एक शुद्धोपयोग है, वह शुद्धोपयोग
निज शुद्धात्मतत्त्वके सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप है । इसलिये इस शुद्धोपयोगके बिना
किसी तरह भी मुक्ति नहीं हो सकती, यह सारांश जानो । ऐसा ही सिद्धान्त – ग्रन्थमें भी हरएक
जगह कहा गया है । जैसे — यह जीव पापसे नरक तिर्यंचगतिको जाता है, और धर्म (पुण्य)
से देवलोकमें जाता है, पुण्य-पाप दोनोंके मेलसे मनुष्यदेहको पाता है, और दोनोंके क्षयसे मोक्ष
पाता है ।।६३।।
आगे निश्चयप्रतिक्रमण, निश्चयप्रत्याख्यान और निश्चयआलोचनारूप जो शुद्धोपयोग
नरकगति अने तिर्यंचगतिनां छेदन आदि दुःख देवामां समर्थ एवा पापकर्मना उदयथी जीव
नारकगतिनुं अने तिर्यंचगतिनुं भाजन थाय छे, ते ज शुद्ध आत्माथी विलक्षण एवा पुण्योदयथी
देव थाय छे, ते ज शुद्ध आत्माथी विपरीत पुण्य-पाप द्वयथी मनुष्य थाय छे अने विशुद्धज्ञान,
विशुद्धदर्शन जेनो स्वभाव छे एवा ते ज निज शुद्ध आत्मतत्त्वनां सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान अने
सम्यग् अनुष्ठानरूप शुद्धोपयोगथी मुक्त थाय छे. वळी कह्युं पण छे के — ‘‘पावेण णरयतिरियं
गम्मइ धम्मेण देवलोयम्मि । मिस्सेण माणुसत्तं दोण्हं पि खएण णिव्वाणं ।।’’ (अर्थः — आ जीव पापथी
नरकगति अने तिर्यंचगतिमां जाय छे. धर्मथी अर्थात् पुण्यथी देवलोकमां जाय छे, पुण्य पाप
बन्नेना मिश्रणथी मनुष्यपणुं पामे छे अने बन्नेना क्षयथी निर्वाण पामे छे. ६३.
हवे, ज्ञानी निश्चय प्रतिक्रमण, निश्चयप्रत्याख्यान अने निश्चय आलोचनास्वरूपमां स्थित