अधिकार-२ः दोहा-८० ]परमात्मप्रकाशः [ ३५१
भुंजंतु वि इत्यादि । भुंजंतु वि भुञ्जानोऽपि । किम् । णिय-कम्म-फलु निजकर्मफलं
निजशुद्धात्मोपलम्भाभावेनोपार्जितं पूर्वं यत् शुभाशुभं कर्म तस्य फलं जो यो जीवः तहिँ
तत्र कर्मानुभवप्रस्तावे राउ ण जाइ रागं न गच्छति वीतरागचिदानन्दैकस्वभावशुद्धात्मतत्त्व-
भावनोत्पन्नसुखामृततृप्तः सन् रागद्वेषौ न करोति सो स जीवः णवि बंधइ नैव बध्नाति ।
किं न बध्नाति । कम्मु ज्ञानावरणादि कर्म पुणु पुनरपि । येन कर्मबन्धाभावपरिणामेन किं
भवति । संचिउ जेण विलाइ पूर्वसंचितं कर्म येन वीतरागपरिणामेन विलयं विनाशं
गच्छतीति । अत्राह प्रभाकरभट्टः । कर्मोदयफलं भुञ्जानोऽपि ज्ञानी कर्मणापि न बध्यते
इति सांख्यादयोऽपि वदन्ति तेषां किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति । भगवानाह । ते
भावार्थः — निजकर्मफळने-निजशुद्धात्मानी प्राप्तिना अभावथी पूर्वे उपार्जेल
शुभाशुभ कर्मना फळने-भोगवतो थको पण जे जीव कर्मना अनुभवमां रागने प्राप्त
थतो नथी-वीतराग चिदानंद ज जेनो एक स्वभाव छे एवा शुद्धात्मतत्त्वनी भावनाथी
उत्पन्न सुखामृतथी तृप्त थतो राग-द्वेष करतो नथी – ते जीव फरी ज्ञानावरणादि कर्म
बांधतो नथी, जे कर्मना अभावपरिणामथी – वीतराग परिणामथी – पूर्वना संचित कर्म
नाश पामे छे.
आवुं कथन सांभळीने प्रभाकरभट्ट पूछे छे के – ‘ हे प्रभु! कर्मोदयना फळने
भोगवतो थको ज्ञानी कर्मथी पण बंधातो नथी’ एम सांख्यादिओ पण कहे छे तो
आप तेमने शा माटे दोष आपो छो?
हुआ भी [तत्र ] उस फलके भोगनेमें [यः ] जो जीव [रागं ] राग-द्वेषको [न याति ] नहीं प्राप्त
होता [सः ] वह [पुनः कर्म ] फि र कर्मको [नैव ] नहीं [बध्नाति ] बाँधता, [येन ] जिस
कर्मबंधाभाव परिणामसे [संचितं ] पहले बाँधे हुए कर्म भी [विलीयते ] नाश हो जाते हैं ।
भावार्थ : — निज शुद्धात्माके ज्ञानके अभावसे उपार्जन किये जो शुभ-अशुभ कर्म
उनके फलको भोगता हुआ भी वीतराग चिदानंद परमस्वभावरूप शुद्धात्मतत्त्वकी भावनासे
उत्पन्न अतीन्द्रियसुखरूप अमृतसे तृप्त हुआ जो रागी-द्वेषी नहीं होता, वह जीव फि र ज्ञानावरणादि
कर्मोंको नहीं बाँधता है, और नये कर्मोंका बंधका अभाव होनेसे प्राचीन कर्मोंकी निर्जरा ही
होती है । यह संवरपूर्वक निर्जरा ही मोक्षका मूल है ? ऐसा कथन सुनकर प्रभाकरभट्टने प्रश्न
किया कि हे प्रभो, ‘‘कर्मके फलको भोगता हुआ भी ज्ञानसे नहीं बँधता’’ ऐसा सांख्य आदिक
भी कहते हैं, उनको तुम दोष क्यों देते हो ? उसका समाधान श्रीगुरु करते हैं — हम तो
आत्मज्ञान संयुक्त ज्ञानी जीवोंकी अपेक्षासे कहते हैं, वे ज्ञानके प्रभावसे कर्म - फल भोगते हुए