Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 81 (Adhikar 2).

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३५२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-८१
निजशुद्धात्मानुभूतिलक्षणं वीतरागचारित्रनिरपेक्षा वदन्ति तेन कारणेन तेषां दूषणमिति
तात्पर्यम्
।।८०।।
अथ यावत्कालमणुमात्रमपि रागं न मुञ्चति तावत्कालं कर्मणा न मुच्यते इति
प्रतिपादयति
२०८) जो अणु-मेत्तु वि राउ मणि जाम ण मिल्लइ एत्थु
सो णवि मुच्चइ ताम जिय जाणंतु वि परमत्थु ।।८१।।
यः अणुमात्रमपि रागं मनसि यावत् न मुञ्चति अत्र
स नैव मुच्यते तावत् जीव जानन्नपि परमार्थम् ।।८१।।
जो इत्यादि जो यः कर्ता अणु-मेत्तु वि अणुमात्रमपि सूक्ष्ममपि राउ रागं वीतरागसदा-
भगवान श्री गुरु कहे छे के तेओ निजशुद्धात्मानी अनुभूतिस्वरूप वीतराग
चारित्रथी निरपेक्ष (चारित्रनी अपेक्षा राख्या सिवाय) कहे छे, तेथी तेमने दोष देवामां
आवे छे, एवुं तात्पर्य छे. ८०.
हवे, ज्यां सुधी जीव अणुमात्र पण (सूक्ष्म पण) रागने छोडतो नथी त्यां सुधी
कर्मथी छूटतो नथी, एम कहे छेः
भी राग द्वेष भाव नहीं करते इसलिये उनके नये बंधका अभाव है, और जो मिथ्यादृष्टि
ज्ञानभावसे बाह्य पूर्वोपार्जितकर्म - फलको भोगते हुए रागी द्वेषी होते हैं, उनके अवश्य बंध होता
है इस तरह सांख्य नहीं कहता, वह वीतरागचारित्रसे रहित कथन करता है इसलिए उन
सांख्यादिकोंको दूषण दिया जाता है यह तात्पर्य जानना ।।८०।।
आगे जबतक परमाणुमात्र भी (सूक्ष्म भी) रागको नहीं छोड़ताधारण करता है,
तबतक कर्मोंसे नहीं छूटता, ऐसा कथन करते हैं
गाथा८१
अन्वयार्थ :[यः ] जो जीव [अणुमात्रं अपि ] थोड़ा भी [रागं ] राग [मनसि ]
मनमेंसे [यावत् ] जबतक [अत्र ] इस संसारमें [न मुंचति ] नहीं छोड़ देता है, [तावत् ]
तबतक [जीव ] हे जीव, [परमार्थं ] निज शुद्धात्मतत्त्वको [जानन्नपि ] शब्दसे केवल जानता
हुआ भी [नैव ] नहीं [मुच्यते ] मुक्त होता
भावार्थ :जो वीतराग सदा आनंदरूप शुद्धात्मभावसे रहित पंचेन्द्रियोंके विषयोंकी