ग्रंथनी रचना करी छे. जेनी वर्णनशैली तथा लेखनशैली अत्यंत सरळ छे. तेमां पारिभाषिक
शब्दोनो उपयोग अत्यंत अल्प करवामां आवेल छे. आ ग्रंथमां आचार्यदेवे पोताना स्वानुभव
तथा पोतानी वीतराग चारित्रनी भावनाने ज विशेषपणे घूंटी छे. तेथी तेना अध्ययनथी
भव्यजनोने पोतानी आत्मार्थप्रधान भावनानुं पोषण सहज रीते थाय छे.
ब्रह्मचर्यनो घणो रंग होवाने लीधे ‘ब्रह्म’ एमनी उपाधि थई जतां ‘ब्रह्मदेव’ नाम पडेल हतुं.
तेओ इ.स. १०७०थी १११०मां अरसामां थयेल होवानुं विद्वानो माने छे. ‘बृहद्द्रव्यसंग्रह’नी
आपनी टीकामां आपेल कथान्यायानुसार, विद्वानोनुं मानवुं छे के, नेमिचन्द्रसिद्धांतिदेव, सोमनामक
राजश्रेष्ठि अने ब्रह्मदेवजी त्रणेय समकालीन राजा भोजना समयमां थया हता. आपनी अने
आचार्य जयसेनजीनी समयसारादि प्राभृतत्रयनी टीकामांनी भाषाशैली साम्यता होवा छतां
आचार्य जयसेनथी ब्रह्मदेवजी पछी थयेल होवानुं विद्वानोनो मत छे. परमात्मप्रकाशनी टीका
उपरांत आपे बृहद्द्रव्यसंग्रहनी टीका, तत्त्वदीपक, प्रतिष्ठातिलक, कथाकोष आदि अनेक ग्रंथोनी
रचना करेल छे.
थाय. आ शास्त्रना भावो परम तारणहार कृपाळु कहान गुरुदेवनां स्वानुभवरसगर्भित प्रवचनोथी
ज यथार्थ समजी शकाय छे. (जे हाल
आत्माना बहिरात्मा, अंतरात्मा अने परमात्मा
छे के जे देहदेवळमां बिराजमान छे एम प्रतिपादन कर्युं छे. त्यार बाद देहदेवळमां होवा छतां
ते शुद्धनिश्चयनये देह अने कर्मथी भिन्न छे. तथा ते शक्तिस्वरूपे परमात्मापणामय आत्मानुं
स्वरूप द्रव्य-गुण-पर्यायनां स्वरूप द्वारा बतावतां, स्वरूपकामी जीवोमां पोताना आत्माने देह-
कर्मादिथी भिन्न जाणवा (भेदज्ञान)अर्थे निज आत्मा विषेनी भावनानी उग्रता सहेजे थतां तेओ
पुरुषार्थ द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त करे ते दर्शाव्युं छे अने जे एवुं ज भेदज्ञान करतो नथी ते
मिथ्याद्रष्टि रहे छे. तेथी दरेक संसारी जीवे केवुं भेदज्ञान निरंतर भाववुं जोईए तेनुं विस्तारथी
वर्णन करी ‘परमात्मा थवानी भावना’ अने ‘सामान्यरूपे (संक्षिप्तरूपे) उपाय’ बतावी आचार्यदेवे
प्रथम महाधिकार पूर्ण करेल छे.