sudhI vItarAg svasamvedanagnAnanI mukhyatAthI vyAkhyAn chhe, (9) tyArapachhI ‘लेणहं इच्छइ मूढु’
ityAdi ATh sUtro sudhI parigrahanA tyAganI mukhyatAthI vyAkhyAn chhe. (10) tyArapachhI
‘‘जो भत्तउ रयणत्तयहं’’ ityAdi ter sUtro sudhI shuddhanayathI soL valA suvarNanI mAphak sarve
jIvo kevaLagnAnAdi lakShaNathI samAn chhe evI mukhyatAthI vyAkhyAn chhe. (te ekatALIs sUtronA
mahAsthaLanA chAr antar sthaLo chhe) e pramANe ekatALIs sUtro samApta thayAn.
tyArapachhI ‘‘परु जाणंतु वि’’ ityAdi samApti sudhI prakShepak sUtrone chhoDIne ekaso
sAt sUtrothI chUlikA vyAkhyAn chhe. te ekaso sAt sUtromAnthI chhellA ‘परम समाहि’ ityAdi
chovIs sUtromAn sAt sthaLo chhe. [temAn (param) samAdhinun kathan chhe.]
(1) temAn pratham sthaLamAn nirvikalpa samAdhinI mukhyatAthI ‘‘परमसमाहिमहासरहिं’’
ityAdi chha sUtro chhe, (2) tyArapachhI arhatpadanI mukhyatAthI ‘‘सयलवियप्पहं’’ ityAdi traN
इत्यादिपञ्चदशसूत्रपर्यन्तं वीतरागस्वसंवेदनज्ञानमुख्यत्वेन व्याख्यानं, तदनन्तरं ‘लेणहं इच्छइ मूढु’
इत्यादिसूत्राष्टकपर्यन्तं परिग्रहत्यागमुख्यतया व्याख्यानम्, अत ऊर्ध्वं ‘जो भत्तउ रयणत्तयहं’
इत्यादि त्रयोदशसूत्रपर्यन्तं शुद्धनयेन षोडशवर्णिकासुवर्णवत् सर्वे जीवाः
केवलज्ञानादिस्वभावलक्षणेन समाना इति मुख्यत्वेन व्याख्यानम्, इत्येकचत्वारिंशत्सूत्राणि
गतानि । अत ऊर्ध्वं ‘परु जाणंतु वि’ इत्यादि समाप्तिपर्यन्तं प्रक्षेपकान् विहाय सप्तोत्तरशत-
सूत्रैश्चूलिकाव्याख्यानम् । तत्र सप्तोत्तरशतमध्ये अवसाने ‘परमसमाहि’ इत्यादि चतुर्विंशतिसूत्रेषु
सप्त स्थलानि भवन्ति । तस्मिन् प्रथमस्थले निर्विक ल्पसमाधिमुख्यत्वेन ‘परमसमाहिमहासरहिं’
इत्यादि सूत्रषट्कं, तदनन्तरमर्हत्पदमुख्यत्वेन ‘सयलवियप्पहं’ इत्यादि सूत्रत्रयम्, अथानन्तरं
pAtanikA ]paramAtmaprakAsha [ 5
मुख्यताकर व्याख्यान है, परिग्रह त्यागकी मुख्यताकर ‘लेणह इच्छइ’ इत्यादि आठ दोहा पर्यन्त
व्याख्यान है, ‘जो भत्तउ रयणत्तयहं’ इत्यादि तेरह दोहा पर्यंत शुद्धनयकर सोलहवानके सुवर्णकी
तरह सब जीव केवलज्ञानादि स्वभावलक्षणकर समान हैं यह व्याख्यान है । इस तरह इकतालीस
दोहोंके व्याख्यानकी विधि कही । उनके चार अधिकार हैं । यहाँपर एकसौ ग्यारह दोहोंका दूसरा
महा अधिकार कहा है, उसमें दस अन्तर अधिकार हैं । इसके बाद ‘परु जाणंतु वि’ इत्यादि
एकसौ सात दोहोंमें ग्रंथकी समाप्ति पर्यंत चूलिका व्याख्यान है । इनके सिवाय प्रक्षेपक हैं ।
उन एकसौ सात दोहोंमेंसे अन्तके ‘परमसमाहि’ इत्यादि चौबीस दोहा पर्यंत परमसमाधिका कथन
है, उनमें सात स्थल हैं । उनमेंसे प्रथम स्थलमें निर्विकल्प समाधिकी मुख्यताकर
‘परमसमाहिमहासरहिं’ इत्यादि छह दोहे, अरहंतपदकी मुख्यताकर ‘सयल वियप्पहं’ इत्यादि