Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
shrI diga.nbar jain svAdhyAyama.ndir TrasTa, sonagaDh - 364250
adhikAr-2 : dohA-135 ]paramAtmaprakAsh: [ 441
samAdhinA baLathI rAgAdinA tyAg vaDe chittashuddhi karavI joIe. jeNe chittashuddhi na karI te
Atmava.nchak Che. vaLI, kahyu.n paN Che ke 1
‘‘चित्ते बद्धे बद्धो मुक्के मुक्को त्ति णत्थि संदेहो । अप्पा
विमलसहावो मइलिज्जइ मइलिए चित्ते’’ (artha: — chitta ba.ndhAtA.n (chitta dhan, dhAnyAdi parigrahamA.n
Asakta thatA.n) ba.ndhAy Che, ane chitta parigrahathI, AshAtR^iShNAthI alag thatA.n, mUkAy Che, emA.n
sa.ndeh nathI. AtmA vimaLasvabhAvI Che paN te chitta malin thatA.n malin thAy Che. 135.)
ahI.n, pA.nch indriyono vijay darshAve Che : —
किम् । तवयरणु बाह्याभ्यन्तरतपश्चरणम् । किं कृत्वा । णिम्मलु चित्तु करेवि काम-
क्रोधादिरहितं वीतरागचिदानन्दैकसुखामृततृप्तं निर्मलं चित्तं कृत्वा । अप्पा वंचिउ तेण पर
आत्मा वञ्चितः तेन परं नियमेन । किं कृत्वा । लहेवि लब्ध्वा । किम् । माणुसजम्मु
मनुष्यजन्मेति । तथाहि । दुर्लभपरंपरारूपेण मनुष्यभवे लब्धे तपश्चरणेऽपि, च
निर्विकल्पसमाधिबलेन रागादिपरिहारेण चित्तशुद्धिः कर्तव्येति । येन चित्तशुद्धिर्न कृता स
आत्मवञ्चक इति भावार्थः । तथा चोक्त म् — ‘‘चित्ते बद्धे बद्धो मुक्के मुक्को त्ति णत्थि
संदेहो । अप्पा विमलसहावो मइलिज्जइ मइलिए चित्ते ।।’’ ।।१३५।।
अत्र पञ्चेन्द्रियविजयं दर्शयति —
और क्रोधादि रहित वीतराग चिदानंद सुखरूपी अमृतकर प्राप्त अपना निर्मल चित्त करके
अनशनादि तप न किया, वह आत्मघाती है, अपने आत्माका ठगनेवाला है । एकेंद्री पर्यायसे
विकलत्रय होना दुर्लभ है, विकलत्रयसे असैनी पंचेंद्री होना, असैनी पंचेंद्रियसे सैनी होना, सैनी
तिर्यंचसे मनुष्य, होना दुर्लभ है । मनुष्यमें भी आर्यक्षेत्र, उत्तमकुल, दीर्घ आयु, सतसंग,
धर्मश्रवण, धर्मका धारण और उसे जन्मपर्यन्त निभाना ये सब बातें दुर्लभ हैं, सबसे दुर्लभ
(कठिन) आत्मज्ञान है, जिससे कि चित्त शुद्ध होता है । ऐसी महादुर्लभ मनुष्यदेह पाकर
तपश्चरण अंगीकार करके निर्विकल्प समाधिके बलसे रागादिका त्याग कर परिणाम निर्मल
करने चाहिये, जिन्होंने चित्तको निर्मल नहीं किया, वे आत्माको ठगनेवाले हैं । ऐसा दूसरी जगह
भी किया है, कि चित्तके बँधनसे यह जीव कर्मोंसे बँधता है । जिनका चित्त परिग्रहसे धन
धान्यादिकसे आसक्त हुआ, वे ही कर्मबंधनसे बँधते हैं, और जिनका चित्त परिग्रहसे छूटा आशा
(तृष्णा) से अलग हुआ, वे ही मुक्त हुए । इसमें संदेह नहीं है । यह आत्मा निर्मल स्वभाव
है, सो चित्तके मैले होनेसे मैला होता है ।।१३५।।
आगे पाँच इंद्रियोंका जीतना दिखलाते हैं —
1. anagAr dharmAmR^it adhyAy 6, gAthA 41nI sa.nskR^it TIkAmA.n A shlok Che.
स = स आत्मा