Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
shrI diga.nbar jain svAdhyAyama.ndir TrasTa, sonagaDh - 364250
adhikAr-2 : dohA-137 ]paramAtmaprakAsh: [ 443
have, dhyAnanI viShamatAnu.n (kaThinatAnu.n) kathan kare Che : —
bhAvArtha: — he yogI! yoganI gati viSham Che kAraN ke atya.nt chapaL markaT jevu.n man
nijashuddhAtmAmA.n sthiratA pAmatu.n nathI, te paN eTalA mATe ke pA.nch indriyonA viShayasukho Che
temA.n ja vItarAg param AhlAdamay, samarasIbhAvarUp paramasukhathI rahit, anAdikALathI
vAsanAmA.n vAsit ane pA.nch indriyonA viShayasukhanA AsvAdamA.n Asakta jIvonu.n man pharI pharIne
jAy Che, e bhAvArtha Che. 137.
अथ ध्यानवैषम्यं कथयति —
२६७) जोइय विसमी जोय-गइ मणु संठवण ण जाइ ।
इंदिय-विसय जि सुक्खडा तित्थु जि वलि वलि जाइ ।।१३७।।
योगिन् विषमा योगगतिः मनः संस्थापयितुं न याति ।
इन्द्रियविषयेषु एव सुखानि तत्र एव पुनः पुनः याति ।।१३७।।
जोइय इत्यादि । जोइय हे योगिन् विसमी जोय-गइ विषमा योगगतिः । कस्मात् । मणु
संठवण ण जाइ निजशुद्धात्मन्यतिचपलं मर्कटप्रायं मनो धर्तंु न याति । तदपि कस्मात् ।
इंदिय-विसय जि सुक्खडा इन्द्रियविषयेषु यानि सुखानि वलि वलि तित्थु जि जाइ वीतराग-
परमाह्लादसमरसीभावपरमसुखरहितानां अनादिवासनावासितपञ्चेन्द्रियविषयसुखस्वादासक्त ानां पुनः
पुनः तत्रैव गच्छतीति भावार्थः ।।१३७।।
आगे ध्यानकी कठिनता दिखलाते हैं —
गाथा – १३७
अन्वयार्थ : — [योगिन् ] हे योगी, [योगगतिः ] ध्यानकी गति [विषमा ] महाविषम
है, क्योंकि [मनः ] चित्तरूपी बन्दर चपल होनेसे [संस्थापयितुं न याति ] निज शुद्धात्मामें
स्थिरताको नहीं प्राप्त होता । क्योंकि [इंद्रियविषयेषु एव ] इन्द्रियके विषयोंमें ही [सुखानि ] सुख
मान रहा है, इसलिये [तत्र एव ] उन्हीं विषयोंमें [पुनः पुनः ] फि र फि र अर्थात् बार बार
[याति ] जाता है ।
भावार्थ : — वीतराग परम आनंद समरसी भावरूप अतींद्रिय सुखसे रहित जो यह
संसारी जीव है, उसका मन अनादिकालकी अविद्याकी वासनामें बस रहा है, इसलिये
पंचेन्द्रियोंके विषय – सुखोंमें आसक्त है, इन जगत्के जीवोंका मन बारम्बार विषय – सुखोंमें जाता
है, और निजस्वरूपमें नहीं लगता है, इसलिये ध्यानकी गति विषम (कठिन) है ।।१३७।।