Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ଶ୍ରୀ ଦିଗଂବର ଜୈନ ସ୍ଵାଧ୍ଯାଯମଂଦିର ଟ୍ରସ୍ଟ, ସୋନଗଢ - ୩୬୪୨୫୦
श्वेतशङ्खवत्स्वरूपविशेषणमिदम् इति परिहारत्रयं निर्दोषिपरमात्मशब्दादिपूर्वपक्षेऽपि
योजनीयम् ।।२८।।
अथ यः परमात्मा व्यवहारेण देहे तिष्ठति निश्चयेन स्वस्वरूपे तमाह —
२९) देहादेहहिँ जो वसइ भेयाभेय-णएण ।
सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ किं अण्णेँ बहुएण ।।२९।।
देहादेहयोः यो वसति भेदाभेदनयेन ।
तमात्मानं मन्यस्व जीव त्वं किमन्येन बहुना ।।२९।।
देहादेहयोरधिकरणभूतयोर्यो वसति । केन । भेदाभेदनयेन । तथाहि — अनुप-
‘ଵୀତରାଗ ’ ଏଵୁଂ ଵିଶେଷଣ ମୂକଵାନୋ ହେତୁ ଛେ.
ଏ ରୀତେ ତ୍ରଣ ପରିହାରନେ ନିର୍ଦୋଷ ପରମାତ୍ମା ଵଗେରେ ଶବ୍ଦନା ପୂର୍ଵପକ୍ଷମାଂ ପଣ ଯୋଜଵା
ଜୋଈଏ. ୨୮.
ହଵେ ଜେ ପରମାତ୍ମା ଵ୍ଯଵହାରଥୀ ଦେହମାଂ ରହେ ଛେ ଅନେ ନିଶ୍ଚଯଥୀ ସ୍ଵସ୍ଵରୂପମାଂ ରହେ ଛେ
ତେନେ (ଏଵା ଆତ୍ମାନେ) କହେ ଛେ : —
अर्थात् जो शंख होगा, वह श्वेत ही होगा, उसी प्रकार जो निर्विकल्पसमाधि होगी, वह
वीतरागतारूप ही होगी ।।२८।।
आगे यह परमात्मा व्यवहारनयसे तो इस देहमें ठहर रहा है, लेकिन निश्चयनयकर अपने
स्वरूपमें ही तिष्ठता है, ऐसी आत्माको कहते हैं —
गाथा – २९
अन्वयार्थ : — [यः ] जो [भेदाभेदनयेन देहादेहयोः वसति ]
अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनयकर अपनेसे भिन्न जड़रुप देहमें तिष्ठ रहा है, और शुद्ध
निश्चयनयकर अपने आत्मस्वभावमें ठहरा हुआ है, अर्थात् व्यवहारनयकर तो देहसे अभेदरूप
(तन्मय) है, और निश्चयसे सदा कालसे अत्यन्त जुदा है, अपने स्वभावमें स्थित है, [तं ] उसे
[हे जीव त्वं ] हे जीव, तूँ [आत्मानं ] परमात्मा [मन्यस्व ] जान । अर्थात् नित्यानंद वीतराग
निर्विकल्पसमाधिमें ठहरके अपने आत्माका ध्यान कर । [अन्येन ] अपनेसे भिन्न [बहुना ] देह
रागादिकोंसे [किम् ] तुझे क्या प्रयोजन है ?
ଅଧିକାର-୧ : ଦୋହା-୨୯ ]ପରମାତ୍ମପ୍ରକାଶ: [ ୫୭