Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 356-365 ; Kalash: 215-217.

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गाथा ३प६ थी ३६प
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि।
तह जाणगो दु ण परस्स जाणगो जाणगो सो दु।। ३५६।।
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि।
तह पासगो दु ण परस्स पासगो पासगो सो दु।। ३५७।।
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि।
तह संजदो दु ण परस्स संजदो संजदो सो दु।। ३५८।।
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि।
तह दंसणं दु ण परस्स दंसणं दंसणं तं तु।। ३५९।।

(‘खडी तो खडी ज छे’ -ए निश्चय छे; ‘खडी-स्वभावे परिणमती खडी भींत- स्वभावे परिणमती भींतने सफेद करे छे’ एम कहेवुं ते पण व्यवहारकथन छे. तेवी रीते ‘ज्ञायक तो ज्ञायक ज छे’ -ए निश्चय छे; ‘ज्ञायकस्वभावे परिणमतो ज्ञायक परद्रव्यस्वभावे परिणमतां एवां परद्रव्योने जाणे छे’ एम कहेवुं ते पण व्यवहारकथन छे.) आवा निश्चय-व्यवहार कथनने हवे गाथाओमां द्रष्टांत द्वारा स्पष्ट कहे छेः-

ज्यम सेटिका नथी पर तणी, छे सेटिका बस सेटिका,
ज्ञायक नथी त्यम पर तणो, ज्ञायक खरे ज्ञायक तथा; ३प६.
ज्यम सेटिका नथी पर तणी, छे सेटिका बस सेटिका,
दर्शक नथी त्यम पर तणो, दर्शक खरे दर्शक तथा; ३प७.
ज्यम सेटिका नथी पर तणी, छे सेटिका बस सेटिका,
संयत नथी त्यम पर तणो, संयत खरे संयत तथा; ३प८.
ज्यम सेटिका नथी पर तणी, छे सेटिका बस सेटिका,
दर्शन नथी त्यम पर तणुं, दर्शन खरे दर्शन तथा. ३प९.

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एवं तु णिच्छयणयस्स भासिदं णाणदंसणचरित्ते।
सुणु ववहारणयस्स य वत्तव्वं से समासेण।। ३६०।।
जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण।
तह परदव्वं जाणदि णादा वि सएण भावेण।। ३६१।।
जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण।
तह परदव्वं पस्सदि जीवो वि सएण भावेण।। ३६२।।
जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण।
तह परदव्वं विजहदि णादा वि सएण भावेण।। ३६३।।
जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण।
तह परदव्वं सद्दहदि सम्मदिट्ठी सहावेण।। ३६४।।
एवं ववहारस्स दु विणिच्छओ णाणदंसणचरित्ते।
भणिदो अण्णेसु वि पज्जएसु एमेव णादव्वो।। ३६५।।
एम ज्ञान–दर्शन–चरितविषयक कथन निश्चयनय तणुं;
सांभळ कथन संक्षेपथी एना विषे व्यवहारनुं. ३६०.
ज्यम निज स्वभावथी सेटिका परद्रव्यने धोळुं करे,
ज्ञाताय ए रीत जाणतो निज भावथी परद्रव्यने; ३६१.
ज्यम निज स्वभावथी सेटिका परद्रव्यने धोळुं करे,
आत्माय ए रीत देखतो निज भावथी परद्रव्यने; ३६२.
ज्यम निज स्वभावथी सेटिका परद्रव्यने धोळुं करे,
ज्ञाताय ए रीत त्यागतो निज भावथी परद्रव्यने; ३६३.
ज्यम निज स्वभावथी सेटिका परद्रव्यने धोळुं करे,
सुद्रष्टि ए रीत श्रद्धतो निज भावथी परद्रव्यने. ३६४.
एम ज्ञान–दर्शन–चरितमां निर्णय कह्यो व्यवहारनो,
ने अन्य पर्यायो विषे पण ए ज रीते जाणवो. ३६प.

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यथा सेटिका तु न परस्य सेटिका सेटिका च सा भवति।
तथा ज्ञायकवस्तु न परस्य ज्ञायको ज्ञायकः स तु।। ३५६।।
यथा सेटिका तु न परस्य सेटिका सेटिका च सा भवति।
तथा दर्शकस्तु न परस्य दर्शको दर्शकः स तु।। ३५७।।
यथा सेटिका तु न परस्य सेटिका सेटिका च सा भवति।
तथा संयतस्तु न परस्य संयतः संयतः स तु।। ३५८।।
यथा सेटिका तु न परस्स सेटिका सेटिका च सा भवति।
तथा दर्शनं तु न परस्य दर्शनं दर्शनं तत्तु।। ३५९।।
एवं तु निश्चयनयस्य भाषितं ज्ञायदर्शनचरित्रे।
शृणु व्यवहारनयस्य च वक्तव्यं तस्य समासेन।। ३६०।।

गाथार्थः– (जोके व्यवहारे परद्रव्योने अने आत्माने ज्ञेय-ज्ञायक, द्रश्य-दर्शक, त्याज्य-याजक इत्यादि संबंध छे, तोपण निश्चये तो आ प्रमाणे छेः-) [यथा] जेम [सेटिका तु] खडी [परस्य न] परनी (-भींत आदिनी) नथी, [सेटिका] खडी [सा च सेटिका भवति] ते तो खडी ज छे, [तथा] तेम [ज्ञायकः तु] ज्ञायक (जाणनारो, आत्मा) [परस्य न] परनो (परद्रव्यनो) नथी, [ज्ञायकः] ज्ञायक [सः तु ज्ञायकः] ते तो ज्ञायक ज छे. [यथा] जेम [सेटिका तु] खडी [परस्य न] परनी नथी, [सेटिका] खडी [सा च सेटिका भवति] ते तो खडी ज छे, [तथा] तेम [दर्शकः तु] दर्शक (देखनारो आत्मा) [परस्य न] परनो नथी, [दर्शकः] दर्शक [सः तु दर्शकः] ते तो दर्शक ज छे. [यथा] जेम [सेटिका तु] खडी [परस्य न] परनी (-भींत आदिनी) नथी, [सेटिका] खडी [सा च सेटिका भवति] ते तो खडी ज छे, [तथा] तेम [संयतः तु] संयत (त्याग करनारो, आत्मा) [परस्य न] परनो (-परद्रव्यनो) नथी, [संयतः] संयत [सः तु संयतः] ते तो संयत ज छे. [यथा] जेम [सेटिका तु] खडी [परस्य न] परनी नथी, [सेटिका] खडी [सा च सेटिका भवति] ते तो खडी ज छे, [तथा] तेम [दर्शनं तु] दर्शन अर्थात् श्रद्धान [परस्य न] परनुं नथी, [दर्शनं तत् तु दर्शनम्] दर्शन ते तो दर्शन ज छे अर्थात् श्रद्धान ते तो श्रद्धान ज छे.

[एवं तु] ए प्रमाणे [ज्ञानदर्शनचरित्रे] ज्ञान-दर्शन-चारित्र विषे [निश्चयनयस्य भाषितम्] निश्चयनयनुं कथन छे. [तस्य च] वळी ते विषे [समासेन] संक्षेपथी [व्यवहारनयस्य वक्तव्यं] व्यवहारनयनुं कथन [शृणु] सांभळ.


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यथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मनः स्वभावेन।
तथा परद्रव्यं जानाति ज्ञातापि स्वकेन भावेन।। ३६१।।
यथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मनः स्वभावेन।
तथा परद्रव्यं पश्यति जीवोऽपि स्वकेन भावेन।। ३६२।।
यथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मनः स्वभावेन।
तथा परद्रव्यं विजहाति ज्ञातापि स्वकेन भावेन।। ३६३।।
यथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मनः स्वभावेन।
तथा परद्रव्यं श्रद्धत्ते सम्यग्द्रष्टिः स्वभावेन।। ३६४।।
एवं व्यवहारस्य तु विनिश्चयो ज्ञानदर्शनचरित्रे।
भणितोऽन्येष्वपि पर्यायेषु एवमेव ज्ञातव्यः।।
३६५।।

[यथा] जेम [सेटिका] खडी [आत्मनः स्वभावेन] पोताना स्वभावथी [परद्रव्यं] (भींत आदि) परद्रव्यने [सेटियति] सफेद करे छे, [तथा] तेम [ज्ञाता अपि] ज्ञाता पण [स्वकेन् भावेन] पोताना स्वभावथी [परद्रव्यं] परद्रव्यने [जानाति] जाणे छे. [यथा] जेम [सेटिका] खडी [आत्मनः स्वभावेन] पोताना स्वभावथी [परद्रव्यं] परद्रव्यने [सेटयति] सफेद करे छे, [तथा] तेम [जीवः अपि] जीव पण [स्वकेन भावेन] पोताना स्वभावथी [परद्रव्यं] परद्रव्यने [पश्यति] देखे छे. [यथा] जेम [सेटिका] खडी [आत्मनः स्वभावेन] पोताना स्वभावथी [परद्रव्यं] परद्रव्यने [सेटयति] सफेद करे छे, [तथा] तेम [ज्ञाता अपि] ज्ञाता पण [स्वकेन भावेन] पोताना स्वभावथी [परद्रव्यं] परद्रव्यने [विजहाति] त्यागे छे. [यथा] जेम [सेटिका] खडी [आत्मनः स्वभावेन] पोताना स्वभावथी [परद्रव्यं] परद्रव्यने [सेटयति] सफेद करे छे, [तथा] तेम [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [स्वभावेन] पोताना स्वभावथी [परद्रव्यं] परद्रव्यने [श्रद्धत्ते] श्रद्धे छे. [एवं तु] आ प्रमाणे [ज्ञानदर्शनचरित्रे] ज्ञान-दर्शन-चारित्र विषे [व्यवहारनयस्य विनिश्चयः] व्यवहारनयनो निर्णय [भणितः] कह्यो; [अन्येषु पर्यायेषु अपि] बीजा पर्यायो विषे पण [एवम् एव ज्ञातव्यः] ए रीते ज जाणवो.

टीकाः– आ जगतमां खडी छे ते श्वेतगुणथी भरेला स्वभाववाळुं द्रव्य छे. भींत- आदि परद्रव्य व्यवहारे ते खडीनुं श्वैत्य छे (अर्थात् खडी वडे श्वेत करावायोग्य पदार्थ छे). हवे, ‘श्वेत करनारी खडी, श्वेत करवायोग्य जे भींत-आदि परद्रव्य तेनी छे के नथी?’ -एम ते बन्नेनो तात्त्विक (पारमार्थिक) संबंध अहीं


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विचारवामां आवे छेः- जो खडी भींत-आदि परद्रव्यनी होय तो शुं थाय ते प्रथम विचारीएः ‘जेनुं जे होय ते ते ज होय, जेम आत्मानुं ज्ञान होवाथी ज्ञान ते आत्मा ज छे (-जुदुं द्रव्य नथी);’ -आवो तात्त्विक संबंध जीवंत (अर्थात् विद्यमान) होवाथी, खडी जो भींत-आदिनी होय तो खडी ते भींत-आदि ज होय (अर्थात् खडी भींत- आदिस्वरूप ज होवी जोईए, भींत-आदिथी जुदुं द्रव्य न होवुं जोईए); एम होतां, खडीना स्वद्रव्यनो उच्छेद (नाश) थाय. परंतु द्रव्यनो उच्छेद तो थतो नथी, कारण के एक द्रव्यनुं अन्य द्रव्यरूपे संक्रमण थवानो तो पूर्वे ज निषेध कर्यो छे. माटे (ए सिद्ध थयुं के) खडी भींत-आदिनी नथी. (आगळ विचारीएः) जो खडी भींत-आदिनी नथी, तो खडी कोनी छे? खडीनी ज खडी छे. (आ) खडीथी जुदी एवी बीजी कई खडी छे के जेनी (आ) खडी छे? (आ) खडीथी जुदी अन्य कोई खडी नथी, परंतु तेओ बे स्व- स्वामीरूप अंशो ज छे. अहीं स्व-स्वामीरूप अंशोना व्यवहारथी शुं साध्य छे? कांई साध्य नथी. तो पछी खडी कोईनी नथी, खडी खडी ज छे-ए निश्चय छे. (ए प्रमाणे द्रष्टांत कह्युं.) जेम आ द्रष्टांत छे, तेम आ (नीचे प्रमाणे) द्रार्ष्टांत छेः- आ जगतमां चेतयिता (चेतनारो अर्थात् आत्मा) छे ते ज्ञानगुणथी भरेला स्वभाववाळुं द्रव्य छे. पुद्गलादि परद्रव्य व्यवहारे ते चेतयितानुं (आत्मानुं) ज्ञेय छे, हवे, ‘ज्ञायक (अर्थात् जाणनारो) चेतयिता, ज्ञेय (अर्थात् जणावायोग्य) जे पुद्गलादि परद्रव्य तेनो छे के नथी?’ -एम ते बन्नेनो तात्त्विक संबंध अहीं विचारवामां आवे छेः- जो चेतयिता पुद्गलादिनो होय तो शुं थाय ते प्रथम विचारीएः ‘जेनुं जे होय ते ते ज होय, जेम आत्मानुं ज्ञान होवाथी ज्ञान ते आत्मा ज छे;’ -आवो तात्त्विक संबंध जीवंत (अर्थात् छतो) होवाथी, चेतयिता जो पुद्गलादिनो होय तो चेतयिता ते पुद्गलादि ज होय (अर्थात् चेतयिता पुद्गलादिस्वरूप ज होवो जोईए, पुद्गलादिथी जुदुं द्रव्य न होवुं जोईए); एम होतां, चेतयिताना स्वद्रव्यनो उच्छेद थाय. परंतु द्रव्यनो उच्छेद तो थतो नथी, कारण के एक द्रव्यनुं अन्य द्रव्यरूपे संक्रमण थवानो तो पूर्वे ज निषेध कर्यो छे. माटे (ए सिद्ध थयुं के) चेतयिता पुद्गलादिनो नथी. (आगळ विचारीएः) जो चेतयिता पुद्गलादिनो नथी तो चेतयिता कोनो छे? चेतयितानो ज चेतयिता छे. (आ) चेतयिताथी जुदो एवो बीजो क्यो चेतयिता छे के जेनो (आ) चेतयिता छे? (आ) चेतयिताथी जुदो अन्य कोई चेतयिता नथी, परंतु तेओ बे स्व-स्वामीरूप अंशो ज छे. अहीं स्व-स्वामीरूप अंशोना व्यवहारथी शुं साध्य छे? कांई साध्य नथी. तो पछी ज्ञायक कोईनो नथी, ज्ञायक ज्ञायक ज छे-ए निश्चय छे.

(आ रीते अहीं एम बताव्युं केः ‘आत्मा परद्रव्यने जाणे छे’ -ए


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व्यवहारकथन छे; ‘आत्मा पोताने जाणे छे’ -एम कहेवामां पण स्व-स्वामीअंशरूप व्यवहार छे; ‘ज्ञायक ज्ञायक ज छे’ -ए निश्चय छे.)

वळी (जेवी रीते ज्ञायक विषे द्रष्टांत-द्रार्ष्टांतथी कह्युं) एवी ज रीते दर्शक विषे कहेवामां आवे छेः- आ जगतमां खडी छे ते श्वेतगुणथी भरेला स्वभाववाळुं द्रव्य छे. भींत-आदि परद्रव्य व्यवहारे ते खडीनुं श्वैत्य छे (अर्थात् खडी वडे श्वेत करावायोग्य पदार्थ छे). हवे, ‘श्वेत करनारी खडी, श्वेत करावायोग्य जे भींत-आदि परद्रव्य तेनी छे के नथी?’ -एम ते बन्नेनो तात्त्विक संबंध अहीं विचारवामां आवे छेः- जो खडी भींत-आदि परद्रव्यनी होय तो शुं थाय ते प्रथम विचारीएः ‘जेनुं जे होय ते ते ज होय, जेम आत्मानुं ज्ञान होवाथी ज्ञान ते आत्मा ज छे;’ -आवो तात्त्विक संबंध जीवंत होवाथी, खडी जो भींत-आदिनी होय तो खडी ते भींत-आदिनी ज होय (अर्थात् खडी भींत-आदिस्वरूप ज होवी जोईए); एम होतां, खडीना परद्रव्यनो उच्छेद थाय. परंतु द्रव्यनो उच्छेद तो थतो नथी, कारण के एक द्रव्यनुं अन्य द्रव्यरूपे संक्रमण थवानो तो पूर्वे ज निषेध कर्यो छे. माटे (ए सिद्ध थयुं के) खडी भींत-आदिनी नथी. (आगळ विचारीएः) जो खडी भींत-आदिनी नथी तो खडी कोनी छे? खडीनी ज खडी छे. (आ) खडीथी जुदी एवी बीजी कई खडी छे के जेनी (आ) खडी छे? (आ) खडीथी जुदी अन्य कोई खडी नथी, परंतु तेओ बे स्व-स्वामीरूप अंशो ज छे. अहीं स्व- स्वामीरूप अंशोना व्यवहारथी शुं साध्य छे? कांई साध्य नथी. तो पछी खडी कोईनी नथी, खडी खडी ज छे-ए निश्चय छे. जेम आ द्रष्टांत छे, तेम आ (नीचे प्रमाणे) द्रार्ष्टांत छेः- आ जगतमां चेतयिता छे ते दर्शनगुणथी भरेला स्वभाववाळुं द्रव्य छे. पुद्गलादि परद्रव्य व्यवहारे ते चेतयितानुं द्रश्य छे. हवे, ‘दर्शक (देखनारो अथवा श्रद्धनारो) चेतयिता, द्रश्य (देखावायोग्य अथवा श्रद्धावायोग्य) जे पुद्गलादि परद्रव्य तेनो छे के नथी?’ -एम ते बन्नेनो तात्त्विक संबंध अहीं विचारवामां आवे छेः- जो चेतयिता पुद्गलादिनो होय तो शुं थाय ते प्रथम विचारीएः ‘जेनुं जे होय ते ते ज होय, जेम आत्मानुं ज्ञान होवाथी ज्ञान ते आत्मा ज छे;’ -आवो तात्त्विक संबंध जीवंत होवाथी, चेतयिता जो पुद्गलादिनो होय तो चेतयिता ते पुद्गलादि ज होय (अर्थात् चेतयिता पुद्गलादिस्वरूप ज होवो जोईए). एम होतां, चेतयिताना स्वद्रव्यनो उच्छेद थाय. परंतु द्रव्यनो उच्छेद तो थतो नथी, कारण के एक द्रव्यनुं अन्य द्रव्यरूपे संक्रमण थवानो तो पूर्वे ज निषेध कर्यो छे. माटे (ए सिद्ध थयुं के) चेतयिता पुद्गलादिनो नथी. (आगळ विचारीएः) जो चेतयिता पुद्गलादिनो नथी तो चेतयिता कोनो छे? चेतयितानो ज चेतयिता छे. (आ) चेतयिताथी जुदो एवो बीजो क्यो चेतयिता छे के जेनो (आ) चेतयिता


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छे? (आ) चेतयिताथी जुदो अन्य कोई चेतयिता नथी, परंतु तेओ बे स्व-स्वामीरूप अंशो ज छे, अहीं स्व-स्वामीरूप अंशोना व्यवहारथी शुं साध्य छे? कांई साध्य नथी. तो पछी दर्शक कोईनो नथी, दर्शक दर्शक ज छे-ए निश्चय छे.

(आ रीते अहीं एम बताव्युं केः ‘आत्मा परद्रव्यने देखे छे अथवा श्रद्धे छे’ -ए व्यवहारकथन छे; ‘आत्मा पोताने देखे छे अथवा श्रद्धे छे’ -एम कहेवामां पर स्व- स्वामीअंशरूप व्यवहार छे; ‘दर्शक दर्शक ज छे, -ए निश्चय छे.)

वळी (जेवी रीते ज्ञायक तथा दर्शक विषे द्रष्टांत-द्रार्ष्टांतथी कह्युं) एवी ज रीते अपोहक (त्याजक, त्याग करनार) विषे कहेवामां आवे छेः- आ जगतमां खडी छे ते श्वेतगुणथी भरेला स्वभाववाळुं द्रव्य छे. भींत-आदि परद्रव्य व्यवहारे ते खडीनुं श्वैत्य छे (अर्थात् खडी वडे श्वेत करावायोग्य पदार्थ छे). हवे, ‘श्वेत करनारी खडी, श्वेत करावायोग्य जे भींत-आदि परद्रव्य तेनी छे के नथी?’ -एम ते बन्नेनो तात्त्विक संबंध अहीं विचारवामां आवे छेः- जो खडी भींत-आदि परद्रव्यनी होय तो शुं थाय ते प्रथम विचारीएः ‘जेनुं जे होय ते ते ज होय, जेम आत्मानुं ज्ञान होवाथी ज्ञान ते आत्मा ज छे;’ -आवो तात्त्विक संबंध जीवंत होवाथी, खडी जो भींत-आदिनी होय तो खडी ते भींत-आदि ज होय (अर्थात् खडी भींत-आदिस्वरूप ज होवी जोईए); एम होतां, खडीना स्वद्रव्यनो उच्छेद थाय. परंतु द्रव्यनो उच्छेद तो थतो नथी, कारण के एक द्रव्यनुं अन्य द्रव्यरूपे संक्रमण थवानो तो पूर्वे ज निषेध कर्यो छे. माटे (ए सिद्ध थयुं के) खडी भींत-आदिनी नथी. (आगळ विचारीएः) जो खडी भींत-आदिनी नथी तो खडी कोनी छे? खडीनी ज खडी छे. (आ) खडीथी जुदी एवी बीजी कोई खडी छे के जेनी (आ) खडी छे? (आ) खडीथी जुदी अन्य कोई खडी नथी, परंतु तेओ बे स्व-स्वामीरूप अंशो ज छे. अहीं स्व-स्वामीरूप अंशोना व्यवहारथी शुं साध्य छे? कांई साध्य नथी. तो पछी खडी कोईनी नथी, खडी खडी ज छे-ए निश्चय छे. जेम आ द्रष्टांत छे, तेम आ (नीचे प्रमाणे) द्रार्ष्टांत छेः- आ जगतमां जे चेतयिता छे ते, जेनो ज्ञानदर्शनगुणथी भरेलो, परना अपोहनस्वरूप (त्यागस्वरूप) स्वभाव छे एवुं द्रव्य छे. पुद्गलादि परद्रव्य व्यवहारे ते चेतयितानुं अपोह्य (त्याज्य, त्यागवायोग्य पदार्थ) छे. हवे, ‘अपोहक (त्याजक) चेतयिता, अपोह्य (त्याज्य) जे पुद्गलादि परद्रव्य तेनो छे के नथी?’ -एम ते बन्नेनो तात्त्विक संबंध अहीं विचारवामां आवे छेः- जो चेतयिता पुद्गलादिनो होय तो शुं थाय ते प्रथम विचारीएः ‘जेनुं जे होय ते ते ज होय, जेम आत्मानुं ज्ञान होवाथी ज्ञान ते आत्मा ज छे;’ -आवो तात्त्विक संबंध जीवंत होवाथी, चेतयिता जो पुद्गलादिनो


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होय तो चेतयिता ते पुद्गलादि ज होय (अर्थात् चेतयिता पुद्गलादिस्वरूप ज होवो जोईए); एम होतां, चेतयिताना स्वद्रव्यनो उच्छेद थाय. परंतु द्रव्यनो उच्छेद तो थतो नथी, कारण के एक द्रव्यनुं अन्य द्रव्यरूपे संक्रमण थवानो तो पूर्वे ज निषेध कर्यो छे. माटे (ए सिद्ध थयुं के) चेतयिता पुद्गलादिनो नथी. (आगळ विचारीएः) जो चेतयिता पुद्गलादिनो नथी तो चेतयिता कोनो छे? चेतयितानो ज चेतयिता छे. (आ) चेतयिताथी जुदो एवो बीजो क्यो चेतयिता छे के जेनो (आ) चेतयिता छे? (आ) चेतयिताथी जुदो अन्य कोई चेतयिता नथी, परंतु तेओ बे स्व-स्वामीरूप अंशो ज छे. अहीं स्व-स्वामीरूप अंशोना व्यवहारथी शुं साध्य छे? कांई साध्य नथी. तो पछी अपोहक (अर्थात् त्याग करनार) कोईनो नथी, अपोहक अपोहक ज छे-ए निश्चय छे.

(आ रीते अहीं एम बताव्युं केः ‘आत्मा परद्रव्यने अपोहे छे अर्थात् त्यागे छे’ -ए व्यवहारकथन छे; ‘आत्मा ज्ञानदर्शनमय एवा पोताने ग्रहे छे’ -एम कहेवामां पण स्व-स्वामीअंशरूप व्यवहार छे; ‘अपोहक अपोहक ज छे’ -ए निश्चय छे.)

हवे व्यवहारनुं व्याख्यान करवामां आवे छेः-

जेवी रीते श्वेतगुणथी भरेला स्वभाववाळी ते ज खडी, पोते भींत-आदि परद्रव्यना स्वभावे नहि परिणमती थकी अने भींत-आदि परद्रव्यने पोताना स्वभावे नहि परिणमावती थकी, भींत-आदि परद्रव्य जेने निमित्त छे एवा पोताना श्वेतगुणथी भरेला स्वभावना परिणाम वडे ऊपजती थकी, खडी जेने निमित्त छे एवा पोताना (- भींत आदिना-) स्वभावना परिणाम वडे ऊपजता भींत-आदि परद्रव्यने, पोताना (- खडीना-) स्वभावथी श्वेत करे छे-एम व्यवहार करवामां आवे छे; तेवी रीते ज्ञानगुणथी भरेला स्वभाववाळो चेतयिता पण, पोते पुद्गलादि परद्रव्यना स्वभावे नहि परिणमतो थको अने पुद्गलादि परद्रव्यने पोताना स्वभावे नहि परिणमावतो थको, पुद्गलादि परद्रव्य जेने निमित्त छे एवा पोताना ज्ञानगुणथी भरेला स्वभावना परिणाम वडे ऊपजतो थको, चेतयिता जेने निमित्त छे एवा पोताना (-पुद्गलादिना-) स्वभावना परिणाम वडे ऊपजता पुद्गलादि परद्रव्यने पोताना (-चेतयिताना-) स्वभावथी जाणे छे-एम व्यवहार करवामां आवे छे.

वळी (जेवी रीते ज्ञानगुणनो व्यवहार कह्यो) एवी ज रीते दर्शनगुणनो व्यवहार कहेवामां आवे छेः- जेवी रीते श्वेतगुणथी भरेला स्वभाववाळी ते ज खडी, पोते भींत- आदि परद्रव्यना स्वभावे नहि परिणमती थकी अने भींत-आदि परद्रव्यने पोताना स्वभावे नहि परिणमावती थकी, भींत-आदि परद्रव्य जेने निमित्त


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छे एवा पोताना श्वेतगुणथी भरेला स्वभावना परिणाम वडे ऊपजती थकी, खडी जेने निमित्त छे एवा पोताना (-भींत-आदिना-) स्वभावना परिणाम वडे ऊपजता भींत- आदि परद्रव्यने पोताना (-खडीना-) स्वभावथी श्वेत करे छे-एम व्यवहार करवामां आवे छे; तेवी रीते दर्शनगुणथी भरेला स्वभाववाळो चेतयिता पण, पोते पुद्गलादि परद्रव्यना स्वभावे नहि परिणमतो थको अने पुद्गलादि परद्रव्यने पोताना स्वभावे नहि परिणमावतो थको, पुद्गलादि परद्रव्य जेने निमित्त छे एवा पोताना दर्शनगुणथी भरेला स्वभावना परिणाम वडे ऊपजतो थको, चेतयिता जेने निमित्त छे एवा पोताना (-पुद्गलादिना-) स्वभावना परिणाम वडे ऊपजता पुद्गलादि परद्रव्यने पोताना (-चेतयिताना-) स्वभावथी देखे छे अथवा श्रद्धे छे-एम व्यवहार करवामां आवे छे.

वळी (जेवी रीते ज्ञान-दर्शन गुणोनो व्यवहार कह्यो) एवी ज रीते चारित्रगुणनो व्यवहार कहेवामां आवे छेः- जेवी रीते श्वेतगुणथी भरेला स्वभाववाळी ते ज खडी, पोते भींत-आदि परद्रव्यना स्वभावे नहि परिणमती थकी अने भींत-आदि परद्रव्यने पोताना स्वभावे नहि परिणमावती थकी, भींत-आदि परद्रव्य जेने निमित्त छे एवा पोताना श्वेतगुणथी भरेला स्वभावना परिणाम वडे ऊपजती थकी, खडी जेने निमित्त छे एवा पोताना (-भींत-आदिना-) स्वभावना परिणाम वडे ऊपजता भींत- आदि परद्रव्यने, पोताना (-खडीना-) स्वभावथी श्वेत करे छे-एम व्यवहार करवामां आवे छे; तेवी रीते जेनो ज्ञानदर्शनगुणथी भरेलो, परना अपोहनस्वरूप स्वभाव छे एवो चेतयिता पण, पोते पुद्गलादि परद्रव्यना स्वभावे नहि परिणमतो थको अने पुद्गलादि परद्रव्यने पोताना स्वभावे नहि परिणमावतो थको, पुद्गलादि परद्रव्य जेने निमित्त छे एवा पोताना ज्ञानदर्शनगुणथी भरेला पर-अपोहनात्मक (-परना त्यागस्वरूप) स्वभावना परिणाम वडे ऊपजतो थको, चेतयिता जेने निमित्त छे एवा पोताना (-पुद्गलादिना-) स्वभावना परिणाम वडे ऊपजता पुद्गलादि परद्रव्यने, पोताना (-चेतयिताना-) स्वभावथी अपोहे छे अर्थात् त्यागे छे-एम व्यवहार करवामां आवे छे.

ए रीते आ, आत्माना ज्ञान-दर्शन-चारित्र पर्यायोनो निश्चय-व्यवहार प्रकार छे. ए ज प्रमाणे बीजा पण समस्त पर्यायोनो निश्चय-व्यवहार प्रकार समजवो.

भावार्थः– शुद्धनयथी आत्मानो एक चेतनामात्र स्वभाव छे. तेना परिणाम जाणवुं, देखवुं, श्रद्धवुं, निवृत्त थवुं इत्यादि छे. त्यां निश्चयनयथी विचारवामां आवे तो आत्माने परद्रव्यनो ज्ञायक नथी कही शकातो, दर्शक नथी कही शकातो, श्रद्धान करनारो नथी कही शकातो, त्याग करनारो नथी कही शकातो; कारण के परद्रव्यने


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(शार्दूलविक्रीडित)
शुद्धद्रव्यनिरूपणार्पितमतेस्तत्त्वं समुत्पश्यतो
नैकद्रव्यगतं चकास्ति किमपि द्रव्यातरं जातुचित् ।
ज्ञानं ज्ञेयमवैति यत्तु तदयं शुद्धस्वभावोदयः
किं द्रव्यान्तरचुम्बनाकुलधियस्तत्त्वाच्च्यवन्ते जनाः।। २१५।।

अने आत्माने निश्चयथी कांई पण संबंध नथी. जे ज्ञान, दर्शन, श्रद्धान, त्याग इत्यादि भावो छे, ते पोते ज छे; भाव-भावकनो भेद कहेवो ते पण व्यवहार छे. निश्चयथी भाव अने भाव करनारनो भेद नथी.

हवे व्यवहारनय विषे. व्यवहारनयथी आत्माने परद्रव्यनो ज्ञाता, द्रष्टा, श्रद्धा करनार, त्याग करनार कहेवामां आवे छे; कारण के परद्रव्यने अने आत्माने निमित्तनैमित्तिकभाव छे. ज्ञानादि भावोने परद्रव्य निमित्त थतुं होवाथी व्यवहारी जनो कहे छे के-आत्मा परद्रव्यने जाणे छे, परद्रव्यने देखे छे, परद्रव्यनुं श्रद्धान करे छे, परद्रव्यने त्यागे छे.

ए प्रमाणे निश्चय-व्यवहारना प्रकारने जाणी यथावत् (जेम कह्युं छे तेम) श्रद्धान करवुं.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः– [शुद्ध–द्रव्य–निरूपण–अर्पित–मतेः तत्त्वं समुत्पश्यतः] जेणे शुद्ध द्रव्यना निरूपणमां बुद्धिने स्थापी-लगाडी छे अने जे तत्त्वने अनुभवे छे, ते पुरुषने [एकद्रव्य–गतं किम्–अपि द्रव्य–अन्तरं जातुचित् न चकास्ति] एक द्रव्यनी अंदर कोई पण अन्य द्रव्य रहेलुं बिलकुल (कदापि) भासतुं नथी. [यत् तु ज्ञानं ज्ञेयम् अवैति तत् अयं शुद्ध–स्वभाव–उदयः] ज्ञान ज्ञेयने जाणे छे ते तो आ ज्ञानना शुद्ध स्वभावनो उदय छे. [जनाः] आम छे तो पछी लोको [द्रव्य–अन्तर–चुम्बन–आकुल–घियः] ज्ञानने अन्य द्रव्य साथे स्पर्श होवानी मान्यताथी आकुळ बुद्धिवाळा थया थका [तत्त्वात्] तत्त्वथी (शुद्ध स्वरूपथी) [किं च्यवन्ते] शा माटे च्युत थाय छे?

भावार्थः– शुद्धनयनी द्रष्टिथी तत्त्वनुं स्वरूप विचारतां अन्य द्रव्यनो अन्य द्रव्यमां प्रवेश देखातो नथी. ज्ञानमां अन्य द्रव्यो प्रतिभासे छे ते तो आ ज्ञाननी स्वच्छतानो स्वभाव छे; कांई ज्ञान तेमने स्पर्शतुं नथी के तेओ ज्ञानने स्पर्शतां नथी. आम होवा छतां, ज्ञानमां अन्य द्रव्योनो प्रतिभास देखीने आ लोको ‘ज्ञानने परज्ञेयो साथे परमार्थ संबंध छे’ एवुं मानता थका ज्ञानस्वरूपथी च्युत थाय छे, ते तेमनुं अज्ञान छे. तेमना पर करुणा करीने आचार्यदेव कहे छे के-आ लोको तत्त्वथी कां च्युत थाय छे? २१प.


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(मंदाक्रान्ता)
शुद्धद्रव्यस्वरसभवनात्किं स्वभावस्य शेष–
मन्यद्र्रव्यं भवति यदि वा तस्य किं स्यात्स्वभावः ।
ज्योत्स्नारूपं स्नपयति भुवं नैव तस्यास्ति भूमि–
र्ज्ञानं ज्ञेयं कलयति सदा ज्ञेयमस्यास्ति नैव
।। २१६।।
(मंदाक्रान्ता)
रागद्वेषद्वयमुदयते तावदेतन्न यावत्
ज्ञानं ज्ञानं भवति न पुनर्बोध्यतां याति बोध्यम् ।
ज्ञानं ज्ञानं भवतु तदिदं न्यक्कृताज्ञानभावं
भावाभावौ भवति तिरयन् येन पूर्णस्वभावः ।। २१७।।

फरी आ ज अर्थने द्रढ करे छेः-

श्लोकार्थः– [शुद्ध–द्रव्य–स्वरस–भवनात्] शुद्ध द्रव्यनुं (आत्मा आदि द्रव्यनुं) निजरसरूपे (अर्थात् ज्ञान आदि स्वभावे) परिणमन थतुं होवाथी, [शेषम् अन्यत्–द्रव्यं किं स्वभावस्य भवति] बाकीनुं कोई अन्यद्रव्य शुं ते (ज्ञानादि) स्वभावनुं थई शके? (न ज थई शके.) [यदि वा स्वभावः किं तस्य स्यात्] अथवा शुं ते (ज्ञानादि स्वभाव) कोई अन्यद्रव्यनो थई शके? (न ज थई शके. परमार्थे एक द्रव्यने अन्य द्रव्य साथे संबंध नथी.) [ज्योत्स्नारूपं भुवं स्नपयति] चांदनीनुं रूप पृथ्वीने उज्ज्वळ करे छे [भूमिः तस्य न एव अस्ति] तोपण पृथ्वी चांदनीनी थती ज नथी; [ज्ञानं ज्ञेयं सदा कलयति] तेवी रीते ज्ञान ज्ञेयने सदा जाणे छे [ज्ञेयम् अस्य अस्ति न एव] तोपण ज्ञेय ज्ञाननुं थतुं ज नथी.

भावार्थः– शुद्धनयनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो कोई द्रव्यनो स्वभाव कोई अन्य द्रव्यरूपे थतो नथी. जेम चांदनी पृथ्वीने उज्ज्वळ करे छे परंतु पृथ्वी चांदनीनी जरा पण थती नथी, तेम ज्ञान ज्ञेयने जाणे छे परंतु ज्ञेय ज्ञाननुं जरा पण थतुं नथी. आत्मानो ज्ञानस्वभाव होवाथी तेनी स्वच्छतामां ज्ञेय स्वयमेव झळके छे, परंतु ज्ञानमां ते ज्ञेयोनो प्रवेश नथी. २१६.

हवे आगळनी गाथाओनी सूचनारूप काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [तावत् राग–द्वेष–द्वयम् उदयते] त्यां सुधी राग-द्वेषनुं द्वंद्व उदय


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पामे छे (-उत्पन्न थाय छे) [यावत् एतत् ज्ञानं ज्ञानं न भवति] के ज्यां सुधी आ ज्ञान ज्ञानरूप न थाय [पुनः बोध्यम् बोध्यतां न याति] अने ज्ञेय ज्ञेयपणाने न पामे. [तत् इदं ज्ञानं न्यक्कृत–अज्ञानभावं ज्ञानं भवतु] माटे आ ज्ञान, अज्ञानभावने दूर करीने, ज्ञानरूप थाओ- [येन भाव–अभावौ तिरयन् पूर्णस्वभावः भवति] के जेथी भाव- अभावने (राग-द्वेषने) अटकावी देतो पूर्णस्वभाव (प्रगट) थाय.

भावार्थः– ज्यां सुधी ज्ञान ज्ञानरूप न थाय, ज्ञेय ज्ञेयरूप न थाय, त्यां सुधी रागद्वेष ऊपजे छे; माटे आ ज्ञान, अज्ञानभावने दूर करीने, ज्ञानरूप थाओ, के जेथी ज्ञानमां जे भाव अने अभावरूप बे अवस्थाओ थाय छे ते मटी जाय अने ज्ञान पूर्णस्वभावने पामी जाय. ए प्रार्थना छे. २१७.

*
समयसार गाथा ३प६ थी ३६पः मथाळुं

‘(खडी तो खडी ज छे’ -ए निश्चय छे; ‘खडी-स्वभावे परिणमती खडी भींत-स्वभावे परिणमती भींतने सफेद करे छे’ एम कहेवुं ते पण व्यवहारकथन छे. तेवी रीते ‘ज्ञायक तो ज्ञायक ज छे’ -ए निश्चय छे; ज्ञायकस्वभावे परिणमतो ज्ञायक परद्रव्यस्वभावे परिणमतां एवां परद्रव्योने जाणे छे’ एम कहेवुं ते पण व्यवहारकथन छे.) आवा निश्चय-व्यवहार कथनने हवे गाथाओमां द्रष्टांत द्वारा स्पष्ट कहे छेः-

* गाथा ३प६ थी ३६पः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘आ जगतमां खडी छे ते श्वेतगुणथी भरेला स्वभाववाळुं द्रव्य छे. भींत आदि परद्रव्य व्यवहारे ते खडीनुं श्वेत्य छे.’

शुं कहे छे? के आ जगतमां सेटिका नाम खडी छे ते श्वेतगुणथी भरेलुं द्रव्य छे, अने भींत आदि परद्रव्य छे ते व्यवहारथी खडीनुं श्वेत्य छे. ‘व्यवहारथी’ केम कह्युं? कारण के खडी खडीरूप छे, भींत भींतरूप छे, खडी छे ते भींतमां प्रवेश करती नथी. माटे खडी भींतने धोळी करे छे वा भींत खडीनुं श्वेत्य छे एम कहेवुं ते व्यवहार छे. (निश्चयथी तो खडी भींतने अडीय नथी)

जुओ, खडी द्रव्य छे, श्वेत तेनो गुण-स्वभाव छे, अने भींत खडीनुं व्यवहारे श्वेत्य छे, अर्थात् खडी वडे श्वेत करावायोग्य पदार्थ छे. आमां द्रव्य, गुण ने पर्याय त्रणेय सिद्ध थयां. हवे कहे छे-

‘हवे श्वेत करनारी खडी, श्वेत करावायोग्य जे भींत आदि परद्रव्य तेनी छे


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के नथी? -एम ते बन्नेनो तात्त्विक (पारमार्थिक) संबंध अहीं विचारवामां आवे छेः-

जो खडी भींत आदि परद्रव्यनी होय तो शुं थाय ते प्रथम विचारीएः-

“जेनुं जे होय ते ते ज होय, जेम आत्मानुं ज्ञान होवाथी ज्ञान ते आत्मा ज छे (-जुदुं द्रव्य नथी);” -आवो तात्त्विक संबंध जीवंत (अर्थात् विद्यमान) होवाथी, खडी जो भींत आदिनी होय तो खडी भींत आदि ज होय (अर्थात् खडी भींत-आदि स्वरूप ज होवी जोईए, भींत आदिथी जुदुं द्रव्य न होवुं जोईए); एम होतां; खडीना स्वद्रव्यनो उच्छेद (नाश) थाय. परंतु द्रव्यनो उच्छेद तो थतो नथी, कारण के एक द्रव्यनुं अन्य द्रव्यरूपे संक्रमण थवानो तो पूर्वे ज निषेध कर्यो छे. माटे (ए सिद्ध थयुं के) खडी भींत आदिनी नथी.’

जुओ, खडी अने भींत-बेनो तात्त्विक संबंध विचारतां, कहे छे, जो खडी भींतनी होय तो खडी भींतस्वरूप ज होय, केमके जेनुं जे होय ते ते ज होय एवो पारमार्थिक संबंध छे; जेम आत्मानुं ज्ञान होवाथी ज्ञान आत्मा ज छे. आ प्रमाणे जो खडी भींतनी होय तो खडी भींतरूप ज होय, अन्यरूप न होय; अने तो खडीना स्वद्रव्यनो नाश थई जाय, परंतु द्रव्यनो नाश कदीय थतो नथी, कारण के एक द्रव्यनुं अन्यद्रव्यरूपे संक्रमण थवानो पहेलां ज गाथा १०३मां निषेध कर्यो छे. माटे एम सिद्ध थयुं के खडी भींत आदिनी नथी. हवे कहे छे-

‘जो खडी भींत आदिनी नथी तो खडी कोनी छे?

खडीनी ज खडी छे. (आ) खडीथी जुदी एवी बीजी कई खडी छे के जेनी (आ) खडी छे? (आ) खडीथी जुदी अन्य कोई खडी नथी, परंतु तेओ बे स्व-स्वामीरूप अंशो ज छे. अहीं स्व-स्वामीरूप अंशोना व्यवहारथी शुं साध्य छे? कांई साध्य नथी. तो पछी खडी कोईनी नथी, खडी खडी ज छे-ए निश्चय छे.’

जुओ, आ द्रष्टांत कह्युं. हवे कहे छे-

‘जेम आ द्रष्टांत छे तेम आ (नीचे प्रमाणे) दार्ष्टांत छेः-

‘आ जगतमां चेतयिता (चेतनारो अर्थात् आत्मा) छे ते ज्ञानगुणथी भरेला स्वभाववाळुं द्रव्य छे. पुद्गलादि परद्रव्य व्यवहारे ते चेतयितानुं (आत्मानुं) ज्ञेय छे.’

शुं कह्युं? के आ जगतमां चेतनारो-आत्मा छे ते ज्ञानगुणथी भरेला स्वभाव-


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वाळुं द्रव्य छे, अने शरीर, मन, वाणी इत्यादि-पुद्गलादि परद्रव्य व्यवहारे ते आत्मानुं ज्ञेय छे. व्यवहारे ज्ञेय छे एटले शुं? के चेतनारो आत्मा तो चैतन्यरूप-ज्ञानरूप ज छे अने शरीरादि परद्रव्य शरीरादिरूप ज छे. ज्ञान शरीरादिरूप थतुं नथी, ज्ञान तो शरीरादिने अडतुंय नथी. ज्ञान ज्ञानस्वरूप रहीने परज्ञेयोने जाणे छे. लोकालोकने ज्ञान जाणे छे त्यां ज्ञान ज्ञानरूप ज रहे छे, कांई लोकालोकरूप थतुं नथी, वळी लोकालोक छे ते कांई ज्ञानरूप थतुं नथी. माटे कह्युं के पुद्गलादि परद्रव्य व्यवहारे चेतयितानुं ज्ञेय छे.

जगतना ज्ञेय पदार्थोने ज्ञाननी पर्याय जाणे छे. ते ज्ञाननी पर्याय ज्ञेयथी थई के पोताथी थई छे? ज्ञाननी पर्याय पोताथी थई छे, ते ज्ञेयथी उत्पन्न थई नथी, वळी ते ज्ञेयरूप पण थई नथी; जो ज्ञेयरूप थाय तो ज्ञाननो नाश थई जाय. ए ज कहे छे के-

‘हवे, ज्ञायक (अर्थात् जाणनारो) चेतयिता, ज्ञेय (अर्थात् जणावायोग्य) जे पुद्गलादि परद्रव्य तेनो छे के नथी! एम ते बन्नेनो तात्त्विक संबंध विचारवामां आवे छेः-

जो चेतयिता पुद्गलादिनो होय तो शुं थाय ते विचारीएः “जेनुं जे होय ते ते ज होय, जेम आत्मानुं ज्ञान होवाथी ज्ञान ते आत्मा ज छे;-आवो तात्त्विक संबंध जीवंत (अर्थात् छतो) होवाथी, चेतयिता जो पुद्गलादिनो होय तो चेतयिता ते पुद्गलादि ज होय (अर्थात् चेतयिता पुद्गलादिस्वरूप ज होवो जोईए, पुद्गलादिथी जुदुं द्रव्य न होवुं जोईए); एम होतां, चेतयिताना स्वद्रव्यनो उच्छेद थाय. परंतु द्रव्यनो उच्छेद थतो नथी, कारण के एक द्रव्यनुं अन्य द्रव्यरूपे संक्रमण थवानो तो पूर्वे ज निषेध कर्यो छे. माटे (ए सिद्ध थयुं के) चेतयिता पुद्गलादिनो नथी.’

जुओ, शुं कीधुं? के चेतयिता जो पुद्गलादिनो होय तो चेतयिता पुद्गलादि रूप ज होय, केमके जेनुं जे होय ते ते ज होय-एवो पारमार्थिक संबंध छे; जेम आत्मानुं ज्ञान होवाथी ज्ञान आत्मा ज छे तेम चेतयिता पुद्गलादिनो होय तो ते पुद्गलादिरूप ज होय, अन्यरूप न होय. आम होतां, कहे छे, चेतयिताना स्वद्रव्यनो उच्छेद थई जाय.

अहाहा...! जेम साकर मीठाशनो पुंज छे तेम भगवान आत्मा-चेतयिता प्रभु एकलो ज्ञाननो पुंज छे. अहा! आवो चैतन्यनिधि प्रभु आत्मा पुद्गलादि परज्ञेयोने जाणे छे ते ज्ञेयरूप थईने जाणे छे के ज्ञानरूप रहीने जाणे छे? अहाहा...! आत्मा- चेतयिता ज्ञानरूप रहीने ज पुद्गलादि ज्ञेयोने जाणे छे. आत्मा ज्ञेयरूप थाय तो आत्मानो-स्वद्रव्यनो उच्छेद थाय. परंतु द्रव्यनो उच्छेद तो कदीय थतो नथी,


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कारण के द्रव्यनुं द्रव्यांतररूपे संक्रमण थवानो तो पहेलां ज गाथा १०३ मां निषेध कर्यो छे. माटे एम सिद्ध थयुं के चेतयिता पुद्गलादिनो नथी.

अहाहा....! आत्मा ज्ञान... ज्ञान.... ज्ञानस्वभावरूप प्रकाशनो पुंज प्रभु छे. तेनी ज्ञाननी परिणति जेम पुद्गलादिने जाणे तेम रागने पण जाणे छे. त्यां प्रश्न थाय के ज्ञाननी परिणति रागने रागरूप थईने जाणे छे के ज्ञानरूप रहीने जाणे छे? झीणी वात छे प्रभु! ज्ञान ज्ञानरूप रहीने रागने जाणे छे. भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, तेने ज्ञाननी वर्तमान-वर्तमान दशा थाय ते तेना स्वकाळे पोताथी थाय छे. ते ज्ञाननी दशा रागादिने जाणे छे एम कहीए ए व्यवहार छे. रागने आत्मा करे छे ए वात तो दूर रहो, (रागनो कर्ता थाय ए तो मूढ मिथ्याद्रष्टि छे), अहीं तो कहे छे-दया, दान आदि रागने आत्मा जाणे छे एम कहेवुं ए व्यवहारे छे. भाई! तारुं चैतन्यतत्त्व रागथी भिन्न छे. ते भिन्नने जाणवाकाळे ते ज्ञानरूप-चैतन्यरूप ज रहे छे, भिन्न रागरूप थतुं नथी. जो जाणनारो आत्मा रागने जाणवाकाळे रागरूप थाय तो आत्मानो-स्वद्रव्यनो नाश थई जाय, आत्मा पररूप-जडरूप थई जाय. परंतु द्रव्यनो कदीय नाश थतो नथी केमके द्रव्यनुं अन्य द्रव्यरूपे संक्रमण थवुं निषिद्ध छे, माटे कहे छे-चेतयिता पुद्गलादिनो नथी; शरीर, मन, वाणी, कर्म, राग आदिनो आत्मा-चेतयिता नथी. आवी वात!

आ वाणी सांभळे छे ने? वाणी बोलाय ए तो जड छे, तथा वाणी सांभळीने एनुं ज्ञान थयुं ते ज्ञाननी दशा छे; ए ज्ञाननी दशा ज्ञानरूप छे, ते कांई वाणीरूप के वाणी सांभळवाना विकल्परूप थती नथी. जो ज्ञाननी दशा वाणीरूप थाय के विकल्परूप थाय तो ते जड थई जाय, जाणनार स्वद्रव्यनो-आत्मद्रव्यनो नाश थई जाय. पण एम बनतुं नथी, केमके एक द्रव्यनुं द्रव्यांतररूप थवुं असंभव छे. माटे, कहे छे, चेतयिता शरीरादि परद्रव्योनो नथी, विकल्पनो नथी, वाणीनो नथी. हवे कहे छे-

‘(आगळ विचारीएः-) जो चेतयिता पुद्गलादिनो नथी तो चेतयिता कोनो छे? कोनो छे?

चेतयितानो ज चेतयिता छे.

(आ) चेतयिताथी जुदो एवो बीजो कयो चेतयिता छे के जेनो (आ) चेतयिता छे?

(आ) चेतयिताथी जुदो अन्य कोई चेतयिता नथी, परंतु तेओ बे स्व-स्वामीरूप अंशो ज छे. अहीं स्व-स्वामीरूप अंशोना व्यवहारथी शुं साध्य छे?


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कांई साध्य नथी, तो पछी ज्ञायक कोईनो नथी, ज्ञायक ज्ञायक ज छे-ए निश्चय छे.’

अहाहा...! पूछे छे के-चेतयिता रागनो, पुद्गलादिनो नथी तो कोनो छे? तो कहे छे-चेतयितानो ज चेतयिता छे, जाणनारनो ज जाणनार छे. हा, पण जाणनारनो जाणनार कह्यो त्यां तो ए बे थया; तो ए बे कोण छे? तो कहे छे-बे नथी, परंतु ए बे एक चेतयिताना-जाणनारना ज स्व-स्वामीरूप अंशो छे.

अहो! दिगंबर संतोए परमार्थने जाहेर कर्यो छे. भाई! तुं रागनो हुं कर्ता एम मान ए तो क्यांय रही गयुं; अहीं तो रागने हुं जाणुं एम कहीए ए व्यवहार छे अने जाणनारनो ज जाणनार छे एम कहीए एय स्व-स्वामीअंशरूप व्यवहार छे-एम कहे छे. अहाहा...! जाणनारनो हुं जाणनार छुं एवो जे भेद पडे एय व्यवहार छे अने एवा स्व-स्वामीअंशरूप व्यवहारथी कांई साध्य नथी. अहाहा....! ज्ञायक ज्ञायक ज छे-ए निश्चय छे. आवा त्रिकाळी शुद्ध ज्ञायकनी द्रष्टि करवी ते सम्यग्दर्शन छे जे धर्मनुं पहेलुं पगथियुं छे. बापु! शुद्ध ज्ञायकनी द्रष्टि विना अर्थात् सम्यग्दर्शन विना आ तारां व्रत, तप, भक्ति इत्यादि बधी रागनी क्रियाओ रणमां पोक मूकवा जेवी छे. समजाणुं कांई...?

भाई! तारुं अस्तित्व एक ज्ञानस्वरूप छे. रागनुं करवुं ए तो एमां छे नहि पण ज्ञानना अस्तित्वमां रहीने तुं रागने जाणे एम कहीए एय व्यवहार छे, उपचार छे. जैन परमेश्वरनुं कहेलुं तत्त्व खूब सूक्ष्म ने गंभीर छे भाई! अहीं तो जाणनारने जाणुं छुं एवो जे भेद पडे एय, कहे छे, व्यवहार छे अने एवा स्व-स्वामीअंशरूप व्यवहारथी एने कांई लाभ नथी, अर्थात् एवा भेदरूप व्यवहारना लक्षे एने सम्यग्दर्शन थतुं नथी. अहीं तो ज्ञायक ज्ञायक ज छे-ए परमार्थ छे; अर्थात् शुद्ध एक ज्ञायकनी अंतर्द्रष्टि थवी एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे अने आ ज कर्तव्य छे, धर्म छे. आ सिवाय बीजुं बधुं (रंग- राग-भेदनुं) करवुं अने जाणवुं तुं मान ए बधुं मिथ्यादर्शन छे.

अहाहा....! स्वभावमात्र स्व-स्वामित्वमयी संबंधशक्ति’ -एवी एक संबंधशक्ति आत्मामां छे. एटले शुं? पोतानो भाव-पोतानां द्रव्य-गुण-पर्याय-ते पोतानुं स्व अने पोते तेनो स्वामी-एवा संबंधमयी स्वभावमात्र संबंधशक्ति जीवमां छे. परंतु स्व-स्वामीअंशरूप भेद एमां नथी. झीणी वात छे प्रभु! स्वभावमात्र वस्तुमां छे-स्व-स्वामीअंशरूप भेद नथी. अहीं कहे छे-जाणनारनो जाणनार छे एवा व्यवहाररूप भेदथी तने शो लाभ छे? एम के भेदना लक्षे तने राग ज


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थशे, आत्मज्ञान नहि थाय. भेदना लक्षमां तुं रोकाइ रहे ए तो विपरीतता छे, मिथ्यात्व छे भाई! आवी वात!

तो परमार्थ शुं छे? ज्ञायक ज्ञायक ज छे-ए निश्चय छे, परमार्थ छे. हुं ज्ञायक ज छुं एम अभेदद्रष्टि थवी ए सम्यग्दर्शन छे अने ए सौ प्रथम धर्म छे. आ सिवायना क्रियाकांड बधा थोथेथोथां छे, असत्यार्थ छे, हितरूप नथी.

आ रीते अहीं एम बताव्युं केः- १. आत्मा परद्रव्यने जाणे छे-ए व्यवहारकथन छे, २. आत्मा पोताने जाणे छे-एम कहेवामां पण स्व-स्वामीअंशरूप व्यवहार छे. ३. ज्ञायक ज्ञायक ज छे-ए निश्चय छे. ‘वळी (जेवी रीते ज्ञायक विषे द्रष्टांत-दर्ष्टांतथी कह्युं) एवी ज रीते दर्शक विषे कहेवामां आवे छेः

आ जगतमां खडी छे ते श्वेतगुणथी भरेला स्वभाववाळुं द्रव्य छे. भींत-आदि परद्रव्य व्यवहारे ते खडीनुं श्वेत्य छे (अर्थात् खडी वडे श्वेत करवायोग्य पदार्थ छे. हवे, श्वेत करनारी खडी, श्वेत करावायोग्य जे भींत-आदि परद्रव्य तेनी छे के नथी? - एम ते बन्नेनो तात्त्विक संबंध अहीं विचारवामां आवे छेः- जो खडी भींत-आदि परद्रव्यनी होय तो शुं थाय ते प्रथम विचारीएः

जेनुं जे होय ते ते ज होय, जेम आत्मानुं ज्ञान होवाथी ज्ञान ते आत्मा ज छेः- आवो तात्त्विक संबंध जीवंत होवाथी, खडी जो भींत-आदिनी होय तो खडी ते भींत- आदि ज होय (अर्थात् खडी भींत-आदिस्वरूप ज होवी जोईए); एम होतां, खडीना स्वद्रव्यनो उच्छेद थाय. परंतु द्रव्यनो उच्छेद तो थतो नथी, कारण के एक द्रव्यनुं अन्य द्रव्यरूपे संक्रमण थवानो तो पूर्व ज निषेध कर्यो छे. माटे (ए सिद्ध थयुं के) खडी भींत- आदिनी नथी.’ हवे कहे छे-

(आगळ विचारीएः) ‘जो खडी भींत-आदिनी नथी तो खडी कोनी छे? खडीनी ज खडी छे. (आ) खडीथी जुदी एवी बीजी कई खडी छे के जेनी (आ) खडी छे? (आ) खडीथी जुदी अन्य कोई खडी नथी, परंतु तेओ बे स्व-स्वामीरूप अंशो ज छे. अहीं स्व-स्वामीरूप अंशोना व्यवहारथी शुं साध्य छे? कांई साध्य नथी. तो पछी खडी कोईनी नथी, खडी खडी ज छे- ए निश्चय छे’

‘जेम आ द्रष्टांत छे, तेम आ (नीचे प्रमाणे) दार्ष्टांत छेः-


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‘आ जगतमां चेतयिता छे ते दर्शनगुणथी भरेला स्वभाववाळुं द्रव्य छे. पुद्गलादि परद्रव्य व्यवहारे ते चेतयितानुं द्रश्य छे.’

शुं कीधुं? आ जगतमां चेतयिता-भगवान आत्मा छे ते देखवाना-श्रद्धवाना परिपूर्ण स्वभावथी भरेलुं द्रव्य छे. अहाहा....! दर्शक एटले देखनारो-श्रद्धनारो एवो आ आत्मा दर्शनशक्तिथी परिपूर्ण भरेलो पदार्थ छे. अहीं दर्शनगुणथी भरेलो कहीने देखवारूप अने श्रद्धवारूप बन्ने गुणनी वात करी छे. अहाहा...! देखवा-श्रद्धवारूप दर्शनगुणथी भरेला स्वभाववाळुं आत्मा एक द्रव्य छे.

अने पुद्गलादि परद्रव्य, कहे छे, व्यवहारे ते चेतयितानुं-आत्मानुं द्रश्य छे. एटले शुं? के आत्मा शरीरादि ने रागादि परद्रव्यने देखे छे एम कहीए ते व्यवहारनयनुं वचन छे. अहाहा...! आत्मा देखवानी पर्यायमां देखवायोग्य पर चीजने देखे छे एम कहीए ते, कहे छे, व्यवहारनयथी छे, अर्थात् ते वास्तविक कथन नथी. झीणी वात छे भाई! दर्शनस्वभावथी भरेलो चेतयिता प्रभु आत्मा परने देखे छे वा सात तत्त्वोनी श्रद्धा करे छे एम कहीए ए व्यवहारनयथी छे. हवे अत्यारे आवी प्ररूपणा चालती नथी एटले दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि करो एटले धर्म थाय एम लोकोमां चाले छे, पण बापु! धर्मनुं एवुं स्वरूप नथी. दया, दान, व्रत आदि करवा ए तो दूर रहो, अहीं तो कहे छे- ए दया, दान, व्रत आदि शुभरागना परिणामने आत्मा देखे छे एम कहीए एय व्यवहारथी छे, उपचारथी छे. अहाहा...! कहे छे-पुद्गलादि परद्रव्य व्यवहारे ते (-दर्शक एवा) चेतयितानुं द्रश्य छे. आवी वात! हवे कहे छे-

‘हवे, दर्शक (देखनारो अथवा श्रद्धनारो) चेतयिता, द्रश्य (देखवायोग्य अथवा श्रद्धावायोग्य) जे पुद्गलादि परद्रव्य तेनो छे के नथी? -एम ते बन्नेनो तात्त्विक संबंध अहीं विचारवामां आवे छेः-

जो चेतयिता पुद्गलादिनो होय तो शुं थाय ते प्रथम विचारीएः जेनुं जे होय ते ते ज होय, जेम आत्मानुं ज्ञान होवाथी ज्ञान ते आत्मा ज छे;- आवो तात्त्विक संबंध जीवंत होवाथी, चेतयिता जो पुद्गलादिनो होय तो तो चेतयिता ते पुद्गलादि ज होय (अर्थात् चेतयिता पुद्गलस्वरूप ज होवो जोईए). एम होतां, चेतयिताना स्वद्रव्यनो उच्छेद थाय. परंतु द्रव्यनो उच्छेद तो थतो नथी, कारण के एक द्रव्यनुं अन्यद्रव्यरूपे संक्रमण थवानो तो पूर्वे ज निषेध कर्यो छे, माटे (ए सिद्ध थयुं के) चेतयिता पुद्गलादिनो नथी.’

अहाहा....! जुओ, आ लोजीकथी वात करे छे. एम के आत्मा द्रश्य परवस्तुने


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देखे छे तो देखनारो ते, द्रश्य वस्तुनो छे के नथी? जो देखनारो द्रश्य एवी परवस्तुनो होय तो ते परवस्तुरूप ज होय, केमके जेनुं जे होय ते ते ज होय-आ न्याय छे. आ प्रमाणे देखनारो द्रश्य वस्तुनो होय तो देखनार स्वद्रव्यनो उच्छेद थई जाय. पण एम थवुं संभवित नथी.

अहाहा....! दर्शन (श्रद्धान) नामना त्रिकाळी गुणथी आत्मा पूरण भरेलो छे. त्यां ते परने श्रद्धे छे तो पोतारूप-दर्शनरूप रहीने श्रद्धे छे के पररूप थईने श्रद्धे छे? पोतारूप रहीने श्रद्धे छे; अहीं कहे छे-जो परनो थईने एटले के पररूप थईने श्रद्धे तो आत्मा परस्वरूप ज थई जाय, अने तो ते दर्शनरूप स्वद्रव्यनो उच्छेद थई जाय. पण द्रव्यनो उच्छेद कदीय थतो नथी, केमके द्रव्यनुं द्रव्यांतररूपे संक्रमण थवानो पूर्वे ज गाथा १०३ मां निषेध कर्यो छे. माटे, कहे छे, एम सिद्ध थयुं के दर्शक एवो चेतयिता परनो- पुद्गलादिनो नथी.

मुदनी बे वातः

१. आत्मा दर्शनगुणना स्वभावथी भरेलो भगवान छे; अने

२. जे द्रश्य बाह्य पदार्थ छे ते दर्शनगुणथी खाली पदार्थ छे. भाई! ज्यां तुं (- दर्शक) छो त्यां द्रश्य पदार्थ नथी अने ज्यां द्रश्य पदार्थ छे त्यां तुं (-दर्शक) नथी. एटले के द्रश्य पदार्थने देखवाथी द्रष्टास्वभाव प्रगट थतो नथी. हवे भाग्यशाळी होय तेना काने पडे एवी आ वात छे. आ दया, दान, व्रत आदि व्यवहाररत्नत्रयना परिणाम छे ने? अहीं कहे छे-ए व्यवहाररत्नत्रयना परिणामनुं श्रद्धान करवाथी अंदर द्रष्टास्वभाव प्रगट थतो नथी.

तो सात तत्त्वनुं श्रद्धान करवुं सम्यग्दर्शन कह्युं छे ने?

बापु! द्रश्य एवां ए सात तत्त्व तेने चेतयिता-आत्मा देखे-श्रद्धे छे एम कहीए ए व्यवहारनयथी छे, उपचारथी छे. बाकी सात तत्त्वना भेदरूप श्रद्धानमां दर्शकना गुणनो तो अभाव छे. शुं कीधुं? व्यवहाररत्नत्रयना परिणाममां दर्शक गुणनो अभाव छे. अहाहा....! दर्शनगुणथी भरेलो चेतयिता प्रभु व्यवहाररत्नत्रयना रागने देखे-श्रद्धे छे एम कहीए ते व्यवहार छे, उपचार छे. आवी वात!

भाई! शरीर, मन, वाणी, देव, गुरु, शास्त्र अने व्यवहाररत्नत्रयनो राग इत्यादि सर्व परद्रव्यरूप छे. तेने चेतयिता देखे-श्रद्धे छे एम कहीए ते व्यवहार छे. अहाहा....! दर्शक एवो आत्मा ते ते पदार्थोने देखवाकाळे द्रश्यरूप थईने देखे छे के पोतारूप-दर्शकरूप रहीने देखे छे? पोतारूप रहीने देखे छे. जो द्रश्यरूप-परद्रव्यरूप


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थईने देखे तो ते परद्रव्यरूप ज थई जाय; अने तो तेनो-चेतयिताना स्वद्रव्यनो उच्छेद थाय; पण एम बनतुं नथी, केमके द्रव्यनुं द्रव्यांतरपणे संक्रमण थवुं अशक्य छे. माटे, कहे छे-दर्शक पुद्गलादि परद्रव्योनो नथी, देवनो नथी, गुरुनो नथी, शास्त्रनो नथी, व्यवहाररत्नत्रयनो नथी. अहीं तो बहारनां सर्व द्रश्य पदार्थोथी खसीने शुद्ध एक दर्शन- श्रद्धानगुणथी भरेला भगवान आत्मानी अंतर्द्रष्टि करवी बस ए एक ज प्रयोजननी वात छे. समजाय छे कांई....?

जुओ, अखबारमां समाचार आव्या छे ने? के एक कोलेजीअन बी. ए. एल. एल. बी. नी परीक्षामां निष्फळ थयो तो ते प्रतिकूळता सहन न थवाथी तळावमां पडतुं मूकी आपघात करीने मरी गयो. अरे संसार! सहेज प्रतिकूळता सहन न थई त्यां तीव्र कषायना बूरा परिणाम करीने जीव हलकी गतिमां (नरकादिमां) चाल्यो जाय छे. अरे! त्यां अतिशय भारे प्रतिकूळता केम सहन थशे? बापु! मिथ्यात्वना सेवन द्वारा अनादि काळथी तुं निष्फळ ज थतो आव्यो छुं. तारा दुःखोनुं शुं कथन करीए? (एम के ते अतिशय छे) माटे हवे द्रश्य पदार्थोने देखवानुं छोडी एक देखनारने अंतरमां देख. सम्यग्दर्शननो विषय ते एक ज्ञायकदर्शक प्रभु ज छे. ए सिवाय जगतनी कोई परवस्तु, एक समयनी पर्याय के गुण-गुणीनो भेद-विकल्प समकितनो विषय नथी. देखनारने देखुं एवो भेद-विकल्प समकितनो विषय नथी. ए तो आगळ कहेशे के देखनारने देखवो, श्रद्धनारने श्रद्धवो-एय व्यवहारनय छे. अरे! लोकोने सत्यमार्गनी खबर नथी!

आ व्यवहाररत्नत्रयनो जे विकल्प छे ते राग छे. ते रागने देखवा-श्रद्धवाथी कांई दर्शकगुणनी-श्रद्धागुणनी पर्याय प्रगट थती नथी. बापु! रागने देखवा-श्रद्धवाथी राग उपरनुं लक्ष रहे छे, ने पोतानी चीज-द्रष्टा-ज्ञाता प्रभुने देखवा-श्रद्धवानुं रही जाय छे; अर्थात् एनुं मिथ्यादर्शन ऊभुं रहे छे. आवी वात! बापु! आ तो भगवाननी धर्मसभामां एकभवतारी समकिती इन्द्रो जेने सांभळे छे ते आ वात छे. अंदर ज्ञाता- द्रष्टास्वरूप पोते भगवान छे-हमणां पण भगवान छे हों-अहाहा....! एवा निजस्वरूपनी अंतर्द्रष्टि करवी एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे अने ते धर्म छे. श्रद्धनार-दर्शकना आश्रये श्रद्धनारी पर्याय प्रगट थाय एनी अहीं वात छे; बाकी बधां थोथां छे. गजब वात छे भाई!

आत्मा शुद्ध चैतन्य वस्तु छे ते शरीरादि परद्रव्यमां के रागादि परभावमां प्रवेश करती नथी. अहाहा...! पोतानी पर्यायनुं संक्रमण थईने, बदलीने बीजानी पर्यायरूप थई जाय ए तो निषिद्ध छे, गाथा १०३ मां पूर्वे ज एनो निषेध करवामां