Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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आव्यो छे. माटे, कहे छे, दर्शक एवो आत्मा-चेतयिता प्रभु पुद्गलादिनो नथी, रागादिनो नथी. हवे कहे छे -

‘(आगळ विचारीएः) जो चेतयिता पुद्गलादिनो नथी तो चेतयिता कोनो छे? चेतयितानो ज चेतयिता छे. (आ) चेतयिताथी जुदो एवो बीजो क्यो चेतयिता छे के जेनो (आ) चेतयिता छे?

(आ) चेतयिताथी अन्य कोई चेतयिता नथी. परंतु तेओ बे स्व-स्वामीरूप अंशो ज छे. अहीं स्व-स्वामीरूप अंशोना व्यवहारथी शुं साध्य छे?

कांई साध्य नथी. तो पछी दर्शक कोईनो नथी, दर्शक दर्शक ज छे, -ए निश्चय छे.’

अहाहा...! पूछे छे के-चेतयिता पुद्गलादि अने रागादिनो नथी तो चेतयिता कोनो छे? तो कहे छे-चेतयितानो ज चेतयिता छे, देखनारनो ज देखनार छे. हा, पण देखनारनो देखनार छे-एम कह्युं त्यां तो ए बे थया; तो ए बे कोण छे? अर्थात् देखनारथी जुदो एवो बीजो क्यो देखनार छे जेनो (आ) देखनार छे? तो कहे छे-कोई नहि; अर्थात् ए बे नथी; परंतु ते बे एक चेतयिताना-देखनारना ज स्व-स्वामीरूप अंशो छे. चेतयिता पोते ज स्व अने चेतयिता पोते ज तेनो स्वामी-एम तेओ बे अंशो छे.

अहो! केवळीना केडायती दिगंबर संतोए गजबनी वात करी छे. कहे छे- चेतयिता ते स्व अने चेतयिता तेनो स्वामी एवा बे अंशरूप भेद-व्यवहारथी जीवने कांई लाभ नथी; केमके अंश-भेदना लक्षे तो राग ज थाय छे. माटे, दर्शक दर्शक ज छे ए निश्चय छे. आवो दर्शक त्रिकाळी ध्रुव एकरूप अभेद वस्तु छे ते सम्यग्दर्शननो विषय छे; अर्थात् शुद्ध दर्शक प्रभु आत्मा एकना आश्रये ज सम्यग्दर्शन थाय छे.

अहाहा....! दया, दान, व्रत आदिना परिणामथी तो सम्यग्दर्शन नहि, पण तेने देखवा-श्रद्धवाथी पण सम्यग्दर्शन नहि. देखनारनो देखनार छे एवा भेदना लक्षे पण सम्यग्दर्शन थतुं नथी. तो सम्यग्दर्शन केम थाय? तो कहे छे -हुं एक ज्ञायक ज छुं एम अभेदनी द्रष्टि करवाथी सम्यग्दर्शन थाय छे अने ते धर्मनुं प्रथम सोपान छे. छहढालामां आवे छे ने के-

मोक्षमहलकी परथम सीढी, या बिन ज्ञान चरित्रा;
सम्यक्ता न लहे सो दर्शन, धारो भव्य पवित्रा.

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भाई! समकित विना तारां सघळां व्रत, तप जूठां छे; भगवाने एने बाळव्रत ने बाळतप कह्यां छे. भाई! व्रत, तप आदिमां अने भेद-व्यवहारमां तुं रोकाई रहे एथी तने कांई लाभ नथी.

आ रीते अहीं एम बताव्युं केः- १. आत्मा परद्रव्यने देखे छे अथवा श्रद्धे छे -ए व्यवहार कथन छे; २. आत्मा पोताने देखे छे अथवा श्रद्धे छे -एम कहेवामां पण स्व-स्वामीअंशरूप

व्यवहार छे;

३. दर्शक दर्शक ज छे -ए निश्चय छे. पोते अभेद एकरूपी द्रष्टास्वभावी भगवान छे तेनी द्रष्टि करवाथी सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. आ सिवाय पर-निमित्तथी, रागथी के भेद-व्यवहारथी कांई साध्य नथी. आवी वात! हवे कहे छे-

‘वळी (जेवी रीते ज्ञायक तथा दर्शक विषे द्रष्टांत-दार्ष्टांतथी कह्युं) एवी ज रीते अपोहक (त्याजक, त्याग करनार) विषे कहेवामां आवे छेः-

आ जगतमां खडी छे ते श्वेतगुणथी भरेला स्वभाववाळुं द्रव्य छे. भींत आदि परद्रव्य व्यवहारे ते खडीनुं श्वेत्य छे (अर्थात् खडी वडे श्वेत करावायोग्य पदार्थ छे). हवे, श्वेत करनारी खडी, श्वेत करावायोग्य जे भींत-आदि परद्रव्य तेनी छे के नथी? -एम ते बन्नेनो तात्त्विक संबंध अहीं विचारवामां आवे छेः- जो खडी भींत-आदि परद्रव्यनी होय तो शुं थाय ते प्रथम विचारीएः

जेनुं जे होय ते ते ज होय, जेम आत्मानुं ज्ञान होवाथी ज्ञान ते आत्मा ज छे; -आवो तात्त्विक संबंध जीवंत होवाथी, खडी जो भींत-आदिनी होय तो खडी ते भींत- आदि ज होय (अर्थात् खडी भींत-आदिस्वरूप ज होवी जोईए); एम होतां, खडीनां स्वद्रव्यनो उच्छेद थाय. परंतु द्रव्यनो उच्छेद तो थतो नथी, कारण के एक द्रव्यनुं अन्य द्रव्यरूपे संक्रमण थवानो तो पूर्वे ज निषेध कर्यो छे. माटे (ए सिद्ध थयुं के) खडी भींत- आदिनी नथी.’ हवे कहे छेः-

(आगळ विचारीएः) ‘जो खडी भींत-आदिनी नथी तो खडी कोनी छे? खडीनी ज खडी छे. (आ) खडीथी जुदी एवी कई खडी छे के जेनी (आ) खडी छे? (आ) खडीथी जुदी अन्य कोई खडी नथी, परंतु तेओ बे स्व-स्वामीरूप अंशो ज छे. अहीं स्व-स्वामीरूप अंशोना व्यवहारथी शुं साध्य छे? कांई साध्य नथी. तो पछी खडी कोईनी नथी, खडी खडी ज छे-ए निश्चय छे.’ हवे कहे छेः-


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‘जेम आ द्रष्टांत छे तेम आ (नीचे प्रमाणे) दार्ष्टांत छे.’ दार्ष्टांत एटले के सिद्धांत आ नीचे प्रमाणे छेः-

‘आ जगतमां जे चेतयिता छे ते, जेनो ज्ञानदर्शनगुणथी भरेलो, परना अपोहनस्वरूप (त्यागस्वरूप) स्वभाव छे एवुं द्रव्य छे. पुद्गलादि परद्रव्य व्यवहारे ते चेतयितानुं अपोह्य (त्याज्य, त्यागवायोग्य पदार्थ) छे.’

जुओ, आ शुं कह्युं? के ज्ञानदर्शनगुणनो पिंड एवा भगवान आत्मानो परना अने रागना त्यागस्वरूप स्वभाव छे. अहाहा...! भगवान आत्मा सच्चिदानंद प्रभु परना-रागना अभावस्वभावरूप छे. अहा! राग करवो ए तो नहि, रागनो त्याग करवो एय आत्मामां नथी. भाई! कोई परनां ग्रहण-त्याग पोताने माने ए अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे. अहीं कहे छे-परनां ग्रहण-त्याग ए आत्मानो स्वभाव नथी; जड रजकणोने ग्रहवां-छोडवां ए आत्माना स्वरूपमां छे ज नहि. समजाय छे कांई....?

अहीं तो विशेष वात आ छे के रागनो त्याग करवो ए आत्मानुं स्वरूप नथी. भाई! अहीं चारित्रनी वात चाले छे. अरे! चारित्र कोने कहेवुं ए लोकोने खबर नथी. कहे छे के-आत्मा परना अने रागना त्यागरूप (अभावरूप) स्वभाववाळुं द्रव्य छे. हवे आम छे त्यां रागनो त्याग करवो ए वात क्यां रही? रागना अभावरूप आत्मानो स्वभाव छे ज्यां, त्यां रागनो त्याग करवो ए क्यां रह्युं? बापु! आत्माने रागनो त्याग कहेवो ए तो नाममात्र छे. समयसार, गाथा ३४ मां आ वात आवी गई छे के आत्माने परभावना त्यागनुं कर्तापणुं नाममात्र छे. पोते तो ज्ञानस्वभाव छे. स्वने स्व ने परने पर जाण्युं त्यां परभाव उत्पन्न थयो नहि ते ज त्याग छे. आ रीते (स्वरूपमां) स्थिर थयेलुं ज्ञान ते ज प्रत्याख्यान नाम त्याग छे, अने ते ज चारित्र छे, धर्म छे. भाई! ज्ञान ज्ञानमां (ज्ञानस्वभावमां) स्थिर रहे ए सिवाय बीजो कोई भाव चारित्र नथी.

कोई उघाडा पगे चाले, बहारमां शरीरथी अनेक परीषह सहन करे पण ए कांई आत्मधर्म नथी. कळशटीकामां निर्जरा अधिकार, कळश १४२ मां कहे छे के- हिंसा, अनृत, स्तेय, अब्रह्म, परिग्रहथी रहितपणुं, महा परीषहोनुं सहवुं-तेना घणा बोजा वडे घणा काळ पर्यंत मरीने चूरो थता थका घणुं कष्ट करे छे तो करो, तथापि एवुं करतां कर्मक्षय तो थतो नथी. आवी वात!

अहीं कहे छे- भाई! रागना त्यागरूप ज तारो स्वभाव छे. अहाहा....! शुद्ध एक ज्ञायकस्वरूप प्रभु तुं सदा रागरहित वीतरागस्वरूप ज छो. पछी रागनो


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त्याग करो ए वात क्यांथी आवी? अहा! भगवान ज्ञायकस्वभावे रागनुं ग्रहण ज कर्युं नथी, सदा ते रागना अभावस्वभावरूप ज रह्यो छे त्यां रागनो त्याग करवो ए क्यां रह्युं? राग चेतयितानुं त्याज्य छे ए तो व्यवहारथी छे भाई!

अहाहा...! आत्मा चिदानंद प्रभु नित्य एक ज्ञायकस्वभावमय छे. समयसारनी गाथा ६ मां आवे छे के ज्ञायक ज्ञायक ज छे, ज्ञायक कदी रागस्वभावे थयो नथी. जो ते रागस्वभावे थाय तो ते जड थई जाय. पण एम कदीय बनतुं नथी. छतां बहारथी त्याग करीने कोई ते वडे माने के हुं त्यागी छुं तो ते बहिर्द्रष्टि मिथ्याद्रष्टि छे. भाई! रागनो ने परनो त्याग करवो एम कहीए ए तो व्यवहारथी, उपचारथी छे.

अज्ञानी कहे छे-व्यवहार साधन अने निश्चय साध्य; पण एम नथी बापा! आत्मा पोते ज साधनस्वरूप छे. कर्ता, कर्म, साधन इत्यादि आत्मानी शक्तिओ-गुण छे. माटे तेने पर साधननी कोई अपेक्षा नथी. जो राग साधन होय तो आत्माने राग साथे संबंध थाय, पण आत्माने राग साथे संबंध छे ज नहि; निश्चयथी पर साथे के राग साथे चेतनने संबंध छे ज नहि; संबंध कहेवो ए तो कथनमात्र छे. आ सोनगढ अमारुं गाम, अमे सोनगढमां रहीए छीए-एम बोलीए ने? ए तो बोलवा पूरतु छे; बाकी आत्मानो तो असंख्यप्रदेशरूप देश छे, ने तेनो ते रहेवासी छे. पं. दीपचंदजीए पंचसंग्रहमां कह्युं छे के आत्मा चैतन्यना देशमां रह्यो छे अने ज्ञान, दर्शन आदि गुण एनी प्रजा छे. आवी वात छे बापु! पोते नित्यानंदस्वरूप छे एनुं भान करी, एमां रमणता करी पर्यायमां आनंदरूप थाय छे एमां परने ने रागने छोडवानुं क्यां आव्युं? परने-रागने छोडवुं एम कहेवुं ए व्यवहारथी छे बस. तेम रागने साधन (परंपरा साधन) कहेवुं एय व्यवहारथी छे बस. हवे कहे छे -

‘हवे, अपोहक (त्याजक) चेतयिता, अपोह्य (त्याज्य) जे पुद्गलादि परद्रव्य तेनो छे के नथी? -एम ते बन्नेनो तात्त्विक संबंध अहीं विचारवामां आवे छेः-

जो चेतयिता पुद्गलादिनो होय तो शुं थाय ते प्रथम विचारीएः

जेनुं जे होय ते ते ज होय, जेम आत्मानुं ज्ञान होवाथी ज्ञान ते आत्मा ज छे; -आवो तात्त्विक संबंध जीवंत होवाथी, चेतयिता जो पुद्गलादिनो होय तो चेतयिता ते पुद्गलादि ज होय (अर्थात् चेतयिता पुद्गलादिस्वरूप ज होवो जोईए); एम होतां, चेतयिताना स्वद्रव्यनो उच्छेद थाय. परंतु द्रव्यनो उच्छेद तो थतो नथी,


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कारण के एक द्रव्यनुं अन्य द्रव्यरूपे संक्रमण थवानो तो पूर्वे ज निषेध कर्यो छे. माटे (ए सिद्ध थयुं के) चेतयिता पुद्गलादिनो नथी.’

अहाहा....! रागना त्यागस्वरूप अपोहक प्रभु आत्मा छे ते अपोह्य एवा पुद्गलादिनो, रागादिनो छे के नथी? ल्यो, आवो प्रश्न! तो कहे छे-जो आत्मा- चेतयिता अपोहक प्रभु रागादिनो होय तो ते रागादिरूप थई जाय, केमके जेनुं जे होय ते ते ज होय-आ न्याय छे. जेम आत्मानुं ज्ञान होवाथी ज्ञान आत्मा ज छे तेम चेतयिता रागादिनो होय तो ते रागादिमय ज होय, अने तो चेतयितानो स्वद्रव्यनो ज नाश थई जाय. पण द्रव्यनो नाश तो कदीय थतो नथी ए सिद्धांत छे, केमके द्रव्यनुं द्रव्यांतररूपे संक्रमण थतुं ज नथी.

भाई! निमित्तथी कार्य थाय ए वात तो क्यांय रही, अहीं तो कहे छे- निमित्त- परवस्तु अने रागादि भावना त्यागनो कर्ता आत्मा छे एम छे नहि. ए तो पहेलां आवी गयुं के ज्ञायक ज्ञायक ज छे, दर्शक दर्शक ज छे, तेम भगवान आत्मा रागना अभावस्वभाव ज छे ए परमार्थ छे. ए ज हवे कहे छे-

(आगळ विचारीएः) ‘जो चेतयिता पुद्गलादिनो नथी तो चेतयिता कोनो छे? चेतयितानो ज चेतयिता छे. (आ) चेतयिताथी जुदो एवो बीजो क्यो चेतयिता छे के जेनो (आ) चेतयिता छे?

(आ) चेतयिताथी जुदो अन्य कोई चेतयिता नथी, परंतु तेओ बे स्व-स्वामीरूप अंशो ज छे. अहीं स्व-स्वामीरूप अंशोना व्यवहारथी शुं साध्य छे?

कांई साध्य नथी. तो पछी अपोहक (अर्थात् त्याग करनार) कोईनो नथी, अपोहक अपोहक ज छे- ए निश्चय छे.’

अरे! स्वस्वरूपने समज्या विना ए (-जीव) भवसिंधुमां अनंत-अनंत भव करीने रझळी रह्यो छे. अनंत वार एणे द्रव्यलिंग धारण कर्या ने मुनिव्रत पाळ्‌यां; पण अरे! एणे आत्मज्ञान कर्युं नहि अने तेथी तेना चौगति-परिभ्रमणनो अंत आव्यो नहि. अरे भाई! बाह्य त्याग वडे में त्याग कर्यो एवी मिथ्या मान्यताना सेवन वडे तुं चार गतिमां रखडी मर्यो छे. जो तो खरो अहीं शुं कहे छे? के अपोहक अपोहक ज छे.

अहाहा....! शिष्यनो प्रश्न छे के चेतयिता रागनो नहि, शरीरादिनो नहि, पुद्गलनो नहि तो चेतयिता कोनो छे? तो कहे छे-चेतयितानो ज चेतयिता छे. तो कहे छे-ए तो चेतयिता बे थई गया; तो शुं बे चेतयिता छे? ना; बे नथी. आ चेतयिताथी अन्य कोई बीजो चेतयिता नथी; पण तेओ बे स्व-स्वामीरूप बे


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अंशो ज छे. चेतयिता पोते पोतानुं स्व अने चेतयिता पोते तेनो स्वामी -एम बे अंशो छे.

अहा! पण ‘आत्मा आत्मानो छे’ -एवा स्वस्वामीरूप अंशोना व्यवहारथी शुं सिद्धि छे? शुं लाभ छे? कांई ज नहि; बल्के एवा व्यवहारमां रोकाई रहेनारने आत्मलाभ थतो नथी, सम्यग्दर्शन थतुं नथी. बापु! अत्यारे आ समजवा जेवुं छे, बाकी बधुं तो धूळधाणी ने वा-पाणी छे. आ शरीर तो क्यांय फू थईने उडी जशे, संजोग बधा पलटाई जशे, बधुं फरी जशे, अने आ भेद-विकल्प पण तने शरण नहि थाय भगवान? अहीं कहे छे-भेद-विकल्पथी कांई सिद्धि नथी. आत्मा आत्मामां केलि-रमण करनारो छे एवा भेद-विकल्पथी पण कांई साध्य नथी. अहाहा.....! वीतरागभावस्वरूप आत्मा वीतरागभावमां रमे एवो भेद-विकल्प पण व्यवहार छे अने एमां तुं अटकी रहे ते कांई कार्यकारी नथी. समजाणुं कांई....!

अहाहा....! परने-रागने जाणवामां रोकाई रहे त्यां तो स्वनुं जाणवुं रोकाई जाय छे, स्वने जाणवाथी भ्रष्ट थई जाय छे. बापु! स्वस्वरूपनुं ज्ञान थया विना परने जाणवुं ए व्यवहार छे-एम क्यां छे? ए तो आत्मज्ञानी धर्मी पुरुषने परनुं जाणवुं ते व्यवहारथी छे. अहीं कहे छे-ए व्यवहारथी कांई साध्य नथी.

सं. ८३ नी सालमां प्रश्न उठयो हतो-के आ लोकालोक छे माटे केवळज्ञाननी पर्याय छे ने? त्यारे कह्युं हतुं -

अरे भाई! केवळज्ञाननी पर्याय तो पोतानी पोताथी छे. पोते ज्ञानस्वरूप छे के नहि? तो केवळज्ञान थयुं ए तो पोतानुं-ज्ञाननुं परिणमन छे, लोकालोक छे माटे केवळज्ञान थयुं छे एम नथी. जो लोकालोकने कारणे केवळज्ञान होय तो केवळज्ञान सदाय प्रगट होवुं जोईए, केमके लोकालोक सदाय विद्यमान छे; पण एम छे नहि. लोकालोकनी अस्ति हो (छे), परंतु केवळज्ञानने तेनी अपेक्षा नथी. केवळज्ञान निज सत्तावलंबी छे, परने कारणे नथी. समजाणुं कांई....?

आ तो मारगडा जुदा नाथ! रागने जाणवो ने रागनो त्याग करवो ए स्वरूपनी स्थिति नथी. रागने जाणवो ने रागनो त्याग करवो ए जवा दे बापु! अहीं तो कहे छे- जाणनारनो जाणनार छे एवा स्व-स्वामीरूप भेद-व्यवहारथी कांई साध्य नथी. आवी वात!

तो शुं छे? तो कहे छे-अपोहक अपोहक ज छे-ए निश्चय छे. बस रागना अभावस्वभावरूप ज भगवान आत्मा छे. आवा निज स्वरूपमां ठरीठाम रहेवुं बस ए ज चारित्र छे. बाकी रागनो त्याग करवो एम कहीए ए तो कथनमात्र


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छे, परमार्थे रागना त्यागनुं कथन एने शोभतुं नथी; केमके ज्ञानानंदस्वभावी प्रभु पोते पोतामां ठर्यो त्यां राग उपज्यो ज नहि तेने रागनो त्याग कर्यो एम कथनमात्र कहेवाय छे.

अहाहा....! आवी वस्तु चारित्रनी बापा! चारित्र तो कोई अलौकिक चीज छे भगवान! चारित्रवंत मुनिराज तो पंचपरमेष्ठीमां भळेला छे प्रभु! अहाहा....! धन्य अवतार! एवा मुनिवरनां अहीं आ काळे दर्शन पण दुर्लभ थई पडयां छे! भाई! चारित्र एक आत्मानो गुण छे; पण चारित्र आत्मानुं छे-एवा भेदथी शुं सिद्धि छे? कांई ज नहि. माटे अपोहक अपोहक ज छे-ए निश्चय छे. अहाहा...! परना अने रागना अभावस्वभावस्वरूप भगवान आत्मा-तेनी द्रष्टि करी तेमां ज स्थिर रहेवुं तेनुं नाम मोक्षमार्ग छे; बीजी कोई रीते मोक्षमार्ग नथी.

आ रीते अहीं एम बताव्युं केः-

१. आत्मा परद्रव्यने अपोहे छे अर्थात् त्यागे छे-ए व्यवहारकथन छे;

२. आत्मा ज्ञानदर्शनमय एवा पोताने ग्रहे छे-एम कहेवामां पण स्व-

स्वामीअंशरूप व्यवहार छे;

३. अपोहक अपोहक ज छे-ए निश्चय छे.

हवे व्यवहारनुं व्याख्यान करवामां आवे छेः-

‘जेवी रीते श्वेतगुणथी भरेला स्वभाववाळी ते ज खडी, पोते भींत-आदि परद्रव्यना स्वभावे नहि परिणमती थकी अने भींत-आदि परद्रव्यने पोताना स्वभावे नहि परिणमावती थकी, भींत-आदि परद्रव्य जेने निमित्त छे एवा पोताना श्वेतगुणथी भरेला स्वभावना परिणाम वडे उपजती थकी, खडी जेने निमित्त छे एवा पोताना (-भींत-आदिना) स्वभावना परिणाम वडे उपजता भींत-आदि परद्रव्यने, पोताना (-खडीना) स्वभावथी श्वेत करे छे-एम व्यवहार करवामां आवे छे;.....’

जुओ, शुं कीधुं? के श्वेतगुणथी भरेला स्वभाववाळी ते ज खडी -जे पहेलां कहेवामां आवी ते ज खडी-पोते भींत-आदि परद्रव्यना स्वभावे परिणमती नथी. अहाहा....! भींत-आदि परद्रव्यने खडी धोळी करे छे त्यां कांई खडी भींत-आदिरूपे थई जती नथी. वळी ते खडी भींत-आदि परद्रव्यने पोताना स्वभावे पण करती नथी. ल्यो, आवी वात. खडी भींतने धोळी करे छे त्यां खडी भींतरूप न थाय, खडी खडी ज रहे, तेम ज खडी भींतने पोताना स्वभावे धोळी अवस्थापणे पण करती नथी.


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खडी पोतानी सफेदाईपणे उपजे तेमां भींत-आदि परद्रव्य निमित्त छे बस. निमित्त एटले शुं? के साथे एक बीजी चीज छे बस एटलुं ज; निमित्त कांई करे छे एम नहि. हवे लोकोने आ मोटी तकरार के -निमित्त तो छे ने? बापु! निमित्त छे एनो अर्थ ज ए के ते कांई करतुं नथी. खडीनी सफेदाई ने शुं भींत करे छे? ना. खडीमां सफेदाई पोतानी पोताथी थई छे तेमां भींत-आदि परद्रव्य निमित्त छे बस.

खडी पोताना श्वेतगुणथी भरेला स्वभावना परिणामथी उपजे छे, भींतपणे उपजती नथी; तेम ज खडी भींतने पोताना सफेदस्वभावपणे परिणमावती नथी-करती नथी. खडीनी सफेदाईने भींत निमित्त छे, ने भीतने खडीनी सफेदाई निमित्त छे. बस, आम अरसपरस निमित्त छे एटलुं, एकबीजाना कर्ता नथी. आ रीते निमित्त छे माटे (निमित्तनी मुख्यताथी) खडी भींत-आदि परद्रव्यने पोताना स्वभावथी धोळी करे छे- एम व्यवहार करवामां आवे छे. आ द्रष्टांत कह्युं. हवे सिद्धांत कहे छे-

‘तेवी रीते ज्ञानगुणथी भरेला स्वभाववाळो चेतयिता पण, पोते पुद्गलादि परद्रव्यना स्वभावे नहि परिणमतो थको अने पुद्गलादि परद्रव्यने पोताना स्वभावे नहि परिणमावतो थको, पुद्गलादि परद्रव्य जेने निमित्त छे एवा पोताना ज्ञानगुणथी भरेला स्वभावना परिणाम वडे उपजतो थको, चेतयिता जेने निमित्त छे एवा पोताना (- पुद्गलादिना) स्वभावना परिणाम वडे उपजता पुद्गलादि परद्रव्यने, पोताना (- चेतयिताना) स्वभावथी जाणे छे-एम व्यवहार करवामां आवे छे.’

अहाहा.....! जोयुं? चेतयिता प्रभु आत्मा ज्ञानगुणथी भरेला स्वभाववाळुं द्रव्य छे. अहा! आवो ज्ञानस्वभावी आत्मा पुद्गलादि परद्रव्यना स्वभावे थतो नथी; अने आत्मा पुद्गलादि परद्रव्यने पोताना स्वभावे ज्ञानपणे परिणमावतो-करतो नथी. झीणी वात छे भाई!

अहीं कहे छे-जाणग-जाणग-जाणग एवा ज्ञानस्वभावथी भरेलो भगवान आत्मा दया, दान, व्रत आदि व्यवहाररत्नत्रयना रागपणे थतो नथी. व्यवहाररत्नत्रयनो राग ज्ञानीने होय छे, पण जेने निश्चय ध्रुव एक ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि थई छे ते ज्ञानी रागपणे थतो नथी. अहाहा....! ज्ञानस्वभावे परिणमतो आत्मा पुद्गलादि परद्रव्यने- व्यवहाररत्नत्रयना रागने जाणे छे त्यां आत्मा-ज्ञान व्यवहाररत्नत्रयना रागरूपे थई जतो नथी, पुद्गलादिरूप थई जतो नथी; तेम आत्मा पुद्गलादि परद्रव्यने, व्यवहाररत्नत्रयना रागने ज्ञानपणे करतो-परिणमावतो नथी.


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अहाहा....! आत्मा ज्ञानस्वभावनी निर्मळ पर्यायपणे उपजे त्यां व्यवहाररत्नत्रय एमां निमित्त छे, पण निमित्तथी कांई ज्ञाननी निर्मळ पर्याय प्रगट थई छे एम नथी. व्यवहाररत्नत्रयना कारणे कांई सम्यग्दर्शन-ज्ञान थयां छे एम नथी. आत्मामां ज्ञान पोतानुं पोताथी थयुं छे, तेमां पुद्गलादि परद्रव्य के व्यवहाररत्नत्रय आदि निमित्त छे बस. निमित्तनो अर्थ ज ए छे के ते उपादानमां कांई करतुं नथी; अन्यथा निमित्त ज न रहे, निमित्त-उपादान एक थई जाय. बापु! आ तो भगवान केवळीनी वाणीमां प्रसिद्ध थयेलो न्याय छे.

जेम खडी भींतने धोळी करे छे एम कहीए त्यां खडीनी सफेदाई भींतरूपे थती नथी अने खडी, भींतने सफेदाईरूपे परिणमावती नथी तेम भगवान आत्मा, अहाहा....! ज्ञानस्वभावी प्रभु-जेना द्रव्यभावमां ज्ञान-ज्ञान-ज्ञान व्याप्युं छे, ते निर्मळ ज्ञानपणे उपजे छे त्यां व्यवहाररत्नत्रय आदि निमित्त हो, पण उपजेली ते ज्ञाननी पर्याय रत्नत्रयना ए रागरूप थती नथी अने ते ज्ञाननी पर्याय रागने ज्ञानपणे परिणमावती- करती नथी. ज्ञान ज्ञानपणे रहे छे, अने राग रागरूप ज रहे छे. आवी वात!

आ शरीरमां केन्सरनो रोग थाय छे ने? शरीरमां एक जातनो सडो थाय ते केन्सर छे. कोईने आंतरडामां, कोईने छातीमां, कोईने नाकमां, कोईने गळामां ने कोईने पेशाबना स्थानमां केन्सर थतुं होय छे. अहा! ए केन्सर थाय त्यारे राडे-राड पाडे छे माणस. अहीं कहे छे-शरीरमां केन्सरनी जे अवस्था थाय तेने आत्मा-ज्ञान जाणे छे, पण ज्ञान पोते ते-रूपे परिणमतुं-थतुं नथी, के रोगनी अवस्थाने ज्ञानपणे करतुं नथी.

रोग हो के नीरोग दशा हो, ए तो बधी परवस्तु भगवान! एने जाणवुं ते व्यवहार त्यारे कहेवाय के ज्यारे आने त्रिकाळी ध्रुव भगवान ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि थईने सम्यग्दर्शन-ज्ञान थयां होय. ए सिवाय तो बधो व्यवहाराभास छे. शरीरनी अने ज्ञाननी परिणतिने एक जाणे छे एने व्यवहार क्यां छे? नथी.

अहाहा...! जेने शुद्ध चैतन्यनी-भगवान ध्रुवस्वरूपनी द्रष्टि थईने सम्यग्दर्शन- ज्ञान थयां छे एने ओलो (व्यवहाररत्नत्रयनो) राग छे तेने जाणेलो व्यवहार कहीए, केमके राग ने ज्ञाननी परिणति बे एक नथी. ज्ञान रागने जाणे एम कहीए ते व्यवहार केमके राग ने ज्ञान बे एक वस्तु नथी, भिन्न छे. समजाणुं कांई....?

शरीर सुंदर होय एनी मीठाशमां अरे! एणे अंदर त्रिकाळी प्रभुनी सुंदरता खोई नाखी छे; तेम शुभरागनी मीठाशमां एणे शुद्ध चैतन्यना अनंता सुखनी


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मीठाश मिटावी दीधी छे. अरे भगवान! अहीं त्रिलोकीनाथ भगवान केवळीनी वाणीमां शुं कीधुं छे ते जरा सांभळ!

अहाहा...! कहे छे-ज्ञानस्वरूपे परिणमतो भगवान आत्मा व्यवहाररत्नत्रयना अने देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धाना रागरूपे थतो नथी. आत्माना द्रव्य-गुण तो त्रिकाळ शुद्ध चेतनागुणथी भरेला छे. तेनी ज्ञाननी पर्याय ज्ञाताद्रष्टापणे परिणमे त्यां ते परिणमन रागने पोतारूप करतुं नथी, तेम ते ज्ञाननुं परिणमन रागरूपे थतुं नथी.

रागने अहीं पुद्गलस्वभाव कह्यो छे केमके तेमां चैतन्यनो अंश नथी, रागनी चैतन्यनी जाति नथी; वळी ते पुद्गलना संगमां प्रगट थाय छे. माटे रागने अजीव पुद्गलस्वभाव कह्यो छे.

त्यारे केटलाकने वांधा छे; एम के व्यवहार साधन अने निश्चय साध्य छे.

हा, पण कोने? जेने अंतरंगमां निश्चय साधन प्रगट थयुं छे तेने जे रागादि व्यवहार छे तेने व्यवहारथी साधन कहेवामां आवे छे. धर्मी पुरुषना बाह्य व्यवहारने साधन कहीए ते उपचारमात्रथी छे, वास्तविक नहि. भाई! वस्तुस्थिति शुं छे ते बराबर समजवुं जोईए. (अज्ञानीनी बाह्य क्रियामां तो साधननो उपचार पण संभवित नथी) .

भाई! आ तारा हितनी वात छे के ज्ञान रागरूपे परिणमे नहि अने रागने पोतारूपे-ज्ञानरूपे परिणमावे नहि.

भाई! आ रूपाळुं शरीर, पैसा, आबरू, मकान-बंगला इत्यादि बधा बहारना ठाठ छे. तुं एमां गुंथाई-गुंचाई रह्यो छो पण ए तो मसाणना हाडकाना फोस्फरसनी चमक जेवा छे, देखाय ने विलय पामी जाय. अहा! ए बधी चीज तारामां क्यां छे प्रभु? त्यांथी खसी जा, अने अंतर्द्रष्टि कर. ओहो! अतीन्द्रिय आनंदरूप अमृतनो सागर प्रभु अंदर शाश्वत डोली रह्यो छे. तेना स्वरूपना लक्षे अतीन्द्रिय आनंद अने ज्ञाननी परिणति प्रगटे छे. अहा! ते ज्ञाननी परिणति, अहीं कहे छे, रागने पोतापणे करती नथी, अने ते परिणति रागरूप थती नथी. अहो! आचार्यदेवे महा अलौकिक वात करी छे.

भगवान आत्मा ज्ञानस्वभावथी भरेलो प्रभु छे. ते ज्ञानरूपे थाय ते तो वस्तुनी स्थिति छे, पण ते रागरूपे थाय ए वस्तुनी स्थिति नथी. तो शुं छे? तेना ज्ञानना परिणमनना काळे जे रागादि परद्रव्य छे ते ज्ञानना परिणमनमां निमित्त छे. शुं कीधुं? परद्रव्यने जाणवाना काळे ज्ञाननी परिणतिमां परद्रव्य-शरीरादि, रागादि,


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कर्मादि-निमित्त छे. निमित्त एटले उपादाननुं कांई करे एम नहि, निमित्त एटले उपादानना काळे साथे बीजी एक सानुकूळ चीज छे बस; बाकी निमित्त-परद्रव्यने कारणे कांई ज्ञाननी परिणति थई छे एम नथी. निमित्त अने उपादान-बन्नेनो समकाळ छे एटलुं. शास्त्र-भाषामां तेने काळप्रत्यासत्ती कहे छे.

जेमके -आत्मामां अंदर ज्ञाननी परिणति थाय ते काळे शरीर आम हल्युं; हवे बन्नेनो एक ज काळ छे, समकाळ छे, पण तेथी ज्ञानथी शरीर हल्युं ए वात क्यां रही? तथा शरीर हल्युं माटे ज्ञान थयुं एम पण क्यां रह्युं? शरीरनुं हलवुं छे ते जडनी पर्याय छे, ने ज्ञान थयुं ते जीवनी-चेतननी पर्याय छे. शरीरनी अवस्था ज्ञानमां निमित्त हो, पण ज्ञाननुं परिणमन शरीरथी थयुं छे एम कदापि नथी. बन्नेमां समकाळे प्रगट थतां परिणमन पोतपोतामां स्वतंत्र छे; आनाथी आ परिणमन थयुं एम कदी छे ज नहि, होई शके नहि.

अहा! जीव चोरासीना अवतारमां दुःखी दुःखी थईने रखडी मरे छे. कीडी, कागडा, कंथवा, नरक-निगोदादिना अनंत अनंत भव करीने एणे पारावार दुःख सहन कर्युं छे. अरे! सांभळ्‌यां जाय नहि एवां अपार घोर दुःख एणे अज्ञानभावे सहन कर्यां छे. एना दुःखनुं शुं कथन करीए? अरे! ए मनुष्य तो अनंत वार थयो, पण रागथी हुं भिन्न चिन्मात्र आत्मा छुं, परनुं हुं कांई न करुं ने पर मारुं कांई न करे-एवुं भेदज्ञान एणे कर्युं नहि. भाई! तारी जे चीज नथी तेने तें पोतानी मानी छे, संयोगीभाव विभाव छे तेने तें स्वभाव मान्यो छे तो हे भाई! तारा भवभ्रमणनो अंत नहि आवे. अरे! तने भवनो भय नथी!

योगसारमां आचार्य योगीन्द्रदेव कहे छेः-

इच्छे छे निज मुक्तता, भवभयथी डरी चित्त;
ते भवि जीव संबोधवा, दोहा रच्या एक चित्त.

अहा! आचार्य कहे छे-भव-भयथी डरीने आ शास्त्र हुं बनावुं छुं. शुं काम? के भव-भयनो जेमने डर छे एवा भव्य जीवोने संबोधवा आ दोहा रचुं छुं. भाई! भव अने भवना भावनो जेने प्रेम छे तेने भव-भयनो डर नथी. शुं थाय? अरे! ए क्यांय भवसमुद्रमां खोवाई जशे.

जुओने, आवी सत्य वात बहार आवी त्यां जैनमां पण कोई लोकोए गडबड ऊभी करी छे. पं. श्री फूलचंदजी सिद्धांतशास्त्री ‘जैन तत्त्वमीमांसा’ मां लखे छे के- (पान २९०)

“ज्यारथी बधा द्रव्योनी क्रमबद्ध (क्रमनियमित) पर्यायो थाय छे एवुं


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तथ्य प्रमुखरूपथी बधानी सामे बहार आव्युं छे त्यारथी एक बे विद्वानो तरफथी केवळज्ञानना विषयमां शंका उपस्थित करवामां आवी छे. तेमना मनमां एवुं शल्य छे के केवळज्ञानने सर्व द्रव्यो अने तेनी सर्व पर्यायोनुं ज्ञाता मानी लेवाथी सर्व द्रव्योनी पर्यायो क्रमबद्ध सिद्ध थई जशे. परंतु तेओ आम थवा देवा चाहता नथी, जेथी तेओ केवळज्ञानना सामर्थ्य उपर उक्त प्रकारनी शंकाओ करवा लाग्या छे. परंतु तेओ आवी शंका करती वेळा ए भूली जाय छे के जैनधर्ममां तत्त्वप्ररूपणानो आधार ज केवळज्ञान छे.”

भाई! ‘स्वामी कार्तिकेय-अनुप्रेक्षा’ मां स्पष्ट कह्युं छे के जे द्रव्यनी ज्यां जे क्षेत्रे, जे काळे जे पर्याय, जे रीते, जे प्रकारे थवानी होय त्यां ते काळे ते ज थाय छे; अने आवुं जे माने ते सम्यग्द्रष्टि छे. आडी-अवळी थाय, वा आनाथी आ थाय-एवुं माने ते कुद्रष्टि छे.

अहीं कहे छे-परद्रव्य जेने निमित्त छे एवा ज्ञानगुणना स्वभावथी भरेलो चेतयिता छे ते ज्ञानस्वभावे उपजे छे. अहाहा....! आत्मा केवळज्ञाननी पर्याये उपजे छे त्यां परद्रव्य-लोकालोक आखुं-निमित्त छे, पण लोकालोक छे माटे केवळज्ञाननी पर्याय थाय छे एम नथी. तथा लोकालोक परिणमे छे तेने केवळज्ञान निमित्त छे, पण केवळज्ञाननी पर्याय छे माटे लोकालोक परिणमे छे एम नथी. अरसपरस बन्ने निमित्त छे, पण त्यां कर्ताकर्मभाव नथी. बन्ने परस्पर अनुकूळ साथे रहेल छे, बस. आत्मसिद्धिमां श्रीमदे कह्युं छे के-

नय निश्चय एकान्तथी आमां नथी कहेल,
एकान्ते व्यवहार नहि, बन्ने साथे रहेल.

बन्ने साथे रहेल छे. एनो अर्थ शुं? के आनाथी आ छे एम नथी. द्रव्य- संग्रहनी गाथा ४७ मां आवे छे के-निश्चय अने व्यवहार मोक्षमार्ग-बन्ने ध्यानमां प्रगट थाय छे. हवे एमां व्यवहार पहेलो ने निश्चय पछी एम छे ज क्यां? स्वरूपनी द्रष्टि ने रमणता थतां निश्चय रत्नत्रय प्रगट थाय छे अने त्यारे ते ज काळे जे राग बाकी रह्यो छे तेने आरोप करीने व्यवहारथी व्यवहारमोक्षमार्ग कहेवामां आवे छे. आ प्रमाणे निश्चय-व्यवहार बन्ने साथे विद्यमान छे. व्यवहारनो राग जे ते काळे छे तेने निमित्त कहेवामां आवे छे.

हमणां हमणां कोई पंडितो स्वीकारवा लाग्या छे-एम के सोनगढवाळाओ निमित्त मानता नथी एम नथी, निमित्त छे, पण निमित्तथी उपादानमां कांई कार्य थाय छे एम मानता नथी. हा, भाई! एम ज छे. ज्ञाननी परिणति थाय त्यां


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राग निमित्त छे अने रागने ज्ञाननी परिणति निमित्त छे; पण ज्ञानथी राग थयो के रागथी ज्ञान थयुं एम छे नहि. अहीं चेतयिता शब्द छे, चेतयिता शब्दथी ज्ञाननुं जे परिणमन थयुं एनी अहीं वात छे. चेतयिता ज्ञानरूपे परिणम्यो ते रागने निमित्त छे, अने तेने राग निमित्त छे; पण कर्ताकर्म नहि. अहा! भगवान केवळीना श्रीमुखेथी जे इन्द्रो, महामुनिवरो अने चार ज्ञानना धणी गणधरोए सांभळी ते आ वात छे, महा सूक्ष्म ने गंभीर! अहा! चार ज्ञानना धणी भगवान गणधरदेव अति नम्र थई जे वाणी सांभळवा बेसे तेनी शी वात! अहा! ते असाधारण अलौकिक आ वात छे.

अहा! धर्मी पुरुषनी द्रष्टि ध्रुव उपर छे. तेने रागनी एकत्वबुद्धिनुं परिणमन नथी. अहा! तेने समयसमयनुं क्रमबद्ध जे ज्ञाननुं परिणमन थाय छे तेमां ते, ते ते काळे जे राग छे तेने ते (पृथक) जाणे छे. त्यां जे राग छे ते ज्ञानना परिणमनमां निमित्त छे बस. ते ते रागने ज्ञानना परिणमनमां निमित्त कहेवामां आवे छे. एनो अर्थ ए के ए बन्ने साथे छे. बाकी राग कर्ता ने ज्ञाननुं जे परिणमन थयुं ते कार्य एम नथी; तथा ज्ञान कर्ता ने जे राग थयो ते कार्य एम पण नथी. खरेखर तो ज्ञाननुं परिणमन ते कार्य अने भगवान आत्मा तेनो कर्ता-एम कहीए ए पण भेद-उपचार छे. वास्तवमां ज्ञाननी परिणतिनो कर्ता ते परिणति पोते छे; आत्माने तेनो कर्ता कहेवो ते भेदोपचार छे, व्यवहार छे. आवी गजब वात छे प्रभु! सत् ज आवुं छे; भगवाने जेवुं भाळ्‌युं तेवुं भाख्युं छे, अने ते आ छे.

अहा! आमां तो पर्याय-पर्यायनी स्वतंत्रतानो ढंढेरो पीटयो छे. अहा! ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मा-तेनी ज्ञाननी पर्याय क्रमबद्ध थाय ते स्वतंत्र छे. राग छे माटे ज्ञान थाय छे ए तो क्यांय दूर रह्युं, द्रव्य (त्रिकाळी) छे माटे तेनी ज्ञाननी पर्याय थाय छे एम पण नथी; केमके द्रव्य तो सदाय छे, छतां परिणति एकरूप थती नथी, भिन्न भिन्न थाय छे. पर्याय भिन्न भिन्न थाय छे ए पर्यायनुं पोतानुं स्वतंत्र कार्य छे एम सिद्ध करे छे. आवी वात बहु झीणी!

हवे आवुं, बहारमां रस होय एटले माणसने आकरुं लागे एटले कहे के- दया करो ने दान करो ने व्रत करो ने उपवास करो इत्यादि. पण बापु! ए धर्म नथी, एवुं एवुं तो अनंतवार कर्युं प्रभु! पण ए तो बधी रागनी क्रिया भगवान! अहीं कहे छे-ए तारा ज्ञानस्वभावना परिणमनमां निमित्तपणे जाणवालायक छे, बस. वळी ते रागनी क्रियामां ज्ञाननुं परिणमन पण निमित्त तरीके छे, एणे राग उत्पन्न कर्यो छे एम नथी. अहाहा.....! आ समयसार तो अपार गंभीर, जाणे केवळज्ञाननो कक्को!!


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भाई! आ तो मारग जुदी जातनो छे बापा! अरेरे! मार्गना भान विना ए अनंतकाळथी आथडी मर्यो छे. श्रीमदे कह्युं छे ने के-

अनंतकाळथी आथडयो, विना भान भगवान;
सेव्या नहि गुरु संतने, मूकयुं नहि अभिमान.

अरेरे! संतोए -आचार्य भगवंतोए कहेली वात एणे मानी नहि? सांभळीय नहि! ! अहीं कहे छे-भाई! एक वार प्रसन्नचित्त थई तारी प्रभुतानी वात अंतरमां प्रीति लावीने सांभळ. अहाहा...! पोते भगवान अंदर ज्ञानानंदनी लक्ष्मीनो भंडार शुद्ध एक ज्ञानस्वरूपी प्रभु छे. तेने जेणे जोयो ने जाण्यो तेने जाणवानी (निर्मळ) पर्याय प्रगट थई छे. हवे तेने जे दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादिनो जे विकल्प उठयो ते, अहीं कहे छे, ज्ञान पर्यायमां निमित्त कहेवामां आवे छे; अने ते विकल्परूप रागना परिणामने ज्ञाननी पर्याय निमित्त कहेवामां आवे छे; अर्थात् ज्ञाननी पर्याय छे ते रागने करती नथी, पृथक् छे; ने रागनी पर्याय छे ते ज्ञानने करती नथी, पृथक् छे. ज्ञानथी राग भिन्न ज रही जाय छे. आवी वात! अत्यारे तो सांभळवा मळवी पण दुर्लभ छे.

भाई! जेने अंतरंगमां निश्चय परिणम्यो छे तेने बाह्य व्यवहार निमित्त छे, पण जेने निश्चय ध्रुव अंतरंगतत्त्वनुं ज्ञान ज नथी तेने निमित्त कोनो कहेवो? तेने व्यवहार निमित्त केम कहीए? ओहो! भगवाननो मारग खूब ऊंडो, गंभीर ने सूक्ष्म छे. वस्तु अनंत अनंत शक्तिओनो पिंड प्रभु आत्मा अति सूक्ष्म, ने तेना आश्रय वडे उत्पन्न मार्ग पण सूक्ष्म ने गंभीर छे. कहे छे-आत्माना आश्रये जे अबंध परिणाम प्रगट थया तेमां बंधना परिणाम निमित्त छे, ने बंधना परिणामने जीवना अबंध परिणाम निमित्त छे. गजब वात छे. निमित्त छे एटले बंधना परिणाम अबंधने के अबंधना परिणाम बंधने करे एम नहि. ए तो बेय साथे छे बस. अहो! दिगंबर संतोए वीतरागभावनी रेलमछेल करी छे.

भगवान आत्मा अनंतशक्तिनी खाण छे. एवा शक्तिमान प्रभुनो ज्यां स्व- संवेदनप्रत्यक्ष अनुभव थयो त्यां जे ज्ञान ने आनंदनी पर्याय प्रगटी ते मोक्षमार्ग; स्वानुभवनी दशा ते मोक्षमार्ग ने जे रागनी दशा रही ते संसार छे. समयसार नाटकमां कह्युं छे के-छठ्ठा गुणस्थाने जेटलो महाव्रतादिनो विकल्प उठे छे ते बधो जगपंथ छे. ज्यांसुधी पूर्ण वीतरागता न थाय त्यांसुधी किंचित् राग होय छे, भक्ति, व्रत, तप आदिनो विकल्प होय छे, पण छे ए संसार. अने जेटलो स्व-आश्रय थयो, जेटली स्व- अनुभवनी दशानी स्थिरता थई तेटलो मोक्षनो मारग थयो; ते मोक्षनुं कारण होवाथी मोक्षस्वरूप छे. कह्युं छे ने के-


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अनुभव चिंतामनि रतन, अनुभव है रस-कूप;
अनुभव मारग मोखनो, अनुभव मोखस्वरूप.

प्रवचनसारमां पण मोक्षना मार्गने मोक्षतत्त्व कह्युं छे. मोक्षनुं कारण छे ते मोक्षस्वरूप छे, अने व्यवहाररत्नत्रयनो जे राग छे ते संसार छे, जगपंथ छे. भाई! आ तारा सुखना पंथनी रीत कही छे. भाई! तारा ज्ञानमां निश्चय तो कर के वस्तु आवी छे, मारग आवो छे. अहीं कहे छे -

चेतयिता, परद्रव्य जेने निमित्त छे एवा पोताना ज्ञानगुणथी भरेला स्वभावना परिणाम वडे उपजतो थको, चेतयिता जेने निमित्त छे एवा पोताना (-पुद्गलादिना) स्वभावना परिणाम वडे उपजता पुद्गलादि परद्रव्यने, पोताना (-चेतयिताना) स्वभावथी जाणे छे-एम व्यवहार करवामां आवे छे.

अहाहा...! जेम ज्ञाननी पर्याय प्रगट थई छे ते ज्ञानस्वभावथी भरेलो भगवान पोते छे तेना आश्रये थई छे, व्यवहाररत्नत्रयथी नहि; तेम चेतयिताना परिणाम जेने निमित्त छे एवो जे राग ते पोताना (-रागना, विभावना पौद्गलिक) स्वभावथी उत्पन्न थाय छे, आत्माथी नहि. व्यवहाररत्नत्रयनो राग पुद्गलथी (पुद्गलना आश्रये) उत्पन्न थयो छे. राग के जे पुद्गलस्वभाव छे तेने, अहीं कहे छे, पोताना ज्ञानस्वभावथी चेतयिता जाणे छे-एम व्यवहार करवामां आवे छे. चेतयिता पोतानी ज्ञान-पर्यायथी रागादि परद्रव्यने जाणे छे एम कहीए ते व्यवहार छे एम कहे छे. अहाहा....! पुद्गलस्वभाव एवा रागने करे छे ए वात तो छे नहि, आत्मा पोताना ज्ञानस्वभावना परिणमनथी रागने जाणे छे एम कहीए एय व्यवहार छे. बारमी गाथामां आवी गयुं ने के ते ते काळे व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान छे, ए वात अहीं सिद्ध करी छे. जाणवाना स्वभावथी परिणमेला भगवान आत्माना ज्ञानपरिणामने राग करे नहि, रागने ज्ञान करे नहि; परंतु आत्मा रागने-पुद्गलद्रव्यने जाणे छे एम कहेवामां आवे छे ते व्यवहार छे. ल्यो, आवी वात छे. समजाणुं कांई....?

‘वळी (जेवी रीते ज्ञानगुणनो व्यवहार कह्यो) एवी ज रीते दर्शनगुणनो व्यवहार कहेवामां आवे छेः-

जेवी रीते श्वेतगुणथी भरेला स्वभाववाळी ते ज खडी, पोते भींत-आदि परद्रव्यना स्वभावे नहि परिणमती थकी अने भींत-आदि परद्रव्यने पोताना स्वभावे नहि परिणमावती थकी, भींत-आदि परद्रव्य जेने निमित्त छे एवा पोताना श्वेतगुणथी भरेला स्वभावना परिणाम वडे उपजती थकी, खडी जेने निमित्त छे एवा पोताना (- भींत-आदिना) स्वभावना परिणाम वडे उपजता भींत-आदि परद्रव्यने पोताना (- खडीना) स्वभावथी श्वेत करे छे-एम व्यवहार करवामां आवे छे;’ .......


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जुओ, श्वेतगुणथी भरेली खडी छे ते पोते भींत-आदि परद्रव्यना स्वभावे थती नथी; तेम ज ते खडी भींत-आदि परद्रव्यने पोताना स्वभावरूप करती नथी. तो शुं छे? तो कहे छे-खडी स्वभावथी ज पोतानी सफेदाईपणे उपजे तेमां भींत-आदि परद्रव्य निमित्त छे; ने पोताना स्वभावे उपजता भींत-आदि परद्रव्यने खडीनी सफेदाई निमित्त छे. अरसपरस निमित्त छे एटलुं; कोई कोईनुं कांई करे एम नहि. आ प्रमाणे निमित्त होवाथी खडी भींत-आदि परद्रव्यने पोताना स्वभावथी सफेद करे छे-एम व्यवहार करवामां आवे छे. आ द्रष्टांत कह्युं, हवे सिद्धांत कहे छेः-

‘तेवी रीते दर्शनगुणथी भरेला स्वभाववाळो चेतयिता पण, पोते पुद्गलादि परद्रव्यना स्वभावे नहि परिणमतो थको अने पुद्गलादि परद्रव्यने पोताना स्वभावे नहि परिणमावतो थको, पुद्गलादि परद्रव्य जेने निमित्त छे एवा पोताना दर्शनगुणथी भरेला स्वभावना परिणाम वडे उपजतो थको, चेतयिता जेने निमित्त छे एवा पोताना (- पुद्गलादिना) स्वभावना परिणाम वडे उपजता पुद्गलादि परद्रव्यने पोताना (- चेतयिताना) स्वभावथी देखे छे-एम व्यवहार करवामां आवे छे.’

जुओ, शुं कहे छे? के चेतयिता-भगवान आत्मा-अहाहा.....! आत्मा तो ज्ञानानंदलक्ष्मीनो नाथ प्रभु स्वरूपथी भगवान ज छे. अमे तो आत्माने भगवान ज देखीए ने कहीए छीए. समयसार, गाथा ७२ नी टीकामां आचार्यदेवे आत्माने त्रणवार ‘भगवान आत्मा’ कहीने बोलाव्यो छे. त्यां त्रण बोल लीधा छे. एम के - १. आस्रवो- दया, दान, भक्ति आदि विकल्पो अशुचि छे, भगवान आत्मा शुद्ध एक ज्ञायक प्रभु अत्यंत शुचि छे.

२. आस्रवो जडस्वभाव होई चैतन्यथी अन्यस्वभाववाळा छे, भगवान आत्मा सदाय शुद्ध चैतन्यस्वभावमय छे.

३. आस्रवो आकुळताने उपजावनारा एवा दुःखना कारणो छे, भगवान आत्मा सदाय निराकुळस्वभाव होवाथी दुःखनुं अकारण ज छे. आ प्रमाणे त्रण बोल द्वारा त्यां आत्माने ‘भगवान आत्मा’ कह्यो छे.

अहाहा....! जेम झूलामां बाळकने माता झूलावे त्यारे तेनी प्रशंसानां गीत गाईने माता तेने उंघाडी दे छे; तेम अहीं परमात्मा ‘भगवान आत्मा’ नां गीत गाईने भव्य जीवोने उंघमांथी जगाडे छे. अहाहा....! जाग रे जाग नाथ! तुं तो भगवानस्वरूप छो. रागमां एकताबुद्धि करे ए तने न शोभे. पंचमहाव्रतना


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परिणाम पण अशुचि छे, जड छे, दुःखनां ज कारण छे. अहाहा....! व्यवहारना पक्षवाळा राड नाखी जाय एवी वात छे ने? पण भाई! विकल्पनी जे वृत्ति उठे छे ते जड छे अने एनाथी भिन्न पडी स्वानुभव करवो ने स्वमां ज रहेवुं ए ज आ मनुष्यभवमां करवा जेवुं कर्तव्य छे.

धर्मी पुरुषने दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादिना विकल्प आवे छे खरा, पण ते विकल्प तेना ज्ञाननुं ज्ञेय छे, श्रद्धानमां हेय छे अने चारित्रनी अपेक्षाए ते दोष छे, झेर छे. धर्मात्मा पुरुष कणमात्र रागने हेय ज जाणे छे, माने छे.

त्यारे कोई पंडित वळी शुभभावने-पुण्यभावने उपादेय माने छे.

अरे भगवान! तुं शुं कहे छे? अहीं तो स्पष्ट वात छे के रागमात्र हेय छे, केमके राग अशुचि छे, जडस्वभाव छे ने दुःखनुं कारण छे. अहाहा....! ध्रुवना ध्यान विना त्रणकाळमां सम्यग्दर्शन प्रगट थतुं नथी; निमित्तथी नहि, शुभरागथी नहि ने पर्यायना लक्षथी पण सम्यग्दर्शन थतुं नथी; एकमात्र नित्यानंद ध्रुवधाम प्रभु आत्मानी द्रष्टि करवाथी सम्यग्दर्शन थाय छे. आवी वात छे. समजाणुं कांई....?

अहाहा....! भगवान आत्मा सदा निराकुळस्वभाव छे ते रागनुं कारणेय नथी ने रागनुं कार्य पण नथी. शुं कीधुं? निराकुळ आनंदनो नाथ प्रभु आत्मा रागनुं कारण नथी. आत्मा कारण अने राग तेनुं कार्य एम नथी. अहाहा....! शुद्ध एक ज्ञानानंदस्वभावी वस्तु मलिन रागनुं कारण केम थाय? वळी व्यवहाररत्नत्रयनो राग कारण ने निश्चयरत्नत्रय एनुं कार्य एम पण नथी. आ तो भगवाननी वाणी बापु! विदेहमां जईने श्री कुंदकुंद प्रभु आ लई आव्या छे. तेमां आ कहे छे के भगवान आत्मा रागनुं कारण पण नथी, कार्य पण नथी. मार्ग तो आवो छे प्रभु! भगवाननुं तत्त्वज्ञान अति सूक्ष्म छे, पण शुं थाय? तत्त्वद्रष्टि थया विना एना जन्म-मरणना अंत आवे एम नथी.

अहीं कहे छे-भगवान आत्मा दर्शनगुणथी भरेला स्वभाववाळुं एक द्रव्य छे. आमां ‘दर्शन’ शब्द वडे दर्शनगुण ने श्रद्धागुण -एम बन्नेनी वात छे. अहाहा....! देखवाना स्वभावथी परिपूर्ण ने श्रद्धाना स्वभावथी परिपूर्ण भरेलो एवो भगवान आत्मा छे. तो शुं कहे छे? के आवो आत्मा चेतयिता प्रभु पुद्गलादि परद्रव्यना स्वभावरूपे परिणमतो नथी. अहाहा....! जेम श्वेतगुणथी भरेली खडी भींतरूपे थती नथी तेम भगवान आत्मा शरीरादि के रागादिरूपे थतो नथी. भाई! आत्मा व्यवहाररत्नत्रयना विकल्पपणे थतो नथी.


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वळी पुद्गलादि परद्रव्यने आत्मा पोताना स्वभावरूपे परिणमावतो-करतो नथी. अहाहा...! आ शरीर तो हाड-मांस ने चामडां प्रभु! ते-रूपे आत्मा थतो नथी ए तो ठीक, शुभरागना स्वभावे पण आत्मा थतो नथी तथा रागने, शरीरादिने पोतारूप करतो नथी. आवी सूक्ष्म वात! भाई! राग जे उत्पन्न थाय छे तेने परमात्मा पुद्गल कहे छे. जडस्वभाव छे ने? तेथी पुद्गलना परिणाम कहीने तेने पुद्गल कही दीधो छे. आत्मा सच्चिदानंद प्रभु शुद्ध एक चैतन्यस्वभाव छे अने पर्यायमां राग जे उत्पन्न थाय छे ते जड होवाथी पुद्गलस्वभाव छे. भाई! आ शरीरादि ने पैसा-धूळ वगेरे तो पुद्गलमय छे, पण राग जे थाय छे तेय पुद्गलमय छे आवी वात!

त्यारे बोटादमां एक वार कोईए प्रश्न कर्यो हतो के -महाराज! तमे पैसाने धूळ, धूळ-एम वारंवार कहो छो, पण पैसा विना कांई चाले छे?

त्यारे कीधुं ‘तुं के-भाई! भगवान आत्मा सदाय पोताना शुद्ध एक चैतन्यस्वभावथी अस्तिरूप छे अने लक्ष्मी-धूळ आदिथी नास्तिपणे छे. आ बधा करोडपतिओ एम माने के अमे लक्ष्मीपति छीए, पण धूळेय लक्ष्मीपति नथी; केमके लक्ष्मी-धूळनो आत्मामां कदीय प्रवेश थई शकतो नथी, अरे! ए बन्नेने परस्पर अडवानोय संबंध नथी. बापु! अनंतकाळमां तुं लक्ष्मी विना ज रह्यो छे, जो लक्ष्मी तारी थई जाय तो तुं जड ज थई जाय. लक्ष्मी विना न चाले एम तुं माने ए तो तारुं पागलपणुं छे; एम माननारा करोडपतिओय बधा पागल ज छे. शुं थाय? आकरुं लागे पण आ वस्तुस्वरूप छे.

भाई! तारी समृद्धि अने तारा वैभवनी वात तुं एक वार सांभळ. अहाहा....! ज्ञान अने आनंदनी त्रिकाळी संपदाथी भरेलो चैतन्यनिधि प्रभु तुं भगवान आत्मा छो. अहाहा.....! आवी निज चैतन्यसंपदाने छोडीने, अहीं कहे छे, आत्मा पुद्गलादिरूप ने रागादिरूप कदी थतो नथी. कोई गमे ते मानो, आत्मा सदा एक ज्ञायकस्वरूपे ज रह्यो छे. प्रवचनसार, गाथा २०० नी टीकामां आचार्य भगवान कहे छे केः- जे अनादि संसारथी आ ज स्थितिए (ज्ञायकभावपणे ज) रह्यो छे अने जे मोह वडे अन्यथा अध्यवसित थाय छे, ते शुद्ध आत्माने, आ हुं मोहने उखेडी नाखीने, अति निष्कंप रहेतो थको, यथास्थित ज (जेवो छे तेवो ज) प्राप्त करुं छुं.

अरे भाई! त्रिलोकीनाथ परमात्मानां आ कहेण आव्यां छे तेनो तुं स्वीकार कर. मोटा घरनुं कहेण आवे तो जेम लोकमां सगपण करे ज, पाछुं न ठेले, तेम आ भगवाननां कहेण आव्यां छे तेने तुं पाछां न ठेल. अहाहा.....! कहे छे-प्रभु!


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तुं ज्ञान-आनंदनी लक्ष्मीथी भरेलो भगवान छो, रागरूपे तुं कदीय थयो नथी, ने रागने कदीय पोतारूप करतो नथी. अहा! रागनुं वेदन छे ते पर्यायमां छे, पण भगवान आत्मा तो सदाय निराकुळस्वभाव एक ज्ञायकपणे रह्यो छे.

अहा! द्रष्टिना विषयनी अपेक्षाए दुःखनुं-रागनुं वेदन छे ते आत्माने नथी, पण ज्ञाननी अपेक्षाथी जुओ तो सम्यग्द्रष्टिने जेटलो राग आवे छे एटलुं त्यां एने दुःखनुं वेदन पण छे. अहा! दिगंबर मुनिराज के जेने त्रण कषायना अभावनी वीतरागी शान्तिमां निवास छे तेने पंचमहाव्रतादिनो जेटलो विकल्प उठे छे एटलुं दुःख छे अने ते जगपंथ छे. समयसार नाटकमां कह्युं छे के-

‘ता कारन जगपंथ ईत, उत सिव मारग जोर;
परमादी जगकौ धुकै, अपरमादि सिव ओर.’

अहा! जेटलो प्रमादनो विकल्प छे ते जगपंथ छे. हवे आवी वात ओला शुभनी रुचिवाळाने आकरी पडे पण बापु! ए तो तारी कायरता छे. शास्त्रमां शुभभावनी रुचिवाळाने कायर-नपुंसक कह्या छे. समयसारमां (गाथा ३९ थी ४३नी टीकामां) “आ जगतमां आत्मानुं असाधारण लक्षण नहि जाणवाने लीधे नपुंसकपणे अत्यंत विमूढ थया थका.....” इत्यादि वचन आवे छे तेमां रागने पोतारूप माननार मूढ जीव नपुंसक छे एम कह्युं छे. छे के नहि अंदर? भाई! तेने नपुंसक कह्यो छे केमके जेम नपुंसकने प्रजा थती नथी तेम एने-पुण्यनी रुचिवाळाने-धर्मनी प्रजा पाकती नथी. अहा! तेनुं वीर्य स्वरूपनी रचना करवानुं काम करतुं नथी.

जेनी द्रष्टि अंदर शुद्ध चैतन्यस्वभावमय आत्मा उपर छे तेने राग आवे त्यारे पुण्य बंधाय ते पुण्यानुबंधी पुण्य छे; जेनी द्रष्टि राग उपर छे, जेने शुभनी रुचि छे, तेने राग आवे त्यारे पुण्य बंधाय ते पापानुबंधी पुण्य छे. ल्यो, बेमां आवडो मोटो फेर छे. अरे! जैनधर्म शुं चीज छे एनी लोकोने खबर नथी. अंदर आनंदनो नाथ निर्मळानंद प्रभु आत्मा छे तेनी द्रष्टि ने तेनी ज रमणता करवाथी धर्म थाय छे, रागनी रुचिवाळा तो मिथ्यात्वभावमां रहेला छे. रागथी पोतानुं भलुं थवानुं माननारा तो मूढ नपुंसक छे, तेमने धर्मनी प्राप्ति थती नथी. आवो मारग! अहाहा....! आ समयसारमां तो तत्त्वज्ञानना दरिया भर्या छे.

अहा! दर्शनगुणथी भरेला आत्मानी जेने द्रष्टि थई ते रागने पोतारूप करतो नथी, अने पोते रागरूप थतो नथी. दर्शनगुणना स्वभावथी भरेला आत्मानी द्रष्टि थतां दर्शनगुणनी देखवानी-श्रद्धवानी जे पर्याय प्रगट थई ते पर्यायमां रागादि भाव निमित्त छे. निमित्त छे एटले ते द्रष्टिनी निर्मळ पर्याय कांई निमित्तथी थई छे एम


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अर्थ नथी. निमित्त एक बीजी चीज छे बस, पण निमित्त कांई जीवनी पर्यायने करतुं नथी. तेवी रीते रागना परिणाम छे तेमां दर्शनगुणनी पर्याय निमित्त छे, त्यां दर्शनगुणना कारणे राग थयो छे एम नथी. अहा! अरसपरस निमित्त छे, पण दर्शनगुणना कारणे राग नहि ने रागना कारणे दर्शनगुणनी पर्याय नहि. बन्ने भिन्न भिन्न चीज छे. अहो! आ अलौकिक वात छे. कहे छे-

चेतयिता, पोताना (-पुद्गलादिना) स्वभाव वडे उपजता पुद्गलादि द्रव्यने पोताना (अर्थात् चेतयिताना) स्वभावथी देखे छे अथवा श्रद्धे छे-एम व्यवहार करवामां आवे छे. रागनी श्रद्धा करे छे एम कहीए ते व्यवहार छे. श्रद्धा तो स्वस्वरूपनी पोतानी छे, पण निमित्तनी मुख्यतामां जे कहेवाय छे के रागनी श्रद्धा करे छे’-ते व्यवहार छे. स्वस्वरूपनुं पोतानुं श्रद्धान-दर्शन ते निश्चय छे. आवी वात छे.

‘वळी (जेवी रीते ज्ञान-दर्शनगुणनो व्यवहार कह्यो) एवी ज रीते चारित्रगुणनो व्यवहार कहेवामां आवे छेः-

जेवी रीते श्वेतगुणथी भरेला स्वभाववाळी ते ज खडी, पोते भींत-आदि परद्रव्यना स्वभावे नहि परिणमती थकी अने भींत-आदि परद्रव्यने पोताना स्वभावे नहि परिणमावती थकी, भींत-आदि परद्रव्य जेने निमित्त छे एवा पोताना श्वेतगुणथी भरेला स्वभावना परिणाम वडे उपजती थकी, खडी जेने निमित्त छे एवा पोताना (- भींत-आदिना) स्वभावना परिणाम वडे उपजता भींत-आदि परद्रव्यने, पोताना (- खडीना-) स्वभावथी श्वेत करे छे-एम व्यवहार करवामां आवे छे;....’

अहाहा....! श्वेतगुणना स्वभावथी भरेली खडी भींत-आदिने श्वेत करे छे एम कहेवामां आवे छे ते, कहे छे, व्यवहार छे. वास्तवमां तो पोताना श्वेत स्वभावे परिणमती खडी पोतानी सफेदाईने करे छे, ते कांई भींत-आदिरूपे थती नथी, ने भीत- आदिने पोतारूप करती नथी. शुं कीधुं? खडी कांई भींतमां प्रवेशती नथी, ने भींत- आदिने पोतानी सफेदाईरूप करती नथी. हा, खडी ने भींत-आदि अरसपरस निमित्त छे. निमित्त हो. पण तेओ एकबीजानुं कांई करतां नथी. आवुं ज वस्तुस्वरूप छे, माटे खडी भींत-आदिने श्वेत करे छे एम मात्र व्यवहारथी-उपचारथी कहेवामां आवे छे. समजाणुं कांई...? आ द्रष्टांत कह्युं. हवे सिद्धांत कहे छेः-

‘तेवी रीते जेनो ज्ञानदर्शनगुणथी भरेलो, परना अपोहनस्वरूप स्वभाव छे एवो चेतयिता पण, पोते पुद्गलादि परद्रव्यना स्वभावे नहि परिणमतो थको अने