Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 171 of 210

 

PDF/HTML Page 3401 of 4199
single page version

पुद्गलादि परद्रव्यने पोताना स्वभावे नहि परिणमावतो थको, पुद्गलादि परद्रव्य जेने निमित्त छे एवा पोताना ज्ञानदर्शनगुणथी भरेला पर-अपोहनात्मक (-परना त्यागस्वरूप-) स्वभावना परिणाम वडे उपजतो थको, चेतयिता जेने निमित्त छे एवा पोताना (-पुद्गलादिना-) स्वभावना परिणाम वडे उपजता पुद्गलादि परद्रव्यने, पोताना (-चेतयिताना-) स्वभावथी अपोहे छे अर्थात् त्यागे छे-एम व्यवहार करवामां आवे छे.’

अहाहा...! शुं कहे छे? आत्मानो ज्ञानदर्शनगुणथी भरेलो परना अपोहनस्वरूप स्वभाव छे. आ व्यवहाररत्नत्रयना विकल्प छे ने? अहीं कहे छे-एना अभावस्वरूप आत्मानो स्वभाव छे. भाई! पंचमहाव्रतना परिणाम छे ए राग छे, ए कांई आत्माना निर्मळ परिणामरूप चारित्र नथी. निज स्वरूपमां रमतां-स्थिर थतां जे अतीन्द्रिय आनंदनो भरपुर-प्रचुर स्वाद आवे तेनुं नाम चारित्र छे. भाई! शुभराग चारित्र तो नहि, शुभरागथी चारित्र थाय एम पण नहि. चारित्र नाम निर्मळ रत्नत्रयनी प्रगटता थतां रागनो त्याग कर्यो एम जे कहीए तेय कथनमात्र छे.

‘चारित्तं खलु धम्मो’–अहाहा....! परिणति आनंदस्वरूपी बागमां केलि करे एनुं नाम चारित्र छे अने ते धर्म छे. अहाहा....! आनंदधाम प्रभु आत्माराम छे; तेमां पोते अतीन्द्रिय आनंदना स्वादनी रमतु करे एनुं नाम चारित्र छे. भाई! सम्यग्दर्शनमां अल्प आनंदनो स्वाद छे, ज्यारे चारित्रमां तो स्वरूप-रमणतानुं अति उग्र आनंदनुं वेदन होय छे. आवुं चारित्र ते धर्म छे अने ते सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे. अहाहा....! ध्रुवधामने ध्येय बनावी धधकती धुणी धीरजथी धखावे ते धर्मीने धन्य छे. आवो वीतरागनो मारग छे.

अहाहा...! भगवान आत्मा दर्शन-ज्ञान-चारित्र गुणथी परिपूर्ण भरेला स्वभाववाळुं द्रव्य छे. आ शरीर छे ए तो एकला हाड-चाम-मांसथी अंदर भरेलुं छे; तेना अभावस्वभावरूप भगवान आत्मा छे. अहाहा...! शुं कीधुं? आ शरीर, मन, वाणी, ईन्द्रिय इत्यादि परद्रव्यना अभावस्वभावरूप भगवान आत्मा छे. अर्थात् भगवान आत्मा शरीरादि परना ग्रहण-त्यागथी रहित छे; ए तो ठीक, अहीं कहे छे-ते रागना ग्रहण-त्यागथी पण रहित छे. भाई! शुभाशुभ रागना अभावस्वभावरूप भगवान आत्मा छे. हवे आम छे त्यां रागनो त्याग करवो ए क्यां रह्युं? बहु सूक्ष्म वात भाई! आ तो धीरानां काम बापा! व्यवहाररत्नत्रयना पण अभावस्वभावरूप भगवान आत्मा छे.

अहीं कहे छे-आवो भगवान आत्मा, पोते पुद्गलादि परद्रव्यना स्वभावे


PDF/HTML Page 3402 of 4199
single page version

थतो नथी अने पुद्गलादि परद्रव्यने पोताना स्वभावे परिणमावतो नथी. अहाहा....! त्रिकाळ रागना अभावस्वभावरूप एवो भगवान आत्मा पोते रागना स्वभावे थतो नथी अने रागने पोताना स्वभावरूपे परिणमावतो नथी. आ प्रमाणे राग भगवान आत्माथी अत्यंत भिन्न छे, एमां चैतन्यनो सदाय अभाव छे. जेम सूर्यनां किरण सफेद उज्ज्वळ होय, काळां-अंधारियां न होय तेम भगवान आत्मानां ज्ञानकिरण उज्ज्वळ चैतन्यमय होय पण रागना अंधकारमय न होय. अरे लोकोने खबर नथी, पण आत्मा सदाय ज्ञान-दर्शन अने वीतरागताना स्वभावथी भरेलो भगवान छे. अहा! आवो ते पोते रागरूपे केम थाय? अने ते रागने पोतारूप-चैतन्यरूप केम करीने करे? स्तवनमां आवे छे ने के-

प्रभु तुम जाणग रीति, सौ जग देखता हो लाल;
निज सत्ताए शुद्ध, सौने पेखता हो लाल.

भगवान! आप तो जाणगस्वभाव छो; आप सर्व जगतने देखो छो; आ तो उपचारथी कह्युं हों; बाकी तो सर्व जीव निज सत्ताथी तो शुद्ध एक ज्ञायकस्वभाव छे. अहाहा...! भगवान आत्मा शुद्ध एक ज्ञानानंदस्वभावथी भरेलो दरियो छे. तेने कोई रागवाळो, पुण्यवाळो के अल्पज्ञ माने ए तो तेने आळ देवा बराबर छे. शुं कीधुं? निज ज्ञायकस्वभावनो ईन्कार करीने तेने रागवाळो ने पुण्यवाळो ने अल्पज्ञ माने ए तो एने कलंक लगाडी दीधुं. अहा! आवा जीवो मरीने ज्यां कोई तेमने (आ जीव छे एम) स्वीकारे नहि एवा निगोदना स्थानमां चाल्या जशे. भाई! अनंत शक्तिनो पिंड प्रभु पोते पूरण ज्ञानानंदस्वभावी वस्तु तेने रागवाळो ने पुण्यवाळो मानवो ते महा अपराध छे अने तेनी सजा नरक-निगोद छे. “काकडीना चोरने फांसीनी सजा”-एम वात नथी आ; हुं रागवाळो ने पैसावाळो-एम मानीने निज चिदानंदस्वरूपनो ईन्कार करे अनादर करे ते महा अपराध छे, अने एनुं फळ निगोदवासनी अनंतकाळनी जेल छे. समजाणुं कांई....?

अहाहा...! ज्ञानदर्शनस्वभावी भगवान आत्मा सदाय वीतरागस्वभावथी परिपूर्ण प्रभु छे. तेनी द्रष्टि, ज्ञान ने रमणता थई तेने बहारमां व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प सहचरपणे होय छे, तेने निमित्त कहेवामां आवे छे. निर्मळ रत्नत्रयनी पर्याय प्रगट थाय तेमां व्यवहाररत्नत्रय निमित्त छे. निमित्त छे एटले ते निर्मळ रत्नत्रयनी पर्याय कांई निमित्तथी थई छे एम अर्थ नथी. निमित्त एक बीजी चीज छे बस एटलुं; बाकी निमित्त कांई जीवनी पर्यायने करे छे एम नथी. द्रष्टि, ज्ञान ने स्वस्वरूपनी रमणता थई ए तो स्वस्वरूपना आश्रये पोताथी ज थई छे, एमां निमित्तनुं कांई काम नथी. आवी वात!


PDF/HTML Page 3403 of 4199
single page version

निमित्त कांई करतुं नथी, तो निमित्तने मानवाथी शुं काम छे?

भाई! जगतमां जेम आत्मा छे तेम पुद्गलादि अन्य द्रव्यो पण छे. तेओ सर्व पोतपोताना स्वभावे परिणमता थकां परस्पर निमित्त थाय छे; परस्पर निमित्त थाय छे एटले के परस्पर अनुकूळ रहे छे बस एटलुं, कोई कोईनुं कांई करी दे छे एम नहि, केमके पोतानुं परिणाम तो द्रव्य पोते ज पोताथी करे छे. आवो ज वस्तुनो स्वभाव छे. निमित्त-बीजी चीज-छे एने न माने तो वेदांत जेवुं थई जाय. वेदान्त सर्वव्यापक एक आत्माने ज माने छे, बीजी चीज मानतो नथी, पण एवुं वस्तुनुं स्वरूप नथी. बीजी चीज छे. तेओ परस्पर अनुकूळ-निमित्त छे, पण तेओ एकबीजानुं कांई करी दे छे एम नथी. जुओ, ज्ञाननो स्वभाव स्वपरप्रकाशक छे तो पुद्गलादि ने रागादि पर बीजी चीज छे तेने ज्ञान जाणे छे, त्या जे जाणवुं थाय तेमां ते ते बीजी चीज निमित्त छे, पण निमित्तना कारणे कांई जाणपणुं थयुं छे एम नथी. (भाई! निमित्तादि बीजी चीज छे तेने न माने ते पोताने-ज्ञान-स्वभावी आत्माने ज मानतो नथी).

अहीं कहे छे- परम वीतरागस्वभावी प्रभु आत्मानां द्रष्टि-ज्ञान ने रमणतारूप जे शुद्ध रत्नत्रय प्रगट थयां तेने व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प निमित्त छे; तेम ते रागना परिणाम थाय तेमां आत्माना परिणाम निमित्त छे. अहा! अरसपरस निमित्त छे; चारित्रगुणना कारणे राग नहि ने रागने कारणे चारित्र नहि. बन्ने भिन्न भिन्न पदार्थ छे ने! अहो! आ तो अद्भुत अलौकिक वात छे! केवळज्ञानने लोकालोक निमित्त छे, ने लोकालोकने केवळज्ञान निमित्त छे; तथापि लोकालोकने कारणे केवळज्ञान थयुं छे एम नथी, ने केवळज्ञानने कारणे लोकालोक छे एम पण नथी.

आ चोखा पाके-चढे छे ने? तेमां उनुं पाणी निमित्त छे, पण निमित्तथी चोखा पाके छे एम नथी, चोखा पोतानी पर्यायथी पाके छे; पाणी तो निमित्तमात्र छे. तेम पाणी पण पोतानी अवस्थारूप थयुं छे, तेमां चोखा निमित्तमात्र छे. तेवी रीते निर्मळ निराग ज्ञानानंदस्वभावी भगवान आत्मानो अनुभव थतां ते अनुभवमां राग निमित्त हो, पण रागथी अनुभव थयो छे एम नथी, तथा आनंदनो जे अनुभव थयो ते रागने निमित्त छे, पण अनुभवना कारणे राग थयो छे एम नथी. आवी वात! विशेष कहे छे -

आत्मा चेतयिता प्रभु, पोताना (-पुद्गलादिना) स्वभाव वडे उपजता पुद्गलादि द्रव्यने पोताना (अर्थात् चेतयिताना) स्वभावथी अपोहे छे अर्थात् त्यागे छे -एम व्यवहार करवामां आवे छे. रागनो त्याग करे छे एम कहीए ते व्यवहार छे.


PDF/HTML Page 3404 of 4199
single page version

ल्यो, रागना अभावस्वभावरूप पोते आत्मा छे, तेनी रमणता थतां राग उत्पन्न ज न थयो तो रागनो त्याग कर्यो एम व्यवहारथी कहेवामां आवे छे; ते कथन मात्र ज छे.

ए रीते आ, आत्माना ज्ञान-दर्शन-चारित्र पर्यायोनो निश्चय-व्यवहार प्रकार छे. ए ज प्रमाणे बीजा पण समस्त पर्यायोनो निश्चय-व्यवहार प्रकार समजवा.

* गाथा ३प६ थी ३६पः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘शुद्धनयथी आत्मानो एक चेतनामात्र स्वभाव छे. तेना परिणाम जाणवुं, देखवुं, श्रद्धवुं, निवृत्त थवुं इत्यादि छे.’

अहाहा...! शुं कहे छे? के आ आत्मा जे छे ते शुद्ध चेतनामात्र वस्तु छे. जेमां जाणवुं-देखवुं थाय एवी चेतना ते एनो स्वभाव छे; कोईनुं करवुं के कोईथी पोतानुं करावुं एवो एनो स्वभाव नथी. अहा! आवा निज आत्मानी अंतर्द्रष्टि करी स्वानुभव प्रगट करतो नथी त्यां सुधी जीव चारगति चोरासी लाख योनिमां परिभ्रमण करे छे अने पराधीन थई दुःखी दुःखी थाय छे.

अहा! शुद्ध चेतनामात्र वस्तु भगवान आत्मा छे, अने जाणवुं, देखवुं, श्रद्धवुं, निवर्तवुं इत्यादि तेना परिणाम छे. परिणाम एटले शुं? आ छोकरांनां परीक्षानां परिणाम आवे ते आ परिणाम नहि. आ तो चैतन्य... चैतन्य... चैतन्य सामान्य ते द्रव्य छे, ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र इत्यादि एनी शक्तिओ छे. ते शक्तिओना परिणमनरूप प्रतिसमय जे जाणवा-देखवा-श्रद्धवारूप पर्याय थाय ते परिणाम छे; पुण्य-पाप आदि विभावथी निवर्तवारूप जे पर्याय थाय ते परिणाम छे. आवी वात! समजाणुं कांई...?

अहा! अनंतकाळमां एणे आवा ज्ञान-श्रद्धान ने पुण्य-पापथी निवर्तवारूप परिणाम तो कर्या नहि, मात्र पुण्य-पापना भाव करी करीने स्वर्ग-नरकादिमां अनंता भव करी करीने रझळी मर्यो छे. अरे! कईक वार ते मोटो मांडलिक राजा थयो, मोटो देव पण थयो, परंतु स्वस्वरूपना ज्ञान-श्रद्धान विना ते आकुळतानी भट्ठीमां शेकाई गयो. देखवुं, जाणवुं, श्रद्धवुं ने पुण्य-पापथी निवर्तवुं-ए एना वास्तविक परिणाम छे, पण अरे! स्वरूपनी द्रष्टि विना रागद्वेषना दावानलमां चिरकाळथी एनी शांति बळी गई! ए महादुःखी थयो.

जुओ, कहे छे-शुद्ध चेतनामात्र वस्तु आत्मा छे अने जाणवुं, देखवुं, श्रद्धवुं, निवर्तवुं इत्यादि एना परिणाम छे. हवे कहे छे-


PDF/HTML Page 3405 of 4199
single page version

‘त्यां निश्चयनयथी विचारवामां आवे तो आत्माने परद्रव्यनो ज्ञायक नथी कही शकातो, दर्शक नथी कही शकातो, श्रद्धान करनारो नथी कही शकातो, त्याग करनारो नथी कही शकातो; कारण के परद्रव्यने अने आत्माने निश्चयथी कांई पण संबंध नथी.’

जोयुं? कहे छे-निश्चयथी एटले सत्यार्थद्रष्टिथी जोईए तो आत्माने परद्रव्यनो ज्ञायक कही शकातो नथी, दर्शक कही शकातो नथी. अहाहा....! आत्मा शरीरादि परद्रव्यनी क्रियानो कर्ता ने कुंटुंब आदि परना पालननी क्रियानो कर्ता-ए वात तो दूर रहो, अहीं कहे छे, परनुं जाणवुं ए पण निश्चयथी आत्माने नथी. अहा! चैतन्यस्वभावी प्रभु पोते पोतामां रहीने पोताने जाणे छे; त्यां एवो भाव-भावकनो भेद करवामां आवे तेय व्यवहार छे. आवी झीणी वात! अरे! एणे साची तत्त्वद्रष्टि अनंतकाळमां कदी करी नथी; एकलां पुण्य-पाप करे कर्यां, पण ए तो संसारमां रूलवानी चीज बापा!

जुओने आ शुं कहे छे? के परद्रव्यने अने आत्मने निश्चयथी कांई पण संबंध नथी. अहाहा.....! भगवान! तुं कोण छो? स्वयं स्वतः जाणवा-देखवापणे परिणमे एवी चैतन्यमात्र वस्तु छो ने प्रभु! तारे परद्रव्य साथे शुं संबंध छे? अहाहा...! स्वतंत्र सत् एवुं परद्रव्य पोते पोतानी पर्यायथी परिणमे छे अने तुं तारी (जाणवा-देखवारूप) अवस्थाथी परिणमे छे. परद्रव्य सदाय ताराथी बहार ज छे, केमके एक द्रव्यनी पर्याय बीजा द्रव्यनी पर्यायमां कदी प्रवेश करती नथी. माटे निश्चयथी आत्माने परद्रव्यनो ज्ञायक कही शकातो नथी. गजब वात छे भाई! ज्ञान परद्रव्यने जाणे, शरीरने जाणे, रागने जाणे-एम कहीए ए व्यवहारथी छे, वास्तवमां तो ज्ञान पोते पोतामां रहीने पोताने (पोताना परिणामने) जाणे छे. हवे आवुं छे त्यां आत्मा परनी दया करे ने दान करे ए क्यां रह्युं?

तो परनी दया पाळवी के नहि? परनी दया कोण पाळे प्रभु? परनी दया तुं पाळी शकतो नथी. अरे, दयानो जे भाव आवे तेनेय तुं करी शकतो नथी. (ए तो एना काळे आवे छे बस). अहीं कहे छे-दयानो जे भाव आव्यो तेने तुं जाणे छे एम कहीए एय व्यवहार छे. वास्तवमां तो परसंबंधी ज्ञाननी पर्याय स्वयं पोताथी थई छे, ते, परज्ञेय छे माटे जाणे छे एम क्यां छे? एम छे नहि. आवो मार्ग, ल्यो!

भाई! जरा धीरो थईने सांभळ! तारी चीज आनंदकंद प्रभु अंदर एक ज्ञायकभावथी भरी पडी छे. अहाहा.....! जेम पाणीमां शीतळता भरी पडी छे तेम सच्चिदानंद प्रभु आत्मा एक ज्ञायकभावथी भर्यो पडयो छे; अने जाणवुं, देखवुं,


PDF/HTML Page 3406 of 4199
single page version

इत्यादि एना पोताना परिणाम छे. हवे जाणवा-देखवाना परिणाम, कहे छे, व्यवहाररत्नत्रयना विकल्पने जाणे छे एम निश्चयथी कही शकातुं नथी, अर्थात् एम कहीए ते मात्र व्यवहारथी ज छे; केमके राग ने जाणवानी पर्याय वच्चे अत्यंत अभाव छे, बन्ने भिन्न चीज छे. निश्चयथी तो आत्मा पोतानी पर्यायने जाणे छे. अहाहा...! त्यां भावक पोताना भावने जाणे छे एवो भेद करीए एय व्यवहार छे. आ तो केवळीनो मारग बापा! बहु सूक्ष्म भाई! (एम के उपयोगने सूक्ष्म कर्या विना नहि समजाय). भाई! चैतन्यरतन.... अहाहा......! चैतन्यरतन अंदर छे ते तारी द्रष्टिमां न आवे त्यां सुधी ए परनुं जाणवुं-देखवुं एय तने नथी (एम के एवो व्यवहार पण करी शकातो नथी). अहाहा....! आवो मारग झीणो!

भाई! रागनो कर्ता थाय ए तो मिथ्याद्रष्टि छे. बाकी दया, दान, भक्ति आदिना रागने ज्ञान करे एम नहि. भोगवे एम पण नहि. अरे, रागने ज्ञान जाणे छे एम कहेवुं एय, कहे छे, व्यवहार छे. जुओ, छे ने अंदर? छे के नहि? के-आत्माने निश्चयथी परनो ज्ञायक कही शकातो नथी, परनो दर्शक कही शकातो नथी, परनो त्याग करनार कही शकातो नथी. केम? केमके ज्ञानस्वभाव ज्ञेयमां प्रवेशतो नथी अने ज्ञेय छे ते ज्ञानमां प्रवेशता नथी, भिन्न भिन्न ज रहे छे. अहा! परद्रव्यनी पर्यायने ज्ञान अडतुं सुद्धां नथी.

अरे, लोको तो कोई दया, दान, व्रत आदिना परिणामथी-व्यवहारथी निश्चय थाय एम माने छे. अहा! तारे क्यां लई जवुं छे प्रभु! शुं रागथी वीतरागता थाय? न थाय हों. तुं जो तो खरो प्रभु! के तारी मोजुदगीमां-अस्तित्वमां अंदर एक ज्ञानदर्शनस्वभाववाळुं चैतन्यतत्त्व पडयुं छे अने जाणवा-देखवाना तेना पोताना परिणाम छे. अहा! तेना जाणवाना-देखवाना परिणाम थाय ते पोताना पोताथी थाय छे. रागादि परद्रव्य तो तेने अडतुंय नथी त्यां एनाथी थाय ए क्यां रह्युं? अहा! पोते पोताने जाणे एवो स्वस्वामीअंशरूप व्यवहार पण कांई (कार्यकारी) नथी तो रागथी-व्यवहारना रागथी निश्चय थाय एम मानवुं ए तो महा विपरीतता छे. समजाणुं कांई...?

अहा! जेम चक्रवर्ती छ खंडने साधे तेम चैतन्यचक्रवर्ती प्रभु ज्ञायक छ द्रव्यने साधे-जाणे-एम कहेवुं ए व्यवहार छे. आवी जन्म-मरण रहित थवानी द्रष्टि कोई अलौकिक छे. अरे! अत्यारे तो लोकोए सम्यग्दर्शननुं स्वरूप बहु चूंथी नाख्युं छे. एम के देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो राग ते समकित अने व्रत-तपनी रागनी क्रिया ते चारित्र- एम लोको मानवा लाग्या छे. पण भाई! एवुं वस्तुनुं के धर्मनुं स्वरूप नथी. वस्तु तो सदा वीतरागस्वभावी छे ने तेनी जाणवा-देखवारूप वीतराग परिणति थाय ते धर्म छे.


PDF/HTML Page 3407 of 4199
single page version

आत्मामां एक सर्वज्ञशक्ति छे. पोतानी सर्वज्ञशक्तिमां एकाग्र थतां पर्यायमां सर्वज्ञपणुं प्रगट थाय छे अने खरेखर तेने जाणे छे. भगवान केवळज्ञानमां छ द्रव्योने जाणे छे एम कहेवुं ए तो व्यवहार छे. अहा! पर्यायवान आत्मा पर्यायने जाणे एम भेदथी कहीए एय व्यवहार छे. अने ‘व्यवहारो अभूदत्थो’-व्यवहार अभूतार्थ छे अर्थात् आश्रय करवा योग्य नथी. आवी वात! समजाणुं कांई...? भाई! तारी चीज केवी छे, तारां शक्ति-स्वभाव केवां छे तेने अहीं संतो बतावे छे.

अहाहा....! कहे छे-निश्चयथी आत्मा परनो दर्शक एटले परनो श्रद्धा करनारो कही शकातो नथी. आत्मा निश्चयथी देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धा करे छे एम कही शकातुं नथी. अर्थात् आत्मा देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धा करे छे एम कहीए ते व्यवहारथी ज छे. जुओ, छे के नहि अंदर? हवे बहारनां नामां (नामाना चोपडा) करी करीने मरी गयो पण आ घरना चोपडा (आत्मवस्तु कहेनारां शास्त्र) कदी जोया नहि! अरे! तने तारुं नामुं (अंतर-अवलोकन) करतां आवडयुं नहि! अहीं परमात्मा-सर्वज्ञ परमेश्वर कहे छे- निश्चयथी आत्मा परनो श्रद्धा करनारो कही शकातो नथी. देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धा ते समकित-ए तो व्यवहार बापु! अहीं तो आत्मानी श्रद्धा करवी ते समकित एवो भेद पाडीए तेय व्यवहार छे. हवे आवी वातु माणसने काने पडवीय कठण, बिचारा संप्रदायमां एम ने एम जीवन पूरुं करे; अवसर चाल्यो जाय. भाई! बहार मिथ्या वेशमां तुं राचे पण एनुं फळ तो निगोदमां जवानुं छे.

अहा! निश्चयथी आत्मा परनो-रागनो त्याग करनारो कही शकातो नथी. पोते अंदर ज्ञानस्वरूपे परिणम्यो त्यां रागनी उत्पत्ति न थई तो रागनो त्याग कर्यो एम व्यवहारथी कहेवामां आवे छे. समयसार, गाथा ३४ मां आवे छे के-रागनो त्याग करवो ते परमार्थथी भगवान आत्माने लागु पडतुं नथी, रागनो आत्माने त्याग कहेवो ए नाममात्र कथन छे.

भाई! आ ‘जे ज्ञान, दर्शन, श्रद्धान, त्याग इत्यादि भावो छे, ते पोते ज छे; भाव-भावकनो भेद कहेवो ए पण व्यवहार छे, निश्चयथी भाव अने भाव करनारनो भेद नथी.’ नित्यानंद प्रभु आत्मा पोते छे तेमां मग्न थतां रागनी उत्पत्ति ज न थई तो रागनो त्याग कर्यो एम कथनमात्र कहेवामां आवे छे. आवी वातु! हवे एमां क्यांय मेळ खाय नहि ने कहे के वाद करो; पण शुं वाद करे?

एक वार लींमडीमां एक श्वेतांबर साधु अमारी पासे आव्या ने कहे-आपणे चर्चा करीए. त्यारे कह्युं-भाई अमे चर्चामां पडता नथी. त्यारे ते कहे-तमारुं


PDF/HTML Page 3408 of 4199
single page version

आवडुं मोटुं नाम (प्रसिद्धि) अने चर्चा न करो तो.... .... , त्यारे कह्युं-अमारे नामथी कांई काम नथी, अमे जे छीए ते छीए. चर्चा शुं करवी? अहाहा...! रागना अभावस्वभावी सदाय वीतरागस्वरूपी भगवान! तारी चीज अंदर छे तेने परनुं जाणवुं ने परनो त्याग करवो परमार्थे लागु पडतुं नथी. हवे आवी वात ए बहारना त्यागमां राचनाराओने केम समजाय?

शरीर जुवान होय ने फाटुफाटु थई रह्युं होय एमां विवाद-झघडा करवानुं मन थाय, पण आ (-शरीर) तो जड भाई! माटी-धूळ बापु! ए जुवानी तारी क्यांय चाली जशे. शरीरनी जुवान अने वृद्ध अवस्था ए जडनी अवस्था जड-धूळ छे. अहीं कहे छे-तेने आत्मा जाणे -एम कहीए ए असद्भूत व्यवहार छे. अहाहा....! ज्ञान पोते पोताने जाणे एम कहेवुं ए सद्भूत व्यवहार छे, ने ज्ञान परने जाणे एम कहीए ते असद्भूत व्यवहार छे. ए सद्भूत-असद्भूत व्यवहार अभूतार्थ छे. ११ मी गाथामां आवी गयुं ने के-व्यवहार अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे, एटले के व्यवहार करवायोग्य नथी. अहा! आ समयसार केटलुं गंभीर छे! एनुं एक एक पद अपार गंभीर रहस्यथी भरेलुं छे.

अहाहा...! जाणवुं-देखवुं-श्रद्धवुं-ए भावो पोताना अस्तित्वमां छे तेथी आत्मा पोते ज छे. पण त्यां आत्मा पोते पोताने जाणे, पोते पोताने देखे, पोते पोताने श्रद्धे- इत्यादि कहीए ते भेदकथन होवाथी व्यवहार छे. कळशटीकामां आवी गयुं छे के-आत्मा पोताना निर्मळ परिणामने करे एम कहेवुं ए पण उपचार छे. हवे त्यां दया, दान आदि व्यवहारना विकल्पनी तो शुं कथा? एनुं कर्तापणुं तो प्रगट अज्ञान ज छे. छ कायनी दयाना विकल्पनो कर्ता थाय ए तो अज्ञान छे भाई! हवे आवी वात कोने बेसे? वाडावाळा-संप्रदायवाळाओने केम बेसे? पण भाई! जीवन हाल्युं (वेडफाई) जाय छे हों.

रात्रे कह्युं ‘तुं के-नोकरी करे ए तो पंचावन वर्षे निवृत्त थाय, पण आ वेपारी शेठिया तो बधा साईठ-सित्तेर-एंसी थाय तोय निवृत्ति न ले, निवृत्त न थाय. एमनुं शुं थाय?

हा, पण एमने जवाबदारी होय ने?

जवाबदारी? शेनी जवाबदारी? पोताने जाणवुं-देखवुं ए जवाबदारी छे. आ सिवाय परमां जवाबदारी माने ए बधा मूढ मिथ्याद्रष्टि छे, संसारमां रखडी मरनारा छे. समजाणुं कांई....! केमके परद्रव्य साथे आत्माने परमार्थे कोई संबंध नथी.


PDF/HTML Page 3409 of 4199
single page version

जुओने, आचार्य भगवाने चार हजार श्लोकप्रमाण आत्मख्याति नामनी टीका लखी. केवी अद्भुत! ! मणिरतनथी भरो तोय एनी किंमत शें थाय? अहाहा...! एनी शुं किंमत! ए टीका करीने कहे छे-प्रभु! आ टीका में करी छे एम मत मानो, आमां मारुं कांई कर्तव्य नथी, हुं तो स्वरूपगुप्त छुं. ने आ टीका तो शब्दोथी थई छे, शब्दोए रची छे. ल्यो, आवी वात! आचार्य कहे छे-में (अमृतचंद्रे) आ शब्दोनी क्रिया करी छे एम न मानवुं. वळी हुं जणाववावाळो ने तुं जाणवावाळो एम पण न मानवुं. अहाहा....! जाणवावाळो पण तुं ने तारा जाणवावाळानो कर्ता पण तुं; जाणवावाळो पण पोते, ने जणाववावाळो पण पोते. आवी वात! समजाणुं कांई...!

प्रवचनसारनी टीकामां पण आचार्यदेव छेल्ले कहे छे-“ खरेखर पुद्गलो ज स्वयं शब्दरूपे परिणमे छे, आत्मा तेमने परिणमावी शकतो नथी, तेम ज खरेखर सर्व पदार्थो ज स्वयं ज्ञेयपणे-प्रमेयपणे परिणमे छे, शब्दो तेमने ज्ञेय बनावी समजावी शकता नथी. माटे, आत्मा सहित विश्व ते व्याख्येय छे; वाणीनी गूंथणी ते व्याख्या छे अने अमृतचंद्रसूरि व्याख्याता छे. -एम मोहथी जनो न नाचो (-न फुलाओ). परंतु स्याद्वादविद्याना बळथी विशुद्ध ज्ञाननी कळा वडे आ एक आखा शाश्वत स्वतत्त्वने प्राप्त करीने आजे अव्याकुळपणे नाचो (-परमानंदपणे परिणमो).”

अहाहा...! कहे छे-आनंदनो सागर शुद्ध चैतन्यनिधि पोते छे तेने विशुद्ध ज्ञाननी कळा वडे प्राप्त करीने आजे ज निराकुळ आनंदपणे परिणमो; एम के हमणां नहि एम वायदा मा करो. हमणां नहि, हमणां नहि, दीकरा-दीकरीयुं ठेकाणे पडी जाय पछी वृद्धावस्थामां जोशुं एम विचारे ए तो तारुं अज्ञान ने पागलपणुं छे भाई! केमके बीजानुं तुं शुं करी शके? वास्तवमां परद्रव्य साथे तारे कांई संबंध नथी. तुं वायदा करे छे पण बापु! देह तो जोतजोतामां छूटी जशे अने मरीने तुं क्यांय चाल्यो जईश, भवसमुद्रमां खोवाई जईश. आवी वातु छे भगवान! धंधा आडे, परनां काम आडे हमणां तुं नवरो न थाय पण स्वस्वरूपनी समजण विना तुं देह छोडवाना काळे भारे मुंझाई जईश प्रभु! अरे! अज्ञानी जीवो रागनी एकतानी भींसमां ने देहनी वेदनानी भींसमां देह छोडीने क्यांय दुर्गतिमां-तिर्यंचादिमां चाल्या जाय छे. ज्यारे धर्मी जीवने तो देह छूटवाना काळे पण निराकुळता अने शांति ज शांति होय छे.

जुओ, श्रीमद् राजचंद्र आत्मज्ञानी हता. तेत्रीस वर्षनी नानी वय हती ने ख्यालमां आवी गयुं के देह छूटवानो अवसर नजीक छे तो छेल्ले बोल्या-“मनसुख, बाने दिलगीर थवा दईश नहि, हुं मारा स्वरूपमां लीन थाउं छुं.” अहाहा....!


PDF/HTML Page 3410 of 4199
single page version

देह छूटवाना काळे उपयोग बहारथी समेटी लीधो ने अंतर्लीन थया; एकदम शांति- शांतिना अनुभव सहित देह छोडयो.

पंडित बनारसीदास पण समकिती ज्ञानी हता. तेमणे समयसार नाटक बनाव्युं छे. तेमने अंतिम समये देह छूटतां कांईक वार लागी. बाजुवाळाओने थयुं के पंडितजीनो देह छूटतो नथी, जीव कशाकमां रोकाई गयो छे. आवी चर्चा थई. पोताने बोलातुं नहोतुं तो पंडितजीए ईशारो करी सलेट मंगावी; पछी तेमां लख्युं-

ज्ञान कुतक्का हाथ, मारि अरि मोहना;
प्रगटयो रूप स्वरूप, अनंत सुसोहना;
जा परजैको अंत, सत्य करि मानना;
चले बनारसीदास, फेर नहि आवना.

पछी आत्मज्ञानपूर्वक समाधि सहित देह छोडयो. हवे लोकोने ज्ञानीना अंतर- परिणामनी धारा समजवी कठण पडे ने बहारमां शरीरनी क्रियाथी माप काढे. देह छूटतां वार लागे ए तो देहनी जडनी क्रिया भगवान! ज्ञानीने तो अंदरमां शांति ने समाधि होय छे.

अहीं कहे छे - ‘निश्चयथी भाव अने भाव करनारनो भेद नथी.’

‘हवे व्यवहारनय विषेः व्यवहारनयथी आत्माने परद्रव्यनो ज्ञाता, द्रष्टा, श्रद्धान करनार, त्याग करनार कहेवामां आवे छे; कारण के परद्रव्यने अने आत्माने निमित्त- नैमित्तिक भाव छे. ज्ञानादि भावोने परद्रव्य निमित्त थतुं होवाथी व्यवहारी जनो कहे छे के -आत्मा परद्रव्यने जाणे छे, परद्रव्यनुं श्रद्धान करे छे, परद्रव्यने त्यागे छे.’ हवे कहे छे-

‘ए प्रमाणे निश्चय-व्यवहारना प्रकारने जाणी यथावत् (जेम कह्युं छे तेम) श्रद्धान करवुं.’

अहाहा....! ज्ञान आदि भावोने परद्रव्य निमित्त थतुं होवाथी निमित्तनी मुख्यताथी व्यवहारनये-अभूतार्थनये एम कह्युं के आत्मा परद्रव्यनो ज्ञाता छे, द्रष्टा छे आदि; निश्चयथी एवुं वस्तुस्वरूप नथी एम जेम कह्युं छे तेम श्रद्धान करवुं. समजाणुं कांई....? हवे लोको आवुं समजवा रोकाय नहि ने बहारमां उपवास आदि क्रियाकांडमां चढी जाय पण एथी शुं? एथी कांई लाभ न थाय.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-


PDF/HTML Page 3411 of 4199
single page version

* कळश २१पः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘शुद्ध–द्रव्य–निरूपण–अर्पित–मतेः तत्त्वं समुत्पश्यतः’ जेण शुद्ध द्रव्यना निरूपणमां बुद्धिने स्थापी-लगाडी छे अने जे तत्त्वने अनुभवे छे, ते पुरुषने ‘एक– द्रव्य–गतं किम्–अपि द्रव्य–अन्तरं जातुचित् न चकास्ति’ एक द्रव्यनी अंदर कोई पण अन्य द्रव्य रहेलुं बिलकुल (कदापि) भासतुं नथी.

अहाहा....! शुं कहे छे? के ‘जेणे शुद्ध द्रव्यना निरूपणमां बुद्धिने स्थापी छे’ ....; अहाहा....! द्रव्य एटले शुं? द्रव्य एटले शुं पैसो हशे? हें? पैसा-धूळनुं बापु! अहीं शुं काम छे? अहाहा...! आत्मा आखी वस्तु जे छे ते उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमय एम त्रि- सत्त्वस्वरूप छे. तेमां उत्पाद-व्ययरूप छे ते पर्याय छे, अने त्रिकाळी एकरूप ध्रुव छे ते द्रव्य छे. आ त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य ते निश्चयनयनो विषय छे. अंश छे ने? एक समयनी पर्याय ते अंश छे, ने त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य पण अंश छे; पण ध्रुव द्रव्य छे ते पूर्ण छे, शुद्ध एकरूप छे. अहा! आवुं जे त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य चैतन्य-सामान्य ध्रुव एक ज्ञायकभावरूप- ते जेणे द्रष्टिमां स्थाप्युं छे ते सम्यग्द्रष्टि छे.

अहाहा.....! अंदर वस्तु अनंत-अनंत गुणस्वरूप शुद्ध चैतन्यचमत्कार छे तेना निरूपणमां अर्थात् अनुभवमां जेणे बुद्धिने स्थापी छे अने जे शुद्ध तत्त्वने अनुभवे छे ते सम्यग्द्रष्टि पुरुषने, अहीं कहे छे, एक द्रव्यनी अंदर कोई पण द्रव्य रहेलुं बीलकुल भासतुं नथी. आ चोथा गुणस्थाननी वात हों; पांचमे श्रावकनी ने छट्ठे-सातमे मुनिनी तो कोई ओर अलौकिक दशा होय छे.

भगवान आत्मा सच्चिदानंद ज्ञानानंद प्रभु सदा अंदर एकपणे बिराजमान छे. अहाहा.....! एनो जेने अनुभव थयो तेने पर्यायमां आनंदनी भरती आवे छे. समुद्रमां जेम पाणीनी भरती आवे छे ने? तेम सम्यग्द्रष्टि धर्मात्माने पोताना पूरणस्वरूपनी द्रष्टि थतां पर्यायमां आनंद अने शांतिनी भरती आवे छे. अहा! आवा धर्मी पुरुषने, अहीं कहे छे, एक द्रव्यनी अंदर कोईपण अन्य द्रव्य रहेलुं बीलकुल भासतुं नथी. शुं कीधुं? शुद्ध आत्मद्रव्यमां आ शरीर, मन, वाणी, पैसा, कर्म ने पुण्य-पापना भाव रहेला छे एम ज्ञानी धर्मी पुरुषने कदापि भासतुं नथी. आ एक आंगळीमां जेम बीजी आंगळी रहेली भासती नथी तेम ज्ञानीने एक वस्तुमां बीजी वस्तु भासती नथी; केमके एक वस्तुमां बीजी वस्तुनो त्रिकाळ अभाव छे.

आ वेदांतवाळा एक सर्वव्यापक आत्मा कहे छे ने? भाई! ए तो कोई


PDF/HTML Page 3412 of 4199
single page version

वस्तु नथी. आ तो वीतराग सर्वज्ञ जैन परमेश्वरे जे कह्यो ते शुद्ध एक सच्चिदानंद प्रभु आत्मा पोते, तेनी जेने अंतर्द्रष्टि थई ते समकिती पुरुषने पोताना शुद्ध आत्मद्रव्यमां बीजी चीज प्रवेशी गई होय एम भासतुं नथी. जगतमां बीजी चीज नथी एम नहि, पोतानी चीजमां बीजी चीज रहेली होय एम भासतुं नथी एम वात छे. समजाय छे कांई....?

कोईने थाय के शुं आवो धर्म? हा बापु! त्रणलोकना नाथ सर्वज्ञ परमेश्वरे ढंढेरो पीटीने आ कह्युं छे के-एक द्रव्यमां अन्य द्रव्यनो सदाय अभाव छे. पोताना शुद्ध चैतन्यद्रव्यमां पुद्गलादि अन्यद्रव्योनो अभाव छे. सर्वज्ञ वीतराग परमेश्वर पण तारा द्रव्यमां नथी; तेओ तेमना द्रव्यमां रहेला छे. आ जिनमंदिर ने आ प्रतिमा सौ पोतपोताना द्रव्यमां रहेलां छे, कोई कोईनामां प्रवेशतां नथी एवो वस्तुस्वभाव छे. पुण्य-पापना भाव ते पण विभाव छे, पुद्गलस्वभाव छे; तेय तारा शुद्ध अंतःतत्त्वमां रहेला नथी. अहा! आवा शुद्ध अंतःतत्त्वने - चैतन्यतत्त्वने अनुभवनारा समकिती पुरुषोने एक द्रव्यमां (निजद्रव्यमां) अन्य द्रव्य रहेलुं कदीय भासतुं नथी. अहाहा....! अनंता सिद्धो, पंचपरमेष्ठी भगवंतो ने अनंता अन्यद्रव्यो सहित आखा विश्वनो पोतानी चीजमां सदाय अभाव छे एम ज्ञानीने भासे छे अने आ धर्म छे. समजाणुं कांई...? हवे कहे छे-

‘यत् तु ज्ञानं ज्ञेयं अवैति तत् अयं शुद्ध–स्वभाव–उदयः’ ज्ञान ज्ञेयने जाणे छे ते तो आ ज्ञानना शुद्ध स्वभावनो उदय छे.

शुं कीधुं आ? के शरीर, मन, वाणी, पंचपरमेष्ठी भगवंतो ने पुण्य-पापना भाव इत्यादि जे परज्ञेय छे तेने ज्ञान जाणे छे ते ज्ञानना शुद्ध स्वभावनो उदय छे. ज्ञाननो तो स्वपरप्रकाशक स्वभाव छे, अने ते स्वपरप्रकाशकपणुं पर्यायमां प्रगट थयुं होवाथी ज्ञान ज्ञेयोने जाणे छे; पण त्यां ज्ञान ज्ञेयोथी थयुं छे एम नथी. ज्ञेयोने प्रकाशती पोतानी ज्ञाननी दशा प्रगट थई ते ज्ञानना शुद्ध स्वभावनो उदय छे अर्थात् ते ज्ञानना स्वभाव- सामर्थ्यथी प्रगट थई छे. आवी वात! समजाणुं कांई....?

आ दया, दान, व्रत इत्यादि जे विकल्प उठे छे ते खरेखर परज्ञेय छे. ज्ञान ते परज्ञेयने जाणे छे छतां ज्ञेय कांई ज्ञानमां आवतुं नथी, ने ज्ञान ज्ञेयमां पण जतुं नथी. खरेखर तो ज्ञान ज्ञेयने अडतुं पण नथी, ज्ञान ने ज्ञेय भिन्न भिन्न ज रहे छे.

कोईने थाय के आमां धर्म शुं आव्यो? हा भाई! जरा धीरजथी सांभळ तो खरो. आत्मा परनुं कांई करी शके छे ए तो छे नहि, परद्रव्यने आत्मा जाणे छे ते पण परद्रव्यना कारणे जाणे छे एम नथी. ज्ञाननो स्वपरप्रकाशक स्वभाव छे


PDF/HTML Page 3413 of 4199
single page version

तो ज्ञान पोतामां रहीने, परनो स्पर्श कर्या विना ज, परने जाणे छे. अहा! ज्ञानीने पोतानी चीजमां बीजी चीज आवी छे एम भासतुं नथी. बीजी चीजनुं जाणपणुं होय त्यारे पण हुं ज्ञान ज छुं एम ज्ञानीने भासे छे.

अरे! स्वस्वरूपने यथार्थ ओळख्या विना मिथ्याभावने लईने चारगतिमां जीव अनंत अनंत दुःख भोगवी रह्यो छे. परनी क्रिया हुं करी शकुं ने पुण्य-पापना भावमां मने ठीक छे. पुण्य भाव भलो छे इत्यादि मानवुं ते महा मिथ्याभाव छे. अहीं कहे छे- जेने मिथ्याभावनो नाश थईने शुद्ध ज्ञानानंदमय पोतानी चीजनुं भान थयुं छे तेने व्यवहाररत्नत्रयना विकल्प पण, ते जाणवा काळे, मारापणे छे, मारामां रहेला छे ने भला छे एम भासतुं नथी. अहाहा....! शुद्ध निरंजन ज्ञानमय निरपेक्ष आनंदकंद प्रभु पोते छे एनी जेने द्रष्टि अने अनुभव थयां तेने कहे छे, कोई परद्रव्य-परभाव पोतामां रहेला छे एम भासतुं नथी. परद्रव्यनुं एने ज्ञान थयुं ते, ते ते परज्ञेयने लईने थयुं छे एम भासतुं नथी, केमके ज्ञान जे ज्ञेयोने जाणे छे ते ज्ञानना शुद्ध स्वभावनो उदय छे. अहा! आवी तत्त्वद्रष्टि थवी महा दुर्लभ चीज छे.

अहीं कहे छे-ज्ञान ज्ञेयने जाणे ए तो ज्ञानना शुद्ध स्वभावनो उदय छे. रागने ज्ञान जाणे त्यां रागना कारणे ज्ञान थयुं छे एम क्यां छे? एम छे नहि. अरे! अनंतकाळमां एणे निज घरनी वात सांभळी नथी. तारा घरनी वात एकवार सांभळ तो खरो नाथ! अहीं कहे छे-ज्ञेयने-रागने ज्ञान जाणे ए शुद्ध ज्ञान-स्वभावनुं प्रगटपणुं छे, एमां ज्ञेयनुं-रागनुं शुं छे? खरेखर तो ज्ञेयने-रागने ज्ञान जाणे छे एम नहि, निश्चयथी तो पोते पोताने ज (पोतानी ज्ञान पर्यायने ज) जाणे छे. अहा! आवी गंभीर चीज पोतानी अंदर पडी छे.

ओहो! अनंतगुणरत्नाकर चैतन्यचमत्कार प्रभु पोते छे. अहाहा...! अनंत अनंत ज्ञान, दर्शन, आनंद, शांति, स्वच्छता, प्रभुतानो भंडार अंदर भर्यो छे. अहा! आवी पोतानी प्रभुतानो महिमा जेणे पर्यायमां अनुभव्यो ते एम जाणे छे के कोईपण परज्ञेय मारी चीजमां छे नहि. जाणवामां आवतो व्यवहाररत्नत्रयनो राग पण मारी चीजमां छे नहि. आवी वात!

हा, पण ज्ञानी ते रागने जाणे तो छे ने? हा, जाणे छे; पण जाणे छे एटले शुं? एटले ए ज के ए पोताना ज्ञान- स्वभावना सामर्थ्यनी प्रगटता छे, एमां राग कांई (संबंधी) नथी. रागना कारणे ज्ञान थयुं छे एम नथी. भाई! आ तो वस्तुस्वरूप आवुं छे. समजाणुं कांई....?


PDF/HTML Page 3414 of 4199
single page version

अरे! लोको धर्मना नामे बहारनी धमाधममां (व्रत, तप आदि क्रियाकांडमां) रोकाई गया छे; आ करुं ने ते करुं -एम रागनी क्रिया करवामां रोकाई पडया छे. पण भाई! करवुं ए तो मरवुं छे. रागनी क्रिया करवामां तो पोतानी शांतिनो नाश थाय छे. रागनुं करवुं तो दूर रहो, अहीं कहे छे-रागने जाणवुं एय ज्ञानना शुद्ध स्वभावनो उदय छे, अर्थात् रागना कारणे एनुं ज्ञान थाय छे एम नथी. हवे आवुं ओला रागनी रुचिवाळाने केम बेसे? न बेसे; केमके (रुचि अनुयायी वीर्य’ - जे तरफथी रुचि होय ते तरफनो जीव पुरुषार्थ करे छे. पुण्यनी रुचिवाळो जीव अज्ञाननो पुरुषार्थ करे छे, ज्यारे ज्ञानस्वभावनी रुचिवाळो धर्मात्मा ज्ञानस्वभावनो पुरुषार्थ करे छे. अहा! आ तो छाशमांथी नितारीने काढेलुं एकलुं माखण छे.

कहे छे- ज्ञान ज्ञेयने जाणे ते तो ज्ञानना शुद्ध स्वभावनो उदय छे. ‘जनाः’ जो आम छे तो पछी लोको ‘द्रव्य–अन्तर–आकुल–धियः’ ज्ञानने अन्य द्रव्य साथे स्पर्श होवानी मान्यताथी आकुळ बुद्धिवाळा थया थका ‘तत्त्वात्’ तत्त्वथी (शुद्ध स्वरूपथी) ‘किं च्यवन्ते’ शा माटे च्युत थाय छे?

अहा! ज्ञान ज्ञेयोने जाणे त्यां ज्ञान अन्य द्रव्यने स्पर्शतुं नथी, अडतुं नथी; आ वस्तुस्थिति छे. तथापि अज्ञानी जीव, ज्ञान ज्ञेयने स्पर्श करे छे एवी मिथ्या मान्यताथी आकुळबुद्धिवाळो थईने निज चिदानंदमय शुद्ध आत्माने छोडी दे छे. आचार्य खेद करीने कहे छे-अरेरे! अज्ञानी जीव, वस्तुस्थितिथी विरुद्ध मान्यता करीने, ज्ञान ज्ञेय साथे एकाकार थयुं छे एवी मिथ्या मान्यता करीने आकुळबुद्धिवाळो थईने परम आनंदमय स्वस्वरूपने केम छोडी दे छे? भाई! ज्ञान परने जाणे पण परने स्पर्शतुं नथी, अर्थात् पररूप थई जतुं नथी. वळी ज्ञान परने जाणे त्यां परज्ञेय ज्ञानमां प्रवेशता नथी अर्थात् परज्ञेयना कारणे ज्ञान थतुं नथी. ल्यो, आवी वात!

त्यारे कोई वळी कहे छे- सोनगढनी तो एकली निश्चय निश्चयनी ज वात छे. बापु! तने खबर नथी भाई! पण निश्चय एटले ज सत्य, निश्चय एटले ज यथार्थ. आ ‘सोनगढ’ एटले (सत्यरूप) सोनानो गढ प्रभु आत्मा छे. अहाहा....! जेम सोनाने काट लागे नहि तेम भगवान आत्माने रागनो काट लागतो (-स्पर्शतो) नथी. ए तो बेनना (पू. बेनश्रीना) वचनामृतमां आवे छे के-“जेम कंचनने काट लागतो नथी, अग्निने उधई लागती नथी, तेम ज्ञायकस्वभावमां आवरण, उणप के अशुद्धि आवती नथी.” अहाहा....! केवी सरस वात करी छे! भाई! तुं सदाय एक ज्ञायकस्वभावमात्र वस्तु-तेमां नथी उणप, नथी अशुद्धता के नथी आवरण. बापु! तुं सदाय पूर्णानंद प्रभु पूरण, शुद्ध अने निरावरण छो. तारी एक समयनी


PDF/HTML Page 3415 of 4199
single page version

ज्ञाननी दशा थाय ते कांई ज्ञेयोने लईने थती नथी. अरे! ज्ञेयोने तो ज्ञान स्पर्शतुं पण नथी. अरे! लोकोने पोताना बेहद अनंत ज्ञानस्वभावना सामर्थ्यनी खबर नथी. धर्मी पुरुष जाणे छे के स्वपरप्रकाशक ज्ञान पोताना सामर्थ्यथी ज स्वाधीनपणे प्रगट थाय छे. आथी विपरीत माने ते विपरीत द्रष्टि मिथ्याद्रष्टि छे.

आ वींछीना डंखनुं ज्ञान थाय ने? ते कांई डंखने लईने थाय छे एम नथी. ज्ञान स्वाधीन पोताथी थाय छे. अरे! अज्ञानी जीवो ज्ञानने परज्ञेयो साथे स्पर्श होवानी मान्यताथी आकुळबुद्धिवाळा थईने नाहक दुःखी थाय छे, शुद्ध चैतन्यतत्त्वथी भ्रष्ट थाय छे. निमित्तथी ज्ञान थाय, निमित्तथी धर्म थाय, व्यवहारथी-रागथी निश्चय थाय इत्यादि मान्यता बधो अज्ञानभाव छे. आचार्य कहे छे-परने जाणवाकाळे परथी ज्ञान थयुं एम अज्ञानी पराधीन थई स्वस्वरूपथी भ्रष्ट कां थाय छे? जुओ, आचार्यनी आ निस्पृह करुणा!

* कळश २१पः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘शुद्धनयनी द्रष्टिथी तत्त्वनुं स्वरूप विचारतां अन्य द्रव्यनो अन्य द्रव्यमां प्रवेश देखातो नथी. ज्ञानमां अन्य द्रव्यो प्रतिभासे छे ते तो आ ज्ञाननी स्वच्छतानो स्वभाव छे; कांई ज्ञान तेमने स्पर्शतुं नथी के तेओ ज्ञानने स्पर्शतां नथी.’

दरेक वस्तुनुं स्वरूप स्वयंसिद्ध छे, परथी निरपेक्ष सहज छे; वास्तवमां पर साथे तेने कांई संबंध नथी. जुओ, अहीं कहे छे-शुद्धनयनी द्रष्टिथी.... , एटले शुं? के अंदर शुद्ध चैतन्यस्वभावथी भरेलो पोते निर्मळानंद प्रभु छे तेनी द्रष्टिथी विचारीए तो अन्य द्रव्यनो अन्य द्रव्यमां प्रवेश देखातो नथी. आ शरीर, मन, वाणी इत्यादि परद्रव्यनो भगवान आत्मामां प्रवेश नथी. ज्ञानमां ए कर्म, नोकर्म आदि परद्रव्यो प्रतिभासे छे ए तो ज्ञाननी स्वच्छतानो स्वभाव छे; अर्थात् एमां परद्रव्यनुं कांई कर्तव्य नथी. रागादि पुण्य-पापना भाव तथा कर्म, नोकर्म आदि ज्ञानमां जाणवामां आवे छे ए तो ज्ञाननी स्वच्छतानुं स्वरूप छे; रागादि परने कारणे त्यां ज्ञान थाय छे एम छे नहि; केमके रागादि परद्रव्यो ज्ञानमां प्रवेशतां नथी, प्रवेशी शकतां नथी. झीणी वात छे भाई!

अहाहा....! ज्ञानानंदस्वरूपी भगवान आत्मानुं अंदर लक्ष करतां जे ज्ञान प्रगट थयुं ते ज्ञान रागादिने अने शरीर, मन, वाणी आदिने जाणे, परंतु ज्ञान ए ज्ञेयोने, कहे छे, स्पर्श करतुं नथी, तथा ए ज्ञेयो ज्ञानने स्पर्श करता नथी. ज्ञानस्वरूपी प्रभु पोते ज्ञानमां रहीने ज्ञेयोने जाणे, पण ज्ञान ज्ञेयोमां जतुं नथी. ने ज्ञेयो ज्ञानमां जता-प्रवेशता नथी. अहा! आवी वात! धर्मात्माने अशुभथी बचवा


PDF/HTML Page 3416 of 4199
single page version

दया, दान, देव-गुरु-शास्त्रनां विनय-भक्ति आदि शुभरागरूप व्यवहार आवे छे, धर्मात्मा तेने जाणे छे; पण तेने जाणनारुं ज्ञान तेने स्पर्शतुं नथी अने ते शुभरागरूप व्यवहार ज्ञानने स्पर्शतो नथी. ल्यो, आवुं! शुभरागरूप व्यवहारथी ज्ञान नहि ने ज्ञानने कारणे शुभरागरूप व्यवहार नहि. अहो! आ तो गजबनुं वस्तुस्वरूप छे.

त्यारे कोई वेदांती पूछे के-ज्ञान ज्ञेयोने स्पर्श कर्या विना केम जाणे? एम के बधुं (सर्व ज्ञेयो) ज्ञानस्वरूप ज छे.

एम नथी भाई! जरा धीरो थईने सांभळ. तारी चैतन्यज्योति-ज्ञानज्योति प्रभु बहार रहेली अग्निने जाणे, पण ते कांई अग्निमां प्रवेश करे छे, वा अग्नि ज्ञानमां प्रवेश करे छे एम नथी. जुओ, अरिसो होय छे ने? तेमां अग्नि, बरफ वगेरे चीजोनो प्रतिभास थाय छे ते अरिसानी स्वच्छतानो स्वभाव छे, बाकी अरिसामां कांई अग्नि, बरफ वगेरे पेसी जतां नथी, के अरिसो ते चीजोमां प्रवेशतो नथी. तेम आ भगवान आत्मा चैतन्य-अरिसो छे. तेमां शरीर, मन, वाणी इत्यादि देखाय छे, प्रतिभासे छे; पण ते चीजो ज्ञानमां प्रवेशती नथी ने ज्ञान ते चीजोमां प्रवेशतुं नथी. भाई! परज्ञेय छे माटे परज्ञेयोनुं ज्ञान थाय छे एम नथी. तथा ज्ञानने कारणे परज्ञेयो विद्यमान छे एम पण नथी. पोतामां पोताना लक्षे ज्ञाननी स्वपर-प्रकाशक पर्याय प्रगट थाय छे. ज्ञाननो सहज ज स्वपरप्रकाशक स्वभाव छे. समजाणुं कांई...?

त्यारे कोई (-अज्ञानी) पूछे छे-शुं चश्मां विना ज ज्ञानथी जणाय? हा, भाई! चश्मां अने ज्ञान वच्चे तो अत्यंत अभाव छे. चश्मांथी ज्ञान थाय छे एम कदीय नथी; केमके चश्मां तो जड वस्तु छे; तेमां क्यां ज्ञान छे? अहीं तो आ वात छे के ज्ञान चश्मां आदि परने जाणे छे, परंतु ज्ञान तेने स्पर्शतुं नथी अने ते परज्ञेय ज्ञानने स्पर्शता नथी. हवे आवी वस्तुस्थिति ज्यां सुधी जाणे नहि त्यां सुधी जीव मिथ्याद्रष्टि ज छे.

हवे कहे छे- ‘आम होवा छतां, ज्ञानमां अन्य द्रव्योनो प्रतिभास देखीने आ लोको “ज्ञानने परज्ञेयो साथे परमार्थ संबंध छे” एवुं मानता थका ज्ञानस्वरूपथी च्युत थाय छे ते तेमनुं अज्ञान छे. तेमना पर करुणा करीने आचार्यदेव कहे छे के-आ लोको तत्त्वथी कां च्युत थाय छे?’

अहा! लोको ज्ञानमां परद्रव्योनो प्रतिभास देखीने परद्रव्यो साथे पोताने परमार्थ संबंध होवानुं माने छे; अर्थात् परज्ञेयोना कारणे ज्ञान थतुं होवानुं माने छे. परंतु एवुं मानवुं, अहीं कहे छे, अज्ञान छे. आ शब्दो परज्ञेय छे,


PDF/HTML Page 3417 of 4199
single page version

एनाथी ज्ञान थाय एम मानवुं ते अज्ञान छे. देव-गुरु-शास्त्र आदि परज्ञेयो छे. एनाथी पोताने ज्ञान थाय एम मानवुं ते अज्ञान छे. ज्ञान थवा काळे ते ते पदार्थो बाह्य निमित्त हो, पण ते ज्ञान उपजवानुं वास्तविक कारण नथी. हवे आवी वात ओला निमित्तवादीओने ने व्यवहारना पक्षवाळाने आकरी लागे, पण आ सत्य वात छे. विश्रामनुं एकमात्र स्थान भगवान आत्मा छे; तेनी द्रष्टि न करतां परज्ञेयोमां विश्राम मानी अज्ञानी जीव अनंतकाळथी दुःखी थई रह्यो छे.

जो एम छे तो आप अमने आ संभळावो छो शुं करवा? अरे प्रभु! जरा सांभळ. आ वाणीनी क्रिया जे थाय छे ए तो जडनी क्रिया छे भगवान! तने खबर नथी प्रभु! पण भगवान आत्मा तो अंदर अरूपी चैतन्यनो पिंड शुद्ध चिन्मात्र वस्तु छे, अने आ वाणी तो जड धूळ छे. तेने कोण करे? वाणीने-जडनी क्रियाने आत्मा कदीय करतो नथी, वाणी वाणीना कारणे थाय छे, ए तो वाणीने जाणे छे बस; ते पण वाणी छे तो जाणे छे एम नथी. जाणनार ज्ञायक प्रभु पोतामां रहीने पोताथी ज जाणे छे. आवी सूक्ष्म वात! समजाणुं कांई...?

हवे धंधा आडे बिचारो नवरो पडे नहि एटले धर्मना नामे क्रियाकांडमां चढी जाय. शुं करे बिचारो? दया पाळे ने दान करे इत्यादि; पण अरे! एणे स्वदया अनंतकाळमां करी नहि! परनी दया पाळवामां रोकाई रह्यो; पण परनी दया कोण करी शके छे? भाई! परनी दया तो तुं करी शकतो नथी. पर जीव तो परना पोताना कारणे सुरक्षित-जीवित रहे छे; ज्ञानी तो दयानो भाव थाय तेने जाणे छे बस; ते पण तेना (दयाना विकल्पना) कारणे जाणे छे एम नथी. दयानो विकल्प थयो माटे एनुं ज्ञान थयुं छे एम नथी. अहा आवी वात!

भाई! सम्यग्दर्शन स्वभावसन्मुखना कोई अलौकिक पुरुषार्थनी प्राप्त थनारी चीज छे. पछी चारित्र तो ओर महा पुरुषार्थथी प्रगट थाय छे. अहाहा....! प्रचुर स्वसंवेदननो आनंद जेमां अनुभवाय छे ते मुनिवरोनुं भावलिंग पूज्य छे, पूजनीक छे. अहा! आवा परम पूजनीक मुनिवरो-आचार्य भगवंतो-केवळीना केडायतीओ परम करुणा करीने कहे छे-अरेरे! आ लोको परज्ञेयो साथे परमार्थ संबंध मानता थका पराधीन थईने शुद्ध तत्त्वथी कां च्युत थाय छे?

फरी आ ज अर्थने द्रढ करे छेः-

* कळश २१६ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘शुद्ध–द्रव्य–स्वरस–भवनात्’ शुद्ध द्रव्यनुं (आत्मा आदि द्रव्यनुं) निजरसरूपे (अर्थात् ज्ञान आदि स्वभावे) परिणमन थतुं होवाथी, ‘शेषम् अन्यत्–द्रव्यं किं


PDF/HTML Page 3418 of 4199
single page version

स्वभावस्य भवति’ बाकीनुं कोई अन्य द्रव्य शुं ते (ज्ञानादि) स्वभावनुं थई शके? (न ज थई शके.) ‘यदि वा स्वभावः किं तस्य स्यात्’ अथवा शुं ते (ज्ञानादि स्वभाव) कोई अन्य द्रव्यनो थई शके? (न ज थई शके. परमार्थे एक द्रव्यने अन्य द्रव्य साथे संबंध नथी).

शुं कीधुं आ? के शुद्ध द्रव्यनुं निजरसरूपे परिणमन थाय छे. आत्मानुं परिणमन निजरसरूपे आत्माथी थाय छे, ने वाणीनुं परिणमन वाणीथी थाय छे. आत्मामां ज्ञान थाय ते ज्ञानना कारणे थाय छे, परना-वाणीना कारणथी नहि. पहेलां ज्ञान न होतुं ने भगवाननी वाणी सांभळीने ज्ञान थयुं एम कोई माने तो, कहे छे, एम नथी. आत्मामां ज्ञाननी पर्याय निजरसथी प्रगट थाय छे. अने वाणीनी वाणीरूप पर्याय पण परमाणुना निजरसथी थाय छे, आत्मा तेने करे छे एम नथी. अहाहा...! आत्मा वाणीने करे एम नहि अने वाणीथी एने ज्ञान थाय एम पण नहि. अहो! आवी अलौकिक वात!

कहे छे-बाकीनुं कोई अन्य द्रव्य शुं ते ज्ञानादि स्वभावनुं थई शके? न ज थई शके. आ शरीर ने पुण्य-पाप आदि भाव शुं ज्ञानस्वभावनां थई शके? अने शुं आत्मा-ज्ञानस्वभाव शरीर ने पुण्य-पाप आदिरूप थई शके? न थई शके, कदीय न थई शके. भाई! आ तो अलौकिक भेदज्ञाननी वात बापा! अहाहा....! दया, दान आदि शुभना विकल्पथी पण आत्मानो ज्ञानस्वभाव भिन्न छे एवुं अंतरमां भेदज्ञान करवाथी धर्म प्रगटे छे, ने भेदज्ञानथी मुक्ति थाय छे. कळशमां आवे छे ने के-अनंत सिद्धो जे मुक्ति पाम्या छे ते भेदविज्ञानथी पाम्या छे, ने अनंत जीवो जे संसारमां रखडे छे ते भेदविज्ञानना अभावना कारणे रखडे छे. अहो! भेदविज्ञान कोई अद्भुत अलौकिक चीज छे, महादुर्लभ!

अहा! संतो पोकार करीने कहे छे- शुं ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु आत्मा राग अने शरीरनो थई जाय छे? अने राग अने शरीर शुं ज्ञानानंदस्वभावी आत्मानां थई जाय छे? ना, कदापि नहि. आत्मानुं ज्ञान निजरसथी प्रगट थाय छे अने ते पोताना सामर्थ्यथी परज्ञेयोने जाणे छे, तेने परज्ञेयोनी के कोई बाह्य निमित्तोनी अपेक्षा नथी. परमार्थे एक द्रव्यने अन्य द्रव्य साथे संबंध नथी.

आवी झीणी वात! कोईने थाय के सोनगढमां एकलो निश्चयनो उपदेश आपे छे; एम के दया, दान आदि व्यवहारनो तेओ लोप करे छे.

अरे भाई! जरा सांभळ तो खरो प्रभु! अहीं जुए तो तने जणाशे के अहीं तो भक्ति, पूजा, स्वाध्याय, दया, दान आदि बधुं ज चाले छे; हा, पण


PDF/HTML Page 3419 of 4199
single page version

ए सघळो व्यवहार राग छे बापा! ए धर्म नहि, धर्मनुं कारण पण नहि. गृहस्थदशामां दया, दान, भक्ति इत्यादि होय छे भाई! पण ए धर्म नथी एम वात छे.

अहीं कहे छे- एक द्रव्यने अन्य द्रव्य साथे वास्तवमां कोई संबंध नथी. परमार्थे एक तत्त्वने अन्य तत्त्व साथे संबंध नथी. भगवान आत्मा शुद्ध एक ज्ञायकतत्त्व - चैतन्यतत्त्व छे, ने दया, दान, व्रत आदि आस्रव तत्त्व छे, तथा शरीर आदि अजीव तत्त्व छे. अहीं कहे छे-एक तत्त्वने बीजा तत्त्व साथे संबंध नथी, अर्थात् एक तत्त्व अन्य तत्त्वरूप थतुं नथी. भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यतत्त्व आस्रवरूप के शरीरादि अजीवरूप थतुं नथी अने रागादि तथा शरीरादि छे ते चैतन्यरूप थतां नथी. भाई! भाषा तो आम सादी छे, पण भाव तो जे छे ते गंभीर छे. हवे द्रष्टांत कहे छे-जेम-

‘ज्योत्स्नारूपं भुवं स्नपयति’ चांदनीनुं रूप पृथ्वीने उज्ज्वळ करे छे ‘भूमिः तस्य न एव अस्ति’ तोपण पृथ्वी चांदनीनी थती ज नथी; ‘ज्ञानं ज्ञेयं सदा कलयति’ तेवी रीते ज्ञान ज्ञेयने सदा जाणे छे ‘ज्ञेयं अस्य अस्ति न एव’ तोपण ज्ञान ज्ञेयनुं थतुं ज नथी.

जोयुं? चांदनी पृथ्वीने धोळी-उज्ज्वळ करे छे तोपण पृथ्वी चांदनीनी अर्थात् चांदनीरूप थती ज नथी, वळी चांदनी पण पृथ्वीरूप थती ज नथी. तेवी रीते ज्ञान ज्ञेयोने सदा जाणे छे तोपण ज्ञान ज्ञेयनुं अर्थात् ज्ञेयरूप थतुं ज नथी अने ज्ञेयो कदीय ज्ञानरूप थता ज नथी. शुं कीधुं? ज्ञान शरीर, मन, वाणी, पुण्य, पाप इत्यादि पदार्थोने जाणे छे तोपण ज्ञान ते ते पदार्थोरूप थतुं नथी, अने ते शरीरादि पदार्थो ज्ञानरूप थता नथी. भाई! दरेक तत्त्व भिन्न भिन्न छे. भिन्न तत्त्वोने भेळसेळ करी एक मानवा ते मिथ्यात्व छे.

अहाहा...! पोते शुद्ध एक चैतन्यमूर्ति ज्ञानानंद सहजानंद प्रभु छे. तेने भूलीने दया, दान आदि रागरूप विकल्पोमां रोकाई रहे ते मिथ्याद्रष्टि छे. अहा! पोतानो शुद्ध चैतन्यसत्तानो अस्वीकार करीने देहादिनो ने रागनो जे स्वीकार करे छे ते जीव मूढ अज्ञानी छे, आत्मघाती छे; केमके तेणे पोतानो ईन्कार करीने पोतानी ज हिंसा करी छे. अरे! एणे कदीय पोतानी दया करी नहि! पोतानी चीज सदा ज्ञाता-द्रष्टास्वभावथी भरी छे-ते हुं छुं एम प्रतीति करवी ते स्वदया छे. पोताने देहवाळो ने रागवाळो मानवो ते स्व-हिंसा छे. बीजानी दया पाळवानी क्रिया तो कोई करी शकतो नथी, केमके परद्रव्य स्वतंत्र छे, परद्रव्यमां परद्रव्यनो प्रवेश थई शकतो नथी. परंतु परद्रव्यनी दया पाळवानो भाव आवे ते राग छे अने राग छे ते हिंसा छे.


PDF/HTML Page 3420 of 4199
single page version

तो ज्ञानीने पण दया, दान, भक्ति इत्यादिनो राग आवे छे?

हा, आवे छे; पण तेने रागनुं स्वामित्व होतुं नथी. राग रागना कारणे थाय छे तेने ते मात्र जाणे ज छे बस, तेनुं ज्ञान रागथी लिप्त थतुं नथी. ज्ञानीने निरंतर रागथी भिन्नपणानुं भेदज्ञान वर्ते छे. ते रागने पोतानी स्वपर-प्रकाशक ज्ञाननी पर्यायमां भिन्नरूपे जाणे छे.

रागथी मने लाभ थाय अने रागथी मने ज्ञान थाय एम माननार राग साथे अभेदपणुं करे छे अने तेथी ते मिथ्याद्रष्टि छे. भाई! आ तो वाते वाते फेर छे. वास्तवमां जीव ज्ञान अने आनंदथी भरेलो पूर्णानंद प्रभु छे एम अंतरमां स्वीकार करवो ते जीवनुं जीवन छे अने तेनुं ज नाम जीव-दया छे. तेनुं ज नाम जैन धर्म छे. बाकी रागनी उत्पति थवी ते जीवनुं जीवन नथी केमके रागने ने जीवने एकपणुं नथी. आवी वात! समजाणुं कांई...?

आ प्रमाणे ज्ञान ज्ञेयने सदा जाणे छे तोपण ज्ञेय ज्ञाननुं थतुं ज नथी.

* कळश २१६ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘शुद्धनयनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो कोई द्रव्यनो स्वभाव कोई अन्य द्रव्यरूपे थतो नथी. जेम चांदनी पृथ्वीने उज्ज्वळ करे छे परंतु पृथ्वी चांदनीनी जरापण थती नथी, तेम ज्ञान ज्ञेयने जाणे छे परंतु ज्ञेय ज्ञाननुं जरा पण थतुं नथी.’

शुं कहे छे? के शुद्धनयनी द्रष्टिथी अर्थात् भूतार्थद्रष्टिथी जोवामां आवे तो कोई द्रव्यनो स्वभाव कोई अन्यद्रव्यरूपे थतो नथी. भाई! आ तो मूळ वात छे. जे आ आत्मा छे ते अने जड परमाणु-कर्म-नोकर्मादि छे ते भिन्न भिन्न चीज छे, कोई कोईनामां प्रवेशतुं नथी. आत्मा छे ते परद्रव्यमां प्रवेशतो नथी, ने शरीरादि परद्रव्यो आत्मामां प्रवेशतां नथी. आत्मा जड शरीररूप अने जड शरीर आत्मारूप त्रणकाळमां थतां नथी; शरीर शरीररूपे ने आत्मा आत्मारूपे ज सदा रहे छे. तेथी आत्मा शरीरनुं कांई करी शके के शरीर आत्मानुं कांई करी शके ए कदीय संभवित नथी. आ वाणी काने पडे छे ने? ते वाणीथी ज्ञान थाय छे एम कदापि नथी, केमके परना संबंधथी ज्ञान थतुं नथी. परंतु ज्ञान स्वरसथी ज ज्ञानपणे उत्पन्न थाय छे.

अरे! पोतानी चीज शुद्ध चिदानंदघनस्वरूप छे. तेनो एणे कदीय आश्रय लीधो नहि! परद्रव्यनो-दया, दान, व्रत आदि रागनो-आश्रय एणे लीधा कर्यो, परंतु एनाथी तो अज्ञान ज उत्पन्न थयुं. आवे छे ने के-