PDF/HTML Page 3421 of 4199
single page version
पै निज आतमज्ञान विना सुख लेश न पायो.
अरे भाई! स्वद्रव्यनो आश्रय कर्या विना सम्यग्दर्शन-ज्ञान थतां ज नथी. अहीं कहे छे-आत्मा कदीय रागरूप थतो नथी ने राग कदीय आत्मारूप थतो नथी. तेनुं द्रष्टांत कहे छे-
चांदनी पृथ्वीने उज्ज्वळ करे छे परंतु पृथ्वी चांदनीनी जरा पण थती नथी; पृथ्वी तो पृथ्वी ज रहे छे अने चांदनी चांदनी ज रहे छे. चांदनी पृथ्वीने अडती ज नथी, ने पृथ्वी चांदनीने अडती ज नथी. तेम, कहे छे, ज्ञान ज्ञेयने जाणे छे तोपण ज्ञान ज्ञेयनुं जरा पण थतुं नथी. भाई! आ पंचमहाव्रतना परिणाम थाय ते राग छे; ज्ञान ते रागने जाणे छे, पण ज्ञान रागरूपे थतुं ज नथी. ज्ञान रागने अडतुं ज नथी अने राग ज्ञानने अडतो ज नथी.
अरे! जीवो पोतानी शुद्ध चैतन्यवस्तु सुखधाम प्रभु आत्मा छे तेने भूलीने पुण्य-पापनी प्रवृत्तिमां रोकाई पडया छे. परंतु पुण्य-पापना भाव वास्तवमां तो परद्रव्य छे, स्वद्रव्य नथी; भगवान आत्मानी ए चीज नथी. भगवान आत्मानो सहज जाणगस्वभाव छे तेथी ते पुण्य-पाप आदि भावोने जाणे छे, पण तेथी कांई पुण्य-पाप आदि भाव ज्ञानरूप-आत्मरूप थई जता नथी. भगवान आत्मा ने रागादि पदार्थो भिन्न ज रहे छे, कदी एकरूप थता नथी. वास्तवमां राग मारो स्वभाव छे एम मानीने जीव मिथ्यात्व आदि अज्ञानमय भावोने उत्पन्न करे छे अने ते एने चारगतिमां परिभ्रमणनुं कारण थाय छे.
कहे छे- ‘आत्मानो ज्ञानस्वभाव होवाथी तेनी स्वच्छतामां ज्ञेय स्वयमेव झळके छे, परंतु ज्ञानमां ते ज्ञेयोनो प्रवेश नथी.’
अहाहा...! ज्ञानस्वभावी प्रभु आत्मा छे. तेना ज्ञाननी स्वच्छतामां जणावायोग्य ज्ञेय पदार्थो स्वयमेव झळके छे एटले जणाय छे. छतां ज्ञानमां ते ज्ञेयोनो प्रवेश नथी. शुभाशुभ राग थाय तेने ज्ञान जाणे पण ज्ञान ते रागरूपे थतुं नथी, ने ते राग ज्ञानरूपे थतो नथी. ज्ञानमां ज्ञेय कदी प्रवेशतुं नथी, ने ज्ञान ज्ञेयमां कदी प्रवेशतुं नथी.
रागद्वेषनी उत्पत्ति मिथ्याद्रष्टिने ज थाय छे एम अहीं कहेवुं छे. सम्यग्द्रष्टिने किंचित् राग (अस्थिरतानो) होय छे, पण तेने अहीं गौण गणीने ज्ञानस्वभाव जाणवा- देखवामात्र काम करे छे एम कहे छे. सम्यग्द्रष्टिने जरी राग थाय छे अने तेनी जरी आकुळता पण थाय छे, पण तेने ते ज्ञेय तरीके ज्ञानमां जाणे छे. ल्यो, आ प्रमाणे ज्ञान
PDF/HTML Page 3422 of 4199
single page version
रागने, संयोगने जाणे छे, पण ज्ञान ते-रूपे थतुं नथी, वळी ज्ञानमां ज्ञेयोनो प्रवेश नथी, अर्थात् ज्ञेयो ज्ञानरूपे थता नथी. अहीं द्रष्टिप्रधान वात छे. बाकी ज्ञानीने जे किंचित् रागद्वेषना विकल्प थाय छे एटलुं वेदन पण छे, पण ए वात अहीं नथी. समजाणुं कांई....?
हवे आगळनी गाथाओनी सूचनारूपे काव्य कहे छेः-
‘तावत् राग–द्वेष–द्वयम् उदयते’ त्यां सुधी राग-द्वेषनुं द्वंद्व उदय पामे छे (- उत्पन्न थाय छे) ‘यावत् एतत् ज्ञानम् ज्ञानम् न भवति’ के ज्यां सुधी आ ज्ञान ज्ञानरूप न थाय ‘पुनः बोध्यम् बोध्यताम् न याति’ अने ज्ञेय ज्ञेयपणाने न पामे.
अहाहा....! शुं कहे छे? के त्यां सुधी राग-द्वेषनी परंपरा ऊभी रहे छे के ज्यां सुधी ज्ञान ज्ञानरूप न थाय अर्थात् ज्ञान सम्यग्ज्ञान न थाय. झीणी वात छे प्रभु! आत्मा जाणगस्वभावी प्रभु प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप सर्वज्ञस्वरूप वस्तु छे. अहा! आवा निजस्वरूपनी जेने अंतर्द्रष्टि थई ते सम्यग्द्रष्टि ज्ञानीने, कहे छे, रागद्वेषनी उत्पत्ति थती नथी; केमके ज्ञानरसथी भरेली पोतानी वस्तुमां रागद्वेष नथी.
धर्मात्माने कमजोरीवश किंचित् रागादि उत्पन्न थाय छे, परंतु प्रगट ज्ञान- सम्यग्ज्ञान तेनी साथे एकमेक थतुं नथी. ज्ञान तेने बीजी चीज छे, परज्ञेय छे एम जाणे ज छे बस; अर्थात् ज्ञान रागरूप थतुं नथी ने राग ज्ञानमां प्रवेश पामतो नथी. आवी वात छे. समजाणुं कांई....!
अहाहा....! कहे छे-त्यां सुधी रागद्वेषनुं द्वंद्व उदय पामे छे के ज्यां सुधी ज्ञान ज्ञानरूपे न रहे अने ज्ञेय ज्ञेयपणाने न पामे. अहा! ज्ञान ज्ञानस्वभावे परिणमवाने बदले, आ शरीरादि पदार्थो मारा छे, शुभाशुभभावो मने लाभदायी छे एम अज्ञानभावे परिणमे त्यां सुधी रागद्वेषनी परंपरा चालु ज रहे छे. भाई! शरीरादि पदार्थो ने शुभाशुभभावो ते ज्ञेय छे, परज्ञेय छे; ते तारां केम थई जाय? एने तुं ज्ञेयपणे न मानतां अन्यथा माने ते अज्ञानभाव छे, अने ज्यां सुधी अज्ञानभाव छे त्यां सुधी रागद्वेषनुं द्वंद्व उत्पन्न थया ज करे छे. परंतु ज्यां ज्ञान ज्ञानस्वभावे थयुं के ज्ञेयो ज्ञेयपणे तेमां प्रतिभास्या अने त्यारे रागद्वेषनी उत्पत्ति अटकी गई. अहाहा....! सम्यग्द्रष्टि धर्मी पुरुषने सम्यग्ज्ञान प्रगट थयुं छे; तेनुं ज्ञान ज्ञानरूप थयुं छे, तेथी मिथ्यात्वसंबंधी रागद्वेष तेने उत्पन्न थता नथी; तेने हवे दीर्घ संसार रह्यो नथी. आवुं! समजाणुं कांई....?
PDF/HTML Page 3423 of 4199
single page version
‘तत् इदं ज्ञानं न्यक्कृत–अज्ञानभावं ज्ञानं भवतु’ माटे आ ज्ञान, अज्ञानभावने दूर करीने, ज्ञानरूप थाओ– ‘येन भाव–अभावौ तिरयन् पूर्णस्वभावः भवति’ के जेथी भाव-अभावने (राग-द्वेषने) अटकावी देतो पूर्णस्वभाव (प्रगट) थाय.
दया, दान, व्रत, भक्ति आदि रागना परिणाम मारा छे, मने हितकारी छे एवी मान्यता अज्ञानभाव छे. आ शरीर, मन, वाणी, ने पुण्य-पापना भाव-ए सर्व परज्ञेय छे, भगवान आत्माना निश्चये कांई पण संबंधी नथी. तथापि तेओ मारा (संबंधी) छे एम मानवुं ते अज्ञानभाव छे. अहीं कहे छे-आवा अज्ञानभावने दूर करीने ज्ञान ज्ञानरूप थाओ. ‘ज्ञानरूप थाओ’ एटले शुं? के अंदर वस्तु त्रिकाळ ध्रुव ज्ञानस्वभावी पोते छे ते ज हुं छुं एवुं ज्ञान प्रगट थाओ. अहाहा...! अज्ञानदशामां शरीरादि परज्ञेय हुं छुं, मारा छे एम मानतो हतो ते हवे त्यांथी खसीने आ ज्ञान.. ज्ञान.. ज्ञान एक जेनो स्वभाव छे ते शाश्वत ध्रुव प्रभु आत्मा ज हुं छुं एम ज्ञान-श्रद्धान थाओ-एम कहे छे. समजाणुं कांई...?
अहो! संतोए-केवळीना केडायती मुनि भगवंतोए-गजबनी वातु करी छे. कहे छे-सर्वने जाणवुं ने सर्वने देखवुं एवो तारो ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव छे. कोई पण पर चीजने पोतानी मानवी एवुं तारुं स्वरूप नथी. चाहे तो व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प हो के देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो राग हो-ए बधो परभाव छे, परज्ञेय छे. तेमां स्वनी बुद्धि करवी ते अज्ञानभाव छे. ज्ञानी तो तेने परज्ञेय तरीके जाणे छे, तेमां स्वामित्वनी बुद्धि करतो नथी. अहाहा...! ज्ञानीना ज्ञानथी राग भिन्न ज पडी गयो होय छे; तेना ज्ञानमां रागनो प्रवेश ज नथी. ज्ञान पोतामां रहीने रागने जाणे छे बस.
भगवान आत्मा त्रिकाळ शाश्वत एक ज्ञानस्वरूपी चीज छे. तेने भूलीने ज्यां सुधी जीव देहादि ने राग-द्वेषादि मारा माने त्यां सुधी अज्ञानभाव छे, अने ज्यां सुधी अज्ञानभाव छे त्यां सुधी राग-द्वेष उत्पन्न थाय छे अने संसार ऊभो रहे छे. आचार्य कहे छे-अज्ञानभावने दूर करीने ज्ञान ज्ञानरूप थाओ ने ज्ञेय ज्ञेयरूप ज रहो -के जेथी भाव-अभावने अर्थात् राग-द्वेषरूप उत्पाद-व्ययने अटकावी देतो पूर्णस्वभाव प्रगट थाय. भाई! राग केवो पण सूक्ष्म होय, ज्यांसुधी ते मारो छे ने मने हितकारी छे एम माने त्यां सुधी अज्ञानभाव छे ने त्यांसुधी जीवने रागद्वेषनुं द्वंद्व प्रगट थया ज करे छे. परंतु जेने पोतानी शुद्ध चैतन्यसत्तानुं अंतरमां भान थयुं छे एवा सम्यग्द्रष्टि धर्मी पुरुषने अज्ञानभाव दूर थयो छे ने हवे तेने अज्ञानमय रागद्वेषनी उत्पत्ति थती नथी. देहादि परज्ञेयोने ते परपणे जाणीने निज ज्ञानस्वभावमां स्थिर थतो जाय छे. आ प्रमाणे ज्ञानस्वभावमां विशेष विशेष रमणता करतो थको ते पूर्णस्वभावने
PDF/HTML Page 3424 of 4199
single page version
अर्थात् केवळज्ञानने प्राप्त थाय छे. अहो! धर्मी पुरुषनी आवी अचिंत्य अलौकिक भावना होय छे.
हवे आमां व्यवहारथी निश्चय थाय ए वात क्यां रही प्रभु? अही तो व्यवहाररत्नत्रयने परज्ञेयमां नाखी दीधां छे. अहाहा.....! जाणनार... जाणनार.... जाणनार बस केवळ जाणवापणे रहेतां केवळज्ञान प्रगट थई जाय छे-एम वात छे.
‘ज्यां सुधी ज्ञान ज्ञानरूप न थाय, ज्ञेय ज्ञेयरूप न थाय, त्यां सुधी रागद्वेष उपजे छे; माटे आ ज्ञान, अज्ञानभावने दूर करीने, ज्ञानरूप थाओ, के जेथी ज्ञानमां जे भाव अने अभावरूप बे अवस्थाओ थाय छे ते मटी जाय अने ज्ञान पूर्णस्वभावने पामी जाय. ए प्रार्थना छे.’
आत्मा नित्य ज्ञानस्वरूपी वस्तु छे; ने रागादि छे ते ज्ञानमां जाणवालायक परज्ञेय छे. अहीं कहे छे-ज्ञान ज्ञानरूप न थाय ने ज्ञेय ज्ञेयपणे न रहे त्यां सुधी रागद्वेष उपजे छे. अहीं मिथ्यात्वसंबंधी रागद्वेषनी वात छे. माटे, कहे छे, आ ज्ञान, अज्ञानभावने दूर करीने, ज्ञानरूप थाओ. अहा! आ ज्ञानस्वभावी शाश्वत शुद्ध चिन्मात्र वस्तु ते ज हुं छुं, रागादि मारां कांई नथी एवी निर्मळ द्रष्टि प्रगट थाओ एम कहे छे. अहाहा....! हुं तो शुद्ध चिन्मात्र आत्मा छुं अने आ जणाय छे ते रागादि ने देहादि मारां कांई नथी. एवी द्रष्टि प्रगट थाओ के जेथी ज्ञानमां जे भाव-अभावरूप बे अवस्थाओ (द्वंद्व) थाय छे ते मटी जाय, अने ज्ञान पूर्णस्वभावने पामी जाय.
अहा! मारो स्वभाव तो त्रिकाळ जाणवापणे ज छे-एम ज्ञान ज्ञानरूप थाय त्यारे धर्मी पुरुषने रागद्वेष उत्पन्न थता नथी. आ रीते रागद्वेष मटी जाय अने स्वस्वरूपनी एकाग्रतानी भावना द्वारा ज्ञान पूर्णस्वभावने प्राप्त थाय -एवी धर्मी पुरुषनी भावना होय छे. धर्मी पुरुषने अस्थिरतानो किंचित् राग थतो होय छे पण तेनो ते ज्ञाता ज रहे छे अने क्रमे करीने ज्ञानस्वभावनी एकाग्रताना पुरुषार्थ वडे तेनो पण ते अभाव करी पूर्ण ज्ञानस्वभावने प्राप्त थई जाय छे. ल्यो, आवी वातु छे.
PDF/HTML Page 3425 of 4199
single page version
दंसणणाणचरत्तिं किंचि वि णत्थि दु अचेदणे विसए। तम्हा कि घादयदे चेदयिदा तेसु विसएसु।। ३६६।। दंसणणाणचरित्तं किंचि वि णत्थि दु अचेदणे कम्मे। तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तम्हि कम्मम्हि।। ३६७।।
दंसणणाणचरित्तं किंचि वि णत्थि दु अचेदणे काए। तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तेसु काएसु।। ३६८।। णाणस्स दंसणस्स य भणिदो घादो तहा चरित्तस्स। ण वि तहिं पोग्गलदव्वस्स को वि घादो दु णिद्दिट्ठो।। ३६९।।
‘ज्ञान अने ज्ञेय तद्दन भिन्न छे, आत्माना दर्शनज्ञानचारित्रादि कोई गुणो परद्रव्योमां नथी’ एम जाणतो होवाथी सम्यग्द्रष्टिने विषयो प्रत्ये राग थतो नथी; वळी रागद्वेषादि जड विषयोमां पण नथी; तेओ मात्र अज्ञानदशामां वर्तता जीवना परिणाम छे. -आवा अर्थनी गाथाओ हवे कहे छेः-
ते कारणे आ आतमा शुं हणी शके ते विषयमां? ३६६.
चारित्र–दर्शन–ज्ञान जरीये नहि अचेतन कर्ममां,
ते कारणे आ आतमा शुं हणी शके ते कर्ममां? ३६७.
चारित्र–दर्शन–ज्ञान जरीये नहि अचेतन कायमां,
ते कारणे आ आतमा शुं हणी शके ते कायमां? ३६८.
छे ज्ञाननो, दर्शन तणो, उपघात भाख्यो चरितनो,
त्यां कांई पण भाख्यो नथी उपघात पुद्गलद्रव्यनो. ३६९.
PDF/HTML Page 3426 of 4199
single page version
तम्हा सम्मादिट्ठिस्स णत्थि रागो दु विसएसु।। ३७०।।
रागो दासो मोहो जीवस्सेव य अणण्णपरिणामा।
एदेण कारणेण दु सद्दादिसु णत्थि रागादी।। ३७१।।
तस्मात्किं हन्ति चेतयिता तेषु विषयेषु।। ३६६।।
दर्शनज्ञानचारित्रं किञ्चिदपि नास्ति त्वचेतने कर्मणि।
तस्मात्किं हन्ति चेतयिता तत्र कर्मणि।। ३६७।।
दर्शनज्ञानचारित्रं किञ्चिदपि नास्ति त्वचेतने काये।
तस्मात्किं हन्ति चेतयिता तेषु कायेषु।। ३६८।।
ज्ञानस्य दर्शनस्य च भणितो घातस्तथा चारित्रस्य।
नापि तत्र पुद्गलद्रव्यस्य कोऽपि घातस्तु निर्दिष्टः।। ३६९।।
गाथार्थः– [दर्शनज्ञानचारित्रम्] दर्शन-ज्ञान-चारित्र [अचेतने विषये तु] अचेतन विषयमां [किञ्चित् अपि] जरा पण [न अस्ति] नथी, [तस्मात्] तेथी [चेतयिता] आत्मा [तेषु विषयेषु] ते विषयोमां [किं हन्ति] शुं हणे (अर्थात् शानो घात करी शके)?
[दर्शनज्ञानचारित्रम्] दर्शन-ज्ञान-चारित्र [अचेतने कर्मणि तु] अचेतन कर्ममां [किञ्चित् अपि] जरा पण [न अस्ति] नथी, [तस्मात्] तेथी [चेतयिता] आत्मा [तत्र कर्मणि] ते कर्ममां [किं हन्ति] शुं हणे? (कांई हणी शक्तो नथी.)
[दर्शनज्ञानचारित्रम्] दर्शन-ज्ञान-चारित्र [अचेतने काये तु] अचेतन कायामां [किञ्चित् अपि] जरा पण [न अस्ति] नथी, [तस्मात्] तेथी [चेतयिता] आत्मा [तेषु कायेषु] ते कायाओमां [किं हन्ति] शुं हणे? (कांई हणी शक्तो नथी.)
ते कारणे विषयो प्रति सुद्रष्टि जीवने राग ना. ३७०.
ते कारणे शब्दादि विषयोमां नहीं रागादि छे. ३७१.
PDF/HTML Page 3427 of 4199
single page version
तस्मात्सम्पग्द्रष्टेर्नास्ति रागस्तु विषयेषु।। ३७०।।
रागो द्वेषो मोहो जीवस्यैव चानन्यपरिणामाः।
एतेन कारणेन तु शब्दादिषु न सन्ति रागादयः।। ३७१।।
[ज्ञानस्य] ज्ञाननो, [दर्शनस्य च] दर्शननो [तथा चारित्रस्य] तथा चारित्रनो [घातः भणितः] घात कह्यो छे, [तत्र] त्यां [पुद्गलद्रव्यस्य] पुद्गलद्रव्यनो [घातः तु] घात [कः अपि] जरा पण [न अपि निर्दिष्टः] कह्यो नथी. (दर्शन-ज्ञान-चारित्र हणातां पुद्गलद्रव्य हणातुं नथी.)
(आ रीते) [ये केचित्] जे कोई [जीवस्य गुणाः] जीवना गुणो छे, [ते खलु] ते खरेखर [परेषु द्रव्येषु] पर द्रव्योमां [न सन्ति] नथी; [तस्मात्] तेथी [सम्यग्द्रष्टेः] सम्यग्द्रष्टिने [विषयेषु] विषयो प्रत्ये [रागः तु] राग [न अस्ति] नथी.
[च] वळी [रागः द्वेषः मोहः] राग, द्वेष अने मोह [जीवस्य एव] जीवना ज [अनन्यपरिणामाः] अनन्य (एकरूप) परिणाम छे, [एतेन कारणेन तु] ते कारणे [रागादयः] रागादिक [शब्दादिषु] शब्दादि विषयोमां (पण) [न सन्ति] नथी.
(रागद्वेषादि सम्यग्द्रष्टि आत्मामां नथी तेम ज जड विषयोमां नथी, मात्र अज्ञानदशामां रहेला जीवना परिणाम छे.)
टीकाः– खरेखर जे जेमां होय ते तेनो घात थतां हणाय ज छे (अर्थात् आधारनो घात थतां आधेयनो घात थाय ज छे), जेम दीवानो घात थतां (दीवामां रहेलो) प्रकाश हणाय छे; तथा जेमां जे होय ते तेनो घात थतां हणाय ज छे (अर्थात् आधेयनो घात थतां आधारनो घात थाय ज छे), जेम प्रकाशनो घात थतां दीवो हणाय छे. वळी जे जेमां न होय ते तेनो घात थतां हणातुं नथी, जेम घटनो घात थतां *घट-प्रदीप हणातो नथी; तथा जेमां जे न होय ते तेनो घात थतां हणातुं नथी, जेम घट-प्रदीपनो घात थतां घट हणातो नथी. (ए प्रमाणे न्याय कह्यो.) हवे, आत्माना धर्मो-दर्शन, ज्ञान अने चारित्र-पुद्गलद्रव्यनो घात थवा छतां हणाता नथी अने दर्शन-ज्ञान-चारित्रनो घात थवा छतां पुद्गलद्रव्य हणातुं नथी (ए तो स्पष्ट छे); माटे ए रीते ‘दर्शन-ज्ञान-चारित्र पुद्गलद्रव्यमां नथी’ एम फलित (सिद्ध) थाय छे; कारण के, जो एम न होय तो दर्शन- ज्ञान-चारित्रनो घात _________________________________________________________________ * घट-प्रदीप = घडामां मूकेलो दीवो. (परमार्थे दीवो घडामां नथी, घडामां तो घडाना ज गुणो छे.)
PDF/HTML Page 3428 of 4199
single page version
तौ वस्तुत्वप्रणिहितद्रशा द्रश्यमानौ न किञ्चित्।
सम्यग्द्रष्टिः क्षपयतु ततस्तत्त्वद्रष्टया स्फुटं तौ
ज्ञानज्योतिर्ज्वलति सहजं येन पूर्णाचलार्चिः।। २१८।।
थतां पुद्गलद्रव्यनो घात, अने पुद्गलद्रव्यनो घात थतां दर्शन-ज्ञान-चारित्रनो घात अनिवार्य थाय (अर्थात् अवश्य थवो जोईए). आम छे तेथी जे कोई जेटला जीवना गुणो छे ते बधाय परद्रव्योमां नथी एम अमे सम्यक् प्रकारे देखीए छीए (-मानीए छीए); कारण के जो एम न होय तो, अहीं पण जीवना गुणोनो घात थतां पुद्गलद्रव्यनो घात, अने पुद्गलद्रव्यनो घात थतां जीवना गुणोनो घात अनिवार्य थाय. (आ रीते सिद्ध थयुं के जीवना कोई गुणो पुद्गलद्रव्यमां नथी.)
(प्रश्नः–) जो आम छे तो सम्यग्द्रष्टिने विषयोमां राग कया कारणे थाय छे? (उत्तरः–) कोई पण कारणे थतो नथी. (प्रश्नः–) तो पछी रागनी कई खाण छे? (उत्तरः–) राग-द्वेष-मोह, जीवना ज अज्ञानमय परिणाम छे (अर्थात् जीवनुं अज्ञान ज रागादिक ऊपजवानी खाण छे); माटे ते रागद्वेषमोह, विषयोमां नथी कारण के विषयो परद्रव्य छे, अने सम्यग्द्रष्टिमां (पण) नथी कारण के तेने अज्ञाननो अभाव छे; आ रीते रागद्वेषमोह, विषयोमां नहि होवाथी अने सम्यग्द्रष्टिने (पण) नहि होवाथी, (तेओ) छे ज नहि.
भावार्थः– आत्माने अज्ञानमय परिणामरूप रागद्वेषमोह उत्पन्न थतां आत्माना दर्शन-ज्ञान-चारित्रादि गुणो हणाय छे, परंतु ते गुणो हणातां छतां अचेतन पुद्गलद्रव्य हणातुं नथी; वळी पुद्गलद्रव्य हणातां दर्शन-ज्ञान-चारित्रादि हणातां नथी; माटे जीवना कोई गुणो पुद्गलद्रव्यमां नथी. आवुं जाणता सम्यग्द्रष्टिने अचेतन विषयोमां रागादि थता नथी. रागद्वेषमोह पुद्गलद्रव्यमां नथी, जीवना ज अस्तित्वमां अज्ञानथी ऊपजे छे; ज्यारे अज्ञाननो अभाव थाय अर्थात् सम्यग्द्रष्टि थाय त्यारे तेओ ऊपजता नथी. आ रीते रागद्वेषमोह पुद्गलमां नथी तेम ज सम्यग्द्रष्टिमां पण नथी, तेथी शुद्धद्रव्यद्रष्टिथी जोतां तेओ छे ज नहि. पर्यायद्रष्टिथी जोतां जीवने अज्ञान-अवस्थामां तेओ छे, ए प्रमाणे जाणवुं.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः– [इह ज्ञानम् हि अज्ञानभावात् राग–द्वेषौ भवति] आ जगतमां ज्ञान ज अज्ञानभावथी रागद्वेषरूपे परिणमे छे; [वस्तुत्व–प्रणिहित–द्रशा द्रश्यमानौ तौ
PDF/HTML Page 3429 of 4199
single page version
नान्यद्र्रव्यं वीक्ष्यते किञ्चनापि।
सर्वद्रव्योत्पत्तिरन्तश्चकास्ति
व्यक्तात्यन्तं स्वस्वभावेन यस्मात्।। २१९।।
किञ्चित् न] वस्तुत्वमां मूकेली (-स्थापेली, एकाग्र करेली) द्रष्टि वडे जोतां (अर्थात् द्रव्यद्रष्टिथी जोतां, ते रागद्वेष कांई ज नथी (-द्रव्यरूप जुदी वस्तु नथी). [ततः सम्यग्द्रष्टिः तत्त्वद्रष्टया तौ स्फुटं क्षपयतु] माटे (आचार्यदेव प्रेरणा करे छे के) सम्यग्द्रष्टि पुरुष तत्त्वद्रष्टि वडे तेमने (रागद्वेषने) प्रगट रीते क्षय करो, [येन पूर्ण–अचल–अर्चिः सहजं ज्ञानज्योतिः ज्वलति] के जेथी, पूर्ण अने अचळ जेनो प्रकाश छे एवी (देदीप्यमान) सहज ज्ञानज्योति प्रकाशे.
भावार्थः– रागद्वेष कोई जुदुं द्रव्य नथी, जीवने अज्ञानभावथी (रागद्वेषरूप परिणाम) थाय छे; माटे सम्यग्द्रष्टि थईने तत्त्वद्रष्टिथी जोवामां आवे तो तेओ (रागद्वेष) कांई पण वस्तु नथी एम देखाय छे, अने घातिकर्मनो नाश थई केवळज्ञान ऊपजे छे. २१८.
‘अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यने गुण उपजावी शक्तुं नथी’ एम हवेनी गाथामां कहेशे; तेनी सूचनारूप काव्य प्रथम कहे छेः-
श्लोकार्थः– [तत्त्वद्रष्टया] तत्त्वद्रष्टिथी जोतां, [राग–द्वेष–उत्पादकं अन्यत् द्रव्यं किञ्चन अपि न वीक्ष्यते] रागद्वेषने उपजावनारुं अन्य द्रव्य जराय देखातुं नथी, [यस्मात् सर्व–द्रव्य–उत्पत्तिः स्वस्वभावेन अन्तः अत्यन्तं व्यक्ता चकास्ति] कारण के सर्व द्रव्योनी उत्पत्ति पोताना स्वभावथी ज थती अंतरंगमां अत्यंत प्रगट प्रकाशे छे,
भावार्थः– रागद्वेष चेतनना ज परिणाम छे. अन्य द्रव्य आत्माने रागद्वेष उपजावी शक्तुं नथी; कारण के सर्व द्रव्योनी उत्पत्ति पोतपोताना स्वभावथी ज थाय छे, अन्य द्रव्यमां अन्य द्रव्यना गुणपर्यायोनी उत्पत्ति थती नथी. २१९.
ज्ञान अने ज्ञेय तद्न भिन्न छे, आत्माना दर्शन-ज्ञान-चारित्रादि कोई गुणो परद्रव्योमां नथी-एम जाणतो होवाथी सम्यग्द्रष्टिने विषयो प्रत्ये राग थतो नथी;
PDF/HTML Page 3430 of 4199
single page version
वळी रागद्वेषादि जड विषयोमां पण नथी; तेओ मात्र अज्ञानदशामां वर्तता जीवना परिणाम छे. -आवा अर्थनी गाथाओ हवे कहे छेः-
‘खरेखर जे जेमां होय ते तेनो घात थतां हणाय ज छे (अर्थात् आधारनो घात थतां आधेयनो घात थाय ज छे), जेम दीवानो घात थतां (दीवामां रहेलो) प्रकाश हणाय छे; तथा जेमां जे होय ते तेनो घात थतां हणाय ज छे (अर्थात् आधेयनो घात थतां आधारनो घात थाय ज छे), जेम प्रकाशनो घात थतां दीवो हणाय छे.’
जुओ, शुं कीधुं? के आधारनो नाश थतां आधेयनो नाश थाय ज छे. जेमके दीवो आधार छे, ने प्रकाश तेनुं आधेय छे; तेथी जो दीवानो नाश थाय तो आधेय जे प्रकाश तेनो नाश थाय ज छे. वळी आधेय हणातां आधार हणाय ज छे, जेमके आधेय जे प्रकाश ते हणातां दीवो हणाय ज छे. हवे कहे छे-
‘वळी जे जेमां न होय ते तेनो घात थतां हणातुं नथी, जेम दीवानो घात थतां घट-प्रदीप हणातो नथी; तथा जेमां जे न होय ते तेनो घात थतां हणातुं नथी, जेम घट- प्रदीपनो घात थतां घट हणातो नथी. (ए प्रमाणे न्याय कह्यो).’
जुओ, आ तमारे नवरात्रमां घडो कोरीने अंदर दीवो मूके छे ने? अहीं कहे छे-बहार घडानो नाश थतां अंदर रहेला दीवानो नाश थतो नथी; अने अंदर दीवानो नाश थतां एटले के दीवो ओलवाई जतां कांई घडानो नाश थतो नथी. केम एम? केमके परमार्थे दीवो घडामां नथी, घडामां तो घडाना ज गुणो छे, ने दीवामां दीवाना गुणो छे. घडो अने दीवो बन्ने भिन्न भिन्न चीजो छे; बे वच्चे वास्तविक आधार- आधेय संबंध नथी.
जुओ अहीं बे वात करीः-
१. दीवानो नाश थतां प्रकाशनो नाश थाय छे, ने प्रकाशनो नाश थतां दीवानो
२. घडानो नाश थतां अंदर रहेला दीवानो नाश थतो नथी, ने अंदर रहेला
कह्यो.
हवे, आत्माना धर्मो-दर्शन ‘ज्ञान अने चारित्र-पुद्गलद्रव्यनो घात थवा छतां
PDF/HTML Page 3431 of 4199
single page version
हणाता नथी अने दर्शन-ज्ञान-चारित्रनो घात थवा छतां पुद्गलद्रव्य हणातुं नथी (ए तो स्पष्ट छे); माटे ए रीते दर्शन-ज्ञान-चारित्र पुद्गलद्रव्यमां नथी एम फलित (सिद्ध) थाय छे; कारण के जो एम न होय तो दर्शन-ज्ञान-चारित्रनो घात थतां पुद्गलद्रव्यनो घात, अने पुद्गलद्रव्यनो घात थतां दर्शन-ज्ञान-चारित्रनो घात अनिवार्य थाय (अर्थात् अवश्य थवो जोईए).’
जुओ, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ते आत्माना धर्मो छे. अहाहा....! भगवान आत्मा नित्यानंद प्रभु सदा ज्ञानस्वरूपी छे. तेनी अंतर्द्रष्टि थई प्रतीति थवी ते सम्यग्दर्शन छे, तेनुं ज्ञान ते सम्यग्ज्ञान छे ने तेमां रमणता थाय ते चारित्र छे. आ प्रमाणे आत्माना आश्रये प्रगट थयेलां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ते आत्माना धर्मो कहेतां आत्मानी निर्मळ वीतरागी पर्याय छे. हवे कहे छे-शरीरनो घात थई जाय, शरीर जीर्ण थाय, ने वाणी बंध थई जाय इत्यादि जडनी क्रिया थाय एथी करीने आत्माना आश्रये प्रगट थयेलां दर्शन-ज्ञान-चारित्रनो घात थई जाय छे शुं? ना, नथी थतो; केमके शरीर भिन्न चीज छे, ने आत्माना धर्मो-दर्शन-ज्ञान-चारित्र भिन्न चीज छे. शरीरनी क्रिया न थई तेथी कांई आत्माना दर्शन-ज्ञान-चारित्रनो घात थई जाय एम छे नहि; केमके ए बन्नेने (आधार-आधेय) संबंध नथी. शरीरनी क्रिया न थई शके तो शरीरनो घात थाय, पुद्गलनो त्यां घात थाय, पण तेनाथी आत्माना कोई धर्मो हणाता नथी. समजाय छे कांई....!
हुं ज्ञाता-द्रष्टा छुं-एवी द्रष्टि छोडीने हुं राग छुं, पुण्य-पापभावोनो हुं कर्ता छुं, पुण्यभाव मारुं कर्तव्य छे, एनाथी मारुं हित-कल्याण छे इत्यादि माननार जीव मिथ्याद्रष्टि छे अने तेने दर्शन-ज्ञान-चारित्र-धर्मोनो घात थई रह्यो छे. हवे कहे छे-आ रीते पोताना दर्शन-ज्ञान-चारित्रनो घात थवा छतां बहारमां शरीरनी क्रियानो -गुप्ति, समिति, महाव्रत आदि संबंधी क्रियानो-शुं घात थाय ज छे? ना, नथी थतो. तेने दर्शन- ज्ञान-चारित्र-धर्मोनो घात थवा छतां बहारमां शरीरनी क्रिया एवी ने एवी थती होय छे; केमके शरीरनी क्रिया ने आत्माना धर्मोने परस्पर कांई संबंध नथी, बन्ने भिन्न भिन्न ज छे. आवी सूक्ष्म वात छे भाई!
शरीरनी प्रवृत्ति एवी ने एवी थती होय, पंचमहाव्रत, गुप्ति, समिति इत्यादि बधी व्यवहारनी क्रिया बराबर थती होय छतां अंदरमां राग मारो (ईष्ट) छे एवुं शल्य होतां आत्माना ज्ञान-दर्शन-चारित्र-धर्मोनो घात थतो होय छे. अहीं एम सिद्ध करवुं छे के पांच ईन्द्रियना विषयो पर पदार्थ छे, देव-गुरु-शास्त्र पण पर पदार्थ छे; ने परद्रव्यमां-परपदार्थमां रागद्वेष नथी. वळी निजस्वभावमां पण रागद्वेष नथी. पण अरे! जीव पोताना स्वभावनो घात पोताना अज्ञानथी करे छे.
PDF/HTML Page 3432 of 4199
single page version
रागद्वेष ते अज्ञानदशामां वर्तता जीवना परिणाम छे. अहीं कहे छे- पोताना गुणोनो घात थतां परनो-पुद्गलादिनो घात थई जाय एम नथी, तथा परनो-पुद्गलादिनो घात थतां पोताना गुणोनो घात थई जाय एम पण नथी.
शरीरनी क्रिया बराबर होय तो दर्शन-ज्ञान-चारित्र टके छे एम छे नहि. जरी सूक्ष्म वात छे प्रभु! जुओ, शरीरनी क्रिया न करी शके अने पोताना दर्शन-ज्ञान- चारित्र-धर्मो तो टकी रहे; त्यां पुद्गलनो घात तो थयो पण पोताना धर्मोनो घात न थयो वळी शरीरनी क्रिया बहारमां बराबर होय, छतां ए बहारनी क्रियाथी मने लाभ छे एम माने तेने पोताना धर्मोनो-दर्शन-ज्ञान-चारित्रनो घात थाय ज छे. अहाहा....! बहारमां शरीरनी-कायोत्सर्ग ने उपवास आदि क्रिया ने वाणीनी क्रिया एवी ने एवी थती होय छतां अज्ञानी विपरीतद्रष्टि जीवने पोताना गुणोनो घात थाय ज छे. आवी वात! कोईने आकरी लागे पण आ सत्य वात छे.
बहारनी प्रवृत्ति ज देखाय छतां आनंदनो नाथ प्रभु आत्मानी स्वसन्मुख प्रतीति, ज्ञान ने रमणता वर्तती होय तो तेने पोताना धर्मोनो घात थतो नथी. आथी आ स्पष्ट थयुं के व्रत, तप, भक्ति आदिना विकल्पो ते आत्माना धर्मो नथी. (केमके व्रत, तप आदिना अभावमां पण आत्माना धर्मोनो घात थतो नथी, ने तेमना सद्भावमां पण आत्माना धर्मोनो घात थतो जोवामां आवे छे.) वास्तवमां स्वस्वरूप शुद्ध चिद्रूपस्वरूप प्रभु आत्मानी अंतर-द्रष्टि थतां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट थाय ते ज आत्माना धर्मो छे; अने तेने बहारमां शरीरनी ने व्रतादि रागनी क्रियानी कोई अपेक्षा नथी.
अहीं तो एक कोर भगवान आत्माराम पोते स्व अने बीजी कोर आखुं गाम- शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय, शुभाशुभ रागादिभाव-ए बधुंय परद्रव्य छे. ए परद्रव्यमां, कहे छे, आत्मानो स्वभाव नथी. तेथी परनो घात थतां पोताना स्वभावनो-ज्ञानादि गुणोनो घात थतो नथी. अहाहा.....! जेम घडानो नाश थतां दीवानो नाश थतो नथी, ने दीवानो नाश थतां घडानो नाश थतो नथी, तेम, कहे छे-आ भगवान आत्मा ज्ञानप्रकाशनुं बिंब प्रभु चैतन्यदीवो छे. तेना आश्रये दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी जे निर्विकल्प दशा थई तेनो, शरीरादिरूप घडानो घात थवा छतां, घात थतो नथी; तथा शरीरनी क्रिया ने रागनी क्रिया मारी छे एवी अज्ञानमय मान्यता वडे एना दर्शन-ज्ञान-चारित्र- गुणोनो घात थाय छे तेवे प्रसंगे ए शरीरादिनी क्रियानो घात थाय ज छे एम होतुं नथी. अहो! आ तो जैन परमेश्वरे कहेलुं कोई अचिंत्य अलौकिक तत्त्व आचार्यदेवे जाहेर कर्युं छे.
PDF/HTML Page 3433 of 4199
single page version
ल्यो, आम न्यायथी-लोजीकथी सिद्ध करे छे के- ‘माटे ए रीते दर्शन-ज्ञान-चारित्र पुद्गलद्रव्यमां नथी एम सिद्ध थाय छे; कारण के जो एम न होय तो दर्शन-ज्ञान- चारित्रनो घात थतां पुद्गलद्रव्यनो घात अने पुद्गलद्रव्यनो घात थतां दर्शन-ज्ञान-चारित्रनो घात अनिवार्य थाय (अर्थात् अवश्य थवो जोईए).’
अहा! जीवने जे राग-द्वेष-मोहना भाव उत्पन्न थाय छे ते पोताना शुद्ध आनंदकंद प्रभु आत्माना भानना अभावथी एटले के अज्ञानथी उत्पन्न थाय छे. राग- द्वेष-मोह परद्रव्यथी उत्पन्न थता नथी, पोताना स्वद्रव्यथी पण उत्पन्न थता नथी; केमके परद्रव्य पोताना स्वभावथी भिन्न छे अर्थात् पोताना स्वभावो परद्रव्यमां छे नहि, अने पोतानुं स्वद्रव्य तो सदाय शुद्ध चैतन्यमय वीतरागस्वभावमय छे. अहीं आ सिद्ध करवुं छे के-परद्रव्यमां पोताना रागद्वेषमोह नथी अने परद्रव्यथी तेओ उत्पन्न थाय छे एम पण नथी; पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपना भानना अभावथी, अज्ञानथी, राग-द्वेष-मोहना भावो उत्पन्न थाय छे. आवी वात छे.
शरीरनी क्रिया अने शुभ व्रतादिनां अनुष्ठान न थई शके एमां तो पुद्गलनो घात थाय छे, तेथी करीने कांई आत्माना धर्मोनो घात थाय एम छे नहि; केमके आत्मा अने पुद्गल भिन्न चीज छे. भाई! जीवने जे सम्यग्ज्ञान उत्पन्न थाय छे ए कांई सांभळवाथी, ईन्द्रियोथी, भावइन्द्रियथी के शुभरागथी थाय छे एम नथी; परंतु पोताना स्वस्वरूपना-चैतन्यचिंतामणि प्रभु आत्माना-आश्रये दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट थाय छे.
सम्यग्ज्ञान (मति-श्रुतज्ञानने) तत्त्वार्थसूत्रमां परोक्ष कह्युं छे ने?
हा, कह्युं छे; पण ए तो अपेक्षाथी वात करी छे, अंदर प्रत्यक्षपणानो भाव गौणपणे रह्यो ज छे. भाई! सम्यग्ज्ञान आत्माना लक्षे उत्पन्न थाय छे. अहीं कहे छे- आत्मज्ञान-सम्यग्ज्ञान जे प्रगट थयुं तेनो ईन्द्रियना घातथी कांई घात थतो नथी, तथा मन-ईन्द्रिय बराबर होय तेटला मात्रथी आत्मानुं ज्ञान प्रगट थाय छे एम पण नथी.
अरे! लोकोने मन एवो भ्रम घर करी गयो छे के शरीरनी क्रिया ने व्रत-तप आदि रागनी क्रियाथी धर्म-संवर थाय छे. पण बापु! एम छे नहि. जुओ, शुं कहे छे? के घटनो नाश थतां घट-दीपकनो नाश थतो नथी; तेम ईन्द्रियो अने व्रतादिनी क्रियानो घात थतां कांई अंतरंग आत्माना दर्शन-ज्ञान-चारित्रनो नाश थतो नथी. वळी व्रतादिनी बाह्य क्रियाओ एवी ने एवी होवा छतां अज्ञानने कारणे दर्शन-ज्ञान-चारित्रनो घात थतो होय छे, जेम घट एवो ने एवो होय छे छतां
PDF/HTML Page 3434 of 4199
single page version
घट दीपकनो नाश थतो होय छे. भाई! व्रत-तप-भक्ति इत्यादिना परिणाम पुद्गलना परिणाम छे अने तेमां आत्माना दर्शन-ज्ञान-चारित्रना धर्मो समाता नथी. तेथी पुद्गलनी क्रियाथी आत्मानो स्वभाव उत्पन्न थाय एम कदीय बने नहि; बाह्य व्रत- तपनी क्रियाथी आत्मानुं चारित्र प्रगटे एम कदीय छे नहि. आवी वात छे. हवे कहे छे-
‘आम छे तेथी जे कोई जेटला जीवना गुणो छे ते बधाय परद्रव्योमां नथी. अमे अमे सम्यक् प्रकारे देखीए छीए (-मानीए छीए); कारण के जो एम न होय तो, अहीं पण जीवना गुणोनो घात थतां पुद्गलद्रव्योनो घात, अने पुद्गलद्रव्यनो घात थतां जीवना गुणोनो घात अनिवार्य थाय. (आ रीते सिद्ध थयुं के जीवना कोई गुणो पुद्गलद्रव्यमां नथी).’
अहाहा.....! कहे छे- ‘आम छे तेथी... , अर्थात् पुद्गलनो घात थतां जीवना गुणोनो घात थतो नथी, ने जीवना गुणोनो घात थतां पुद्गलनो घात थतो नथी-आम छे तेथी जे कोई जेटला जीवना गुणो छे ते बधाय परद्रव्योमां नथी. शुं कीधुं? आत्मामां अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख, आनंद, शांति, स्वच्छता, प्रभुता इत्यादि अनंत शक्तिओ- गुणो छे. ते बधा, कहे छे, परद्रव्योमां नथी. आ शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय ने व्रतादिना विकल्पोमां जीवना कोई गुणो नथी. जो एम न होय तो एकनो घात थतां बीजानो घात अनिवार्य थाय. पण एम थतुं नथी.
भाई! आ बधुं समजवुं पडशे हों; आत्मानी समजण करवानो आ अमूल्य अवसर छे. भाई! आ अवसर चाल्यो जाय छे हों. आ बहारनी लक्ष्मी ने आबरू ए तो कांई नथी, ने आ व्रत-तप-भक्ति इत्यादि बधो राग छे, थोथां छे. लोको वाडामां पडया छे तेमने सत्य शुं छे ए बिचाराओने सांभळवा मळ्युं नथी. अहीं कहे छे-व्रत, तप, भक्ति आदिना परिणाम पुद्गलनी क्रिया छे ने तेमां चैतन्यनो स्वभाव-गुण नथी. जीवना जेटला गुणो छे ते बधाय ते व्रतादिनी क्रियामां नथी, अने जीवना गुणोमां ए व्रतादिनी क्रिया नथी.
अहाहा....! पोताना कोई गुणो परद्रव्यमां नथी. भाई! आ तो टूंका शब्दोमां बधुं घणुं भरी दीधुं छे. अहाहा.....! आचार्य भगवंत एम कहे छे के-वीतराग जिनस्वरूप प्रभु अमारो आत्मा छे, तेना आश्रये जे निर्मळ सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्र-गुणो अमने प्रगट थया छे ते परद्रव्यमां अर्थात् व्रतादिरूप व्यवहाररत्नत्रयमां छे ज नहि एम सम्यक् प्रकारे अमे देखीए छीए, मानीए छीए. भाई! आ तो जैन परमेश्वरना पेटनी वातो दिगंबर संतो खुल्ली करे छे; कहे छे-अमारा कोई गुणो परद्रव्यमां नथी एम देखीने अमे मानीए छीए.
PDF/HTML Page 3435 of 4199
single page version
अरे! ज्यां आत्माना गुणो छे त्यां नजर करतो नथी, ने ज्यां आत्माना गुणो नथी त्यां अनंतकाळथी नजर कर्या करे छे! आखो दि’ वेपार करवामां ने भोग भोगववामां ने बायडी-छोकरां साचववामां-एम पापनी क्रियामां गुमावी दे छे पण एनां फळ बहु माठां आवशे भाई! बीजाने (-पुत्रपरिवारने) राजी करवामां ने बीजाथी राजी थवामां बधो वखत वेडफी काढे पण एनुं फळ बहु आकरुं आवशे प्रभु!
अरे भाई! कोण दीकरो ने कोण बाप? शुं आत्मा कदी दीकरो छे? बाप छे? ए तो बधो जूठो लौकिक व्यवहार बापा! ए बहारनी कोई चीज तारामां आवती नथी, ने तुं ए चीजमां कदीय जतो नथी. माटे परद्रव्य उपरथी द्रष्टि खसेडी ले ने ज्यां पोताना गुणो छे एवा गुणधाम-सुखधाम प्रभु आत्मामां द्रष्टि लगावी दे. आ एक ज सुखनो उपाय छे, अने ए ज कर्तव्य छे. समजाय छे कांई...?
अहाहा...! आत्मा अनंतगुणनो पिंड प्रभु छे. एना कोई गुण परद्रव्यमां एटले देहादि ने रागादिमां नथी. शुं कीधुं? आ उपवास, ब्रह्मचर्य आदि देहनी क्रियामां ने व्रत- तप आदि रागनी क्रियामां भगवान आत्माना कोई गुणो नथी. तो पछी देहादि ने व्रतादि साधन वडे आत्माना गुण केम प्रगटे? व्यवहार करतां करतां निश्चय केम प्रगटे? भाई! ए बधा व्यवहारना भाव तो भवना भाव छे बापु! एनाथी भव मळशे, भवनो अंत नहि आवे, एमां नवीन शुं छे? ए तो अनंतकाळथी तुं करतो आव्यो छे. ए क्रियाना विकल्पो तारा भवना अंतनो उपाय नथी भाई! संतो कहे छे-आत्माना गुणो परद्रव्यमां छे ज नहि; अर्थात् आत्माना गुणो आत्मामां ज छे. माटे आत्मामां लक्ष कर, तेथी तने आत्माना गुणोनी-दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी प्राप्ति थशे.
अहीं तो एक कोर आत्मा ने एक कोर आखुं जगत-एम बे भाग पाडी दीधा छे. कहे छे-आत्माना गुणो परद्रव्यमां नथी. माटे परद्रव्यथी हठी जा ने स्वद्रव्यमां द्रष्टि कर. स्वद्रव्यना लक्षे परिणमतां तने निर्मळ रत्नत्रयनी-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी प्राप्ति थशे. भाई! तारी द्रष्टिनो विषय एक तुं ज छो, देहेय नहि, रागादिय नहि ने एक समयनी विकारी-निर्विकारी पर्याय पण नहि. माटे द्रष्टि स्वस्वरूपमां लगावी दे. बस. आ एक ज करवा जेवुं छे. समजाणुं कांई....? भाई! अंतर्द्रष्टि विना बहारथी व्रतादि धारण करे पण ए मार्ग नथी, ए तो संसार ज संसार छे. आवी वात आकरी लागे पण आ सत्य वात छे. हवे कहे छे-
प्रश्नः– जो आम छे तो सम्यग्द्रष्टिने राग कया कारणे थाय छे? उत्तरः– कोई पण कारणे थतो नथी.
PDF/HTML Page 3436 of 4199
single page version
प्रश्नः– तो पछी रागनी कई खाण छे? उत्तरः– राग-द्वेष-मोह, जीवना ज अज्ञानमय परिणाम छे (अर्थात् जीवनुं
जुओ, शिष्य प्रश्न करे छेः एम के परमां आत्माना गुण नथी, परमां आत्माना अवगुण नथी, तो पछी सम्यग्द्रष्टिने विषयोमां राग कया कारणे थाय छे?
तो कहे छे -सांभळ! ज्ञानीने कोई परना कारणे राग थतो नथी. ज्ञानीने पांच ईन्द्रियना विषयमां लक्ष जाय त्यारे किंचित् राग थाय छे; पण तेने राग कहेता नथी, केमके मिथ्यात्व संबंधीनो राग थाय तेने ज राग कहेवामां आवे छे. पोतानी चैतन्यसत्ताने भूलीने परने पोतानुं माने, परथी-व्रतादिथी पोतानुं हित थवुं माने एवा मिथ्याद्रष्टिने रागद्वेष उत्पन्न थाय छे; ज्ञानीने ते होता नथी.
तो पछी रागनी कई खाण छे? सांभळ भाई! रागद्वेषमोह ए जीवना ज अज्ञानमय परिणाम छे, अर्थात् जीवनुं स्वस्वरूप संबंधी अज्ञान ज रागादिक उपजवानी खाण छे. आवी वात छे भाई! ए राग परद्रव्यथी नहि, स्वद्रव्यथी नहि; पोतानो अज्ञानभाव ज रागनी खाण छे. समजाय छे कांई....! हवे कहे छे-
‘माटे ते रागद्वेषमोह विषयोमां नथी कारण के विषयो परद्रव्य छे, अने सम्यग्द्रष्टिमां (पण) नथी कारण के तेने अज्ञाननो अभाव छे; आ रीते रागद्वेषमोह, विषयोमां नहि होवाथी अने सम्यग्द्रष्टिने (पण) नहि होवाथी, (तेओ) छे ज नहि.’
अहा! आवुं (समजवुं) तो बहु कठण पडे. कठण पडे? शुं कठण पडे? भाई! आमां न समजाय एवुं तो कांई छे नहि. समजणनो पिंड प्रभु पोते ने न समजाय एम केम बने? पण आ समजवा माटे निवृत्ति तो लेवी जोईए ने! आ सरकारी नोकरो तो पंचावन वर्षनी उंमरे रीटायर्ड-निवृत्त थई जाय, पण आ धंधापाणीना रसिया तो ७०-८० वर्षना थाय छतां धंधानो रस न छोडे अने कहे के शें समजाय? पण भाई! आवुं वीतरागनुं तत्त्व समजवा माटे तो खास निवृत्ति लेवी पडशे. अहाहा...! आत्मा अंदरमां सदा रागथी भिन्न चैतन्यस्वरूप, निवृत्तस्वरूप प्रभु छे. परथी तो ते निवृत्त ज छे, पण अंतरस्वरूपनी द्रष्टि करी रागथी निवृत्त थतां ते पर्यायमां निवृत्त थाय छे अने तेनुं नाम निवृत्ति छे. समजाणुं कांई...? हवे एणे कोई दि’ विचार ज कर्यो नथी ने!
PDF/HTML Page 3437 of 4199
single page version
हा, पण ज्ञानीने पण राग तो थतो देखाय छे? अरे प्रभु! तने खबर नथी भाई! ज्ञानीने रागद्वेष छे ज नहि, केमके रागद्वेष तो अज्ञानथी उत्पन्न थाय छे, ते अज्ञाननी ओलाद छे, अने ज्ञानीने अज्ञान नथी. अहा! जेने स्वनुं लक्ष ज थयुं नथी एवा अज्ञानी जीवने, जेमां पोताना गुण नथी एवा परद्रव्योनुं लक्ष करवाथी अज्ञानना कारणे राग-द्वेष उत्पन्न थाय छे. वास्तवमां स्वद्रव्यथी नहि, परद्रव्यथी पण नहि, पण परथी ने रागथी मने लाभ छे अने ते (-पर अने राग) मारुं कर्तव्य छे एवा अज्ञानथी रागद्वेष उत्पन्न थाय छे.
भाई! परद्रव्यमां रागद्वेष नथी; परमां तारा गुण नथी, अवगुण पण नथी. परंतु शुद्ध चिदानंद चैतन्यचमत्कार निज आत्माने भूलीने, विकारने पोतानुं स्व माने छे ते महा विपरीतता ने अज्ञान छे अने ते अज्ञानथी ज रागद्वेष उत्पन्न थाय छे. अहाहा....! संतो कहे छे-अमारा कोई गुण अमे परद्रव्यमां देखता नथी, तो अमने रागद्वेष केम उत्पन्न थाय?
अहा! त्रिकाळी ध्रुव आनंदकंद प्रभु पोते-तेनुं लक्ष छोडीने एक समयनी पर्याय जेवडो पोताने माने ते अज्ञान छे अने ते अज्ञान ज राग-द्वेषनी खाण छे. परद्रव्य नहि, स्वद्रव्य नहि, परंतु पर्यायबुद्धि ज रागद्वेषनी खाण छे. अहाहा....! आचार्य कहे छे-रागद्वेषमोह विषयोमां नथी केमके विषयो परद्रव्य छे, ने राग-द्वेष-मोह सम्यग्द्रष्टिमां नथी केमके तेने अज्ञाननो अभाव छे. माटे, कहे छे, तेओ छे ज नहि. ल्यो, आवी वात! एम के अज्ञानभावने छोडीने राग-द्वेष-मोह कयांय छे ज नहि. समजाय छे कांई....?
अहा! धर्मी जीव जे सम्यग्द्रष्टि थयो तेने रागद्वेष नथी. किंचित् रागादि थाय छे ते तो ज्ञेयपणे छे. झीणी वात छे प्रभु! धर्मीनी द्रष्टि तो त्रिकाळी स्वद्रव्य पर छे; अने स्वद्रव्यमां क्यां रागद्वेष छे? नथी; वळी परद्रव्यमां पण राग-द्वेष-मोह नथी, अने परद्रव्यनी धर्मीने द्रष्टि पण नथी, माटे सम्यग्द्रष्टिने रागद्वेषमोह केम होय? न ज होय. तेथी आचार्य कहे छे- ‘तेओ (रागद्वेषमोह) छे ज नहि.’ किंचित् रागद्वेष छे ए तो धर्मीने ज्ञानना ज्ञेयपणे छे; तेनुं एने स्वामित्व नथी. माटे ज्ञानीने राग-द्वेष-मोह नथी. आवी वात छे.
अरे! आ समज्या विना बधो काळ विषय-कषायनी प्रवृत्तिमां वीती जाय, पण कह्युं छे ने के-
बाळपण खेलमें खोया, जुवानी स्त्री विषे मोह्या; बूढापा देखके रोया....;
PDF/HTML Page 3438 of 4199
single page version
भाई! स्वरूपनी समजण कर्या विना आवा भूंडा हाल थाय बापा! ए तो दोलतरामजीए पण छहढालामां कह्युं छे -
भाई! हमणां ज चेती जा, नहितर.... ... (एम के नहि चेते तो स्वरूपनी समजण विना अनंतकाळ तीव्र दुःखमां रखडवुं पडशे).
‘आत्माने अज्ञानमय परिणामरूप राग-द्वेष-मोह उत्पन्न थतां आत्माना दर्शन- ज्ञान-चारित्रादि गुणो हणाय छे, परंतु ते गुणो हणातां छतां अचेतन पुद्गलद्रव्य हणातुं नथी; वळी पुद्गलद्रव्य हणातां दर्शन-ज्ञान-चारित्रादि हणातां नथी; माटे जीवना कोई गुणो पुद्गलद्रव्यमां नथी.’
जीवने जे पुण्य-पापना परिणाम थाय छे ते अज्ञानमय परिणाम छे, केमके तेमां चैतन्यनो अंश नथी. ते अज्ञानमय परिणामरूप राग-द्वेष-मोह उत्पन्न थतां आत्माना दर्शन-ज्ञान-चारित्र-गुणोनो घात थाय छे. ते गुणो हणातां छतां, कहे छे, अचेतन पुद्गलद्रव्यनो घात थतो नथी. अहाहा....! आत्माना गुणोनो घात थवा छतां बहारमां शरीरनी क्रियानो घात थई जाय के व्रतादि विकल्पनो नाश थई जाय एम छे नहि-एम कहे छे.
वळी पुद्गलद्रव्यनो घात थतां आत्माना गुणोनो घात थतो नथी. शुं कीधुं? पुद्गलद्रव्य नाम शरीरादिनी क्रिया ने व्रतादिना विकल्पनो घात थतां जीवना दर्शन-ज्ञान- चारित्र-गुणोनो नाश थतो नथी. माटे, कहे छे, जीवना कोई गुणो पुद्गलद्रव्यमां नथी. आ व्रत, तप, दया, दान आदि बधा पुद्गलना परिणाम छे; तेमां आत्माना कोई गुणो नथी. हवे कहे छे-
‘आवुं जाणता सम्यग्द्रष्टिने अचेतन विषयोमां रागादि थता नथी.’ अहाहा....! परद्रव्यमां पोताना कोई गुणो नथी एवुं जाणता सम्यक्द्रष्टिने, परमां द्रष्टि नहि होवाथी, अचेतन विषयोमां रागादि थता नथी. व्रतादि रागनी क्रियामां पण एने राग-प्रेम थतो नथी. ल्यो, आवी वात! हवे कहे छे-
‘राग-द्वेष-मोह पुद्गलद्रव्यमां नथी, जीवना ज अस्तित्वमां अज्ञानथी उपजे छे; ज्यारे अज्ञाननो अभाव थाय अर्थात् सम्यग्द्रष्टि थाय त्यारे तेओ उपजतां नथी. आ रीते रागद्वेषमोह पुद्गलमां नथी तेम ज सम्यग्द्रष्टिमां पण नथी, तेथी
PDF/HTML Page 3439 of 4199
single page version
शुद्ध द्रव्यद्रष्टिथी जोतां तेओ छे ज नहि. पर्यायद्रष्टिथी जोतां जीवने-अज्ञान अवस्थामां तेओ छे-ए प्रमाणे जाणवुं.’
जुओ, आ सरवाळो कीधो; शुं? के वीतरागमूर्ति आनंदघन प्रभु आत्माने शुद्धद्रव्यद्रष्टिथी-अंतरद्रष्टिथी जोतां राग-द्वेष-मोह छे ज नहि. अहाहा....! द्रव्यद्रष्टिवंतने -धर्मीपुरुषने, कहे छे, रागद्वेषमोह छे ज नहि, केमके तेने अज्ञान नथी. परंतु वर्तमान पर्याय उपर जेनी द्रष्टि छे, अंश उपर जेनी द्रष्टि छे तेवा पर्यायद्रष्टि जीवने रागद्वेषमोह उत्पन्न थाय छे. बहारमां कोई भले महाव्रतादिनुं पालन करतो होय, पण एनाथी पोताने लाभ छे एम जो मानतो होय तो ते पर्यायद्रष्टि मूढ छे, अने तेने अज्ञानना कारणे राग-द्वेष-मोह अवश्य थाय छे. माटे पर्यायबुद्धि छोडी, हे भाई! द्रव्यद्रष्टि प्रगट कर. आ ज तारा हितनो-कल्याणनो उपाय छे.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘इह ज्ञानम् हि अज्ञानभावात् राग–द्वेषौ भवति’ आ जगतमां ज्ञान ज अज्ञानभावथी राग-द्वेषरूपे परिणमे छे; ‘वस्तुत्व–प्रणिहित–दशा द्रश्यमानौ तौ किञ्चित् न’ वस्तुत्वमां मूकेली (-स्थापेली, एकाग्र करेली) द्रष्टि वडे जोतां (अर्थात् द्रव्यद्रष्टिथी जोतां), ते रागद्वेष कांई ज नथी (-द्रव्यरूप जुदी वस्तु नथी).
‘आ जगतमां ज्ञान ज अज्ञानभावथी रागद्वेषरूपे परिणमे छे.’ -झीणी वात छे प्रभु! अंदर आत्मा छे ते ज्ञानपुंज प्रभु चैतन्य.... चैतन्य... चैतन्यशक्तिनो रसकंद छे. दया, दान आदि पुण्यभाव ने हिंसा, जूठ आदि पापना भाव-ते आत्मामां नथी. शुं कीधुं? रागद्वेषना भाव, पुण्य-पापना भाव ते शुद्ध चैतन्यवस्तुमां नथी. अहा! आवो आत्मा, कहे छे, अज्ञानभावथी रागद्वेषरूपे थाय छे, परिणमे छे. जेने पोतानी शुद्ध चैतन्यसत्ता के जेने एक ज्ञायकभाव, ध्रुवभाव, एक सामान्यभाव, नित्यभाव, पंचम पारिणामिकभाव कहीए तेनुं भान नथी ते जीव अज्ञानभावथी पुण्य ने पाप अने राग ने द्वेषना भावरूपे परिणमे छे. अहाहा....! पोते निजस्वभावथी रागद्वेषरूपे परिणमतो नथी, ने कर्मने लईने रागद्वेषरूपे परिणमे छे एम पण नथी, परंतु पोतानी वस्तुना स्वरूपनुं अज्ञान छे, अभान छे-ते अज्ञानने लईने पोते रागद्वेषरूपे परिणमे छे. समजाणुं कांई...?
आ शरीर तो जड माटी-धूळ छे, अने कर्म पण जड माटी-धूळ छे. ए तो आत्मामां छे नहि. वळी एकेक ईन्द्रियना विषयने जाणे एवी जे खंडखंड भाव-
PDF/HTML Page 3440 of 4199
single page version
इन्द्रिय-ज्ञाननी खंडखंड पर्याय-ते पण त्रिकाळी ध्रुव वस्तुमां नथी. त्रिकाळी वस्तु तो अखंड, अभेद, एक ज्ञायकभावरूप छे. ते ज्ञायक वस्तुमां रागद्वेष नथी, संसार नथी, उदयभाव नथी.
तो पछी आ रागद्वेष उत्पन्न थाय छे केम? तो कहे छे-पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपनुं भान नथी एवा अज्ञानने कारणे जीवने रागद्वेष उत्पन्न थाय छे. अहाहा....! हुं कोण छुं? मारुं स्वरूप शुं छे? अने मारुं कर्तव्य शुं? इत्यादिनुं भान नहि होवाथी अज्ञानवश एने रागद्वेष उत्पन्न थाय छे. अहीं मिथ्यात्व संबंधीना जे रागद्वेष छे तेने ज रागद्वेष गणवामां आव्या छे. समकित थया पछी रागादि थाय छे तेनी अहीं गणत्री नथी. अहाहा....! भगवाने जगतमां छ द्रव्य जोयां छे; तेमां आत्मा चैतन्यनी द्रष्टिना अभावरूप अज्ञानभावथी रागद्वेषरूपे परिणमे छे एम जोयुं छे. समजाय छे कांई....? हवे कहे छे-
वस्तुत्वमां मूकेली-एकाग्र करेली द्रष्टि वडे जोतां अर्थात् द्रव्यद्रष्टिथी जोतां ते ‘रागद्वेष ‘किञ्चित् न्’ कांई ज नथी. जोयुं? पर्याय ज पोतानुं स्वरूप छे एम देखनारा पर्यायद्रष्टि जीवोने रागद्वेष उत्पन्न थाय छे, परंतु वस्तु पोते त्रिकाळी ध्रुव चिदानंदघन प्रभु पोते छे तेमां एकाग्र करेली अंर्तद्रष्टिवडे जोतां, कहे छे, रागद्वेष कांई ज नथी. अहाहा....! आत्मा शुद्ध एक चैतन्यवस्तु छे तेने अंतरनी एकाग्रद्रष्टिथी देखतां धर्म- वीतरागता प्रगट थाय छे, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट थाय छे. तेने रागद्वेष कांई ज नथी. अहा! ‘सिद्ध समान सदा पद मेरो’ -एवी चीज पोते आत्मा छे, पण अरे! एने एनी खबर नथी! शुं थाय? पोते जिनस्वरूप अंदर भगवान छे एना भान विना अज्ञानथी तेने रागद्वेष निरंतर उपज्या ज करे छे. जो पोताना पूरण ज्ञानानंदमय भगवानस्वरूपनी द्रष्टि करे तो रागद्वेष कांई ज नथी, केमके रागद्वेष कांई द्रव्यरूप जुदी वस्तु नथी; द्रव्यद्रष्टिमां रागद्वेष देखाता नथी. माटे आचार्यदेव प्रेरणा करी कहे छे के-
‘ततः सम्यग्द्रष्टिः तत्त्वद्रष्टया तौ स्फुटं क्षपयतु’ माटे सम्यग्द्रष्टि पुरुष तत्त्वद्रष्टि वडे तेमने (रागद्वेषने) प्रगट रीते क्षय करो, ‘येन पूर्ण–अचल–अर्चिः सहजं ज्ञान– ज्योतिः ज्वलति’ के जेथी, पूर्ण अने अचळ जेनो प्रकाश छे एवी (देदीप्यमान) सहज ज्ञानज्योति प्रकाशे.
अहा! अनादि अज्ञान वडे एणे चैतन्यनुं जीवन हणी नाख्युं छे. तेने आचार्यदेव कहे छे-हे भाई! तारी चीज अंदर सर्वज्ञस्वभावथी पूरण भरी पडी छे. तेमां ज द्रष्टि स्थापित करी तत्त्वद्रष्टि वडे रागद्वेषनो क्षय करो. स्वभाव उपर द्रष्टि देतां रागद्वेष उपजता नथी; उपजता नथी माटे तेनो क्षय करो एम कह्युं छे. समजाणुं कांई....?