Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). The End; Part 10; Introduction; Contents; Sarvavishuddhgnaan Adhikar Contents; Parishisht; Samaysaar Stuti; Gurudev Stuti; Pravachan Ratnakar Part-10 ; Sarvavishuddhgnaan Adhikar 2; Gatha: 372 ; Kalash: 220-221.

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दुनियादारीमां डहापण देखाडे पण ए तो नरी मूर्खता छे भाई! पोतानी चित्- चमत्कार वस्तुने भूलीने निरंतर राग-द्वेष कर्या करे ए तो महा मूर्खाई छे, मूढता छे. पोते ज्ञानरसनो पिंड आखुं चैतन्यदळ अंदर छे तेनी द्रष्टि करवी ते सम्यग्दर्शन छे अने ते डहापण एटले सम्यग्ज्ञान छे. श्रावक अने मुनिपणानी दशा पहेलां आवुं सम्यग्दर्शन एने होय छे. अरे! लोको तो बहारमां (-क्रियाकांडमां) श्रावक अने साधुपणुं मानी बेठा छे; पण एमां तो धूळेय (श्रावक ने साधुपणुं) नथी, सांभळने. जुओ, आचार्यदेव कहे छे-तत्त्वद्रष्टि वडे शीघ्र आ रागद्वेषनो क्षय करो, के जेथी पूर्ण ने अचळ जेनो प्रकाश छे एवी सहज ज्ञानज्योति प्रकाशे.

कोई वळी कहे छे-आ संस्कृत ने व्याकरण वगेरे जाणे नहि ने सोनगढमां एकली आत्मा-आत्मानी वात मांडी छे.

अरे, सांभळ तो खरो प्रभु! तिर्यंच अने नारकीना जीवने पण आवुं सम्यग्दर्शन थतुं होय छे. पोते पूर्णानंदनो नाथ प्रभु छे, तेमां द्रष्टि एकाग्र करे एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. हवे एमां व्याकरणादिनुं विशेष ज्ञान होय तो तेथी शुं छे? भेदविज्ञान ए समकित थवामां मूळ वस्तु छे, अने ते तिर्यंचादिने पण थतुं होय छे.

अरे भाई! भेदविज्ञान विना सातमी नरकना भवमां पण तुं अनंतवार गयो; तेत्रीस सागरोपमनी स्थितिए त्यां रह्यो. दुःखनो तो पार नहि एवां पारावार दुःख तें सहन कर्यां. करोडो वींछीना करडना वेदनथी अनंतगुणी वेदना त्यां अज्ञानने लीधे तने थई. अहा! आवा तीव्र दुःखनी एकेक क्षण करीने ए तेत्रीस सागरोपमनो काळ तें केम व्यतीत कर्यो? भाई! विचार कर. मांड मनुष्यपणुं मळ्‌युं तेमां जो द्रव्यद्रष्टि न करी तो तारुं आ बधुं (क्रियाकांड आदि) धूळ-धाणी ने वा-पाणी थई जशे, अने मरीने परंपरा क्यांय ढोरमां ने नरकमां चाल्यो जईश. भाई! तत्त्वद्रष्टि विना व्रत, भक्ति, पूजा इत्यादि सर्व क्रिया फोगट छे, चारगतिमां रखडवा माटे ज छे. माटे हे भाई! परमानंदमय तारुं तत्त्व छे, तेना उपर द्रष्टि स्थापीने तत्त्वद्रष्टि वडे पुण्य-पापनो नाश कर. पुण्यथी मने लाभ छे एम जवा दे, तेना तरफनी तारी द्रष्टि मिथ्याभाव छे.

शुभभाव-पुण्यभाव सम्यग्द्रष्टिने होय छे, पण द्रष्टिना विषयमां ने विषयनी (शुद्ध अंतःतत्त्वनी) द्रष्टिमां ते नथी. माटे कह्युं के-तत्त्वद्रष्टि वडे तेनो क्षय कर. अस्थिरतानो राग पण स्वरूपनी एकाग्रता द्वारा क्षय पामे छे. तेथी कह्युं के- तत्त्वद्रष्टि वडे रागद्वेषनो क्षय कर, के जेथी, जेम सोळे कलाए चंद्र खीले छे तेम, तने पूर्ण अने अचळ देदीप्यमान सहज ज्ञानज्योति खीली जशे अर्थात् केवळज्ञान अने मोक्ष


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प्रगट थशे. ल्यो, आवी वात छे. व्रत, तप आदिना शुभरागथी केवळज्ञान थशे एम नहि, पण तत्त्वद्रष्टि वडे स्वस्वरूपनी एकाग्रता द्वारा शुभरागनोय नाश थईने केवळज्ञान थशे एम वात छे. समजाणुं कांई...?

* कळश २१८ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘रागद्वेष कोई जुदुं द्रव्य नथी, जीवने अज्ञानभावथी थाय छे; माटे सम्यग्द्रष्टि थईने तत्त्वद्रष्टिथी जोवामां आवे तो तेओ (रागद्वेष) कांई पण वस्तु नथी एम देखाय छे, अने घातिकर्मोनो नाश थई केवळज्ञान उपजे छे.’

दया, दान, व्रत, तप आदि ने काम, क्रोध, मान आदि जे पुण्य-पापना भाव ते कोई पृथक् द्रव्य नथी. शुं कीधुं? जेम जड अने चेतन भिन्न द्रव्यो छे तेम रागद्वेष कोई भिन्न द्रव्य नथी. जीवने तेओ अज्ञाननी खाणमांथी उत्पन्न थाय छे अने सम्यग्दर्शन थतां नाश पामी जाय छे. आवी वात!

दुनियाना लोकोने बीजो प्रशंसा करे तो मीठी लागे. पागल छे ने? पागल पागलने वखाणे- ए न्याय छे. तेम अज्ञानीनां व्रत, तपने लोको वखाणे ते तेने मीठुं लागे, पण भाई! ए तो पागलपणुं छे बापु! केमके रागथी धर्म थाय एम तो मिथ्याद्रष्टि पागल माने अने कहे. रागमां हरखावुं शुं? राग तो एकला दुःखनो दरियो छे, तेमा लेश पण सुख नथी. ‘-सुख लेश न पायो’ -एम आव्युं ने छहढालामां?

कोई तो वळी आ देह जड माटी-धूळ कांईक ठीक होय ने रजकण-धूळ (पैसा) नो संयोग होय एटले माने के अमे सुखी; पण धूळमांय सुखी नथी सांभळने. तने खबर नथी भाई! पण आ देहनां रजकण माटी-धूळ तो जगतनी चीज बापु! ए तारी चीज नहि प्रभु! अहा! ए तो कयांय मसाणनी राख थईने उडी जशे. आवे छे ने के-

‘रजकण तारां रझळशे, जेम रखडती रेत,
पछी नर-तन पामीश क्यां, चेत चेत नर चेत,’

शरीर ने पैसो ने रागने पोतानां माने ए तो मिथ्याभाव छे, अज्ञानभाव छे अने ए ज रागद्वेषनी ने तारा दुःखनी खाण छे. समजाणुं कांई....?

अहीं कहे छे- हुं तो शुद्ध चैतन्यज्योतिस्वरूप एक ज्ञायकभाव छुं एम द्रष्टिमां जेणे स्वीकार कर्यो ते सम्यद्रष्टि छे अने ते सुखी छे. माटे हे जीव! सम्यग्द्रष्टि थईने आ मिथ्यात्व अने रागद्वेष भावोने उडाडी दे. तेनो क्षय थतां पूर्ण ज्ञान,


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ने पूर्ण आनंद प्रगट थशे. अहाहा....! जेम पूनमनो चंद्र पूर्ण कळाए खीले तेम तारा स्वभावनी पूर्णकळाए चैतन्यचंद्र खीली उठशे. अहो! सम्यग्द्रष्टि थईने तत्त्वद्रष्टिथी देखनारने रागद्वेष कांई ज नथी. अने तेने घातिकर्मो नाश थईने केवळज्ञान उपजे छे. ल्यो, आनुं नाम धर्मनी क्रिया छे.

‘अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यने गुण उपजावी शकतुं नथी’ एम हवेनी गाथामां कहेशे; तेनी सूचनारूप काव्य प्रथम कहे छेः-

* कळश २१९ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘तत्त्वद्रष्टया’ तत्त्वद्रष्टिथी जोतां, राग–द्वेष–उत्पादकं अन्यत् द्रव्यं किञ्चन अपि न वीक्ष्यते’ रागद्वेषने उपजावनारुं अन्य द्रव्य जराय देखातुं नथी, ‘यस्मात् सर्व–द्रव्य– उत्पत्तिः स्वस्वभावेन अन्तः अत्यन्तं व्यक्ता चकास्ति’ कारण के सर्व द्रव्योनी उत्पत्ति पोताना स्वभावथी ज थती अंतरंगमां अत्यंत प्रगट प्रकाशे छे.

अहाहा....! शुं कहे छे? के तत्त्वद्रष्टिथी अर्थात् वस्तुना स्वभावनी द्रष्टिथी जोतां रागद्वेषने उपजावनारुं ‘अन्यत् द्रव्यं किञ्चन अपि न वीक्ष्यते’ अन्य द्रव्य जराय देखातुं नथी. अहाहा...! ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मा छे तेने जड कर्म विकार जराय उपजावी शकतुं नथी विकार कर्मने लईने थाय छे एम कोई माने ए तो एनुं मूढपणुं छे.

आत्माने जे पुण्य-पापना ने रागद्वेषनां भाव उत्पन्न थाय छे ते, कहे छे, परद्रव्यथी बीलकुल उपजता नथी. जडकर्मथी रागद्वेषादि उपजे छे एम त्रणकाळमां छे नहि. वर्तमानमां जैनोमां-कोई पंडितो ने त्यागीओमां पण ऊंधी मान्यतानुं एवुं लाकडुं गरी गयुं छे के- ‘कर्मने लईने जीवने विकार थाय छे’ एम तेओ माने छे. पण भाई! ए द्रष्टि तारी विपरीत छे. जरा विचार तो कर के आचार्य शुं कहे छे! अहा! आचार्य कहे छे-तत्त्वद्रष्टिथी जोतां रागद्वेषने उपजावनारुं कर्म आदि परद्रव्य जराय देखातुं नथी. भाई! परद्रव्य-कर्म वगेरे निमित्त हो, पण राग-द्वेष उत्पन्न थाय छे ए ते पोताना अशुद्ध उपादानना कारणे ज उत्पन्न थाय छे, कर्मनुं एमां कांई कार्य नथी. समजाय छे कांई...!

त्यारे कोई वळी कहे छे- जीवने विकार थवामां जीवना उपादानना प० टका अने जडकर्मना प० टका मानो तो?

अरे, शुं कहे छे भाई! तारी ए मान्यता तद्न अज्ञान छे. अहीं तो आ स्पष्ट वात छे के- तत्त्वद्रष्टिथी जोतां रागद्वेषने उपजावनारुं अन्य द्रव्य जराय देखातुं नथी; ‘किञ्चन अपि न वीक्ष्यते’ - छे के नहि पाठमां? जीवने विकार उपजे छे तेमां


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एक टको पण कर्मनुं कारण नथी, सो ए सो टका रागद्वेषनो उत्पादक अज्ञानी जीव पोते (अशुद्ध उपादान) छे.

स्त्री प्रत्येनो राग थयो तेनुं स्त्री कारण नथी, एक टकोय कारण नथी. पैसाना कारणे पैसानी ममता थई छे एम जराय नथी; कोईए गाळ दीधी माटे एना प्रति रोष- द्वेष थयो छे एम छे नहि. भाई! परद्रव्य परद्रव्यमां छे, ने जडकर्मनो उदय जडमां आवे छे; तेमां तारे शुं? अन्यद्रव्यना ने जडकर्मना कारणे तने रागद्वेष थाय एम जराय नथी.

कोई वळी कहे छे-कर्मना उदयनुं निमित्त आवे तो विकार करवो ज पडे. अरे! अज्ञानीओने तो आवी वात अनादि गळथुथीमां ज मळी छे. पण एम नथी भाई! अमे तो पहलेथी ‘७१नी सालथी कहीए छीए के कर्म विकार करावे छे एम बीलकुल नथी. आचार्यदेव पण ए ज कहे छे के-जडकर्म तने विकार करावे छे एवुं अमने जराय देखातुं नथी. शुं थाय? तने देखाय छे ए तारी मिथ्या भ्रमरूप द्रष्टि छे.

अहा! रागद्वेषने उपजावनारुं अन्य द्रव्य जराय देखातुं नथी; केम? केमके सर्व द्रव्योनी उत्पत्ति पोताना स्वभावथी ज थती अंतरंगमां अत्यंत प्रगट प्रकाशे छे. शुं कीधुं? प्रत्येक द्रव्यमां पोताना स्वभावथी ज पर्यायनी उत्पत्ति थाय छे. जीवने रागद्वेषनी उत्पत्ति हो के धर्मनी-वीतरागतानी उत्पत्ति हो, ते ते पयार्यनी उत्पत्ति ते, ते ते पयार्यनो स्वभाव छे; स्वभावथी ज ते ते पर्यायनी उत्पत्ति थाय छे. विकार थाय छे ते पण पोतानी स्व-पर्यायना पोताना स्वभावथी ज थाय छे, कर्मथी परद्रव्यथी बीलकुल नहि. अहीं विकारी पर्यायने पण स्वतंत्र सिद्ध करी छे. पंचास्तिकायनी गाथा ६२ मां कह्युं छे के विकार पोताना षट्कारकोथी पोतानी पर्यायमां थाय छे, तेमां परकारकोनी कोई अपेक्षा नथी. पर्यायमां मिथ्यात्वनो भाव थाय छे तेमां दर्शनमोहनीय कर्मनो उदय कारण नथी, विषयवासनाना भाव थाय ते वेदकर्मना उदयना कारणे थाय छे एम नथी, तथा पर्यायमां क्रोधादि भाव उपजे ते चारित्रमोहना उदयना कारणे उपजे छे एम नथी; केमके सर्व द्रव्योनी पर्यायनी उत्पत्ति पोताना स्वभावथी ज थाय छे. आवी वात छे.

कोई वळी कहे छे- रागद्वेष जो कर्मथी न थाय तो ते जीवनो स्वभाव थई जशे अने तो ते कदीय मटशे नहि.

भाई! रागद्वेष छे ए कांई जीवनो त्रिकाळी स्वभाव नथी. जीवना त्रिकाळी स्वभावमां शुद्ध एक चैतन्यभावमां, ज्ञायकभावमां रागद्वेष नथी ने ते रागद्वेषनुं कारण पण नथी. अहीं तो जीवने जे रागद्वेष थाय छे ते तेनो पर्यायस्वभाव छे एम वात छे. रागद्वेष थाय तेमां कर्म वगेरे परद्रव्य कारण नथी एम अहीं सिद्ध करवुं


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छे. समजाय छे कांई...? रागद्वेष उत्पन्न थाय छे ते स्वभावथी ज उत्पन्न थाय छे एम कह्युं ए पर्यायस्वभावनी वात हों; अने तेथी ते (ज्ञायकना लक्षे) मटी शके छे. हवे लोकोने कांई खबर न मळे अने एम ने एम आंधळे-बहेरुं कूटे राखे, पण जीवन जाय छे जीवन हों; एम ने एम अज्ञानमां जशे तो अहीं तो मोटो अबजोपति शेठ होय पण क्यांय भूंडणना पेटे ने कागडे-कूतरे जन्म थशे. अररर! आवो जन्म! चेती जा भगवान!

कोई वळी कहे छे-विकार थाय ते कथंचित् आत्माथी ने कथंचित् कर्मना उदयथी थाय छे एम अनेकान्त छे.

ए मिथ्या अनेकान्त छे बापु! विकार पोताना स्वभावथी ज थाय छे अने कर्मथी-परथी नहि-एम सम्यक् अनेकान्त छे. पर्यायमां रागद्वेषादि उत्पन्न थाय छे ते तेनी जन्मक्षण छे, ते काळे ते पोताथी ज उत्पन्न थाय छे; तेने परद्रव्य-कर्म शुं करे? पर्याय विकारी हो के निर्विकारी-ते पोताना स्वभावथी ज द्रव्यमां उत्पन्न थाय छे. छे ने अहीं के-सर्वद्रव्योनी अर्थात् प्रत्येक द्रव्यनी उत्पत्ति पोताना स्वभावथी ज थती अंतरंगमां अत्यंत प्रगट प्रकाशे छे. ल्यो, आवुं! त्यारे ए बधे कर्मथी ज थाय एम लईने बेठो छे. पण भाई! कर्म कर्मनुं करे, बीजानुं-जीवनुं कांई न करे. आवे छे ने के-

कर्म बिचारे कौन, भूल मेरी अधिकाई;
अग्नि सहै घनघात, लोहकी संगति पाई.

कर्म तो जड छे भाई! ने विकार पोतानी भूल छे; कर्म तेनुं कारण नथी. आम छे छतां विकार थाय एम मानवुं ते अनीति छे; निजआज्ञा माने तो आवी अनीति संभवे नहि. समजाणुं कांई..?

* कळश २१९ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘रागद्वेष चेतनना ज परिणाम छे. अन्य द्रव्य आत्माने रागद्वेष उपजावी शकतुं नथी; कारण के सर्व द्रव्योनी उत्पत्ति पोत पोताना स्वभावथी ज थाय छे, अन्य द्रव्यमां अन्यद्रव्यना गुण-पर्यायोनी उत्पत्ति थती नथी.’

‘रागद्वेष चेतनना ज परिणाम छे.’ शुं कीधुं? क्रोध, मान, माया, लोभ, हिंसा, जूठ इत्यादि जे परिणाम थाय छे ते जीवना ज परिणाम छे; ते कांई जडना परिणाम नथी; अर्थात् जडथी-कर्मथी उत्पन्न थया नथी. कोई बीजुं द्रव्य आत्माने रागद्वेष आदि उपजावी शकतुं ज नथी; केमके सर्व द्रव्योनी उत्पत्ति पोतपोताना स्वभावथी ज थाय छे. हवे आवो सत्य निर्णय हमणां नहि करे तो क्यारे करीश भाई? (एम के आ अवसर वीती जतां अवसर रहेशे नहि).


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जुओ, अहीं रागद्वेषादि विकारने चेतनना परिणाम कह्या केमके ते चेतननी पर्यायमां थाय छे. बीजे ज्यां शुद्ध स्वभावने सिद्ध करवानी वात होय ने स्वभावनो - ध्रुवनो आश्रय कराववानुं प्रयोजन होय त्यां तेने पुद्गलना परिणाम कह्या छे. ज्यां जे विवक्षा होय ते यथार्थ समजवी जोईए. जेने स्वभावनी-ध्रुवनी द्रष्टि थई तेने पोते व्यापक अने निर्मळ पर्याय एनुं व्याप्य छे; विकार एनुं व्याप्य नथी ए अपेक्षाथी तेने पुद्गलना परिणाम कह्या छे. अहीं रागद्वेषादि विकारना भाव जीवनी दशामां थाय छे माटे जीवना परिणाम कह्या छे. तेओ जडमां थता नथी, जड द्रव्यो तेने नीपजावता नथी, केमके अन्य द्रव्यमां अन्य द्रव्यना गुण-पर्यायोथी उत्पत्ति थती नथी. आवी वात छे.

(प्रवचन नं. ४प९ थी ४६१ * दिनांक १२-१०-७७ थी १४-१०-७७)
समाप्त

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प्रवचन रत्नाकर
[भाग – १०]
परम पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामीनां
श्री समयसार परमागम उपर अढारमी वखत थयेलां प्रवचनो
ः प्रकाशकः
श्री कुंदकुंद–कहान परमागम प्रवचन ट्रस्ट
१७३-१७प मुंबादेवी रोड, मुंबई ४०० ००२
ः प्ररकः

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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
क्रम गाथा/कळशप्रवचन नंबरपृष्ठांक
गाथा-३७२४६२-४६८
कळश २२०-२२१
गाथा ३७३ थी ३८२४६९-४७४३२
कळश-२२२३७
कळश २२३३८
गाथा ३८३ थी ३८६४७प-४७७७२
कळश-२२४७४
गाथा ३८७ थी ३८९४७७-४८८८९
कळश-२२प९०
१०कळश-२२६९४
११कळश-२२७९६
१२कळश-२२८९८
१३कळश-२२९-२३०९९
१४कळश-२३११०६
१पकळश-२३२-२३३१०७
१६कळश-२३४१०८
१७गाथा ३९० थी ४०४४८८-४९प१७२
१८कळश-२३प१७९
१९कळश २३६-२३७१८०
२०गाथा ४०प थी ४०७४९६-४९७२१७
२१कळश-२३८२१८
२२गाथा ४०८-४०९४९७-४९८२२८
२३गाथा-४१०४९८-४९९२३३
२४गाथा-४११४९९२४०
२पकळश-२३९२४१
२६गाथा-४१२प०० थी प०४२४७
२७कळश २४०-२४१२४८
२८गाथा-४१३प०४ थी प०७२६९

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क्रम गाथा/कळशप्रवचन नंबरपृष्ठांक
२९कळश २४२-२४३प०४ थी प०७२७०
३०गाथा-४१४प०८ थी प११२८प
३१कळश २४४-२४प२८४
३२गाथा-४१पप१२ थी प१४२९९
३३कळश-२४६३००
परिशिष्ट
३४कळश-२४७३२७
३पकळश-२४८-२४९३३१
३६कळश-२प०३३२
३७कळश-२प१३३३
३८कळश-२प२-२प३३३४
३९कळश-२प४३३प
४० कळश-२पप३३६
४१कळश २प६-२प७३३७
४२कळश-२प८३३८
४३ कळश २प९-२६०३३९
४४ कळश-२६१३४०
४प कळश २६२-२६३३४१

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(हरिगीत)
संसारी जीवनां भावमरणो टाळवा करुणा करी,
सरिता वहावी सुधा तणी प्रभु वीर! तें संजीवनी;
शोषाती देखी सरितने करुणाभीना हृदये करी,
मुनिकुंद संजीवनी समयप्राभृत तणे भाजन भरी.
(अनुष्टुप)
कुंदकुंद रच्युं शास्त्र, साथिया अमृते पूर्या,
ग्रंथाधिराज! तारामां भावो ब्रह्मांडना भर्या.
(शिखरिणी)
अहो! वाणी तारी प्रशमरस-भावे नीतरती,
मुमुक्षुने पाती अमृतरस अंजलि भरी भरी;
अनादिनी मूर्छा विष तणी त्वराथी ऊतरती,
विभावेथी थंभी स्वरूप भणी दोडे परिणति.
(शार्दूलविक्रिडित)
तुं छे निश्चयग्रंथ भंग सघळा व्यवहारना भेदवा,
तुं प्रज्ञाछीणी ज्ञान ने उदयनी संधि सहु छेदवा;
साथी साधकनो, तुं भानु जगनो, संदेश महावीरनो,
विसामो भवक्लांतना हृदयनो, तुं पंथ मुक्ति तणो.
(वसंततिलका)
सुण्ये तने रसनिबंध शिथिल थाय,
जाण्ये तने हृदय ज्ञानी तणां जणाय;
तुं रुचतां जगतनी रुचि आळसे सौ,
तुं रीझतां सकलज्ञायकदेव रीझे.
(अनुष्टुप)
बनावुं पत्र कुंदननां, रत्नोना अक्षरो लखी;
तथापि कुंदसूत्रोनां
अंकाये मूल्य ना कदी.

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(हरिगीत)
संसारसागर तारवा जिनवाणी छे नौका भली,
ज्ञानी सुकानी मळ्‌या विना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,
मुज पुण्यराशि फळ्‌यो अहो! गुरु क्हान तुं नाविक मळ्‌यो.
(अनुष्टुप)
अहो! भक्त चिदात्माना, सीमंधर-वीर-कुंदना!
बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां.
(शिखरिणी)
सदा द्रष्टि तारी विमळ निज चैतन्य नीरखे,
अने ज्ञप्तिमांही दरव-गुण-पर्याय विलसे;
निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे,
निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे.
(शार्दूलविक्रीडित)
हैयुं ‘सत सत, ज्ञान ज्ञान’ धबके ने वज्रवाणी छूटे,
जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके; परद्रव्य नातो तूटे;
-रागद्वेष रुचे न, जंप न वळे भावेंद्रिमां-अंशमां,
टंकोत्कीर्ण अकंप ज्ञान महिमा हृदये रहे सर्वदा.
(वसंततिलका)
नित्ये सुधाझरण चंद्र! तने नमुं हुं,
करुणा अकारण समुद्र! तने नमुं हुं;
हे ज्ञानपोषक सुमेघ! तने नमुं हुं,
आ दासना जीवनशिल्पी! तने नमुं हुं.
(स्रग्धरा)
ऊंडी ऊंडी, ऊंडेथी सुखनिधि सतना वायु नित्ये वहंती,
वाणी चिन्मूर्ति! तारी उर-अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली;
भावो ऊंडा विचारी, अभिनव महिमा चित्तमां लावी लावी,
खोयेलुं रत्न पामुं, -मनरथ मननो; पूरजो शक्तिशाळी!

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परमात्मने नमः।
श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत
श्री
समयसार
उपर
परम पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीनां प्रवचनो
श्रीमदमृतचन्द्रसूरिकृता आत्मख्यातिः।
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
अण्णदविएण अण्णदवियस्स णो कीरए गुणुप्पाओ।
तम्हा दु सव्वदव्वा उप्पज्जंते सहावेण।। ३७२।।
अन्यद्रव्येणान्यद्रव्यस्य न क्रियते गुणोत्पादः।
तस्मात्तु सर्वद्रव्याण्युत्पद्यन्ते स्वभावेन।। ३७२।।

हवे आ अर्थने गाथामां कहे छेः-

को द्रव्य बीजा द्रव्यने उत्पाद नहि गुणनो करे,
तेथी बधांये द्रव्य निज स्वभावथी ऊपजे खरे. ३७२.

गाथार्थः– [अन्यद्रव्येण] अन्य द्रव्यथी [अन्यद्रव्यस्य] अन्य द्रव्यने [गुणोत्पादः] गुणनी उत्पत्ति [न क्रियते] करी शकाती नथी; [तस्मात् तु] तेथी (ए सिद्धांत छे के) [सर्वद्रव्याणि] सर्व द्रव्यो [स्वभावेन] पोतपोताना स्वभावथी [उत्पद्यन्ते] ऊपजे छे.


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टीकाः– वळी जीवने परद्रव्य रागादिक उपजावे छे एम शंका न करवी; कारण के अन्य द्रव्य वडे अन्य द्रव्यना गुणनो उत्पाद करावानी अयोग्यता छे; केम के सर्व द्रव्योनो स्वभावथी ज उत्पाद थाय छे. आ वात द्रष्टांतथी समजाववामां आवे छेः-

माटी कुंभभावे (घडा-भावे) ऊपजती थकी शुं कुंभारना स्वभावथी ऊपजे छे के माटीना स्वभावथी ऊपजे छे? जो कुंभारना स्वभावथी ऊपजती होय तो जेमां घडो करवाना अहंकारथी भरेलो पुरुष रहेलो छे अने जेनो हाथ (घडो करवानो) व्यापार करे छे एवुं जे पुरुषनुं शरीर तेना आकारे घडो थवो जोईए. परंतु एम तो थतुं नथी, कारण के अन्यद्रव्यना स्वभावे कोई द्रव्यना परिणामनो उत्पाद जोवामां आवतो नथी. जो आम छे तो पछी माटी कुंभारना स्वभावथी ऊपजती नथी, परंतु माटीना स्वभावथी ज ऊपजे छे कारण के (द्रव्यना) पोताना स्वभावे द्रव्यना परिणामनो उत्पाद जोवामां आवे छे. आम होवाथी, माटी पोताना स्वभावने नहि उल्लंघती होवाने लीधे, कुंभार घडानो उत्पादक छे ज नहि; माटी ज कुंभारना स्वभावने नहि स्पर्शती थकी, पोताना स्वभावथी कुंभभावे ऊपजे छे.

एवी रीते-बधांय द्रव्यो स्वपरिणामपर्याये (अर्थात् पोताना परिणामभावरूपे) ऊपजतां थकां, निमित्तभूत अन्यद्रव्योना स्वभावथी ऊपजे छे के पोताना स्वभावथी ऊपजे छे? जो निमित्तभूत अन्यद्रव्योना स्वभावथी ऊपजतां होय तो निमित्तभूत अन्यद्रव्योना आकारे तेमना परिणाम थवा जोईए. परंतु एम तो थतुं नथी, कारण के अन्यद्रव्यना स्वभावे कोई द्रव्यना परिणामनो उत्पाद जोवामां आवतो नथी. जो आम छे तो सर्व द्रव्यो निमित्तभूत अन्यद्रव्योना स्वभावथी ऊपजतां नथी, परंतु पोताना स्वभावथी ज ऊपजे छे कारण के (द्रव्यना) पोताना स्वभावे द्रव्यना परिणामनो उत्पाद जोवामां आवे छे. आम होवाथी, सर्व द्रव्यो पोताना स्वभावने नहि उल्लंघतां होवाने लीधे, निमित्तभूत अन्यद्रव्यो पोताना (अर्थात् सर्व द्रव्योना) परिणामना उत्पादक छे ज नहि; सर्व द्रव्यो ज, निमित्तभूत अन्यद्रव्योना स्वभावने नहि स्पर्शतां थकां, पोताना स्वभावथी पोताना परिणामभावे ऊपजे छे.

माटे (आचार्यदेव कहे छे के) जीवने रागादिनुं उत्पादक अमे परद्रव्यने देखता (-मानता, समजता) नथी के जेना पर कोप करीए.

भावार्थः– आत्माने रागादिक ऊपजे छे ते पोताना ज अशुद्ध परिणाम छे. निश्चयनयथी विचारवामां आवे तो अन्यद्रव्य रागादिकनुं उपजावनार नथी, अन्यद्रव्य तेमनुं निमित्तमात्र छे; कारण के अन्यद्रव्यने अन्यद्रव्य गुणपर्याय उपजावतुं नथी ए नियम छे. जेओ एम माने छे-एवो एकांत करे छे-के ‘परद्रव्य ज मने रागादिक उपजावे छे’ , तेओ नयविभागने समज्या नथी, मिथ्याद्रष्टि छे. ए रागादिक


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(मालिनी)
यदिह भवति रागद्वेषदोषप्रसूतिः
कतरदपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र
स्वयमयमपराधी तत्र सर्पत्यबोधो
भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः।। २२०।।
(रथोद्धता)
रागजन्मनि निमित्ततां पर–
द्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते ।
उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनीं
शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धयः ।।
२२१।।

जीवना सत्त्वमां ऊपजे छे, परद्रव्य तो निमित्तमात्र छे-एम मानवुं ते सम्यग्ज्ञान छे. माटे आचार्य महाराज कहे छे के-अमे रागद्वेषनी उत्पत्तिमां अन्य द्रव्य पर शा माटे कोप करीए? रागद्वेषनुं ऊपजवुं ते पोतानो ज अपराध छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः– [इह] आ आत्मामां [यत् राग–द्वेष–दोष–प्रसूतिः भवति] जे रागद्वेषरूप दोषोनी उत्पत्ति थाय छे [तत्र परेषां कतरत् अपि दूषणं नास्ति] त्यां परद्रव्यनो कांई पण दोष नथी, [तत्र स्वयम् अपराधी अयम् अबोधः सर्पति] त्यां तो स्वयं अपराधी एवुं आ अज्ञान ज फेलाय छे;- [विदितम् भवतु] ए प्रमाणे विदित थाओ अने [अबोधः अस्तं यातु] अज्ञान अस्त थई जाओ; [बोधः अस्मि] हुं तो ज्ञान छुं.

भावार्थः– अज्ञानी जीव रागद्वेषनी उत्पत्ति परद्रव्यथी थती मानीने परद्रव्य उपर कोप करे छे के ‘आ परद्रव्य मने रागद्वेष उपजावे छे, तेने दूर करुं’ . एवा अज्ञानी जीवने समजाववाने आचार्यदेव उपदेश करे छे के-रागद्वेषनी उत्पत्ति अज्ञानथी आत्मामां ज थाय छे अने ते आत्माना ज अशुद्ध परिणाम छे. माटे ए अज्ञानने नाश करो, सम्यग्ज्ञान प्रगट करो, आत्मा ज्ञानस्वरूप छे एम अनुभव करो; परद्रव्यने रागद्वेषनुं उपजावनारुं मानीने तेना पर कोप न करो. २२०

हवे आ ज अर्थ द्रढ करवाने अने आगळना कथननी सूचना करवाने काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [ये तु राग–जन्मनि परद्रव्यम् एव निमित्ततां कलयन्ति] जेओ रागनी उत्पत्तिमां परद्रव्यनुं ज निमित्तपणुं (कारणपणुं) माने छे, (पोतानुं कांई कारण


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[ते शुद्ध–बोध–विधुर–अन्ध–बुद्धयः] तेओ-जेमनी बुद्धि

शुद्धज्ञानरहित अंध छे एवा (अर्थात् जेमनी बुद्धि शुद्धनयना विषयभूत शुद्ध आत्मस्वरूपना ज्ञानथी रहित अंध छे एवा) - [मोह–वाहिनीं न हिं उत्तरन्ति] मोहनदीने ऊतरी शक्ता नथी.

भावार्थः– शुद्धनयनो विषय आत्मा अनंत शक्तिवाळो, चैतन्यचमत्कारमात्र, नित्य, अभेद, एक छे. ते पोताना ज अपराधथी रागद्वेषरूपे परिणमे छे. एवुं नथी के जेम निमित्तभूत परद्रव्य परिणमावे तेम आत्मा परिणमे छे अने तेमां आत्मानो कांई पुरुषार्थ ज नथी. आवुं आत्माना स्वरूपनुं ज्ञान जेमने नथी तेओ एम माने छे के परद्रव्य आत्माने जेम परिणमावे तेम आत्मा परिणमे छे. आवुं माननारा मोहरूपी नदीने ऊतरी शकता नथी (अथवा मोहनी सेनाने हरावी शक्ता नथी), तेमने रागद्वेष मटता नथी; कारण ते रागद्वेष करवामां जो पोताने पुरुषार्थ होय तो ज तेमने मटाडवामां पण होय, परंतु जो परना कराव्या ज रागद्वेष थता होय तो पर तो रागद्वेष कराव्या ज करे, त्यां आत्मा तेमने क्यांथी मटाडी शके? माटे, रागद्वेष पोताना कर्या थाय छे अने पोताना मटाडया मटे छे-एम कथंचित् मानवुं ते सम्यग्ज्ञान छे. २२१.

स्पर्श, रस, गंध, वर्ण अने शब्दादिरूपे परिणमतां पुद्गलो आत्माने कांई कहेतां नथी के ‘तु अमने जाण’ , अने आत्मा पण पोताना स्थानथी छूटीने तेमने जाणवा जतो नथी. बन्ने तद्न स्वतंत्रपणे पोतपोताना स्वभावथी ज परिणमे छे. आम आत्मा पर प्रत्ये उदासीन (-संबंध विनानो, तटस्थ) छे, तोपण अज्ञानी जीव स्पर्शादिकने सारां-नरसां मानीने रागीद्वेषी थाय छे ते तेनुं अज्ञान छे. -आवा अर्थनी गाथाओ हवे कहे छेः-

*
समयसार गाथा ३७२ः मथाळुं

हवे आ अर्थने गाथामां कहे छेः- अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यने गुण उपजावी शकतुं नथी, अर्थात् अन्य द्रव्य जीवने रागादिक उपजावी शकतुं नथी एम गाथामां कहे छे.

* गाथा ३७२ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘वळी जीवने परद्रव्य रागादिक उपजावे छे एम शंका न करवी; कारण के अन्य द्रव्य वडे अन्य द्रव्यना गुणनो उत्पाद करावानी अयोग्यता छे; केमके सर्व द्रव्योनो स्वभावथी ज उत्पाद थाय छे.’


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‘वळी जीवने परद्रव्य रागादिक उपजावे छे एम शंका न करवी’; अहाहा....! आ शुं कहे छे? अत्यारे तो आ मोटी चर्चा (विवाद) चाले छे-एम के ‘कर्मथी विकार थाय छे, जीवने कर्म विकार उपजावे छे’; पण अहीं तो आचार्यदेव कहे छे -जीवने परद्रव्य रागादिक उपजावे छे एम शंका न करवी. भाई! जीवने परथी-कर्मथी विकार थाय छे एवी तारी मान्यता मिथ्या छे. विकारने टाळवो ए तो हजु पछी वात, विकार केम थाय छे-विकार पोताथी थाय छे, कोई परद्रव्यथी नहि-एम नक्की तो कर. (एम के विकार केम थाय छे ए नक्की कर्या विना निर्विकार केम थईश?).

अहाहा....! कहे छे-जीवने पर्यायमां रागद्वेष, पुण्य-पापना भाव ने काम, क्रोध, विषयवासना आदिना जे परिणाम थाय छे ते परद्रव्यथी-कर्मथी थाय छे एम शंका न करवी, अनुकूळ संयोगथी राग उत्पन्न थाय, ने प्रतिकूळ संयोगथी द्वेष उत्पन्न थाय-एवी मान्यता मिथ्यात्व छे. भाई! परद्रव्यथी परद्रव्यना परिणाम नीपजे ए मान्यता मिथ्यात्व छे. आ बधां कारखानां हाले छे ने? भाई! एने हुं हलावुं छुं एम माने ए मिथ्यात्व छे. समजाय छे कांई....?

अहाहा...! भगवान! तुं कोण छो? तने खबर नथी प्रभु! पण परद्रव्यनुं कांई करी शके एवी ताकात-योग्यता तारामां नथी, अने तारामां कांई करी शके एवी ताकात- योग्यता परद्रव्यमां नथी. अहीं आ स्पष्ट कहे छे के -अन्य द्रव्य वडे अन्य द्रव्यना गुणनो-गुण एटले पर्यायनो-उत्पाद करावानी अयोग्यता छे. माटे कोई पण परद्रव्यनुं कार्य हुं करी शकुं, अने परद्रव्य मारुं काम करे-एम तुं माने ए मिथ्या भ्रमरूप अज्ञान छे, पाखंड छे. समजाय छे कांई.....?

अहा! आ जीवने, परनां काम हुं करुं ने पर मारां काम करे एवी ऊंधी मान्यतानुं शल्य-मिथ्याश्रद्धान अनादिथी ज छे. कोई वळी ते मिथ्याश्रद्धान दर्शनमोहनीय कर्मना कारणे थयुं छे एम माने छे; पण भाई! ए तारी मान्यता जूठी छे. मोहकर्मनुं एमां निमित्त हो, पण निमित्त-परद्रव्य एने शुं करे? कांई न करे. निमित्त-कर्म जीवने रागद्वेषमोह उपजावे छे ए वात बिलकुल जूठी छे, त्रणकाळमां ए वात सत्य नथी.

संप्रदायमां आ वातनी चर्चा चालेली. अमारा गुरु हता ते बधुं कर्मथी थाय एम मानता. त्यारे सभामां कह्युं हतुं के-जीवमां भ्रमणा अने मिथ्यात्वादि भाव थाय छे ते पोताथी थाय छे, परद्रव्यथी-कर्मथी विकार थाय ए वात जूठी छे. -वात सांभळी लोकोमां खळभळाट थई गयेलो. संप्रदायमां कर्मनुं लाकडुं गरी गयेलुं खरुं ने! तेथी खळभळाट थई गयो; पण कीधुं के आ सत्य छे. जुओ, ए सत्य आचार्यदेव कहे छे के- जीवने परद्रव्य रागादिक उपजावे छे एम शंका न करवी.


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अहाहा...! भगवान आत्मा अनंत ज्ञानानंदनी लक्ष्मीथी भरेलो सच्चिदानंद प्रभु छे. अहा! तेनी रुचि ने भावना करवी छोडीने भगवान! तुं बहारनी जड लक्ष्मीनी रुचि करे छे? मने आ मळे ने ते मळे एम परद्रव्यनी तने भावना छे तो तुं मोटो भिखारी छे, मागण छे. बहारनी लक्ष्मी ए तारी चीज नथी अने तेनो संयोग थवो ए तारुं - तारा डहापणनुं (पुरुषार्थनुं) कार्य नथी, पुण्यनो उदय होय तो ते मळे छे; तेने हुं पुरुषार्थ करीने मेळवुं एम तुं एनी पाछळ रच्यो रहे पण ए तारी मिथ्या प्रवृत्ति छे भाई! केमके अन्य द्रव्य वडे अन्य द्रव्यनो गुण करावानी अयोग्यता छे. आवी वात! समजाय छे कांई.....?

अहाहा...! त्रणकाळनी सर्वद्रव्यनी सर्व पर्यायोने आत्मा जाणे एवुं एनुं सामर्थ्य-योग्यता छे, पण परनी क्रिया थाय तेने जीव करी शकतो नथी; परनी क्रिया करवानी तेनी अयोग्यता छे. आ शरीरने चलाववानी, हाथ-पग हलाववानी ने बहारनी धनादि सामग्री मेळववानी कहे छे, जीवनी अयोग्यता छे. तथापि हुं शरीरने चलावी शकुं, हाथ-पग हलावी शकुं, धनादि कमाई शकुं ने कुंटुंबनां काम करी शकुं ईत्यादि कोई माने तो ते मूढ मिथ्याद्रष्टि जीव छे. अहा! परमाणु जड छे, ने ते जडनां कार्य जडथी थाय छे, आत्माथी नहि; अने रागद्वेषादि जीवना परिणाम छे अने ते पोताथी थाय छे. परद्रव्यथी नहि.

परद्रव्य-कर्म, शरीर, स्त्री-कुटुंब परिवार ने धनादि सामग्री, देव-गुरु आदि -ए बधा जीवने पुण्य-पाप आदि भाव उपजावे छे एम शंका न करवी. शुं कीधुं? आ जिनबिंबना दर्शन थतां एने शुभभाव थयो त्यां ए शुभभाव जिनबिंबना कारणे थयो छे एम शंका न करवी. वळी कोईए गाळ दीधी त्यां गाळ सांभळता रोष थयो, ते रोष परने कारणे थयो छे एम कहे छे, शंका न करवी. कारण? कारण के अन्य द्रव्य वडे अन्य द्रव्यना गुणनो उत्पाद करावानी अयोग्यता छे; सर्व द्रव्योनो स्वभावथी ज उत्पाद थाय छे. भाई! तारी रागद्वेषादिनी पर्याय स्वभावनी योग्यताथी ज ते ते काळे उत्पन्न थाय छे, तेमां परद्रव्य बिलकुल कारण नथी. आवी वात! भाई! तारी ऊंधी मान्यतानुं आखुं चक्र फेरवी नाख. (जो तने धर्मनी भावना छे तो).

आ आंखनी पांपण ऊंची-नीची थाय छे ने? अहा! ते क्रिया आत्माए करी छे एम शंका न करवी; केमके पांपण अन्य द्रव्य छे अने आत्मा अन्य द्रव्य छे. भाई! एक तणखलाना बे टुकडा आत्मा करी शके नहि-आ वस्तुस्वरूप छे. अहा! भगवान सर्वज्ञदेवे अनंता द्रव्यो-अनंत जीव, अनंतानंत पुद्गलो, धर्म, अधर्म, आकाश ने असंख्यात कालाणुओ एम अनंता द्रव्यो-


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जोयां छे अने तेमां कोई एक द्रव्य कोई बीजा द्रव्यनुं कंई करी शके नहि, केमके अन्य द्रव्य वडे अन्य द्रव्यना गुणनो उत्पाद करावानी अयोग्यता छे एम दिव्यध्वनि द्वारा भगवाने द्रव्योनी स्वतंत्रतानो ढंढेरो बहार पाडयो छे. अहीं ते संतो आडतिया थईने जगतने जाहेर करे छे. कहे छे-परद्रव्य वडे आत्माना गुणनी पर्याय कराववानी अयोग्यता छे. अत्यारे तो आ विषयमां मोटी गडबड चाले छे. परंतु भाई! कर्मथी जीवने विकार थाय छे एवी मान्यता जूठ छे. अरे! पोतानी चीजने भूलीने अज्ञान वडे पोते ज विकार करे छे एनी कबूलात करतो नथी ते निर्विकार धर्म केम पामी शके?

कर्मने लईने विकार थाय ने शुभभावथी धर्म थाय -एम बे महा शल्य एने अंदर रह्यां छे. परंतु परथी विकार नहि, ने शुभरागथी धर्म नहि. -एम निर्णय करीने परथी ने रागथी खसी शुद्ध चैतन्य चिदानंदघन प्रभुनी द्रष्टि करे त्यारे सम्यग्दर्शन थाय छे अने ते प्रथम धर्म छे. अरे! लोकोने धर्म शुं चीज छे ने केम थाय एनी खबर नथी. बिचारा संसारनी मजूरीमां पडया छे. मजूर तो आठ कलाक काम करे, पण आ तो अहोनिश चोवीसे कलाक संसारमां रच्योपच्यो रहे छे. मोटो मजूर छे. अरेरे! एनुं शुं थाय? आवुं सत्य तत्त्व समजवानां टाणां आव्यां ने एने वखत नथी! जमवा बेठो होय ने घंटडी आवे तो झट ऊभो थईने फोन झीले. अरे! आवा लोलुपी जीवोनुं शुं थाय? मरीने क्यां जाय? संसारमां क्यांय नरक-निगोदादिमां चाल्या जाय. शुं थाय?

अहीं कहे छे-अन्य द्रव्य वडे अन्य द्रव्यनो पर्याय करावानी अयोग्यता छे. अंदर ‘गुण’ शब्द छे ने? अहीं गुण एटले पर्याय समजवुं. अहा! एक द्रव्यमां अनंत गुणो छे ने तेनी अनंती पर्यायो थाय छे. ते सर्व पर्यायोनी अन्य द्रव्य वडे उत्पत्ति करावानी अयोग्यता छे. भाई! परना कारणे तने विकार थाय एवी योग्यता तारा आत्मामां छे ज नहि, ने परमां पण तने विकार करावे एवी योग्यता छे ज नहि. परथी-कर्मथी विकार थाय ए तो भगवान! तने भ्रम थई गयो छे; ए तो मूळमां भूल छे भाई! अहो! आचार्यदेवे आ संक्षेपमां महा सिद्धांत गोठवी दीधो छे के परद्रव्य माटे प्रत्येक अन्य द्रव्य पांगळुं छे. आ आत्मा पर जीवोनी दया पाळवा माटे पांगळो छे, परने धर्म पमाडवा पण पांगळो छे; परनुं कंई करे एवी एनामां योग्यता ज नथी.

कोई वळी कहे छे- आ तो निश्चयनी वात छे. हा, निश्चयनी वात छे; निश्चयनी वात छे एटले सत्य वात छे. त्रणकाळ त्रणलोकना पदार्थोनी सत्यार्थ स्थितिनी आ वात छे. समजाय छे कांई....?

‘हुं करुं, हुं करुं’ -एम अज्ञानी मिथ्या अभिमान करे छे. ए तो ‘शकटनो


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भार जेम श्वान ताणे’-एना जेवी वात छे. अहीं भगवान फरमावे छे के परद्रव्य-कर्म जीवने विकार करावे छे अने परद्रव्यनी पर्यायने जीव उपजावे छे-एम शंका न कर; केमके सर्व द्रव्योनो स्वभावथी ज उत्पाद थाय छे. विकार थाय ए पण पर्यायनो स्वभाव छे. प्रत्येक द्रव्यमां प्रतिसमय पोतानी पर्यायनी योग्यताना स्वभावथी ज उत्पाद थाय छे. भगवाननी प्रतिमानां दर्शनना भाव थाय ते पोताथी थाय छे, अशुभथी बचवा एवो भाव आवे छे पण ए कांई प्रतिमाना कारणे थाय छे एम नथी; तथा मंदिर ने प्रतिमा आदि जे व्यवस्था छे ते कांई जीवना कारणे थई छे एम नथी. भाई! जड ने चेतन द्रव्योमां प्रतिसमय जे जे अवस्था थाय तेनी व्यवस्था ते ते जड-चेतन द्रव्योनी छे, अन्य द्रव्य तेमां कांई करतुं नथी, करी शकतुं नथी. माटे अमे दान दीधां, ने अमे मंदिर बनाव्यां, ने भगवाननी प्रतिष्ठा करावी ने धर्मशाळा बंधावी ईत्यादि परद्रव्यनी क्रिया करवानां अभिमान तुं करे ए पाखंड सिवाय बीजुं कांई नथी. निमित्तथी कार्य थाय एवी श्रद्धा अत्यारे कोई पंडितोमां वर्ते छे एय मिथ्या श्रद्धा अने पाखंड ज छे.

अहाहा....! देवाधिदेव सर्वज्ञ परमात्मा गणधरो, इन्द्रो ने मुनिवरोनी सभामां जे फरमावता हता ते वात अहीं आ आवी छे. बहु सूक्ष्म ने गंभीर! समजाय तेटली समजो बापु! कहे छे-अन्य द्रव्य वडे अन्य द्रव्यनो गुण करावानी अयोग्यता छे, केमके सर्व द्रव्योनो स्वभावथी ज उत्पाद थाय छे. अहाहा.....! अनंत आत्माओ, अनंतानंत रजकणो-ए प्रत्येक द्रव्यमां प्रतिसमय थती पर्याय-विकारी के निर्विकारी पोताथी उत्पन्न थाय छे. विकार उत्पन्न थाय ते पण ते ते पर्यायनो स्वभाव छे, कर्म तेमां निमित्त हो, पण कर्मनुं एमां कांई कर्तव्य नथी.

अमारी साथे एकवार एक श्वेतांबर साधु लीमडीमां चर्चा करवा आवेला. ते बडाशथी कहे-तमे सिंह छो तो अमे सिंहना बच्चा छीए; अमारी साथे चर्चा करो. त्यारे कह्युं-अमे सिंहेय नथी ने अमे कोईनी साथे नाहकनी चर्चामां उतरताय नथी. तो थोडी वार पछी ए बोल्या-शुं चश्मा विना जोई शकाय? अमे कह्युं-भाई! आ तो चर्चा (पूरी) थई गई. (एम के ऊंधी द्रष्टिनो ज आग्रह छे त्यां कोनी साथे चर्चा करवी?)

खरेखर जोवा-जाणवानी क्रिया थाय छे ए तो जीवमां पोतानी पोताथी थाय छे; एमां चश्मांनुं शुं काम छे? चश्मां तो बाह्य निमित्तमात्र छे बस. वास्तवमां चश्मां विना ज अंदर जाणवानुं काम थई रह्युं छे; कारण के प्रत्येक द्रव्यनो स्वभावथी ज उत्पाद थाय छे. आ महा सिद्धांत छे. हवे कहे छे-आ वात द्रष्टांतथी समजाववामां आवे छे-


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‘माटी कुंभारभावे (घडाभावे) उपजती थकी शुं कुंभारना स्वभावथी उपजे छे के माटीना स्वभावथी उपजे छे? जो कुंभारना स्वभावथी उपजती होय तो जेमां घडो करवाना अहंकारथी भरेलो पुरुष रहेलो छे अने जेनो हाथ (घडो करवानो) व्यापार करे छे एवुं जे पुरुषनुं शरीर तेना आकारे घडो थवो जोईए. पण एम तो थतुं नथी, कारण के अन्य द्रव्यना स्वभावे कोई द्रव्यना परिणामनो उत्पाद जोवामां आवतो नथी.

जुओ, अहीं कुंभार घडाने उत्पन्न करे छे ए वात खोटी छे एम सिद्ध करे छे. कहे छे-माटी घडारूपे उपजे छे ते कुंभारना स्वभावथी उपजे छे के माटीना स्वभावथी उपजे छे? माटीना स्वभावथी उपजे छे, कुंभारना स्वभावथी नहि. जो कुंभारना स्वभावथी माटी घडारूपे थती होय तो कुंभारनो स्वभाव ने कुंभारना शरीरनो आकार घडामां आववो जोईए. पण एम तो छे नहि. घडामां तो माटीनो स्वभाव ज आव्यो छे, कुंभारनो नहि. घडो बनवाना काळे कुंभार, ‘हुं घडो करुं छुं’ -एवो अहंकार करो तो करो, पण कुंभारनो स्वभाव ने आकार घडामां कदीय आवतो नथी. आ वस्तुस्थिति छे भाई!

ज्ञानीने परलक्षे राग आवे छे, पण परनो ते कर्ता नथी ने रागनोय कर्ता नथी. तेने रागथी भेदज्ञान छे ने? तेथी ज्ञानमां रागने परज्ञेयपणे जाणे ज छे बस. ते रागनो कर्ता नथी. अहीं ए वात नथी. अहीं तो परद्रव्यनी पर्याय, बीजुं परद्रव्य करी शके नहि एटलुं सिद्ध करवुं छे. कुंभार ज्ञानी हो के अज्ञानी, ते माटीनी कुंभभावे थती अवस्थाने करी शके नहि एम अहीं सिद्ध करे छे. समजाय छे कांई.....?

अहाहा....! कहे छे-घडानो कर्ता जो कुंभार होय तो घडो करवानो जेने राग थयो छे अने जेनो हाथ व्यापार करे छे एवा कुंभारना शरीरना आकारे घडो थवो जोईए; परंतु एम तो थतुं नथी. केम? कारण के अन्यद्रव्यना स्वभावे कोई द्रव्यना परिणामनो उत्पाद जोवामां आवतो नथी. अहाहा....! कोई द्रव्यनी पर्याय कोई अन्य द्रव्यना स्वभावे त्रणकाळमां थती नथी. परद्रव्य निमित्त हो, पण परद्रव्यथी कोई द्रव्यनी पर्याय थाय एम कदीय बनतुं नथी. माटीनो घडो थाय एमां कुंभार निमित्त हो, निमित्तनी कोण ना पाडे छे? पण कुंभारथी-निमित्तथी माटीनो घडो थाय छे ए वात त्रणकाळमां सत्य नथी.

आ पाणी उनुं थाय छे ने? ते अग्निथी उनुं थाय छे एम, देखवामां आवतुं नथी. अहाहा....! (पाणीना रजकणोना) स्पर्शगुणनी पर्याय पहेलां ठंडी हती ते बदलीने उष्ण थई छे ते अग्निथी थई छे एम अमने देखवामां आवतुं नथी-एम संतो-केवळीना केडायतीओ कहे छे.