Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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पण पाणी अग्निथी उनुं थतुं देखाय छे ने? अहाहा.....! आचार्य कहे छे-अमने पाणी अग्निथी उनुं थतुं देखवामां आवतुं नथी. जो कोईने एम देखाय छे तो ते (अज्ञानथी) अंध छे. तेने अज्ञानथी जे देखाय ते यथार्थ वस्तुस्वरूप नथी. पाणीनी शीत अवस्था बदलीने उष्ण थई ते काळे अग्नि निमित्त हो, पण अग्निए एमां कांई कर्युं नथी. अग्नि तो पाणीना रजकणोने अडीय नथी.

आ भाषा बोलाय छे ने? अहीं कहे छे-आत्माथी भाषा बोलाय एम अमने देखवामां आवतुं नथी. भाषानी पर्याय तो भाषाना वचनवर्गणाना परमाणुथी उत्पन्न थई छे. आत्मा भाषा करी शके ए संभवित ज नथी, केमके अन्य द्रव्यना स्वभावे कोई द्रव्यना परिणामनो उत्पाद जोवामां आवतो नथी. परनी दया पाळवी ने दान करवुं ईत्यादिने लोको धर्म माने छे, पण ते यथार्थ नथी, केमके परद्रव्यनां परिणाम आत्मा करी शकतो नथी. आवी वात छे. हवे कहे छे--

‘जो आम छे तो पछी माटी कुंभारना स्वभावथी उपजती नथी, परंतु माटीना स्वभावथी ज उपजे छे कारण के (द्रव्यना) पोताना स्वभावे द्रव्यना परिणामनो उत्पाद जोवामां आवे छे. आम होवाथी, माटी पोताना स्वभावने नहि उल्लंघती होवाने लीधे, कुंभार घडानो उत्पादक छे ज नहि; माटी ज, कुंभारना स्वभावने नहि स्पर्शती थकी, पोताना स्वभावथी उपजे छे.’

जोयुं? कहे छे- माटी कुंभारना स्वभावथी उपजती नथी, परंतु पोताना स्वभावथी ज उपजे छे कारण के पोताना स्वभावे द्रव्यना परिणामनो उत्पाद जोवामां आवे छे. अहाहा....! पहेलां कह्युं के अन्यद्रव्यना स्वभावे कोई द्रव्यना परिणामनो उत्पाद जोवामां आवतो नथी; हवे कहे छे-पोताना स्वभावे द्रव्यना परिणामनो उत्पाद जोवामां आवे छे. आवी ज वस्तुस्थिति छे भाई! माटे कुंभार घडानो उत्पादक छे ज नहि. माटी ज, कुंभारना स्वभावने स्पर्श्या विना, पोताना स्वभावथी कुंभभावे उपजे छे. अहाहा.....! माटी ज पोताना स्वभावथी घडारूपे परिणमे छे. अहाहा....! आ प्रमाणे माटी ज घडानो कर्ता छे, कुंभार कदीय नहि. कुंभार तो निमित्त हो, पण ते घडानी पर्यायनो उत्पादक कदीय नथी.

तो कुंभारे घडो कर्यो एम कहेवाय छे ने? हा, कुंभारे घडो कर्यो, बाईए भरत भर्युं ईत्यादि कहेवुं ए बधां निमित्त प्रधान कथन छे, वस्तुस्वरूप एम नथी. आ महासिद्धांत छे भाई! घडो थवानी योग्यताना काळे माटी ज घडारूपे उपजी घडो उत्पन्न करे छे. कुंभार ते वखते बाह्य निमित्त हो, पण कुंभारथी घडो उत्पन्न थाय एम त्रणकाळमां नथी.


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अहाहा....! प्रत्येक द्रव्य पोताना स्वभावथी ज ते ते काळे ते ते पर्यायरूपे परिणमी जाय छे. एवी ज द्रव्यनी योग्यता छे, एमां परद्रव्यनुं कांई कर्तव्य नथी; ते ते पर्याय परद्रव्यथी उपजे एम त्रणकाळमां बनतुं नथी. जो परथी ते ते पर्याय थाय तो ते द्रव्ये पोते शुं कर्युं? द्रव्य छे तेनी ते ते काळे पर्याय तो होवी जोईए ने? पर्याय विनानुं शुं द्रव्य होय छे? नथी होतुं. तो पछी पर्यायनुं कर्ता ते द्रव्य पोते ज छे, अन्यद्रव्य तो बाह्य निमित्तमात्र छे. अन्यद्रव्यथी कार्य थयुं एम कहेवुं ए तो निमित्तनुं कथन छे बस. समजाणुं कांई....?

अरे! दुनिया तो अज्ञानमां पडी छे. तेने आगमनी खबर नथी. आगमनुं प्रयोजन तो आ छे के-परथी पोतानुं कार्य थाय एम कदीय बनतुं संभवित नथी. अहाहा....! पोते एक ज्ञायकभावमात्र ज्ञानानंद प्रभु छे, ते एकना आश्रयथी ज सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे आ आगम छे. सम्यग्दर्शन प्रगट थवामां रागनी- व्यवहाररत्नत्रयनी के कर्मना उपशमादिनी कोई अपेक्षा नथी. सम्यग्दर्शन प्रगट थवाना काळे कर्मना उपशमादि हो, पण ए तो बाह्य निमित्तमात्र छे. एनाथी सम्यग्दर्शन थाय एम कोई माने तो ए तो मूढ, मिथ्याद्रष्टि छे.

दरेक द्रव्यनी दरेक पर्याय पोताथी उत्पन्न थाय छे, तेनो उत्पादक कोई बीजो नथी. ज्ञानावरणीय कर्मना क्षयोपशमथी ज्ञाननी पर्याय अहीं उघाडरूपे थई छे एम नथी; केमके ज्ञानावरणीय कर्म तो जड छे, अने जे उघाडरूप क्षयोपशम छे ए तो ज्ञाननी पर्याय छे. कर्मथी ज्ञाननी पर्याय प्रगटती नथी, केमके जड अने चेतन तत्त्व ए बन्नेनो तो प्रगट स्वभाव ज भिन्न भिन्न छे. अरे! धर्म करवो छे पण लोकोने वीतरागे कहेला तत्त्वनी खबर नथी. ज्यां त्यां तेओ परने पोतानो (समकित वगेरेनो) ने पोताने परनो कर्ता माने छे पण ए तो एमनी मिथ्या श्रद्धा छे, शल्य छे.

अहीं कहे छे-माटी जे पोताना स्वभावथी घडारूपे परिणमे छे ते कुंभारना स्वभावने स्पर्शती सुद्धां नथी. शुं कीधुं? आ माटीनी घडानी पर्याय थाय ते कुंभारना हाथने अडती नथी अने कुंभारनो हाथ घडानी पर्याय थाय तेने अडतो नथी. तेओ बन्ने भिन्न भिन्न द्रव्यो छे तेथी तेओ एक बीजाने स्पर्शे एम त्रणकाळमां बनतुं नथी. एकबीजा वच्चे अत्यंत अभाव छे, माटे माटी पोते ज कुंभभावे उपजे छे-आ सिद्धांत छे. हवे आवुं सत्यार्थ ज्ञान कर्या विना भाई! तुं क्रियाकांडमां रच्योपच्यो रहे पण ए तो बधां थोथां छे, संसार सिवाय एनुं फळ बीजुं कांई नथी. समजाणुं कांई....? हवे कहे छे-

‘एवी रीते-बधांय द्रव्यो स्वपरिणामपर्याये (अर्थात् पोताना परिणामभावरूपे)


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‘एवी रीते-बधांय द्रव्यो....’ अहाहा....! जोयुं? अनंता जीव, अनंतानंत पुद्गलो आदि बधांय द्रव्योमां आ सिद्धांत कहे छे. घडानुं तो द्रष्टांत कह्युं, हवे पूछे छे के- पोताना परिणामभावरूपे उपजे छे ते प्रत्येक द्रव्य (बधाय द्रव्य) शुं निमित्तभूत बीजा द्रव्यना स्वभावथी उपजे छे के पोताना स्वभावथी उपजे छे? अहाहा....! शुं कीधुं? के भगवानना जिनबिंबना दर्शन करवाना भाव थया ते शुभभावनी पर्याय निमित्तभूत जिनबिंबना स्वभावे थई छे के पोताना स्वभावथी थई छे? गजब वात छे भाई! ते शुभभावनी पर्याय पोताथी (पोताना स्वभावथी) थई छे. प्रत्येक द्रव्य पोताना स्वभावथी उपजे छे, निमित्तभूत अन्यद्रव्यना स्वभावथी नहि. जीवमां जे रागद्वेषना परिणाम थाय ते पोताथी थाय छे, निमित्तभूत अन्यद्रव्यथी (कर्मथी) नहि. जो निमित्तभूत अन्यद्रव्योना स्वभावथी वस्तु उपजती होय तो ते निमित्तभूत अन्यद्रव्योना आकारे थवी जोईए. पण, कहे छे, एम तो थतुं नथी. केम? केमके अन्यद्रव्यना स्वभावे कोई द्रव्यना परिणामनो उत्पाद जोवामां आवतो नथी.

आ मारो दीकरो, आ मारी स्त्री, आ मारुं शरीर अने हुं ए बधांनां काम करुं ए वात रहेवा दे भाई! केमके तारी पर्याय ए सर्वथी भिन्न छे, अहाहा....! दरेक द्रव्यनी विकारी के अविकारी पर्याय पोताथी उत्पन्न थाय छे, निमित्तभूत अन्य द्रव्यथी नहि. आ तो मूळ सिद्धांत छे बापु! जो निमित्तभूत अन्यद्रव्यथी थाय तो ते अन्यद्रव्यना आकारे थई जाय. पण एम थतुं ज नथी. कर्मथी जो जीवने विकारना परिणाम थाय तो चेतनमां-जीवमां थतो विकार कर्मना आकाररूपे थवो जोईए. पण एम थतुं ज नथी. संप्रदायमां एवुं माने छे के ‘कर्मने लईने विकार थाय’ पण ए मान्यता यथार्थ नथी. जीवने ज्ञाननी हीणी दशा थाय छे ते पोताथी थाय छे, कर्मथी नहि; ज्ञानावरणीय कर्मनो उदय आव्यो माटे ज्ञाननी पर्याय हीणी थई एम नथी. बीजुं द्रव्य निमित्त हो, पण निमित्तभूत द्रव्य आनुं कांई करतुं नथी. ज्ञाननी हीणी अवस्था छे तेने ज्ञानावरणीय कर्म तो अडतुंय नथी.

आ आंखनी पांपण हले छे ने? ते पोताथी हले छे. आत्मानी हलावी हले छे एम छे नहि. जो आत्मानी हलावी हले तो पांपण आत्मारूप थई जाय, आत्मानो स्वभाव तेमां आवी जाय; पण एम कदी बनतुं ज नथी केमके अन्यद्रव्यना स्वभावे कोईनो उत्पाद जोवामां आवतो नथी. अहो! दिगंबर संतोए जाणे केवळीना पेटमां


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पेसी गया होय तेम स्वानुभवथी वात करी छे. प्रवचनसारनी गाथा १०२मां आवे छे के दरेक द्रव्यनी समये समये जे जे पर्याय प्रगट थाय छे ते तेनो जन्मकाळ छे, जन्मक्षण छे; अर्थात् ते ते समये सहज ज पोताथी थाय छे, कोई अन्य निमित्तथी नहि. (जो निमित्तथी थाय तो जन्मक्षण सिद्ध न थाय).

जुओ, वींछीए डंख मार्यो होय तो त्यां ए डंखना रजकणो शरीरने अडया ज नथी. शरीरनी (वेदना युक्त) पर्याय शरीरथी थाय छे, ने डंख डंखमां रहे छे. बन्ने स्वतंत्र छे बापु! आ कार्मण अने तेजस शरीर छे तेने आत्मा अडयो नथी, ने आत्माने ते शरीरो अडयां नथी. शरीर भिन्न ने आत्मा भिन्न छे. भगवान आत्मा भिन्न ने कर्म भिन्न छे. निश्चयथी ज्ञायकप्रभु आत्मा अने राग भिन्न छे, कोई कोईने अडयां ज नथी. आवी वात छे. अहो! आ तो एकलुं अमृत छे. समजाणुं कांई....?

भाई! आवुं यथार्थ श्रद्धान कर्या विना मिथ्याश्रद्धा वश जीव चार गतिमां रखडे छे. खरेखर तो मिथ्याश्रद्धाना कारणे एने निगोदनी गति ज छे. जेवी वस्तु छे तेवी न माने, अन्यथा माने ते सत्यार्थ वस्तुने आळ आपे छे. कर्मथी विकार थाय एम माननारे कर्मने आळ आप्युं अने शुभरागथी धर्म थाय एम माननारे भगवान चैतन्यस्वभाव एक आत्माने आळ आप्युं. ए आळ अर्थात् मिथ्या शल्यना कारणे जीव निगोदमां चाल्यो जाय छे; अहा! बीजा जीवो तेने ‘जीव’ तरीके मानवा तैयार न थाय एवी दुर्गति-निगोदगतिमां ते चाल्यो जाय छे. अहा! पोताने आळ आपे छे ते जीव लसण- डुंगळीमां जन्म ले छे. पोतानुं स्वरूप जेणे मान्युं नहि तेने कोई ‘जीव’ न माने एवा स्थानमां जन्म ले छे. भाई! आ अवसर जाय छे हों.

लसणनी एक कटकीमां असंख्य औदारिक शरीर छे, अने ते एक शरीरमां सिद्धोनी संख्याथी अनंतगुणा निगोदिया जीव छे. ते एक जीवनो श्वास ते अनंत जीवोनो श्वास छे. अहा! तेना तेजस्, कार्मण शरीरमां अनंता रजकणो छे. अहीं कहे छे- ते एक रजकण बीजा रजकणने अडतुं नथी, अने ते रजकणो आत्माने अडता नथी.

जुओ, एक परमाणुमां बेगुण चीकाश छे, बीजा परमाणुमां चारगुण चीकाश छे. ते चारगुण चीकाशवाळा परमाणु साथे बेगुण चीकाशवाळो परमाणु भेगो थाय तो ते चारगुण चीकाशवाळो परिणमी जाय छे. त्यां ए कोई ओला चारगुण चीकाशवाळा परमाणुने लईने चारगुण चीकाशवाळो परिणमी जाय छे एम नथी, केमके बेगुण चीकाशवाळो परमाणु वास्तवमां तो चारगुण चीकाशवाळा परमाणुने अडयांय नथी. वीतरागनुं तत्त्व बहु झीणुं छे भाई!

एक परमाणु छूटो होय तेनी पर्याय शुद्ध छे, अने ते सूक्ष्म छे. हवे ते


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निगोदना जीवमां अक्षरना अनंतमा भागे ज्ञाननी पर्यायनो विकास छे; तो ते ज्ञानावरणीय कर्मना उदयना कारणे हीणी दशा छे के नहि?

जुओ, अहीं ना पाडे छे के- ज्ञानावरणीय कर्मना उदयना कारणे ज्ञाननी हीणी दशा थई छे एम नथी, परंतु पोताना कारणे ज्ञाननी हीणी पर्याय थई छे, कर्म निमित्त छे, पण ज्ञानमां ए कांई करतुं नथी. बन्नेना परिणाम स्वतंत्र छे, कोई कोईने अडतां नथी. ज्ञाननी हीनाधिक दशा ते, ते ते समयनी तेनी योग्यता छे. भाई! आ तो टूंका शब्दोमां आचार्यदेवे सारभूत गजबनो सिद्धांत कह्यो छे.

कवीनाईननी गोळी ले एटले ताव उतरी जाय छे ने? अहीं कहे छे-कवीनाईननी गोळीथी ताव उतर्यो नथी, कवीनाईननी गोळी निमित्त हो, पण एनाथी ताव उतर्यो छे एम माने ए खोटी वात छे; केमके कवीनाईनना रजकणो भिन्न छे ने शरीरना रजकणो भिन्न छे, कोई कोईने अडता नथी. अने शरीरनी तावनी पर्याय आत्माने अडी नथी. बधुं ज भिन्न भिन्न छे.

अरे! लोकोने तत्त्वना वास्तविक स्वरूपनी खबर नथी. तेओ मिथ्याश्रद्धा ने अज्ञानथी उन्मत्त-पागल थई गया छे. तेओने मिथ्याश्रद्धानो पावर-मद चढी गयो छे. बीजानां काम हुं करी शकुं छुं, दान दई शकुं छुं, बीजा जीवोने बचावी शकुं छुं, शरीरनां काम करी शकुं छुं ईत्यादि अज्ञानवश तेओ माने छे. पण बापु! पर जीवनी अवस्था एनाथी थाय के तारा रागथी थाय? आचार्यदेव तो आ फरमावे छे के- एक द्रव्यनी पर्याय बीजा द्रव्यथी उत्पन्न थाय एम अमे देखता नथी. अहाहा.....! कहे छे-

दरजी कपडां सीवे छे-एम अमे देखता नथी,
कुंभार घडो करे छे-एम अमे देखता नथी,
चित्रकार चित्र आलेखे छे -एम अमे देखता नथी,
सोनी दागीना घडे छे-एम अमे देखता नथी,
बाई रसोई बनावे छे-एम अमे देखता नथी,
मुनिराज छकायनी रक्षा करे छे-एम अमे देखता नथी,

तो शुं छे? भगवान केवळीए केवळज्ञानमां जगतना सर्व-अनंता तत्त्वो स्वतंत्र


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स्वसहाय जोयां छे, प्रत्येक द्रव्य पोतानी पर्यायथी पोते स्वतंत्र ज परिणमे छे. अहा! द्रव्यनां द्रव्य-गुण तो त्रिकाळ नित्य स्वसहाय छे, तेनी एक समयनी पर्याय पण स्वसहाय छे, स्वतंत्र द्रव्यना स्वभावथी ज उत्पन्न थाय छे, बीजा द्रव्यथी नहि. भाई! आ महासिद्धांत आचार्यदेवे आमां सिद्ध कर्यो छे, अहो! आ सरस अलौकिक गाथा छे; पूर्वनां भाग्य होय तो काने पडे एवी आ वात छे. अने आने समजवा तो महापुरुषार्थ जोईए. अहा! परनो-रागनो हुं अकर्ता छुं एम ज्यां मान्यता थई त्यां हुं शुद्ध एक ज्ञायक मात्र छुं एम द्रष्टि थाय छे अने एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे, अने ए आ गाथानुं तात्पर्य छे.

सवंत १९७१ नी सालमां लाठीमां सौ प्रथम आ वात मूकी हती के-जडकर्मथी विकार थाय ए वात त्रणकाळमां सत्य नथी; विकार थाय छे ते पोतानी पर्यायमां पोताथी थतो पोतानो ज अपराध छे, परनुं-कर्मनुं तेमां कांई (कारण) नथी.

त्यारे एक शेठ दलील बन्या - महाराज! विकार थाय तेमां प१ टका जीवना अने ४९ टका कर्मना राखो. कर्मनुं संप्रदायमां सांभळेलुं बहु ने!

तेमने कह्युं के - एम बिलकुल नहि; दरेक द्रव्यनी समये समये थती पर्यायमां सोए सो टका पोतानुं ज कारण छे, एक दोकडो पण एमां परनो-निमित्तनो कारणपणे नथी. द्रव्यनी प्रत्येक पर्यायनो स्वकाळ छे, अने स्वकाळे ते स्वयं पोताथी उत्पन्न थाय छे. पर्यायनी जन्मक्षणनी वात प्रवचनसार गाथा-१०२ मां आवी छे.

माटीमां घडानी पर्याय उत्पन्न थवानी जे जन्मक्षण छे ते काळे माटीना स्वभावथी घडो उत्पन्न थाय छे, कुंभार घडानो उत्पादक नथी, कुंभारथी घडो थतो नथी. आ मकाननो उत्पादक कडियो नथी. पदार्थे-पदार्थ भिन्न छे भाई! दरेक रजकण अने दरेक आत्मा पोताना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी भिन्न छे.

द्रव्य एटले त्रिकाळी वस्तु अनंत गुण-स्वभावनो पिंड; क्षेत्र एटले एनो प्रदेश-पहोळाई; काळ एटले वर्तमान अवस्था; भाव एटले त्रिकाळी शक्ति. आ प्रमाणे दरेक द्रव्य पोताना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावमां छे, अने परना द्रव्य- क्षेत्र-काळ-भावमां नथी. आवुं वस्तुस्वरूप होवाथी एक द्रव्यनुं कार्य बीजा द्रव्यथी थाय एम बनतुं नथी. जो निमित्तभूत अन्य द्रव्यना स्वभावथी कार्य उपजतुं होय तो निमित्तभूत अन्यद्रव्यना आकारे तेना परिणाम थवा जोईए; परंतु एम थतुं नथी. आ सिद्धांत छे भाई! प्रत्येक पदार्थ पोतानुं कार्य करवा समर्थ छे, अने परना कार्य माटे तद्न पांगळो छे, अकिंचित्कर छे. समजाणुं कांई....?


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आ मोटर चाले छे ने? ते चालकथी (ड्राईवरथी), पेट्रोलथी के मशीनथी चालती नथी. भाई! दुनिया साथे मेळ न खाय एवी वात छे, पण आ सत्य वात छे. चालकनो आत्मा जुदो, एना शरीरना रजकण जुदा, पेट्रोलना रजकण जुदा, मशीनना रजकण जुदा अने मोटरना परमाणु जुदा छे. बधुं ज जुदुं जुदुं छे. मोटर चाले छे ए तो एना परमाणुनी क्रियावती शक्तिनी तत्कालीन योग्यताथी चाले छे. बीजी चीज (चालक वगेरे) निमित्त हो, पण एनाथी मोटर चालती नथी. आवुं वस्तुस्वरूप छे छतां परनो पोताने कर्ता माने वा परने पोतानो कर्ता माने ए मूढता छे.

अहा! आत्मा ज्ञानानंदनी लक्ष्मीथी भरेलो भगवान छे. तेनो आश्रय करवाथी एक समयमां अनंत गुणोनी अत्यंत पूर्ण पर्यायो प्रगट थाय छे. ते पर्यायो पोताथी प्रगट थाय छे ने एम ने एम सादि-अनंत काळ थया करशे. तेमां केवळज्ञाननी पर्याय प्रगट थाय ते पोताथी थाय छे, तेमां संघयण अने मनुष्यपणुं निमित्त हो, पण एनाथी केवळज्ञान थतुं नथी. अहा! केवळज्ञाननी पर्यायो अनंतकाळ सुधी प्रगटया करे छतां द्रव्य तो त्रिकाळ एवुं ने एवुं अंदर अनंतगुणरसथी भरेलुं रहे छे. निगोदनी पर्यायना काळमां पण द्रव्य तो अंदर एवुं ने एवुं ज भर्युं पडयुं छे. अहा! आवा निजरसथी- चैतन्यरसथी भरेला भगवान आत्माने ओळखी तेनो अनुभव करवो एनुं नाम धर्म छे अने ते करवा जेवुं छे; बाकी बधुं तो धूळधाणी ने वा-पाणी छे.

भाई! आवो धर्म प्रगट करवो नथी तो क्यां जईश बापु! चोरासीना अवतारमां रखडतां रखडतां मांड आ अवसर आव्यो छे. हवे एमां आ भगवाननुं कहेलुं तत्त्व (निज अंतःतत्त्व) नहि, ओळखे तो कोण जाणे मरीने क्यांय चाल्यो जईश. बधुं ज फरी जशे, संयोग फरी जशे, क्षेत्र फरी जशे, भाव फरी जशे, क्यांय नरक-निगोदमां चाल्यो जईश. परना कर्तापणाना अहंकारनुं आवुं फळ छे बापु!

आ बोलवारूप भाषानी पर्याय थाय ते जडनी पर्याय छे, जीव तेनो कर्ता नथी. जुओ, घणाने पक्षघात थाय त्यारे बोलवा जाय पण बोली शकातुं नथी. कोण बोले? ए तो जडनी क्रिया थवा काळे एनाथी थाय, ताराथी (-जीवथी) न थाय. पासे दस-वीस लाखनी मूडी थई होय एटले हुं पैसा कमायो एम अभिमान करे छे ने आखी जिंदगी ममतामां काढे, पण बापु! ए तो जिंदगी हारी जवानी वात छे. ओचिंतो मरणकाळे पक्षघात थई आवे ने छोकराने कहेवा जाय के मारी पाछळ बे- पांच लाख शुभमां वापरजो- मांड लवो वळे त्यां छोकरो कहे - “ बापा, अत्यारे पैसा न संभळाय, धर्ममां लक्ष करो.” त्यां तो देह छूटी जाय ने क्षणमां जीव क्यांय दुर्गतिमां चाल्यो जाय. जुओ आ संसार!


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कोण बाप ने कोण दीकरो? आ तो बधा स्वार्थना संबंधी भाई! नियमसारमां आवे छे के -आ सगांवहालां कोई तारा नथी, ए तो बधी धूतारानी टोळी छे. बाप गुजरी जाय पछी बैरां-छोकरां रडे छे ने? ए तो पोताना स्वार्थने रडे छे, तारा सारुं कोई रडतां नथी हों; तुं दुकाने मजूरी करीने रळीने लावतो ते बधाने ठीक पडतुं, पण हवे ते सगवडता चाली गई तेथी पोताना स्वार्थ खातर रडे छे. बाकी बाप मरीने क्यां गयो एनी कोने पडी छे? (कोईने कोईनी पडी नथी). (अने कोई कोईनुं करे पण शुं?)

प्रत्येक द्रव्यनी पर्याय पोताथी थाय छे; तेमां बीजी चीज निमित्त हो, पण निमित्तथी एनुं कांई (कार्य) थतुं नथी, केमके अन्यद्रव्यना स्वभावथी अन्यद्रव्यनो उत्पाद जोवामां आवतो नथी. भाई! जेने आ वात अंतरमां बेसी जाय तेने पराधीनपणुं नाश पामी जाय छे. निमित्त आवे तो मारुं कार्य थाय एवी निमित्ताधीन द्रष्टि उडी जाय छे अने तेने स्वाधीनतानो पुरुषार्थ प्रगट थाय छे; अने आ ज कर्तव्य छे. समजाणुं कांई....? हवे कहे छे-

‘जो आम छे तो सर्व द्रव्यो निमित्तभूत अन्यद्रव्योना स्वभावथी उपजतां नथी, परंतु पोताना स्वभावथी ज उपजे छे कारण के (द्रव्यना) पोताना स्वभावे द्रव्यना परिणामनो उत्पाद जोवामां आवे छे. आम होवाथी, सर्व द्रव्यो पोताना स्वभावने नहि उल्लंघता होवाने लीधे, निमित्तभूत अन्यद्रव्यो पोताना (अर्थात् सर्व द्रव्योना) परिणामना उत्पादक छे ज नहि; सर्व द्रव्यो ज, निमित्तभूत अन्यद्रव्योना स्वभावने नहि स्पर्शतां थकां, पोताना स्वभावथी पोताना परिणामभावे उपजे छे.’

जोयुं? पहेलां कह्युं के अन्यद्रव्यना स्वभावे कोई द्रव्यना परिणामनो उत्पाद जोवामां आवतो नथी; हवे कहे छे-पोताना स्वभावे द्रव्यना परिणामनो उत्पाद जोवामां आवे छे. आ सिंहनो फोटो पाडे छे ने? त्यां सिंहना जेवो केमेराथी फिल्ममां फोटो पडी जाय छे -ते कांई सिंहने लईने नथी. गजब वात छे भाई! ए फोटामां कांई सिंह नथी अने फोटो सिंहने लईने नथी; कारण के द्रव्यना पोताना परिणामस्वभावथी परिणामनो उत्पाद जोवामां आवे छे. अहा! दरेक आत्मा दरेक परमाणुनी वर्तमान पर्याय पोताना स्वभावथी ज थती जोवामां आवे छे. वीतरागनो मारग बहु झीणो भाई!

आम होवाथी, कहे छे, सर्व द्रव्यो पोताना स्वभावने नहि उल्लंघता होवाने लीधे, निमित्तभूत अन्यद्रव्यो सर्व द्रव्योना परिणामना उत्पादक छे ज नहि. आ रागद्वेषना परिणाम थाय ते पोताना स्वभावथी ज थाय छे, जड कर्मो तेना उत्पादक छे ज नहि. जीवना रागादि दोषोनुं उत्पादक परद्रव्य छे एम छे ज नहि. ‘अपनेको आप भूल के हेरान हो गया-’ अहा! पोते पोताने भूलीने हेरान थयो छे, दुःखी


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माटे आ निश्चय छे के सर्व द्रव्यो ज, निमित्तभूत अन्यद्रव्योना स्वभावने नहि स्पर्शतां थकां, पोताना स्वभावथी पोताना परिणामभावे उपजे छे. ल्यो, परिणमनशील एवुं प्रत्येक द्रव्य निमित्तभूत अन्य द्रव्यना स्वभावने स्पर्श्या विना ज पोताना स्वभावथी पोताना परिणामभावे उपजे छे. अहा! जीवने रागादि थाय ते कर्मना उदयने अडया विना ज पोताना (पर्यायना) स्वभावथी थाय छे. प्रत्येक द्रव्य पोताना परिणाम भावे उपजे एवो एनो स्वभाव ज छे, एने बीजा कोईनी गरज-अपेक्षा नथी.

‘माटे (आचार्यदेव कहे छे के) जीवने रागादिनुं उत्पादक अमे परद्रव्यने देखता (-मानता, समजता) नथी के जेना पर कोप करीए.’ अहाहा......! आणे अमने राग कराव्यो एम अमे देखता-मानता नथी तो अमे कोना पर कोप करीए? आचार्य कहे छे- अमे तो शांतभावने-समताभावने ज भजीए छीए. समजाणुं कांई....? परद्रव्य अमने कांई करतुं ज नथी तो परद्रव्यनुं लक्ष केम करीए? ल्यो, आवी वात!

* गाथा ३७२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आत्माने रागादिक उपजे छे ते पोताना ज अशुद्ध परिणाम छे.’ अहाहा....! जोयुं? आत्माने एटले आत्मानी पर्यायमां जे राग, द्वेष, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, विषयवासना ईत्यादि शुभाशुभ भाव उपजे छे ते एना पोताना ज अशुद्ध परिणाम छे-एम कहे छे. वस्तुमां विकार नथी, पण पर्यायमां अनादिथी विकार चाल्यो आवे छे. छेक चौदमा गुणस्थान सुधी पर्यायमां अशुद्धता छे. चौदमा गुणस्थान सुधी असिद्धत्व भाव छे. ते उदयभावनुं अस्तित्व पोतामां पोताना कारणे छे, कर्मना कारणे नथी. अनादि संसारथी मांडीने छेक चौदमा गुणस्थान सुधी जे विकृतभाव-विभावभाव पर्यायमां छे ते बधो पोतानो ज अपराध छे, कर्मने लईने ते विकृति छे एम नथी.

वस्तुनी द्रष्टिथी जुओ तो वस्तु तो सहज चेतनास्वरूप, सहजानंदस्वरूप सच्चिदानंदस्वरूप त्रिकाळी ध्रुव छे, ते कदीय रागमय थई नथी. अहाहा...! योगनुं कंपन छे ते-रूपे वस्तु कदीय थई नथी. परंतु तेनी वर्तमान पर्यायमां रागादिक अशुद्धता छे. जेटलो राग छे अने योगनुं कंपन छे ते बधोय पोतानी पर्यायनो अपराध छे, जड कर्मनुं तेमां कांई नथी. जडकर्म-पर द्रव्य तेने शुं करे?


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केवळज्ञान थतां चार घाति कर्मनो क्षय थयो अने चार अघाति कर्म बाकी रह्यां. तो अघाति कर्मना उदयना कारणे भगवान केवळी त्यां रह्या छे एम नथी. तेओ तो पोतानी कंपननी दशानी योग्यताना कारणे रह्या छे; एटली (कंपननी) विरुद्धता छे ने? माटे रह्या छे, कर्मने कारणे नहि. केवळी भगवानने असिद्धत्व भाव छे, सिद्धत्व नथी ते पोतानी पर्यायनी योग्यताथी ज छे, कर्मनुं एमां कांई कारण नथी. आवी वात! समजाणुं कांई....? जीवने शुभाशुभ भाव थाय ते जीवना पोताना ज परिणाम छे.

‘निश्चयनयथी विचारवामां आवे तो अन्यद्रव्य रागादिकनुं उपजावनार नथी, अन्यद्रव्य तेमनुं निमित्तमात्र छे; कारण के अन्यद्रव्यने अन्यद्रव्य गुण-पर्याय उपजावतुं नथी ए नियम छे.’

‘निश्चयनयथी विचारवामां आवे तो....’-आ निश्चयनय एटले वर्तमान पर्याय जीवनी छे एने अहीं निश्चयनय कह्यो छे. शुद्धनिश्चयनयनी अहीं वात नथी. शुद्धनिश्चयनयथी तो द्रव्यमां रागादिक उदयभाव छे ज नहि, संसार छे ज नहि. अहीं तो द्रव्यनी पर्याय ते निश्चय अने कर्म छे ते व्यवहार. पर्यायनी योग्यता ते निश्चय अने कर्मनुं निमित्त छे ते व्यवहार एम वात छे. द्रव्य ते निश्चय ने पर्याय ते व्यवहार ए वात अत्यारे अहीं नथी.

पर्यायनी उत्पत्ति ते एना (द्रव्यना) सत्त्वमां छे एम वात छे. जीवनी पर्यायमां वर्तमान रागादिकनुं अस्तित्व छे ए रीते विचारवामां आवे तो अन्यद्रव्य रागादिकनुं उपजावनार नथी एम कहे छे. कर्मनो उदय जीवने पुण्य-पाप आदि भाव करावे छे एम त्रणकाळमां नथी. भाई! जेने हजु पर्यायनी स्वतंत्रतानी वात बेसती नथी तेने द्रव्यनी स्वतंत्रतानी द्रष्टि थई शके नहि. अहाहा.....! विकारना परिणाम जे वर्तमानमां छे ते माराथी, मारामां, मारा माटे, मारा आधारे छे एम पर्यायना षट्कारकनी स्वतंत्रतानुं जेने भान नथी तेने अंदर वस्तु स्वसहाय स्वतंत्र छे एम बेसी शके नहि, अर्थात् तेने वस्तुनो स्वनो आश्रय थई शके नहि.

भाई! कर्ता, कर्म आदि षट्कारक विकारना विकारी पर्यायमां छे. वस्तुमां जो विकार होय तो ते कदी छूटे नहि, अने पर्यायमां जो विकार न होय तो आनंद होवो जोईए. शुं कीधुं? आत्मा सच्चिदानंद प्रभु छे-तेनी पर्यायमां जो विकार न होय तो तेना स्थानमां आनंदनो स्वाद आववो जोईए; परंतु आनंदना स्वादनो अभाव छे, माटे त्यां पर्यायमां विकारी भावनो सद्भाव छे एम सिद्ध थाय छे. समकितीने पण पूर्ण आनंदनो अनुभव नथी, जेटली अधुरप (अधूराश) छे तेटलो राग छे ने तेटलुं दुःखनुं वेदन पण छे.

आत्मा शुद्ध चिदानंद प्रभु अनादिथी छे. तेम तेनी पर्यायमां अशुद्धता पण


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एक द्रव्यने बीजुं द्रव्य गुणपर्याय उपजावतुं नथी ए नियम छे. माटे कहे छे- ‘जेओ एम माने छे -एवो एकांत करे छे-के “परद्रव्य ज मने रागादिक उपजावे छे,” तेओ नयविभागने समज्या नथी, मिथ्याद्रष्टि छे.’

अहा! जेओ परद्रव्य ज मने विकार करावे छे एवो एकान्त करे छे तेओ, कहे छे, मिथ्याद्रष्टि छे, केमके तेओ नयविभागने समज्या नथी. पर्यायमां विकार पोताथी थाय छे ते निश्चय अने कर्मना निमित्तथी थाय छे एम कहीए ते व्यवहार-एम नयविभागने समज्या नथी तेथी तेओ मिथ्याद्रष्टि छे. समजाणुं कांई....? हवे कहे छे-

‘ए रागादिक जीवना सत्त्वमां उपजे छे, परद्रव्य तो निमित्तमात्र छे-एम मानवुं ते सम्यग्ज्ञान छे.’

अहा! गृहस्थपणे रहीने पंडित श्री जयचंदजीए केवी स्पष्टता करी छे? कहे छे- रागादिक भाव जीवनी पर्यायना सत्त्वमां उपजे छे, परमां उपजे छे एम नहि. आत्माना द्रव्य-गुणमां विकार नथी, पण पर्यायमां विकार छे. आकाशना फूलनी जेम विकार पर्यायमां छे ज नहि एम वात नथी तथा ते परमां थाय छे एम पण नथी. वेदांती माने छे के ‘जगत मिथ्या’ -एवी आ वात नथी. मलिनता पर्यायमां छे, ए कांई भ्रम नथी. पर्यायमां विकार पोताथी उपजे छे, ने परद्रव्य तो निमित्तमात्र छे-एम मानवुं ते सम्यग्ज्ञान छे. भाई! निमित्त विकार करावतुं नथी, पण निमित्तना लक्षे पर्यायमां विकार उपजे छे. समजाणुं कांई?

द्रव्य-गुण जेम त्रिकाळी सत् छे तेम पर्याय द्रव्यनुं वर्तमान सत् छे. ते पर्यायना सत्त्वमां रागादिक उपजे छे, अने कर्म-बीजी चीज तो निमित्तमात्र छे. निमित्तमात्र एटले मात्र हाजरीरूप, एनाथी (विकार) थाय एम नहि. हवे आवो


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निर्णय करवानी आ वाणीआओने क्यां फुरसद छे? पण बापु! जीवन जाय छे हों. (एम के आनो निर्णय न कर्यो तो जीवन एळे जशे). अहा! जेने सत्यार्थ निर्णय थयो छे एवो ज्ञानी एम जाणे छे के आ राग छे ते मारी पर्यायनुं सत्त्व छे, अन्यद्रव्य तो निमित्तमात्र छे. ल्यो, आवी वात!

भगवान केवळीने पूर्ण सुख छे, मिथ्याद्रष्टिने पूर्ण दुःख छे, एकलुं दुःख छे, ने साधकने कांईक सुख ने कांईक दुःख छे. जेटली स्वरूपना आश्रये शुद्धता-निर्मळता प्रगटी तेटलुं तेने आनंदनुं वेदन छे अने जेटलो पर्यायमां राग छे तेटलुं दुःखनुं वेदन छे. ल्यो, आम यथार्थ मानवुं ते सम्यग्ज्ञान छे.

‘माटे आचार्य महाराज कहे छे के-अमे रागद्वेषनी उत्पत्तिमां अन्य द्रव्य पर शा माटे कोप करीए? रागद्वेषनुं उपजवुं ते पोतानो ज अपराध छे.’

जुओ, ज्यारे द्रष्टि साथेना ज्ञाननी वात चालती होय त्यारे राग अने दुःखनो स्वामी आत्मा नथी, ए तो एनो जाणनार-देखनार छे एम कहेवाय. श्रद्धानी अपेक्षाए रागने हेय कहेवाय, ने चारित्रनी अपेक्षा रागनुं वेदन छे ते दुःखनुं वेदन छे अने ते पर्यायनुं सत्त्व छे. आम सम्यग्ज्ञानी बराबर जाणे छे. माटे आचार्यदेव कहे छे के-अमे रागद्वेषनी उत्पत्तिमां अन्यद्रव्य पर शा माटे कोप करीए? रागद्वेष उपजे छे ते पोतानो ज अपराध छे. अन्यद्रव्य तो रागद्वेष उपजावतुं नथी तो पछी अन्यद्रव्य पर कोप करवानुं शुं प्रयोजन छे?

*

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश २२०ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘इह’ आ आत्मामां ‘यत राग–द्वेष–दोष–प्रसूतिः’ जे रागद्वेषरूप दोषोनी उत्पत्ति थाय छे ‘तत्र परेषां कतरत् अपि दूषणं नास्ति’ त्यां परद्रव्यनो कांईपण दोष नथी, ‘तत्र स्वयम् अपराधी अयम् अबोधः सर्पति’ त्यां तो स्वयं अपराधी एवुं आ अज्ञान ज फेलाय छे; - ‘विदिता भवतु’ ए प्रमाणे विदित थाओ, अने ‘अबोधः अस्तं यातु’ अज्ञान अस्त थई जाओ; ‘बोधः अस्मि’ हुं तो ज्ञान छुं.

अहीं पर्यायनी वात छे. आत्मानी पर्यायमां रागद्वेषरूप दोषनी प्रसूति थाय छे ते, कहे छे, पर्यायनो पोतानो अपराध छे; तेमां परद्रव्यनो जराय अपराध नथी.

तो समकिती ज्ञानीने राग थाय छे ते कर्मनी बळजोरी छे एम शास्त्रमां आवे छे ने?


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हा, आवे छे; पण ए तो निमित्तनुं (निमित्तनी मुख्यताथी) कथन छे. ज्ञानीने रागनी रुचि नथी तेथी तेने राग थाय छे ते कर्मनी बळजोरीथी छे एम निमित्तनी मुख्यताथी कहीए छीए; परंतु थाय छे तो पोताना अपराधथी ज, कर्म कांई रागादि करावी देतुं नथी. कर्म शुं करे? कर्म-निमित्त तो पर छे, ए तो विकारने अडतांय नथी. त्रीजी गाथामां (टीकामां) आव्युं छे के सर्व पदार्थो पोताना द्रव्यमां अंतर्मग्न रहेला पोताना अनंत धर्मोना चक्रने चुंबे छे, तोपण तेओ परस्पर एकबीजाने चुंबता- स्पर्शता नथी. भाई! भगवाननी वाणीमां आवेली आ वात छे. समजाणुं कांई....!

आत्मानी पर्यायमां पुण्य ने पापना भाव थाय ते बधा दोषो छे. ते दोषोनी उत्पत्ति थाय तेमां परद्रव्यनो कांई पण अपराध नथी. जैनमां अत्यारे लाकडुं गरी गयुं छे ने? कर्मने लईने जीवने विकार थाय छे. -एम जैनमां मानवा लाग्या छे. अन्यमतवाळा ईश्वरने कर्ता माने अने आ जैनो जड कर्मने रागद्वेषनो कर्ता माने-बेमां शुं फेर? कांई ज नहि; बन्ने मिथ्याद्रष्टि छे. कर्मथी विकार थाय एम माने ए तो एनुं मिथ्या शल्य छे. अहीं तो आ स्पष्ट कहे छे के तत्र-त्यां ‘परेषां कतरत् अपि दूषणं नास्ति’ परद्रव्यनो कांईपण दोष नथी; त्यां तो स्वयं अपराधी एवुं आ अज्ञान ज फेलाय छे.

आचार्य कहे छे- आ अज्ञान अस्त थई जाओ; हुं तो ज्ञान छुं. आचार्यदेवे त्रीजा कळशमां पण कह्युं छे के-मारी परिणति रागादि दोषोथी कल्माषित -मेली छे ते मलिनतानो नाश थाओ; हुं तो द्रव्यरूपथी शुद्ध चैतन्यमूर्ति छुं. अहीं पण कहे छे- अज्ञान अस्त थई जाओ, हुं तो ज्ञान छुं. अहाहा....! चैतन्यप्रकाशनो पुंज हुं प्रभु छुं; एना आश्रये पर्यायमांथी विकारनो नाश थाओ, ने निराकुल आनंद प्रगट थाओ. आवी वात छे. हुं तो ज्ञान छुं एम कहीने द्रव्यद्रष्टि वडे अज्ञाननो नाश थाओ एम आचार्यदेवनी प्रेरणा छे.

* कळश २२०ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अज्ञानी जीव रागद्वेषनी उत्पत्ति परद्रव्यथी थती मानीने परद्रव्य उपर कोप करे छे के- “आ परद्रव्य मने रागद्वेष उपजावे छे, तेने दूर करुं.” एवा अज्ञानी जीवने समजाववाने आचार्यदेव उपदेश करे छे के -रागद्वेषनी उत्पत्ति अज्ञानथी आत्मामां ज थाय छे अने ते आत्माना ज अशुद्ध परिणाम छे. माटे ए अज्ञाननो नाश करो, सम्यग्ज्ञान प्रगट करो, आत्मा ज्ञानस्वरूप छे एम अनुभव करो; परद्रव्यने रागद्वेषनुं उपजावनारुं मानीने तेना पर कोप न करो.’

अहा! जीवने जेटला रागद्वेषना भाव उत्पन्न थाय छे ते अज्ञान छे. एटले शुं? एटले के ते रागद्वेषादि भावोमां भगवान ज्ञानस्वरूपनो शुद्ध चैतन्यनो अंश


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नथी. रागद्वेषादि भावोने अज्ञान कह्या, जड कह्या, अजीव कह्या केमके ते भावोमां ज्ञानस्वरूपनो अभाव छे, तेमां चेतननो कोई अंश नथी. ते रागद्वेषनी उत्पत्ति, कहे छे, अज्ञानथी थाय छे. अज्ञानथी थता ते जीवना ज परिणाम छे. माटे ते अज्ञाननो नाश करो, सम्यग्ज्ञान प्रगट करो. अहाहा...! आनंदनो नाथ प्रभु हुं शुद्ध एक ज्ञानस्वरूप छुं एम अनुभव करो. परद्रव्यने रागादि दोषो उपजावनारा मानीने तेना पर कोप न करो. ल्यो, आवो उपदेश छे.

*

हवे आ ज अर्थ द्रढ करवाने अने आगळना कथननी सूचना करवाने काव्य कहे छेः -

* कळश २२१ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘ये तु राग–जन्मनि परद्रव्यम् एव निमित्ततां कलयन्ति’ जेओ रागनी उत्पत्तिमां परद्रव्यनुं ज निमित्तपणुं (कारणपणुं) माने छे, (पोतानुं कांई कारणपणुं मानता नथी,) ‘ते शुद्ध–बोध–विधुर–अन्ध–बुद्धयः’ तेओ जेमनी बुद्धि शुद्ध ज्ञानरहित अंध छे एवा (अर्थात् जेमनी बुद्धि शुद्धनयना विषयभूत शुद्ध आत्मस्वरूपना ज्ञानथी रहित अंध छे एवा) – ‘मोहवाहिनीं न हि उत्तरन्ति’ मोहनदीने ऊतरी शकता नथी.

अहा! पर्यायमां जे असंख्यात प्रकारे राग थाय तेमां जेओ परद्रव्यनुं ज कारणपणुं माने छे तेमनी बुद्धि शुद्धज्ञानथी रहित अंध छे, अने तेओ मोहनदीने पार उतरी शकता नथी. अहीं राग शब्दे राग अने द्वेष बन्ने लेवा. राग अर्थात् माया अने लोभ अने द्वेष अर्थात् क्रोध अने मान -एम राग-द्वेष, पुण्य-पाप, क्रोध, मान, माया, लोभ ईत्यादि भावनी पर्यायमां उत्पत्ति थाय एमां परद्रव्यनुं ज जेओ निमित्तपणुं- कारणपणुं माने छे तेओ अज्ञानी छे, दीर्घसंसारी छे. राग आत्मानो स्वभाव नथी माटे परना कारणे जीवने राग थाय छे एम माने ते शुद्धज्ञानथी रहित अंध छे अने ते संसार पार करी शकतो नथी. राग परपदार्थना लक्षे थाय छे ए खरुं, पण पर पदार्थ कांई रागनुं सत्यार्थ कारण नथी. ए तो पर्याय परद्रव्यनुं लक्ष करे छे तेथी त्यां रागद्वेष उत्पन्न थाय छे. समजाणुं कांई...!

आत्मज्ञानी संत-मुनिवरने त्रण कषायनो अभाव छे, एक संज्वलन कषाय बाकी छे. अहा! ते राग कर्मथी थाय छे एम कोई माने तो ते अज्ञानी छे. भाई! असंख्य प्रकारे जे शुभाशुभ भाव थाय तेने कर्म करे छे एम माने ते अज्ञानी छे अने ते मोहनदीने पार करी शकतो नथी अर्थात् संसारमां ज चिरकाळ रखडी मरे छे. दर्शनमोहनीय कर्मना निमित्तथी मिथ्यात्व थाय, चारित्रमोहनीयना उदय निमित्ते जीवने


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बीजी वातः समकिती धर्मी पुरुष एम जाणे छे के-हुं तो शुद्ध चेतनामात्र वस्तु छुं, विकार मारुं स्वरूप नहि, विकार मारुं कर्तव्य नहि ने विकार मारुं व्याप्य नहि.

तो धर्मी पुरुषने जे विकार थाय तेमां जड कर्म व्यापक अने विकार एनुं व्याप्य एम कर्ता-कर्म अधिकारमां आव्युं छे ने?

हा, आव्युं छे. पण ए तो त्यां स्वभावद्रष्टिनी अपेक्षाए वात छे. विकार कर्मथी थाय छे एम एनो अर्थ नथी. रागद्वेषादि विकार कर्मथी-परद्रव्यथी थाय एम माने एने तो मूढ अज्ञानी अहीं कह्यो छे. त्यां तो एम कहेवुं छे के जेने शुद्ध चैतन्यस्वरूपनो अनुभव थयो ते धर्मी पुरुषनी निर्मळ दशामां चैतन्यस्वभाव व्यापक अने ते निर्मळ दशा एनुं व्याप्य छे. तेथी ते स्वभावद्रष्टिवंत पुरुषने पर्यायमां राग थाय ते अपराधने बाह्य गणीने कर्म व्यापक अने राग एनुं व्याप्य-एम त्यां कह्युं छे. ए तो राग स्वभावनी चीज नथी अने ते काढी नाखवानी चीज छे ए अपेक्षाए समयसार गाथा ७प, ७६, ७७, ७८ मां एम कह्युं छे. बाकी राग थाय छे ते अज्ञानथी थतो पोतानो ज अपराध छे, कर्म कांई तेनुं कारण नथी; कर्म तो निमित्तमात्र छे. माटे राग जड कर्मथी थाय छे एम त्यां अर्थ नथी-एम यथार्थ समजवुं.

समयसार गाथा ४०४ नी टीकामां कह्युं छेः “ आ प्रमाणे (ज्ञान जीवथी अभिन्न) होवाथी, ज्ञान ज सम्यग्द्रष्टि छे, ज्ञान ज संयम छे, ज्ञान ज अंगपूर्वरूप सूत्र छे, ज्ञान ज धर्म-अधर्म (अर्थात् पुण्य-पाप) छे, ज्ञान ज प्रवज्या (दीक्षा, निश्चय चारित्र) छे-एम ज्ञाननो जीवपर्यायोनी साथे पण अव्यतिरेक निश्चय-साधित देखवो (अर्थात् निश्चय वडे सिद्ध थयेलो समजवो-अनुभववो).”

जुओ, अहीं कह्युं के ज्ञान ज अर्थात् आत्मा ज पुण्य-पाप छे. ज्ञानीने ज्ञानमय भाव थाय ए वात अत्यारे नथी. अहीं तो ज्ञानी अर्थात् आत्मा-तेनी पर्यायमां जे पुण्य-पापना भाव थाय छे ते आत्मा ज छे, ते भाव आत्माना ज छे, निमित्तना जड कर्मना नथी एम कहेवुं छे. आत्मामां रागद्वेषादि विकार थाय छे ते आत्माना ज परिणाम छे एम अहीं सिद्ध करवुं छे.

ज्ञानीने जे व्यवहार-आचरणरूप शुभभाव थाय ते राग छे, दुःख छे; ते भाव आत्माथी पोताथी थाय छे, परथी नहि, निमित्तथी-कर्मथी नहि. चोथा पांचमा गुण-


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स्थानमां आर्त्त-रौद्रध्यानना परिणाम पण थाय छे. रुचि नथी, छतां थाय छे. ए भाव पाप छे, पण ते थाय छे अने आत्मानी पर्यायमां ज थाय छे. ते थाय छे पोताना कारणे, कर्मना कारणे नहि, कर्मथी नहि. समजाणुं कांई.....?

तो सम्यग्द्रष्टिने-धर्मीने ज्ञानमय ज भाव होय छे, विकारभाव होतो नथी एम कह्युं छे ने?

हा, कह्युं छे; पण ए तो भाई! स्वभावनी द्रष्टिमां विकारने गौण करीने वात करी छे.

एम तो समयसार गाथा ११ मां न आव्युं के व्यवहार अभूतार्थ छे, अर्थात् पर्यायमात्र अभूतार्थ छे, एक शुद्ध आत्मा चैतन्यघन प्रभु भूतार्थ छे. त्यां तो प्रमत्त- अप्रमत्त, मोक्षमार्ग अने केवळज्ञान सहितनी सर्व पर्यायोने अभूतार्थ कही, असत्यार्थ कही. पण कई अपेक्षाए? गौण करीने तेने अभूतार्थ, अविद्यमान अने असत्य-जूठी कही छे. द्रव्य त्रिकाळी छे तेने मुख्य करीने, तेने निश्चय कहीने तेनो ज आश्रय कराववाना प्रयोजनथी पर्यायमात्रने गौण करी, व्यवहार कहीने अभूतार्थ कही छे.

रागद्वेष छोडाववा माटे तेओ स्वभावमां नथी एम कह्युं, पण तेओ पर्यायमां नथी एम क्यां वात छे? धर्मात्मा पण जेटलो आत्मानो आश्रय ले तेटलो तेने राग अने दुःख नथी, परंतु सर्वथा दुःखनो अभाव एने क्यां थयो छे? सर्वथा दुःखनो अभाव तो तेरमा गुणस्थाने थाय छे. दसमा गुणस्थानमां पण हजु अबुद्धिपूर्वकनो सूक्ष्म राग छे अने एटलुं दुःख छे. चोथे, पांचमे, छठ्ठे गुणस्थाने राग छे, अने राग छे तो दुःख छे. बारमा गुणस्थानमां बिलकुल राग नथी, राग नथी एटले दुःख नथी, एकलुं सुख छे. तेरमा गुणस्थाने अनंत सुख छे. आवी वात! अहीं तो एम वात छे के ज्ञानीने पण पर्यायमां राग होय छे, अने ते पोताथी ज होय छे, कर्मना कारणे नहि, अहीं कह्युं ने के-

रागद्वेषनी उत्पत्तिमां परद्रव्यनुं ज कारणपणुं माने छे, पोतानुं कांई कारण मानता नथी तेओ ‘शुद्ध–बोध–विधुर–अन्ध–बुद्धयः’ शुद्धज्ञानथी रहित अन्ध छे बुद्धि जेमनी एवा मोहनदीने उतरी शकता नथी. अहाहा....! जेम स्त्रीने पति मरी जाय तो ते विधवा कहेवाय, ने पुरुषने पत्नी मरी जाय तो विधुर कहेवाय छे. तेम विकार कर्मथी ज थाय एम जे माने छे ते, कहे छे, विधुर छे, बोध-विधुर छे. अहा! विकारनी दशा परद्रव्यथी ज थवी माने ते विधुर थई गयो छे, ते सम्यग्दर्शननी पर्यायथी रंडाई गयो छे; अर्थात् ते शुद्धज्ञानथी रहित आंधळो छे; ते संसारने पार करी शकतो नथी.

कळशटीकामां एम लीधुं छे के-“एवो मिथ्याद्रष्टि जीवराशि मोह-राग-द्वेष


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रूप अशुद्ध परिणति एवी जे शत्रुनी सेना तेने मटाडी शकतो नथी. केवा छे ते मिथ्याद्रष्टि जीवो? ‘शुद्धबोधविधुरान्यबुद्धयः’ सकळ उपाधिथी रहित जीववस्तुना प्रत्यक्ष अनुभवथी रहित होवाथी सम्यक्त्वथी शून्य छे ज्ञानसर्वस्व जेमनुं, एवा छे.

तेमनो अपराध शो? उत्तरः– अपराध आवो छे; ते ज कहे छेः जे कोई मिथ्याद्रष्टि जीव एवा छे - ‘राग-द्वेष-मोह अशुद्ध परिणतिरूप परिणमता जीवद्रव्यना विषयमां आठ कर्म, शरीर आदि नोकर्म तथा बाह्य भोगसामग्रीरूप पुद्गल-द्रव्यनुं निमित्त पामीने जीव रागादि अशुद्धरूप परिणमे छे’ -एवी श्रद्धा करे छे जे कोई जीवराशि ते मिथ्याद्रष्टि छे, अनंत संसारी छे, जेथी एवो विचार छे के संसारी जीवने रागादि अशुद्ध परिणमनशक्ति नथी, पुद्गलकर्म बलात्कारे ज परिणमावे छे. जो एम छे तो पुद्गलकर्म तो सर्वकाळ विद्यमान ज छे, जीवने शुद्ध परिणमननो अवसर क्यो? अर्थात् कोई अवसर नहि.”

अहा! शुद्धनयनो विषय पोते निर्मळानंदनो नाथ शुद्ध सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु छे एनुं जेने भान नथी ते अज्ञानी जीव पर्यायमां दुःख छे ते कर्मने लईने ज छे एम माने छे; पोताना ज अपराधथी राग-द्वेषादि पर्यायमां थाय छे एम ते मानतो नथी. अहा! आवो शुद्ध ज्ञानथी रहित अंधबुद्धि जीव मोहनदीने पार करी शकतो नथी, अर्थात् संसार-समुद्रमां अनंतकाळ गोथा खाया करे छे.

* कळश २२१ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘शुद्धनयनो विषय आत्मा अनंत शक्तिवाळो, चैतन्यचमत्कारमात्र, नित्य, अभेद, एक छे. ते पोताना ज अपराधथी रागद्वेषरूपे परिणमे छे. एवुं नथी के जेम निमित्तभूत परद्रव्य परिणमावे तेम आत्मा परिणमे छे अने तेमां आत्मानो कांई पुरुषार्थ ज नथी.’

अहाहा....! अबद्धस्पृष्ट चिदानंदघन प्रभु अंदर छे ते सम्यग्दर्शननो विषय छे अने ते शुद्धनयनो विषय छे. नियमसारमां संत-मुनिवर पद्मप्रभमलधारिदेव कहे छे- पूर्णानंदनो नाथ चैतन्यबिंब प्रभु-तेने अनुभववो ते अमारो विषय छे. ज्ञान छे ते द्रव्य-गुण-पर्याय-बधाने जाणे, पण द्रष्टिनो विषय तो शुद्ध, एक, ध्रुव निर्विकल्प वस्तु छे, जेमां पर्यायनो पण अभाव छे. शुं कीधुं? जे पर्याय ध्रुवने विषय करे छे ते पर्यायनो ध्रुवमां-त्रिकाळी प्रभुमां अभाव छे. बहु झीणी वात प्रभु! नियमसारना कळश २०० मां मुनिवर कहे छे-

“कोई एवी (-परम) समाधि वडे उत्तम आत्माओना हृदयमां स्फुरती,


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समतानी अनुयायिनी सहज आत्मसंपदाने ज्यां सुधी अमे अनुभवता नथी, त्यां सुधी अमारा जेवाओनो जे विषय छे तेने अमे अनुभवता नथी.”

जुओ, सहज शुद्ध आत्मसंपदा ए मुनिवरोनो विषय छे. ज्यारे अज्ञानीओनो विषय राग-द्वेष ने पुण्य-पाप आदि विकारी भाव छे.

शुद्धनयनो विषय कहो के सम्यग्दर्शननो विषय कहो-ते चैतन्यचमत्कार प्रभु, नित्य, अभेद, एक जेने समयसार गाथा ११ मां भूतार्थ कही ते शुद्ध आत्मवस्तु छे. अहा! द्रष्टिनो विषय जेमां राग नहि, भेद नहि, निमित्त नहि, अपूर्णता नहि अने एक समयनी पर्याय पण नहि एवी ध्रुव नित्यानंद चिदानंदमय वस्तु छे. अहाहा...! निर्मळानंदनो नाथ सच्चिदानंद प्रभु ए एक ज सम्यग्दर्शननुं ध्येय अने विषय छे. सम्यग्दर्शननो विषय सम्यग्दर्शन नथी, पर्याय नथी; त्रिकाळी ध्रुव एकरूप चैतन्यवस्तु ए सम्यग्दर्शननो विषय छे. अहा! जेमां ध्रुवनी प्रतीति थई ते सम्यग्दर्शन ध्रुवमां नथी अने ध्रुव एमां गयुं नथी. बहु झीणी वात! ध्रुव तो जेम छे तेम सदा एकरूप ज छे.

भले पर्यायमां मिथ्यात्व अने राग-द्वेष तीव्र होय, छतां ध्रुव द्रव्य जे छे ते तो एवुं ने एवुं एकरूप शुद्ध छे. तथा आत्मानुं ज्ञान-दर्शन अने रमणता थतां पण ध्रुव द्रव्य तो एवुं ने एवुं ज छे. केवळज्ञान प्रगटे अने सिद्धपद प्रगटे त्यां पण अंदर द्रव्य तो शुद्ध चैतन्यरूप एवुं ने एवुं छे. अहा! आवुं चैतन्य-चमत्कारी द्रव्य अंदर छे ते शुद्धनयनो विषय छे.

केवळज्ञान प्रगटतां ए पर्याय एक समयमां त्रणकाळ-त्रणलोकने-द्रव्य-गुण- पर्यायने भिन्न भिन्न जाणे छे, अने ते ज समयमां केवळदर्शननी पर्याय कोईपण प्रकारनो भेद पाडया विना त्रणकाळ-त्रणलोकने सामान्यपणे देखे छे. अहा! आवो महा अद्भुत जेनी एक समयनी पर्यायनो चमत्कार छे एवी परम अद्भुत चैतन्य-चमत्कार वस्तु आत्मा छे. भाई! आ वात तर्कथी उपर-उपरथी बेसे नहि, पण अंतर-अनुभवथी बेसे तेवी छे. अहाहा...! जेना आश्रयथी अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत शांति, अनंत प्रभुता पर्यायमां प्रगटे छतां वस्तु तो अंदर एवी ने एवी एकरूप रहे एना चमत्कारनुं शुं कहीए? अहा! आवी चैतन्य-चमत्कार वस्तु प्रभु आत्मा शुद्धनयनो विषय छे अने तेने लक्षमां लई अनुभवतां सम्यग्दर्शन थाय छे. समजाणुं कांई...?

अहाहा....! त्रिकाळी द्रव्य चमत्कारी ने तेनी एकेक पर्याय पण चमत्कारी छे. केवळज्ञाननी एक समयनी एक पर्याय एकेक द्रव्यने, तेना एकेक गुणने, तेनी एकेक पर्यायने, तेना अनंत अविभाग प्रतिच्छेदोने, निमित्तने, रागने-दरेकने एक समयमां भिन्न-भिन्नपणे जाणे छे. अहा! आवो जेनी पर्यायनो चमत्कार छे एवो अनंत शक्ति


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आत्मामां संख्याए अनंत शक्तिओ छे. ते एकेक शक्तिमां बीजी अनंत शक्तिओनुं रूप छे. जेमके ज्ञानगुण छे तेमां अस्तित्व गुणनुं रूप छे. शुं कीधुं? ज्ञानगुणमां अस्तित्वगुण छे एम नहि, पण अस्तित्व गुणनुं रूप तेमां होय छे. जेमके - ज्ञान गुण छे. त्यां ‘छे’ एवुं होवापणुं-अस्तिपणुं ज्ञान गुणमां छे. आ रीते एकेक गुणमां बीजा अनंत गुणनुं रूप छे. अहा! आवा अनंत सामर्थ्यथी भरेलुं पोतानुं आत्मद्रव्य परम आश्चर्यकारी तत्त्व छे.

आ जगतमां अनंत आत्माओ छे; तेनाथी अनंतगुणा पुद्गल-परमाणु छे, तेनाथी अनंतगुणा त्रणकाळना समयो छे, तेनाथी अनंतगुणा आकाशना प्रदेशो छे, तेनाथी अनंतगुणा एक जीवद्रव्यना गुणो छे, आवो अनंतशक्तिवाळो भगवान आत्मा चैतन्यचमत्कार वस्तु छे. अहाहा.....! जेमां राग नहि, भंग-भेद नहि, अल्पज्ञता नहि एवो चैतन्य चमत्कार, आनंद-चमत्कार, शांतिचमत्कार, प्रभुता चमत्कार, वीर्य चमत्कार -एम अनंत अनंत शक्तिओना चमत्कारस्वरूप भगवान आत्मा छे. ते नित्य छे, जेने आदि नथी, अंत नथी एवी अनादिअनंत शुद्ध शाश्वत वस्तु छे. शक्ति अनंत छे छतां वस्तु अंदर अभेद एकरूप छे. अहा! आवी अनंतगुणमंडित, अभेद, एक शुद्ध चैतन्यचमत्कार वस्तु आत्मा द्रष्टिनो विषय छे तेना आश्रयथी धर्मनुं प्रथम सोपान एवुं सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे.

हवे कहे छे-ते पोताना ज अपराधथी रागद्वेषरूपे परिणमे छे. अहा! पोते त्रिकाळ एकरूप ज्ञानस्वरूप होवा छतां वर्तमान पर्यायमां अनादिकाळथी मोह-राग-द्वेषरूपे परिणमे छे-ते पोताना अपराधथी ज परिणमे छे. जो अशुद्धरूपे-विकाररूपे पर्यायमां परिणमतो न होय तो आत्मा पोते तो चिदानंदघन प्रभु छे तेथी पर्यायमां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आववो जोईए. पण अरे! अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन तो तेने वर्तमानमां नथी. माटे पर्यायमां रागादि विकार छे अने ते पोताना ज अपराधथी छे.

अहा! तारा स्वरूपना महिमानी शुं वात करवी प्रभु! सर्वज्ञनी वाणीमां पण जेना पूर्णस्वरूपनी वात आवी शके नहि एवो तुं चैतन्यचमत्कार प्रभु छो. वाणी तो जड माटी-धूळ छे. तेमां चैतन्यना महिमानुं केटलुं कथन आवी शके? तेमां तो ईशारा आवे. अहा! तेमां कहे छे-आवो आत्मा पोताना ज अपराधथी रागद्वेषरूपे परिणमे छे. एवुं नथी के जेम निमित्तभूत परद्रव्य परिणमावे तेम आत्मा परिणमे अने तेमां


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आत्मानो कांई पुरुषार्थ ज नथी. अहा! कर्मनो उदय परिणमावे एम आत्मा परिणमे एम नथी. जेवो कर्मनो उदय आवे एम आत्माने परिणमवुं पडे एम नथी. वास्तवमां आत्माना ऊंधा पुरुषार्थथी ज पोते रागद्वेषरूप परिणमे छे, कर्मना निमित्तथी नहि. वेदांतवाळा तो वर्तमान अपराध छे ए मानता नथी; पर्याय ज मानता नथी ने? पण अहीं एवी वात नथी. वस्तु अंदर ध्रुव त्रिकाळ छे, अने तेनी वर्तमान वर्तमान वर्तती पर्याय छे. वळी पर्यायमां अनादिथी भूल छे, विकार छे. ते भूल, कहे छे, पोताना ज अपराधथी छे, कर्मे करावी छे एम नथी. हवे कहे छे-

‘आवुं आत्माना स्वरूपनुं ज्ञान जेमने नथी तेओ एम माने छे के परद्रव्य आत्माने जेम परिणमावे तेम आत्मा परिणमे छे. आवुं माननारा मोहरूपी नदीने उतरी शकता नथी (अथवा मोहनी सेनाने हरावी शकता नथी), तेमने रागद्वेष मटता नथी.’

पहेलां कह्युं के-शुद्धनयथी आत्मा अभेद एकाकार नित्य शुद्ध चिद्रूपस्वरूप छे. परंतु तेनी एक समयनी पर्यायमां-अवस्थामां रागादि विकार छे ते पोताना ज अपराधथी छे. प्रमाणज्ञानथी जोतां पर्यायमां निर्मळता अने सुख छे, साथे मलिनता अने दुःख पण छे अने तेने पोते भोगवे छे एम ज्ञानी जाणे छे.

हवे एक बाजु कहे के जेने सम्यग्दर्शन थयुं छे एवो ज्ञानी-धर्मी पुरुष विकारनो स्वामी नथी, विकारनो स्वामी पुद्गल छे. समयसार गाथा ७३ मां आवी गयुं के-“ पुद्गलद्रव्य जेनुं स्वामी छे एवुं जे क्रोधादि भावोनुं विश्वरूपपणुं (अनेकरूपपणुं) तेना स्वामीपणे सदाय नहि परिणमतो होवाथी ममता-रहित छुं” ज्यारे बीजी बाजु प्रवचनसारमां एम कहे छे के पर्यायमां जे सुखदुःखना परिणाम थाय तेनो आत्मा स्वामी छे. त्यां परिशिष्टमां छे के-“प्रथम तो आत्मा खरेखर चैतन्य सामान्य वडे व्याप्त अनंत धर्मोनुं अधिष्ठाता (स्वामी) एक द्रव्य छे.” अहाहा....! गुण छे, जे सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ पर्याय छे अने एनी साथे जे राग अने दुःख छे एनो अधिष्ठाता-स्वामी आत्मा छे. पुण्य-पापना भाव जे थाय तेनो स्वामी आत्मा छे. आ ते केवी वात!

भाई! विकारनो स्वामी पुद्गल छे, आत्मा नहि -एम कह्युं त्यां तो द्रष्टिप्रधान वात छे, द्रष्टिना विषयनी अपेक्षाए वात छे. राग अने दुःख छे तेने गौण करीने त्यां वात छे, तेनो अभाव करीने नहि. ज्यारे सुखदुःखना परिणामनो स्वामी आत्मा ज छे, कर्म नहि -एम कह्युं त्यां ज्ञानप्रधान वात छे.

जुओ, नय छे ते एक अंशने विषय करे छे, प्रमाण छे ते द्रव्य-पर्याय बन्नेने