Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 373-382 ; Kalash: 222-223.

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भगवान आत्मा त्रिकाळ एकरूप द्रव्य छे. तेमां एक समयनी पर्याय छे ते उपर उपर छे. असंख्य प्रदेशमां दरेक प्रदेशनी उपर उपर पर्याय छे. उपर उपर एटले शुं? के ते पर्याय द्रव्यमां प्रवेशती नथी (अर्थात् त्रिकाळी द्रव्यरूप थई जती नथी). चेन-सांकळी होय तेमां हजार कडी-अंकोडा होय छे. तेम आत्मामां असंख्य प्रदेशो छे. तेमां अंदरनुं जे दळ (द्रव्यमान) छे ते ध्रुव छे अने ज्यां ध्रुव छे त्यां उपर उपर पर्याय थाय छे. अहाहा....! शुद्धनयनो विषय ध्रुव द्रव्य ज्यां छे त्यां उपर उपर पर्याय छे अने ज्यां पर्याय उपर छे त्यां ध्रुव समीप छे. एम पर्यायनुं क्षेत्र खरेखर तो भिन्न छे; पर्यायनुं क्षेत्र भिन्न अने अंदर ध्रुवनुं क्षेत्र भिन्न छे. एक क्षेत्रना बे अंश छे. असंख्य प्रदेशना क्षेत्रमां पर्याय उपर उपर भिन्न छे ते पर्यायने अंतरमां वाळवानी छे. बधा क्षेत्रे पर्यायने अंतरमां वाळवानी छे.

प्रमाणनो विषय द्रव्य-पर्याय बन्ने छे. शुद्धनयनो विषय एकलुं त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य छे. ध्रुव उपर जे वर्तमान पर्याय छे ते अंदर प्रवेशती नथी, उपर उपर रहे छे. जेम पाणीना दळमां तेलनुं टीपुं प्रवेशतुं नथी तेम भगवान आत्मा असंख्य प्रदेशी ध्रुव दळ छे तेमां बदलवुं के पलटवुं नथी. एवा ध्रुवनी उपर उपर पलटती अवस्था रहे छे, ते ध्रुवधाममां प्रवेशती नथी. आवुं वीतरागनुं तत्त्व खूब झीणुं भाई! आ तमारा रूपिया जेम (पुण्य होय तो) मळी जाय ने? तेम आ नथी. आ तो उपयोग झीणो करे तो समजाय एम छे. बाकी अगियार अंगनां भणतर भणी गयो पण वस्तु अने एनी पर्यायने यथार्थ जाण्यां नहि तो तेथी शुं? अहा! ११ अंगना करोडो श्लोक कंठस्थ कर्या पण तेथी शुं?

समयसार गाथा १४३मां आवे छे के-आत्मा अबद्धस्पृष्ट छे, पवित्र छे, सामान्य छे, एकरूप छे-एवो जे विकल्प उठे छे ते तो राग छे; तेथी शुं? एवा विकल्पथी शुं लाभ छे? ते विकल्पने छोडीने वर्तमान पर्यायने ध्रुव तरफ वाळी तेनो अनुभव करवो एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे, अने एनुं नाम धर्म अने मोक्षमार्ग छे. भाई! तारुं तत्त्व आवुं खूब गंभीर छे. समजाणुं कांई...?

अहा! शुद्धनयनो विषय अनंत शक्तिवाळो, चैतन्यचमत्कारमात्र, नित्य, अभेद,


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एक छे. तेमां पर्याय गौण छे. पण पर्यायथी जोतां पर्यायमां रागादि छे ते पोताना ज अपराधथी छे एम कहे छे. ध्रुव तो शुद्ध छे, पण पोताना ज अपराधथी ते रागद्वेषरूप परिणमे छे; एवुं नथी के कर्मनो उदय तेने रागद्वेषरूप परिणमावे छे. भाई तारा ऊंधा पुरुषार्थथी ज तने रागादि विकार थाय छे. कर्मना माथे दोष न नाख. मने कर्म विकार करावे छे एम परद्रव्यनो वांक न काढ, परद्रव्य पर कोप न कर. विकार थवामां जेओ परद्रव्यनो-कर्मनो ज वांक काढे छे तेओ अज्ञानीओ छे ने तेओ मोहनदीने पार उतरी शकता नथी, तेओ मोहनी सेनाने जीती शकता नथी, पोते हारी जाय छे. तेमने रागद्वेष मटता नथी, केम मटता नथी? तो कहे छे-

‘कारण के रागद्वेष करवामां जो पोतानो पुरुषार्थ होय तो ज तेमने मटाडवामां पण होय, परंतु जो परना कराव्या ज रागद्वेष थता होय तो पर तो रागद्वेष कराव्या करे, त्यां आत्मा तेमने क्यांथी मटाडी शके? माटे रागद्वेष पोताना कर्या थाय छे अने पोताना मटाडया मटे छे-एम कथंचित् मानवुं ते सम्यग्ज्ञान छे.’

अहाहा...! पुण्य-पाप आदि विकारी भाव करवामां जो पोतानो पुरुषार्थ होय तो ज पोते तेने (सम्यक् पुरुषार्थ वडे) टाळी शके, पण जो कर्मने लईने विकारी भाव थता होय तो पोते तेने केवी रीते टाळी शके? परना-कर्मना कराव्या ते थता होय तो पर तो रागद्वेष कराव्या ज करे, तेमां आत्माना हाथनी वात तो कांई रही नहि. पण एम छे नहि. माटे रागद्वेष पोताना कर्या थाय छे अने पोताना मटाडया मटे छे-एम कथंचित् मानवुं ते सम्यग्ज्ञान छे. धर्मीने पण रागद्वेष पोतानी अस्थिरताना अपराधथी थाय छे. कर्मथी नहि -एम यथार्थ मानवुं; सर्वथा कर्म ज रागद्वेष करावे छे एम न मानवुं. अहाहा...! आ रागद्वेष थाय छे ते मारो ज अपराध छे, कर्म तो तेमां बाह्य निमित्तमात्र (उपस्थितिमात्र) छे एम मानवुं ते सम्यग्ज्ञान छे. अहाहा....! (रागनो) करनारो हुं अने मटाडनारो पण हुं छुं. जे जोडे ते तोडे. शुं कीधुं? कर्मना निमित्तथी संबंध पोते ज जोडे छे अने पोते ज तेने तोडे छे एम कथंचित् मानवुं ते सम्यग्ज्ञान छे. आवी वात छे.

[प्रवचन नं. ४६२ थी ४६८ * दिनांक १प-१०-७७ थी २१-१०-७७]

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गाथा ३७३ थी ३८२
णिंदिदसंथुदवयणाणि पोग्गला परिणमंति बहुगाणि ।
ताणि सुणिदूण रूसदि तूसदि य पुणो अहं भणिदो।। ३७३।।
पोग्गलदव्वं सद्दत्तपरिणदं तस्स जदि गुणो अण्णो ।
तम्हा ण तुमं भणिदो किंचि वि किं रूससि अबुद्धो।। ३७४।।
असुहो सुहो व सद्दो ण तं भणदि सुणसु मं ति सो चेव ।
ण य एदि विणिग्गहिदुं सोदविसयमागदं सद्रं्।। ३७५।।
असुहं सुहं व रूवं ण तं भणदि पेच्छ मं ति सो चेव ।
ण य एदि विणिग्गहिदुं चक्खुविसयमागदं रूवं।। ३७६।।

स्पर्श, रस, गंध, वर्ण अने शब्दादिरूपे परिणमतां पुद्गलो आत्माने कांई कहेतां नथी के ‘तु अमने जाण’ , अने आत्मा पण पोताना स्थानथी छूटीने तेमने जाणवा जतो नथी. बन्ने तद्न स्वतंत्रपणे पोतपोताना स्वभावथी ज परिणमे छे. आम आत्मा पर प्रत्ये उदासीन (-संबंध विनानो, तटस्थ) छे, तोपण अज्ञानी जीव स्पर्शादिकने सारां-नरसां मानीने रागीद्वेषी थाय छे ते तेनुं अज्ञान छे. -आवा अर्थनी गाथाओ हवे कहे छेः-

रे! पुद्गलो बहुविध निंदा–स्तुतिवचनरूप परिणमे,
तेने सुणी, ‘मुजने कह्युं’ गणी, रोष तोष जीवो करे. ३७३.
पुद्गलदरव शब्दत्वपरिणत, तेहनो गुण अन्य छे,
तो नव कह्युं कंई पण तने, हे अबुध! रोष तुं कयम करे? ३७४.
शुभ के अशुभ जे शब्द ते ‘तुं सुण मने’ न तने कहे,
ने जीव पण ग्रहवा न जाये कर्णगोचर शब्दने; ३७प.
शुभ के अशुभ जे रूप ते ‘तुं जो मने’ न तने कहे,
ने जीव पण ग्रहवा न जाये चक्षुगोचर रूपने; ३७६.

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असुहो सुहो व गंधो ण तं भणदि जिग्ध मं ति सो चेव ।
ण य एदि विणिग्गहिदुं घाणविसयमागदं गंधं।। ३७७।।
असुहो सुहो व रसो ण तं भणदि रसय मं ति सो चेव ।
ण य एदि विणिग्गहिदुं रसणविसयमागदं तु रसं।। ३७८।।
असुहो सुहो व फासो ण तं भणदि फुससु मं ति सो चेव ।
ण य एदि विणिग्गहिदुं कायविसयमागदं फासं।। ३७९।।
असुहो सुहो व गुणो ण तं भणदि बुज्झ मं ति सो चेव ।
ण य एदि विणिग्गहिदुं बुद्धिविसयमागदं तु गुणं।। ३८०।।
असुहं सुहं व दव्वं ण तं भणदि बुज्झ मं ति सो चेव ।
ण य एदि विणिग्गहिदुं बुद्धिविसयमागदं दव्वं।। ३८१।।
एयं तु जाणिऊणं उवसमं णेव गच्छदे मूढो ।
णिग्गहमणा परस्स य सयं च बुद्धिं सिवमपत्तो।।
३८२।।
शुभ के अशुभ जे गंध ते ‘तुं सूंघ मुजने’ नव कहे,
ने जीव पण ग्रहवा न जाये घ्राणगोचर गधने; ३७७.
शुभ के अशुभ रस जेह ते ‘तुं चाख मुजने’ नव कहे,
ने जीव पण ग्रहवा न जाये रसनगोचर रस अरे! ३७८.
शुभ के अशुभ जे स्पर्श ते ‘तुं स्पर्श मुजने’ नव कहे,
ने जीव पण ग्रहवा न जाये कायगोचर स्पर्शने; ३७९.
शुभ के अशुभ जे गुण ते ‘तुं जाण मुजने’ नव कहे,
ने जीव पण ग्रहवा न जाये बुद्धिगोचर गुणने; ३८०.
शुभ के अशुभ जे द्रव्य ते ‘तुं जाण मुजने’ नव कहे,
ने जीव पण ग्रहवा न जाये बुद्धिगोचर द्रव्यने. ३८१.
–आ जाणीने पण मूढ जीव पामे नहीं उपशम अरे!
शिव बुद्धिने पामेल नहि ए पर ग्रहण करवा चहे. ३८२.

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निन्दितसंस्तुतवचनानि पुद्गलाः परिणमन्ति बहुकानि।
तानि श्रुत्वा रुष्यति तुष्यति च पुनरहं भणितः।।
३७३।।
पुद्गलद्रव्यं शब्दत्वपरिणतं तस्य यदि गुणोऽन्यः।
तस्मान्न त्वं भणितः किञ्चिदपि किं रुष्यस्यबुद्धः।। ३७४।।
अशुभः शुभो वा शब्दो न त्वां भणति शृणु मामिति स एव।
न चैति विनिर्ग्रहीतुं श्रोत्रविषयमागतं शब्दम्।। ३७५।।
अशुभं शुभं वा रूपं न त्वां भणति पश्य मामिति स एव।
न चैति विनिर्ग्रहीतुं चक्षुर्विषयमागतं रूपम्।। ३७६।।
अशुभः शुभो वा गन्धो न त्वां भणति जिघ्र मामिति स एव।
न चैति विनिर्ग्रहीतुं
घ्राणविषयमागतं गन्धम्।। ३७७।।

गाथार्थः– [बहुकानि] बहु प्रकारनां [निन्दितसंस्तुतवचनानि] निंदानां अने स्तुतिनां वचनोरूपे [पुद्गलाः] पुद्गलो [परिणमन्ति] परिणमे छे; [तानि श्रुत्वा पुनः] तेमने सांभळीने अज्ञानी जीव [अहं भणितः] ‘मने कह्युं’ एम मानीने [रुष्यति तुष्यति च] रोष तथा तोष करे छे (अर्थात् गुस्से थाय छे तथा खुशी थाय छे).

[पुद्गलद्रव्यं] पुद्गलद्रव्य [शब्दत्वपरिणतं] शब्दपणे परिणम्युं छे; [तस्य गुणः] तेनो गुण [यदि अन्यः] जो (ताराथी) अन्य छे, [तस्मात्] तो हे अज्ञानी जीव! [त्वं न किञ्चित् अपि भणितः] तने कांई पण कह्युं नथी; [अबुद्धः] तुं अज्ञानी थयो थको [किं रुष्यसि] रोष शा माटे करे छे?

[अशुभः वा शुभः शब्दः] अशुभ अथवा शुभ शब्द [त्वां न भणति] तने एम नथी कहेतो के [माम् शुणु इति] ‘तुं मने सांभळ’; [सः एव च] अने आत्मा पण (पोताना स्थानथी छूटीने), [श्रोत्रविषयम् आगतं शब्दम्] श्रोत्रेन्द्रियना विषयमां आवेला शब्दने [विनिर्ग्रहीतुं न एति] ग्रहवा (जाणवा) जतो नथी.

[अशुभं वा शुभं रूपं] अशुभ अथवा शुभ रूप [त्वां न भणति] तने एम नथी कहेतुं के [माम् पश्य इति] ‘तुं मने जो’; [सः एव च] अने आत्मा पण (पोताना स्थानथी छूटीने), [चक्षुर्विषयम् आगतं] चक्षु-इंद्रियना विषयमां आवेला (अर्थात् चक्षुगोचर थयेला) [रूपम्] रूपने [विनिर्ग्रहीतुं न एति] ग्रहवा जतो नथी.

[अशुभः वा शुभः गन्धः] अशुभ अथवा शुभ गंध [त्वां न भणति] तने एम नथी कहेती के [माम् जिघ्र इति] ‘तुं मने सूंघ’; [सः एव च] अने आत्मा पण


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अशुभः शुभो वा रसो न त्वां भणति रसय मामिति स एव ।
न चैति विनिर्ग्रहीतुं रसनविषयमागतं तु रसम्।। ३७८।।
अशुभः शुभो वा स्पर्शो न त्वां भणति स्पृश मामिति स एव ।
न चैति विनिर्ग्रहीतुं कायविषयमागतं स्पर्शम्।। ३७९।।
अशुभः शुभो वा गुणो न त्वां भणति बुध्यस्व मामिति स एव ।
न चैति विनिर्ग्रहीतुं बुद्धिविषयमागत तु गुणम्।। ३८०।।
अशुभं शुभं वा द्रव्यं न त्वां भणति बुध्यस्व मामिति स एव ।
न चैति विनिर्ग्रहीतुं
बुद्धिविषयमागतं द्रव्यम्।। ३८१।।
एतत्तु ज्ञात्वा उपशमं नैव गच्छति मूढः ।
विनिर्ग्रहमनाः परस्य च स्वयं च बुद्धिं शिवामप्राप्तः।।
३८२।।

[घ्राणविषयम् आगतं गन्धम्] घ्राणेंद्रियना विषयमां आवेली गंधने [विनिर्ग्रहीतुं न एति] (पोताना स्थानथी च्युत थईने) ग्रहवा जतो नथी.

[अशुभः वा शुभः रसः] अशुभ अथवा शुभ रस [त्वां न भणति] तने एम नथी कहेतो के [माम् रसय इति] ‘तुं मने चाख’; [सः एव च] अने आत्मा पण [रसनविषयम् आगतं तु रसम्] रसना-इंद्रियना विषयमां आवेला रसने [विनिर्ग्रहीतुं न एति] (पोताना स्थानथी छूटीने) ग्रहवा जतो नथी.

[अशुभः वा शुभः स्पर्शः] अशुभ अथवा शुभ स्पर्श [त्वां न भणति] तने एम नथी कहेतो के [माम् स्पृश इति] ‘तुं मने स्पर्श’; [सः एव च] अने आत्मा पण (पोताना स्थानथी छूटीने), [कायविषयम् आगतं स्पर्शम्] कायाना (-स्पर्शेन्द्रियना) विषयमां आवेला स्पर्शने [विनिर्ग्रहीतुं न एति] ग्रहवा जतो नथी.

[अशुभः वा शुभः गुणः] अशुभ अथवा शुभ गुण [त्वां न भणति] तने एम नथी कहेतो के [माम् बुध्यस्व इति] ‘तुं मने जाण’; [सः एव च] अने आत्मा पण (पोताना स्थानथी छूटीने), [बुद्धिविषयम् आगतं तु गुणम्] बुद्धिना विषयमां आवेला गुणने [विनिर्ग्रहीतुं न एति] ग्रहवा जतो नथी.

[अशुभं वा शुभं द्रव्यं] अशुभ अथवा शुभ द्रव्य [त्वां न भणति] तने एम नथी कहेतुं के [माम् बुध्यस्व इति] ‘तुं मने जाण’; [सः एव च] अने आत्मा पण (पोताना स्थानथी छूटीने), [बुद्धिविषयम् आगतं द्रव्यम्] बुद्धिना विषयमां आवेला द्रव्यने [विनिर्ग्रहीतुं न एति] ग्रहवा जतो नथी.

[एतत् तु ज्ञात्वा] आवुं जाणीने पण [मूढः] मूढ जीव [उपशमं न एव


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गच्छति] उपशमने पामतो नथी; [च] अने [शिवाम् बुद्धिम् अप्राप्तः च स्वयं] शिव बुद्धिने (कल्याणकारी बुद्धिने, सम्यग्ज्ञानने) नहि पामेलो पोते [परस्य विनिर्ग्रहमनाः] परने ग्रहवानुं मन करे छे.

टीकाः– प्रथम द्रष्टांत कहे छेः आ जगतमां बाह्यपदार्थ-घटपटादि-, जेम देवदत्त नामनो पुरुष यज्ञदत्त नामना पुरुषने हाथ पकडीने कोई कार्यमां जोडे तेम, दीवाने स्वप्रकाशनमां (अर्थात् बाह्यपदार्थने प्रकाशवाना कार्यमां) जोडतो नथी के ‘तुं मने प्रकाश’, अने दीवो पण लोहचुंबक-पाषाणथी खेंचायेली लोखंडनी सोयनी जेम पोताना स्थानथी च्युत थईने तेने (बाह्यपदार्थने) प्रकाशवा जतो नथी; परंतु, वस्तुस्वभाव पर वडे उत्पन्न करी शकातो नहि होवाथी तेम ज वस्तुस्वभाव परने उत्पन्न करी शक्तो नहि होवाथी, दीवो जेम बाह्यपदार्थनी असमीपतामां (पोताना स्वरूपथी ज प्रकाशे छे) तेम बाह्यपदार्थनी समीपतामां पण पोताना स्वरूपथी ज प्रकाशे छे. (एम) पोताना स्वरूपथी ज प्रकाशता एवा तेने (दीवाने), वस्तुस्वभावथी ज विचित्र परिणतिने पामतो एवो मनोहर के अमनोहर घटपटादि बाह्यपदार्थ जराय विक्रिया उत्पन्न करतो नथी.

एवी रीते हवे दार्ष्टांत छेः बाह्यपदार्थो-शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श तथा गुण ने द्रव्य-, जेम देवदत्त यज्ञद्रत्तने हाथ पकडीने कोई कार्यमां जोडे तेम, आत्माने स्वज्ञानमां (बाह्यपदार्थोने जाणवाना कार्यमां) जोडता नथी के ‘तुं मने सांभळ, तुं मने जो, तुं मने सूंघ, तुं मने चाख, तुं मने स्पर्श, तुं मने जाण’ , अने आत्मा पण लोहचुंबक-पाषाणथी खेंचायेली लोखंडनी सोयनी जेम पोताना स्थानथी च्युत थईने तेमने (बाह्यपदार्थोने) जाणवा जतो नथी; परंतु, वस्तुस्वभाव पर वडे उत्पन्न करी शकातो नहि होवाथी तेम ज वस्तुस्वभाव परने उत्पन्न करी शक्तो नहि होवाथी, आत्मा जेम बाह्यपदार्थोनी असमीपतामां (पोताना स्वरूपथी ज जाणे छे) तेम बाह्यपदार्थोनी समीपतामां पण पोताना स्वरूपथी ज जाणे छे. (एम) पोताना स्वरूपथी ज जाणता एवा तेने (आत्माने), वस्तुस्वभावथी ज विचित्र परिणतिने पामता एवा मनोहर के अमनोहर शब्दादि बाह्यपदार्थो जराय विक्रिया उत्पन्न करता नथी.

आ रीते आत्मा दीवानी जेम पर प्रत्ये सदाय उदासीन छे (अर्थात् संबंध वगरनो, तटस्थ छे) -एवी वस्तुस्थिति छे, तोपण जे रागद्वेष थाय छे ते अज्ञान छे.

भावार्थः– शब्दादिक जड पुद्गलद्रव्यना गुणो छे. तेओ आत्माने कांई कहेतां नथी, के ‘तुं अमने ग्रहण कर (अर्थात् तुं अमने जाण)’; अने आत्मा पण पोताना स्थानथी च्युत थईने तेमने ग्रहवा (-जाणवा) तेमना प्रत्ये जतो नथी.


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(शार्दूलविक्रीडित)
पूर्णैकाच्युतशुद्धबोधमहिमा बोधो न बोध्यादयं
यायात्कामपि विक्रियां तत इतो दीपः प्रकाश्यादिव ।
तद्वस्तुस्थितिबोधवन्ध्यधिषणा एते किमज्ञानिनो
रागद्वेषमयीभवन्ति सहजां
मुञ्चन्त्युदासीनताम्।। २२२।।

जेम शब्दादिक समीप न होय त्यारे आत्मा पोताना स्वरूपथी ज जाणे छे, तेम शब्दादिक समीप होय त्यारे पण आत्मा पोताना स्वरूपथी ज जाणे छे. आम पोताना स्वरूपथी ज जाणता एवा आत्माने पोतपोताना स्वभावथी ज परिणमतां शब्दादिक किंचित्मात्र पण विकार करतां नथी, जेम पोताना स्वरूपथी ज प्रकाशता एवा दीवाने घटपटादि पदार्थो विकार करता नथी तेम, आवो वस्तुस्वभाव छे, तोपण जीव शब्दने सांभळी, रूपने देखी, गंधने सूंघी, रसने आस्वादी, स्पर्शने स्पर्शी, गुण-द्रव्यने जाणी, तेमने सारां-नरसां मानी रागद्वेष करे छे, ते अज्ञान ज छे.

हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः–

[पूर्ण–एक–अच्युत–शुद्ध–बोध–महिमा अयं बोद्धा] पूर्ण, एक,

अच्युत अने शुद्ध (-विकार रहित) एवुं ज्ञान जेनो महिमा छे एवो आ ज्ञायक आत्मा [बोध्यात्] ज्ञेय पदार्थोथी [काम् अपि विक्रियां न यायात्] जरा पण विक्रिया पामतो नथी, [दीपः प्रकाश्यात् इव] जेम दीवो प्रकाश्य पदार्थोथी (-प्रकाशावायोग्य घटपटादि पदार्थोथी) विक्रिया पामतो नथी तेम. [ततः इतः] तो पछी [तद्– वस्तुस्थिति–बोध–बन्ध्य–धिषणाः एते अज्ञानिनः] एवी वस्तुस्थितिना ज्ञानथी रहित जेमनी बुद्धि छे एवा आ अज्ञानी जीवो [किम् सहजाम् उदासीनताम् मुञ्चन्ति, रागद्वेषमयीभवन्ति] पोतानी सहज उदासीनताने केम छोडे छे अने रागद्वेषमय केम थाय छे? (एम आचार्यदेवे शोच कर्यो छे.)

भावार्थः– ज्ञाननो स्वभाव ज्ञेयने जाणवानो ज छे, जेम दीपकनो स्वभाव घटपटादिने प्रकाशवानो छे. एवो वस्तुस्वभाव छे. ज्ञेयने जाणवामात्रथी ज्ञानमां विकार थतो नथी. ज्ञेयोने जाणी, तेमने सारां-नरसां मानी, आत्मा रागीद्वेषी-विकारी थाय छे ते अज्ञान छे. माटे आचार्यदेवे शोच कर्यो छे के- ‘वस्तुनो स्वभाव तो आवो छे, छतां आ आत्मा अज्ञानी थईने रागद्वेषरूपे केम परिणमे छे? पोतानी स्वाभाविक उदासीन- अवस्थारूप केम रहेतो नथी?’ आ प्रमाणे आचार्यदेवे जे शोच कर्यो छे ते युक्त छे, कारण के ज्यां सुधी शुभ राग छे त्यां सुधी प्राणीओने अज्ञानथी दुःखी देखी करुणा ऊपजे छे अने तेथी शोच थाय छे. २२२.


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(शार्दूलविक्रीडित)
रागद्वेषविभावमुक्तमहसो नित्यं स्वभावस्पृशः
पूर्वागामिसमस्तकर्मविकला भिन्नास्तदात्वोदयात् ।
दूरारूढचरित्रवैभवबलाच्चञ्चच्चिदर्चिर्मयीं
विन्दन्ति स्वरसाभिषिक्तभुवनां ज्ञानस्य सञ्चेतनाम्।। २२३।।

हवे आगळना कथननी सूचनारूप काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः– [राग–द्वेष–विभाव–मुक्त–महसः] जेमनुं तेज रागद्वेषरूप विभावथी रहित छे, [नित्यं स्वभाव–स्पृशः] जेओ सदा (पोताना चैतन्यचमत्कारमात्र) स्वभावने स्पर्शनारा छे, [पूर्व–आगामि–समस्त–कर्म–विकलाः] जेओ भूत काळनां तेम ज भविष्य काळनां समस्त कर्मथी रहित छे अने [तदात्व–उदयात्–मिन्नाः] जेओ वर्तमान काळना कर्मोदयथी भिन्न छे, [दूर–आरूढ–चरित्र–वैभव–बलात् ज्ञानस्य सञ्चेतनाम् विन्दन्ति] तेओ (-एवा ज्ञानीओ-) अति प्रबळ चारित्रना वैभवना बळथी ज्ञाननी संचेतनाने अनुभवे छे- [चञ्चत्–चिद्–अर्चिर्मयीं] के जे ज्ञान-चेतना चमक्ती चैतन्यज्योतिमय छे अने [स्व–रस–अभिषिक्त–भुवनाम्] जेणे निज रसथी (पोताना ज्ञानरूप रसथी) समस्त लोकने सिंच्यो छे.

भावार्थः– जेमने रागद्वेष गया, पोताना चैतन्यस्वभावनो अंगीकार थयो अने अतीत, अनागत तथा वर्तमान कर्मनुं ममत्व गयुं एवा ज्ञानीओ सर्व परद्रव्यथी जुदा थईने चारित्र अंगीकार करे छे. ते चारित्रना बळथी, कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनाथी जुदी जे पोतानी चैतन्यना परिणमनस्वरूप ज्ञानचेतना तेनुं अनुभवन करे छे.

अहीं तात्पर्य आम जाणवुंः- जीव पहेलां तो कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनाथी भिन्न पोतानी ज्ञानचेतनानुं स्वरूप आगम-प्रमाण, अनुमान-प्रमाण अने स्वसंवेदनप्रमाणथी जाणे छे अने तेनुं श्रद्धान (प्रतीति) द्रढ करे छे; ए तो अविरत, देशविरत अने प्रमत्त अवस्थामां पण थाय छे. अने ज्यारे अप्रमत्त अवस्था थाय छे त्यारे जीव पोताना स्वरूपनुं ज ध्यान करे छे; ते वखते, जे ज्ञानचेतनानुं तेणे प्रथम श्रद्धान कर्युं हतुं तेमां ते लीन थाय छे अने श्रेणि चडी, केवळज्ञान उपजावी, साक्षात् *ज्ञानचेतनारूप थाय छे. २२३.

*

_________________________________________________________________ * केवळज्ञानी जीवने साक्षात् ज्ञानचेतना होय छे. केवळज्ञान थया पहेलां पण निर्विकल्प अनुभव

वखते जीवने उपयोगात्मक ज्ञानचेतना होय छे. ज्ञानचेतनाना उपयोगात्मकपणाने मुख्य न करीए
तो, सम्यग्द्रष्टिने ज्ञानचेतना निरंतर होय छे, कर्मचेतना अने कर्मफळचेतना नथी होती; कारण के
तेने निरंतर ज्ञानना स्वामित्वभावे परिणमन होय छे. कर्मना अने कर्मफळना स्वामित्वभावे
परिणमन नथी होतुं.

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समयसार गाथा ३७३ थी ३८२ः मथाळुं

स्पर्श, रस, गंध, वर्ण अने शब्दादिरूपे परिणमतां पुद्गलो आत्माने कांई कहेतां नथी के ‘तुं अमने जाण’ , अने आत्मा पण पोताना स्थानथी छूटीने तेमने जाणवा जतो नथी. बन्ने तद्न स्वतंत्रपणे पोतपोताना स्वभावथी ज परिणमे छे. आम आत्मा पर प्रत्ये उदासीन (-संबंध विनानो, तटस्थ) छे, तोपण अज्ञानी जीव स्पर्शादिकने सारां-नरसां मानीने रागी-द्वेषी थाय छे ते तेनुं अज्ञान छे. -आवा अर्थनी गाथाओ हवे कहे छेः-

* गाथा ३७३ थी ३८२ः टीका उपरनुं प्रवचन *

प्रथम द्रष्टांत कहे छेः ‘आ जगतमां बाह्य पदार्थ-घटपटादि, जेम देवदत्त नामनो पुरुष यज्ञदत्त नामना पुरुषने हाथ पकडीने कोई कार्यमां जोडे तेम, दीवाने स्वप्रकाशनमां (अर्थात् बाह्य पदार्थने प्रकाशवाना कार्यमां) जोडतो नथी के “तुं मने प्रकाश,” अने दीवो पण लोहचुंबक-पाषाणथी खेंचायेली लोखंडनी सोयनी जेम पोताना स्थानथी च्युत थईने तेने (बाह्य पदार्थने) प्रकाशवा जतो नथी;...’

जुओ, शुं कहे छे? आ बहारना पदार्थो-घडो, वस्त्र, पुस्तक, आ लाकडी वगेरे दीवाने एम कहेता नथी के तुं मने प्रकाश. अहाहा...! प्रकाशवुं ए तो दीवानो स्वभाव छे. घट-पट वगेरे छे माटे दीवो प्रकाशे छे शुं एम छे? शुं घट-पटादि पदार्थो एम कहे छे के- ‘मने प्रकाशो’ ना, एम छे नहि. वळी दीवो घट-पटादिने प्रकाशे छे तोपण, लोहचुंबक-पाषाणथी खेंचायेली लोखंडनी सोयनी जेम, पोताना स्थानथी खसीने परपदार्थोने प्रकाशवा जतो नथी. दीवो दीवामां ज रहे छे ने परपदार्थ परपदार्थमां; दीवो पोतानुं स्थान छोडीने परपदार्थने प्रकाशवा जतो नथी. आवी वात! हवे कहे छे-

‘परंतु वस्तुस्वभाव पर वडे उत्पन्न करी शकातो नहि होवाथी तेम ज वस्तु- स्वभाव परने उत्पन्न करी शकतो नहि होवाथी, दीवो जेम बाह्य पदार्थनी असमीपतामां (पोताना स्वरूपथी ज प्रकाशे छे) तेम बाह्य पदार्थनी समीपतामां पण पोताना स्वरूपथी ज प्रकाशे छे.

ल्यो, वस्तु-स्वभाव पर वडे उत्पन्न करी शकातो नथी. शुं कीधुं? दीवानो प्रकाशवानो स्वभाव घटपटादि पर पदार्थो वडे उत्पन्न करी शकातो नथी. वळी दीवानो प्रकाशस्वभाव घट-पटादि पर पदार्थोने उत्पन्न करी दे एम पण नथी केमके वस्तु-स्वभाव परने उत्पन्न करी शकतो नथी. सूक्ष्म वात छे भाई! घटपटादिना कारणे दीवानो प्रकाशस्वभाव छे एम नहि अने दीवाना प्रकाशस्वभावना कारणे परपदार्थो छे एम


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‘(एम) पोताना स्वरूपथी ज प्रकाशता एवा तेने (दीवाने), वस्तुस्वभावथी ज विचित्र परिणतिने पामतो एवो मनोहर के अमनोहर घटपटादि बाह्यपदार्थ जराय विक्रिया उत्पन्न करतो नथी.’

जुओ, आ महत्त्वनो सिद्धांत कह्यो. शुं? के-घटपटादि बाह्य पदार्थ पोताना स्वभावथी ज विचित्र परिणतिने पामे छे एक वात. अने ते बाह्य पदार्थ पोताना स्वरूपथी ज प्रकाशता दीवाने जराय विक्रिया उत्पन्न करता नथी. आ द्रष्टांत कह्युं; हवे सिद्धांत कहे छेः-

एवी रीते हवे दार्ष्टांत छेः ‘बाह्य पदार्थो-शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श तथा गुण ने द्रव्य-’ जेम देवदत्त यज्ञदत्तने हाथ पकडीने कोई कार्यमां जोडे तेम, आत्माने स्वज्ञानमां (बाह्य पदार्थोने जाणवाना कार्यमां) जोडता नथी के “तुं मने सांभळ, तुं मने जो, तुं मने सूंघ, तुं मने चाख, तुं मने स्पर्श, तुं मने जाण,” अने आत्मा पण लोहचुंबक-पाषाणथी खेंचायेली लोखंडनी सोयनी जेम पोताना स्थानथी च्युत थईने तेमने (बाह्य पदार्थोने) जाणवा जतो नथी;...’

आ देह तो जड माटी-धूळ अजीव तत्त्व छे; ने कर्म छे ए पण जड माटी-धूळ छे. भाई! जेना निमित्ते आ पैसा आवे ने जाय ए पुण्य-पापरूप कर्म जड छे. तथा पर्यायमां दया, दान आदि तथा काम-क्रोध आदिना जे शुभाशुभ भाव थाय ते विकार छे. अहाहा...! आ सर्वथी भिन्न अंदर भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूपी प्रभु चैतन्यना प्रकाशनुं पूर छे. अहा! सच्चिदानंद प्रभु आत्मा, अहीं कहे छे, स्पर्शादि पर पदार्थोने जाणवा माटे पोतानुं क्षेत्र छोडीने त्यां जतो नथी, तेम ते बहारना स्पर्शादि पदार्थो तेने कहेता नथी के तुं अमने जाण.

अहाहा...! जेनी सत्तामां जाणवुं-जाणवुं थाय छे ए पदार्थ कोण? आ शरीरादि छे ए तो जड धूळ छे, ए कांई जाणता नथी. अमे देहादि छीए एम ए कांई जाणता नथी; अने राग-विकार छे एय अचेतन जड छे, एय कांई जाणतो नथी. अहाहा...! एनाथी भिन्न अंदर चैतन्यप्रकाशनो पुंज प्रभु आत्मा छे ते जाणे छे के आ देह छे, कर्म छे, राग छे, इत्यादि. अहीं कहे छे-पण ए शरीरादि पदार्थो आने (-आत्माने) कांई कहेता नथी के तुं अमने प्रकाश-जाण; तेम आ आत्मा छे ते पोतानुं स्थान छोडी शरीरादिने प्रकाशवा तेमनी पासे जतो नथी. न्याय समजाय छे? वस्तुना स्वरूपने जाणवा प्रति ‘नी–नयू’ ज्ञानने दोरी जवुं तेनुं नाम न्याय छे.


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सूक्ष्म वात छे प्रभु! भगवान! तारी चीज अंदर केवी छे तेने जाणवा प्रति अंदर लक्ष कर्युं नथी! अरे स्व-स्वरूपने समज्या विना चोरासीना अवतारमां जन्म-मरण करी करीने तारा सोथा नीकळी गया छे भाई! नरक, ढोर-तिर्यंच वगेरेमां रखडी रखडीने तुं दुःखी दुःखी थयो छे भाई! तारा दुःखनी वात शुं करीए? ए तो अकथ्य-अकथ्य छे.

आ शेठीआ बधा आनंदकंद प्रभु आत्माने जाण्या विना हमणां पण दुःखी ज छे. दुःखी न होय तो आनंदनुं वेदन होवुं जोईए ने? भाई! चाहे पांच-पचास करोडनी धूळ (संपत्ति) मळी होय, शरीर सुंदर-रूपाळुं होय, पण तेने पोतानां माने ए मान्यता ज दुःखरूप छे. पैसा क्यां आत्मानी चीज छे? तेने आत्मा लई पण ना शके, दई पण ना शके; तथापि हुं कमाउं ने हुं दान करुं एवी मान्यता करे ए दुःखरूप छे भाई! अहीं अत्यारे आ वात नथी. अहीं तो आ कहे छे के-जेम दीवो घट-पटने प्रकाशवा पोतानुं स्थान छोडी त्यां जतो नथी, तथा “मने प्रकाशो” एम घटपटादि पदार्थो दीवाने कहेता नथी तेम ज्ञानप्रकाशनो पुंज प्रभु आत्मा देहादि पदार्थोने जाणतां पोतानुं स्थान छोडी त्यां जतो नथी, तथा “मने जाणो”-एम ते देहादि पदार्थो आत्माने कहेता नथी. बहु झीणी वात भाई!

अरे भगवान! तुं जाणनारस्वरूप छो. जाणनार एवो तुं तने जाणे नहि ए केवी वात! आ देहदेवळमां पोते सच्चिदानंद, ज्ञानानंद, सहजानंदस्वरूप पूर्ण प्रभु बिराजे छे. अहा! पूर्ण ज्ञान अने पूर्ण आनंदथी अंदर ठसाठस भरेलो छे, छतां अरे तुं परमां सुख माने छे! मूढ छो के शुं? इन्द्रियना विषयमां सुख छे. सुंदर स्त्रीना शरीरमां सुख छे, पैसामां सुख छे-एम मानी अरे तुं केम भिखारीवेडा करे छे?

परवस्तु तो तेना कारणे आवे छे अने तेना कारणे जाय छे. तुं तो प्रभु! तेनो जाणनारमात्र छो. लोकोमां कहे छे ने के-“दाणे दाणे खानारनुं नाम.” एनो अर्थ शुं? ए ज के जे परमाणु आवे छे ते तेना कारणे आवे छे, अने जे नथी आव्या ते पण तेना कारणे ज नथी आव्या. भाई! ताराथी ते आवे के दूर थाय एम त्रणकाळमां बनवाजोग नथी. तेथी पोतानो आनंद पोतामां पूर्ण भरेलो होवां छतां पोताने भूलीने कस्तूरीमृगनी जेम तुं बहार झावां नाखे छे, बहार स्त्रीना शरीरमां, पैसामां विषयमां सुख गोते छे ए तारी मूर्खता-पागलपणुं छे.

अहीं कहे छे-देहदेवळमां रहेलो, देहथी भिन्न चैतन्यदेव देहने प्रकाशतां पोतानुं स्वस्थान छोडी त्यां देहमां जतो नथी (देहरूप थतो नथी), ज्ञानस्वरूप ज रहे छे. तथा आ देह कहेतो नथी के ‘तुं मने प्रकाश’; प्रकाशवुं ए तो


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चैतन्यनो स्वभाव ज छे. अरे! अनंतकाळमां एणे जड रत्नोनी किंमत करी पण अंदर पूर्ण आनंदनुं देवावाळुं चैतन्यरत्न छे तेनी किंमत करी नहि, आनंद धाम प्रभु पोते छे तेनो महिमा कर्यो नहि! अने तेथी तेनुं संसार परिभ्रमण मटयुं नहि.

जेम देवदत्त कोई पुरुष होय ते यज्ञदत्त नामना बीजा पुरुषने हाथ पकडीने कोई कार्यमां जोडे तेम, अहीं कहे छे, बहारना शब्दादि पदार्थो आत्माने ते बाह्य पदार्थोने जाणवाना काममां जोडता नथी के-“तुं मने सांभळ, तुं मने जो, तुं मने सूंध, तुं मने चाख, तुं मने स्पर्श, तुं मने जाण.”

आ वाणी जड ध्वनि थाय छे ने! ओहो! तमे बहु सारा-एम प्रशंसाना के तमे बहु खराब-एम निंदाना जे शब्दो थाय ते, अहीं कहे छे, एम कहेता नथी के “तुं मने सांभळ.” अहा! ए शब्दो तो जड माटी-धूळ छे. ते तने (-आत्माने) क्यां ओळखे- जाणे छे के कहे? तेवी रीते आ स्त्रीना शरीरनुं रूप तने कहेतुं नथी के तुं मने जो. अहा! शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श वगेरे बाह्य पदार्थो पराणे उपयोगने जाणवाना काममां जोडता नथी के तुं अमने जाण. पण अरे अनंतकाळमां एणे अंदर नजर नाखी ज नहि! उपयोगने बहार शब्दादिमां ज जोडी भमाव्या करे एमां तने भारे नुकशान छे भाई! माटे बहारथी लक्ष हठावी उपयोगने अंतर स्वरूपमां वाळ. तेथी तने सम्यग्ज्ञान थशे, अतीन्द्रिय आनंद थशे. हवे अत्यारे तो आ वात गुम थई गई छे अने कोरा क्रियाकांड रही गया छे. परंतु अंर्तद्रष्टि वडे आत्माने जाण्या विना तारी बधी क्रियाओ निरर्थक छे बापु! कह्युं छे ने के-

“ज्यां लगी आतमा तत्त्व चीन्यो नहि त्यां लगी साधना सर्व जूठी.” उपयोगने अंदर लई जवो छे बस; बीजुं कांई करवुं नथी. समजाणुं कांई...!

परवस्तु उपर लक्ष जाय तो राग थाय अने राग दुःख ज छे भाई! त्रिलोकनाथ तीर्थंकरदेव तरफ लक्ष जाय ते पण राग-शुभराग ज छे अने ते दुःखरूप ज छे. एक चिदानंदकंद प्रभु आत्मामां लक्ष जाय तो निराकुळ आनंदनी उत्पत्ति थाय छे अने एवा अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे ते ज धर्म छे, कर्तव्य छे. समजाणुं कांई...!

आत्मा अंदर चैतन्यलक्ष्मीनो भंडार-अहाहा...! अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत आनंद, अनंत शान्ति, अनंत वीर्य, अनंत प्रकाश, अनंत स्वच्छता, अनंत प्रभुता-एम अनंत गुण-स्वभावोथी भरेलुं गोदाम छे. अहा! छतां ए परमां शक्ति शोधवा जाय, परमां मारुं सुख छे एम जाणी शब्दादिने जाणवामां रोकाय ते एनी मूढता छे, अज्ञान छे अने तेनुं फळ चार गतिनी जेल छे. अहीं कहे छे-ए शब्दादि


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पदार्थो कहेता नथी के तुं अमने जाण, अने तेने जाणतां ते शब्दादिरूप थई जतो नथी. बहु झीणी वात भाई!

हवे कहे छे- ‘वस्तुस्वभाव पर वडे उत्पन्न करी शकातो नहि होवाथी तेम ज वस्तुस्वभाव परने उत्पन्न करी शकतो नहि होवाथी, आत्मा जेम बाह्य पदार्थोनी असमीपतामां (पोताना स्वरूपथी ज जाणे छे) तेम बाह्य पदार्थोनी समीपतामां पण पोताना स्वरूपथी ज जाणे छे.

जुओ, आ सिद्धांत कह्यो-के वस्तुस्वभाव पर वडे उत्पन्न करी शकातो नथी. भाई! आत्मानी ज्ञाननी दशा शब्दादि बाह्य पदार्थो वडे उत्पन्न करी शकाती नथी; केमके ज्ञाननुं स्वनुं भवन-परिणमन पोताना गुणथी उत्पन्न थाय छे, परथी नहि. आ शास्त्रथी ज्ञान थाय, भगवाननी वाणीथी ज्ञान थाय के गुरुना उपदेशथी ज्ञान थाय एम वस्तुस्वरूप नथी. परद्रव्यथी पोतानुं ज्ञान त्रणकाळमां थाय नहि. ज्ञानानंदस्वरूप पोतानो आत्मा छे तेमां नजर करवाथी पोतानां ज्ञान अने आनंद उत्पन्न थाय छे. आ ज उपाय छे, बीजो कोई उपाय नथी, पोते पोताथी समजे तो गुरुने निमित्त कहीए. वास्तवमां तो पोते पोतानो गुरु छे. पोते पोताथी समजे के-हुं कर्म नहि, विकार नहि, पुण्य नहि, पाप नहि, हुं तो अखंड एक आनंदकंद सच्चिदानंद प्रभु छुं- एम अनुभव करे त्यारे पोते पोतानो गुरु छे अने त्यारे पर गुरुने निमित्त कहेवामां आवे छे. पर गुरु निमित्त छे. बस.

अहाहा...! वस्तु अंदर पोते ज्ञानानंदस्वरूप प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप छे; पण तेना पर शब्दादि पदार्थोनी एकताबुद्धिनुं अनंतकाळथी ताळुं मार्युं छे. भाई! एक वार तुं भेदज्ञाननी कुंची लगावी दे अने ताळुं खोली नाख. हुं तो ज्ञान छुं, शब्दादि नहि, विकल्प नहि-एम कुंची लगावी दे. अहाहा...! तारां अनंत चैतन्यनां निधान प्रगट- खुल्लां थशे, तने स्वानुभवनी अतीन्द्रिय मोज प्रगट थशे. आवो मारग छे भाई! संसारथी साव जुदो.

अहाहा...! कहे छे-जगतना पर पदार्थो कहेता नथी के मने जाणवामां तुं झुकी पड, अने पोते पण पोताना स्वरूपथी खसीने पर पदार्थोने जाणवा जतो नथी. अहा! आवी वस्तुस्थिति छे तोपण पोते पोताने भूलीने परनी दया पाळवामां तत्पर रहे छे! अरे! ज्यां वस्तु पडी छे त्यां देखतो नथी अने ज्यां पोतानी चीज नथी त्यां रोकाई गयो छे; जाणे परमांथी पोतानुं ज्ञान आवशे, सुख आवशे-पण भाई! ए शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि पदार्थो वडे ज्ञाननी पर्याय उत्पन्न थई शकती नथी केमके वस्तुस्वभाव पर वडे उत्पन्न करी शकातो नथी.

वळी वस्तुस्वभाव परने उत्पन्न करी शकतो नथी. शुं कीधुं? पोतानुं ज्ञान परने


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आत्मा शुद्ध एक चैतन्यस्वरूप वस्तु छे. अहाहा...! तेनी जेने अंर्तद्रष्टि थई तेने स्वनुं ज्ञान थाय छे, तेम बाह्य पदार्थोनुं पण ज्ञान तेने अडया विना ज थाय छे. ज्ञाननो आवो ज स्वपरप्रकाशक स्वभाव छे जे वडे ते पोते पोताने अने परने स्वरूपथी ज जाणे छे. परपदार्थ दूर होय के समीप होय, तेने जाणवा माटे ते पदार्थनी समीप जवुं पडतुं नथी, वा ते पदार्थ समीप आवे तो ज आत्मा तेने जाणे, जाणी शके-एम नथी. अहा! आवी वात! आमां न्याय समजाय छे?

दुनियाथी मोटो फेर एटले लोको राडु पाडे के-व्यवहारने निश्चयनुं कारण मानता नथी.

अरे बापु! तने व्यवहार कोने कहीए तेनी खबर नथी. ज्यारे रागनी रुचि छोडी त्रिकाळी एक शुद्ध ज्ञायकस्वभावी निज वस्तुनो अनुभव करे त्यारे जे रागांश बाकी रहे तेने व्यवहार कहेवामां आवे छे. त्यां व्यवहारना शुभरागथी धर्म थाय एवी तारी मान्यता मिथ्यात्व छे, केमके धर्म तो एक वीतरागभाव छे. अहाहा...! जेने निज चैतन्यनुं अंदरमां भान थयुं तेने हवे सर्वथा राग छे ज नहि एम माने ते पण मिथ्यात्व छे अने ए रागथी-व्यवहारथी निश्चय थाय एम माने एय मिथ्यात्व छे. धर्मीने व्यवहार छे खरो, पण तेने ते उपादेय-आश्रय करवायोग्य छे एम नथी. उपादेय तो एक शुद्ध चैतन्यस्वभावी अंतःतत्त्व ज छे. अहा! पोतानी पर्यायमां कमजोरी वश जे राग छे तेने ते दुःख छे, उपाधि छे एम ज्ञानी जाणे छे.

भाई! व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय ए मान्यता मिथ्याद्रष्टिनी छे. जो तो खरो, छहढालामां पं. श्री दोलतरामजी शुं कहे छे-

“मुनिव्रत धार अनंत वार, ग्रीवक उपजायो;
पै निज आतमज्ञान बिना, सुख लेश न पायो.”

एणे अनंतवार मुनिव्रत धारण कर्यां, पंच महाव्रत पाळ्‌यां, पण लेशमात्र सुख न थयुं, अर्थात् दुःख ज थयुं. एनो अर्थ शुं? ए ज के पंचमहाव्रत अने पंच समितिना पालननो शुभराग दुःखस्वरूप ज छे. एने आत्माना आनंदनो स्वाद आव्यो नहि तेथी ते व्रतादिना रागथी दुःख ज पाम्यो. आ मुनिव्रत ते वस्त्रसहित


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नहि, वस्त्रसहित तो मुनिपणुं ज होई शके नहि. वस्त्रसहित चोथुं, पांचमुं गुणस्थान होई शके, मुनिपणुं नहि. मुनिदशा तो नग्न दिगंबर दशा होय छे, अंदरमां त्रण कषायना अभावरूप रागथी नग्न अने बहारमां वस्त्रथी नग्न. अहो! मुनिदशा कोई अचिन्त्य अलौकिक चीज छे. तथापि मुनिदशामां जे शुभराग आवे छे ते दुःखरूप छे, जाणे आगनी भट्ठी. त्यां ज (छहढालामां ज) कह्युं छे के-

“राग आग दहै सदा, तातै समामृत सेईए.”

राग अशुभ हो के शुभ, ते दुःखरूप छे, अग्निनी भट्ठी छे; ते आत्मानी शान्तिने बाळी मूके छे. माटे शुभरागथी धर्म थाय ए असंभव छे. शुभरागथी धर्म थाय एम माने तो मिथ्याद्रष्टि अने धर्मी-ज्ञानी पुरुषने साधकदशामां राग होतो ज नथी एम माने तोय मिथ्याद्रष्टि छे, केमके तेणे व्यवहारनयने मान्यो नथी. धर्मी जीवने आगम अनुसार यथासंभव राग-व्यवहार अवश्य होय छेे.

अहा! मुनिदशा कोने कहीए बापु! अत्यारे तो साधु माटे चोका बनावे, गृहस्थो रसोडां लईने साथे फरे अने साधु माटे रसोई बनावे, पण ए मार्ग नथी भाई! वीतरागना मार्गमां दोषयुक्त (उद्देेेेशिक) आहार कह्यो नथी. दोषयुक्त आहार लेनार अने देनार बन्ने मिथ्याद्रष्टि छे. भाई! संतोए तो बे नय द्वारा धर्मनुं स्वरूप बहु स्पष्ट समजाव्युं छे. अहाहा...! अंतरंगमां ज्ञानानंद नित्यानंद प्रभु आत्माना आश्रयथी सम्यग्दर्शनादि निर्मळ परिणति प्रगट थाय ते धर्म ते निश्चय, अने एवा धर्मी पुरुषने पूर्ण दशा न थाय त्यां सुधी बहारमां जे व्यवहारना-रागना विकल्प आवे तेने ते जाणे ते व्यवहार. भाई! ज्ञानीने बहारमां राग-व्यवहार छे खरो, पण ते जाणवालायक छे, आदरवालायक नथी, धर्मी तेने हेयपणे जाणे ज छे.

अहाहा...! हुं ज्ञायक छुं एवो जेने अंतरमां अनुभव थयो छे एवो ज्ञानी दूरना पदार्थने, पोताना स्वपरप्रकाशक ज्ञानना स्वभावथी, ते पदार्थने अडया विना जाणे ज छे. अहाहा...! ते पोताना स्वरूपमां रहीने स्वने जाणे छे तेम दूरना के नजीकना पर पदार्थने पण जाणे छे एवो ज्ञाननो स्वपर-प्रकाशक स्वभाव छे.

बीजी रीते कहीए तो गाथा १७-१८मां कुंदकुंदाचार्य तो एम कहे छे के भले अज्ञानीनी ज्ञान पर्याय हो एमां आत्मा जणाय छे. अज्ञानीनी पर्यायनो स्वभाव पण स्व-परप्रकाशक होवाथी पर्यायमां स्वज्ञायक चिदानंद भगवान पूरण जणाय छे. ज्ञाननो स्वभाव स्व-परप्रकाशक छे तो ए पर्यायमां एकलुं परने जाणे एवुं होई शके नहि. ए पर्याय स्वने जाणे अने परने जाणे एवो ज एनो स्वभाव छे, छतां अज्ञानीनी द्रष्टि एक उपर (ज्ञायकभाव उपर) जती नथी. हुं एकने (ज्ञायकने) जाणुं छुं एम


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समयसार गाथा १७-१८नी टीकानो त्रीजो पेरेग्राफः- ‘परंतु ज्यारे आवो अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा आबाळगोपाळ सौने सदाकाळ पोते ज अनुभवमां आवतो होवा छतां पण अनादि बंधना वशे पर (द्रव्यो) साथे एकपणाना निश्चयथी मूढ जे अज्ञानी तेने “आ अनुभूति छे ते ज हुं छुं एवुं आत्मज्ञान उदय थतुं नथी.”

झीणी वात छे प्रभु! बाळकथी मांडी वृद्ध सौने एनी ज्ञाननी पर्यायमां सदाकाळ पोते ज अनुभवमां आवतो होवा छतां अर्थात् ज्ञाननी पर्यायनो स्वभाव ज एवो छे के ते पर्यायमां सदाकाळ-एक समयना विरह विना त्रिकाळी आनंदनो नाथ ज जणाय छे. छतां आ पर्यायमां आत्मा जणाय छे एम द्रष्टि त्यां जती नथी.

त्रिकाळी ज्ञानगुण एनो जेम स्व-परप्रकाशक स्वभाव छे तेम तेनी ज्ञाननी वर्तमान प्रगट पर्यायनो पण स्व-परप्रकाशक स्वभाव छे. तेथी ते पर्यायमां सर्व जीवोने सदाकाळ ज्ञायक जणातो होवा छतां रागने वश थएलो प्राणी तेने जोई शकतो नथी एनी नजरू (नजर) पर्याय उपर ने राग उपर छे एटले आ ज्ञायकने जाणुं छुं ते खोई बेसे छे. अनादि बंधने-रागने वश पडयो रागने जोवे छे पण मने ज्ञाननी पर्यायमां आ ज्ञायक देखाय छे एम जोतो नथी. भलेने तुं ना पाड हुं (मने-ज्ञायकने) नथी जाणतो छतां प्रभु! तारी पर्यायमां तुं अत्यारे जणाय छे हो. गजब वात करी छे ने?

आत्मामां अनंतगुणो भले हो परंतु जाणवुं ए एनो मुख्य गुण छे. अमे छीए एम अनंतगुणो जाणता नथी; ज्ञान छे ते पोताने ने परने जाणे छे.

एवी रीते ज्ञान पर्याय सिवाय आनंद छे, सम्यग्दर्शन छे, सम्यक्-चारित्र छे ते पोताने जाणता नथी कारण के एमां ज्ञानस्वभाव नथी.

ज्ञाननी पर्याय पोताने जाणे अने परने जाणे एवो ज एनो स्व-परप्रकाशक स्वभाव प्रगट छे तेथी ते ज्ञान पर्यायमां सदा सौने भगवान आत्मदेव प्रकाशे छे. परंतु एनी द्रष्टि-बुद्धि एक समयनी पर्याय अने राग उपर होवाथी भगवान (ज्ञायक आत्मा) जणाय छे एम मानतो नथी.

“स्व-परप्रकाशक शक्ति हमारी, तातै वचनभेद भ्रम भारी.
ज्ञेयशक्ति दुविधा प्रकाशी, निजरूपा पररूपा भासी.”

तो कहे छे के ज्ञाननी वर्तमान पर्यायमां स्व-पर ज्ञेयने जाणवानी ताकात छे अने तेथी ते पर्याय स्वने-आखा द्रव्यने जाणे छे. वर्तमान पर्यायमां द्रव्य आवतुं नथी


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पण द्रव्यनुं ज्ञान पर्यायमां थयुं छे छतां द्रष्टिमां रागने पूज्य देखीने त्यां अटकी गयो छे. आ जाणवामां आवे छे एने जाणतो नथी अने परने जाणुं छुं एवी मिथ्याबुद्धि थई गई छे. (अर्थात्) एकलो परप्रकाशक छुं एवी बुद्धि थई गई छे जे मिथ्या छे.

अहीं समीप अने असमीप पदार्थोमां एकला परने ज जाणे छे एम नथी तेथी आ वात साथे लीधी छे.

स्व-परप्रकाशक स्वभावना सामर्थ्यवाळो भगवान आत्मा चैतन्यबिंब ते जेनी एक समयनी पर्यायमां जणाणो छे तेनी ज्ञाननी पर्यायमां जेम आत्मा जणाय छे तेम दूर रहेला पदार्थो पण तेने अडया विना जणाय छे. समजाणुं कांई....?

अहा! एकवार तो एम (अंदरमां) आव्युं हतुं के (जाणे) ज्ञाननी पर्याय जे छे एक ज वस्तु छे. बीजी चीज ज नथी. एक (ज्ञाननी) पर्यायनुं अस्तित्व ए सारा लोकालोकनुं अस्तित्व छे.) एक समयनी जाणवा देखवानी स्व-परप्रकाशक पर्याय एमां आत्मद्रव्य एना (अनंता) गुणो एनी त्रणेकाळनी पर्यायो तथा छ द्रव्योना द्रव्य-गुण- पर्याय बधुं एक समयमां जणाय छे. आखु जगत एक समयमां जणाय छे छतां एक समयनी पर्यायमां पोताना द्रव्य गुण के छ द्रव्यो आवता नथी.

अरे प्रभु! तुं कोण छो अने तारुं सामर्थ्य शुं छे एनी तने खबर नथी. अहा! केवळज्ञाननी एक समयनी पर्याय पूरा लोकालोकने जाणे एवी बहार प्रगट थाय. माटे द्रव्य-गुणमां कांई ओछप थई जाय, घटाडो थई जाय एम नथी. द्रव्य तो एवुं ने एवुं ज रहे छे. द्रव्यमां कांई ओछुं थतुं नथी. अहा! आवो अलौकिक चैतन्यचमत्कारमय भगवान आत्मा छे. लोको बहारमां चमत्कार माने पण एमां तो धूळेय चमत्कार नथी. पूर्ण पर्याय प्रगट थई ए द्रव्यमांथी प्रगट थई एम व्यवहारथी कहेवाय; निश्चयथी देखो तो पर्याय, पर्यायथी थई छे, द्रव्यथी नहि. पूरण अनंतज्ञाननी पर्याय प्रगटी ते सर्व लोकालोकने जाणती थकी प्रगटी छे छतां द्रव्य-गुण तो एवां ने एवां त्रिकाळ एकरूप पडयां छे; तेमां कोई उणप के अधिकता थई नथी. आम सर्व पडखेथी वस्तुस्वरूप यथार्थ जाणवुं जोईए.

निगोदमां अक्षरना अनंतमा भागे ज्ञाननी पर्याय हती, तेनो विकास थई ने बार अंग अने चौद पूर्वनुं ज्ञान थाय ते ज्ञाननो अनंतगुणो विकास छे; अने केवळज्ञाननी पर्याय थाय ए तो एथीय अनंतगुणो विकास छे. अहा! आवी जेमां आखुं जगत- स्वपरनां द्रव्य-गुण अने अनादिअनंत पर्यायो जणाय एवी पूर्ण ज्ञाननी पर्याय प्रगटवा छतां त्रिकाळी द्रव्य-गुणमां कांई ओछप के उणप के विशेषता थती नथी. अहा! आवो


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प्रभु! सांभळ तो खरो के आ शुं कहेवाय छे! केवळज्ञाननी पर्याय शक्तिमांथी प्रगटी तो शक्तिमां कांई ओछप थई हशे एम कोईने तर्क उठे तो कहे छे-ना, शक्ति तो एवी ने एवी परिपूर्ण त्रिकाळ अंदर भरी पडी छे. अहा! आवी अलौकिक वातो छे. ‘आत्मा पोताना स्वरूपथी ज जाणे छे’ -एम जे कह्युं छे एमांथी आ बधी वात नीकळी छे.

‘आत्मा जेम बाह्य पदार्थोनी असमीपतामां पोताना स्वरूपथी ज जाणे छे तेम बाह्य पदार्थोनी समीपतामां पण पोताना स्वरूपथी ज जाणे छे.’

आकाशनो अनंत अनंत जोजनमां विस्तार छे; तेना प्रदेशोनो क्यांय अंत नथी. अहा! आवा असमीप पदार्थने पण ज्ञान पोताना स्वरूपथी ज जाणे छे. ज्ञाननो स्वरूपथी ज स्व-परप्रकाशक स्वभाव छे, अने पोताना स्व-परप्रकाशक स्वभावना सामर्थ्यथी ते स्वने प्रकाशे छे ते ज काळे दूरदूरना पदार्थने पण तेने अडया विना ज जाणे छे; वळी तेम काळभेद कर्या विना एक समयमां त्रणकाळने ते जाणे छे. आवुं अलौकिक तेनुं सामर्थ्य छे. भाई आ तो अंदर जागीने जुए तो समजाय एवुं छे.

जागीने जोउं तो जगत दीसे नहि-एम आवे छे ने! भाई! जगत छे ज नहि एम केटलाक कहे छे एम आ वात नथी. जगत नथी एम वात नथी; जगत छे, छ द्रव्यमय लोक छे, पण तेने जाणनारी पोतानी पर्यायने जोतां एमां जगत नथी एम वात छे. छ द्रव्य संबंधीनुं ज्ञान पोतामां छे. पण छ द्रव्य पोतामां नथी एम वात छे. भाई! आ तो केवळीना पेटनी वातो संतो पूरी कही शके नहि, केवळी पूरी जाणे.

जुओ, एकलुं असमीपने जाणे एम लेवुं नथी, पोताने जाणतां परने असमीपने तेमज समीपने-जाणे छे एम वात लेवी छे. ज्ञाननी पर्याय एकला परने ज जाणे ए तो मिथ्याज्ञान छे. आत्मानो स्वभाव तो स्व-परप्रकाशक छे, तेथी एकला परने जाणे अने स्वने भूली जाय ए तो मिथ्याज्ञान छे.

अहा! वीतरागी संतोनी शी बलिहारी छे! केवळीना केडायतीओए केवळज्ञानने खडुं करी दीधुं छे. भाई! आत्मा एकला परने ज जाणे एम वात नथी, पण स्वने जाणतां, पर दूर होवा छतां परने जाणे एवो एनो स्वभाव छे. दूर अने नजीक एवो कोई भेद नथी. दूरने जाणतां वार लागे, अने समीपनो तत्काल जाणे एम भेद नथी. एक समयमां अनंत अनंत दूरवर्ती (क्षेत्रथी के काळथी) पदार्थने, स्वने जाणतां जाणी ले छे. अहाहा...! आवी वात! भाई! अंदरथी पोतानो महिमा भास्या विना


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बहारनो महिमा छूटे नहि. भाई! बहारनी चीज छे, पण ते व्यवहारे जाणवालायक छे, ते आदरणीय नथी, उपादेय नथी, उपादेय ने आदरणीय तो एक त्रिकाळी भगवान आत्मा ज छे.

स्वने जाणतां बहारना दूरना के निकटना पदार्थोने केवळज्ञान एक समयमां ज एकसाथे जाणे छे. स्वने पहेलां ने परने पछी जाणे एम जाणवामां काळभेद नथी. ते भले श्रुतज्ञाननी पर्याय हो, ते पर्याय अनंता सिद्धो दूर छे एने पण जाणे अने समीपमां समोसरणमां विराजमान सर्वज्ञदेवने पण जाणे. स्वने जाणतां परने जाणे एवुं ज तेनुं स्वरूप छे. अही ‘बाह्य पदार्थोनी असमीपतामां...’ एम असमीप पदार्थोनी पहेलां वात केम करी? केमके लोकोने एम छे के आकाशादि असमीपने जाणतां ज्ञानने वार लागती हशे; तो तेनुं निरसन करतां कहे छे के पदार्थ दूर हो के समीप हो, ज्ञानने जाणवामां कांई भेद नथी. ज्ञान तो सर्वने एक साथे पहोंची वळे छे. अहा! स्वपरप्रकाशक ज्ञाननी निर्मळ पर्याय प्रगटी तेना स्वभावना सामर्थ्यनी शी वात! एने कोई हद नथी. समजाणुं कांई...!

अहो! सर्वज्ञ परमात्माए कहेली वात दिगंबर संतो अहीं कहे छे. कहे छे- ज्ञानानंदस्वरूपी भगवान आत्मा असमीप के समीप बाह्यपदार्थोने पोताना स्वरूपथी ज जाणे छे, ते ते पदार्थोथी जाणे छे एम नहि. भाई! आ तो वीतरागनो मारग बापा! जरा शांतिथी ने धीरजथी समजवा जेवो छे. आत्मा अहीं छे ने आकाश अनंत अनंत दूर विस्तर्युं छे; तो ते आकाशने जाणे छे ते पोताना स्वरूपथी ज जाणे छे. पोताना स्वरूपमां रहीने, परमां पेठा विना, परने अडया विना ज, ज्ञान पोताथी ज आकाशादिने जाणे छे. पदार्थ नजीक छे माटे जाणे छे के दूर छे माटे जाणे छे एम छे ज नहि. एने स्वरूपथी ज जाणपणुं छे, पदार्थथी नहि. लोकालोक छे माटे केवळज्ञान एने जाणे छे एम छे नहि. ज्ञानथी पर्याय शब्दादि पदार्थोने ते शब्दादि पदार्थ सामे छे माटे जाणे छे एम नथी, ए तो स्वरूपथी ज जगतना ज्ञेयोने जाणे छे. आवी वात छे.

हवे कहे छे - ‘(एम) पोताना स्वरूपथी ज जाणता एवा तेने (आत्माने), वस्तुस्वभावथी ज विचित्र परिणतिने पामता एवा मनोहर के अमनोहर शब्दादि बाह्य पदार्थो जराय विक्रिया उत्पन्न करता नथी.’

शुं कीधुं? ‘मनोहर के अमनोहर शब्दादि पदार्थो’ -अर्थात् निंदाना शब्द हो के प्रशंसाना, कुरूप हो के सुंदर रूप हो, दुर्गंध हो के सुगंध हो, कडवो रस हो के मधुर, कर्कश स्पर्श हो के सुंवाळो-ते बधा वस्तुस्वभावथी ज विचित्र परिणतिने पामता बाह्य पदार्थो जीवने जराय विक्रिया उत्पन्न करता नथी.’ स्त्रीना शरीरना सुंदर