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अहाहा...! आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु छे ते परने जाणतां परने लईने तेने जाणपणुं-ज्ञान थयुं छे एम तो नहि, पण परने लईने तेने रागादि विकार थाय छे एम पण नथी. अहा! शब्दादि पर पदार्थो निंदा-प्रशंसा आदिरूपे स्वभावथी ज विचित्रपणे परिणमे छे, ते शब्दादिने आत्मा करे छे एम नहि तथा ते शब्दादि पदार्थोने कारणे आत्माने रागादि विक्रिया थाय छे एम पण नहि. शब्दादि पदार्थो तो सहज ज पोताना भावथी परिणमे छे. तेमां आत्माने शुं छे? कांई नथी, न तो आत्मा शब्दादिने करे छे, न तो शब्दादि आत्माने कांई रागादि विकार करे छे. भगवान केवळीना गुण ज्ञानमां जणाय, पण ते कांई जीवने राग उत्पन्न करे छे एम नथी. आ केवळी छे एम आने ज्ञान थाय ते पण केवळीने लईने छे एम नहि, अने आने केवळी प्रति राग थाय ते पण केवळीने लईने छे एम नहि. भाई! आ तो प्रत्येक वस्तुना स्वतंत्र परिणमननो ढंढेरो छे. कोईनुं परिणमन कोई परथी छे एम केवळीना मारगमां छे ज नहि. परथी विकार पण नहि अने परथी गुणनी दशा पण नहि.
कोईए गाळ दीधी अने आने द्वेष थयो तो ते गाळने लईने थयो एम छे नहि. गाळमां (शब्दमां) एवी ताकात नथी के तने ए द्वेष उत्पन्न करे, अने ए गाळथी तने द्वेष थाय एवुं तारुं स्वरूप पण नथी. तेम कोई प्रशंसा-अभिनंदन करे तो ते प्रशंसाना शब्दथी तने राग उपजे एम पण नथी. कोई एम माने ए तो एनी जूठी मान्यता छे. भाई! परमाणु विचित्र परिणामरूपे स्वभावथी ज परिणमे एमां तारे शुं? रागद्वेषादि भावो पर वडे उत्पन्न करी शकाता नथी अने पर जीवने रागद्वेष करता नथी. अहो! परम भेदज्ञाननुं कारण एवुं ज वस्तुनुं स्वरूप छे. समजाणुं कांई...! भाई....! आ मूळ वात छे.
सम्यग्द्रष्टि रागने पोतानो मानतो नथी. तेने रागादि तो थाय छे अने ते तेने कर्मनुं कार्य समजे छे ते केवी रीते छे?
समाधानः- भाई! एमां अपेक्षा बीजी छे. ज्ञानीने-सम्यग्द्रष्टिने रागनी रुचि नथी. राग पोतानुं कर्तव्य छे एम तेने नथी. छतां कर्मना (चारित्रमोहना) उदयवश तेने कमजोरीने लीधे रागादि थाय छे तो ते स्वभावजनित कार्य नहि होवाथी तेने कर्मनुं कार्य कहेवामां आवे छे. कर्म करे छे एम नहि, पण कर्मना प्रसंगमां राग थाय छे तेथी तेने विवक्षाथी कर्मनुं कार्य कहे छे. भाई! मात्र शब्दने पकडे अने भाव समजे नहि तो आ समजाय एवुं नथी. भाई! जे विवक्षाथी वात होय ते
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विवक्षा यथार्थ समजवी जोईए. बाकी कर्मनी ताकात नथी के ते जीवने रागादि उत्पन्न करे. जुओ, आ शुं कहे छे? स्वभावथी ज विचित्र परिणतिरूपे परिणमता बाह्य पदार्थो जीवने जराय विक्रिया उत्पन्न करी शक्ता नथी. अहो! आचार्यदेवे थोडा शब्दोमां घणुं बधुं भरी दीधुं छे. वर्तमान ज्ञाननी हीन (अल्पज्ञ) दशा छे ते कांई ज्ञानावरणीय कर्मने लईने छे एम नथी.
भाई! पर वडे परनी दशा थाय ए मान्यता ज जूठी छे, भ्रम छे. भगवाननुं बिंब जोयुं माटे मने शुभराग थयो एम कोई माने ते खोटुं छे. तेम कोई पापीने जोतां द्वेष थाय ते पापीने कारणे थयो छे एम माने ते पण खोटुं छे. विचित्र परिणतिरूपे सामेनो पदार्थ परिणम्यो ते तेनी दशा छे, एमां आत्माने शुं छे? कांई नथी. हवे कहे छे-
‘आ रीते आत्मा दीवानी जेम पर प्रत्ये सदाय उदासीन छे (अर्थात् संबंध वगरनो, तटस्थ छे) -एवी वस्तुस्थिति छे, तोपण जे राग-द्वेष थाय छे ते अज्ञान छे.’
भाई! परद्रव्यमां ताकात नथी के ते तने राग उत्पन्न करावे अने तारुं पण एवुं स्वरूप नथी के पर वडे तारामां राग उत्पन्न थाय. आत्मा पर्याये पर्याये स्वतंत्र-स्वाधीन छे; विकार परने लईने नहि, पर वडे नहि; अने गुणनी दशा पण पर वडे नहि.
तो वज्रवृषभनाराच संहनन होय तेने केवळज्ञान थाय छे एम कह्युं छे ए केवी रीते छे!
भाई! ए तो निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटेनुं कथन छे. वज्रवृषभनाराच संहनन केवळज्ञान प्रगट थवामां बाह्य निमित्त छे, कांई एनाथी केवळज्ञान उत्पन्न थाय छे एम नथी. संघयण तो जडनी अवस्था छे; ते जीवने शुं करे? जेम निर्मळ रत्नत्रयरूप चारित्रनी दशा मनुष्यपणामां प्रगट थाय छे, नरक-देव-तिर्यंचमां नहि; पण तेथी कांई मनुष्यदशा छे तेनाथी कांई चारित्र प्रगट थाय छे एम नथी. वास्तवमां आत्माने चारित्र प्रगट थवामां परनी अपेक्षा ज नथी. भाई! पर तारामां चारित्र उत्पन्न करे एवी परमां शक्ति ज नथी. भगवाने जीवादि नव तत्त्व कह्यां छे, त्यां कांई एक तत्त्व कोई बीजा तत्त्वनुं कांई करे एवुं वस्तुस्वरूप नथी. समजाणुं कांई...!
आ रीते आत्मा दीवानी जेम पर प्रत्ये उदासीन छे, संबंध वगरनो छे. दीवो होय ने दीवो, ते घटपटने, घटपट छे माटे प्रकाशे छे एम नथी; अने घटपट दीवाने प्रकाशरूप करे छे एम पण नथी. दीवानो स्वभाव ज स्वपरने प्रकाशवानो छे अने तेथी सहज ज ते प्रकाशे छे.
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हवे आवो मारग! बिचाराने समजवानी फुरसद न मळे! आवो मनुष्य-भव मांड मळ्यो, एमां रळवा-कमावामां ने बायडी-छोकरां पाछळ ने विषयमां बधो वखत चाल्यो जाय. परंतु भाई! अवसर चाल्यो जाय छे. आवो मनुष्यभव अनंत काळे मळे, आ तो भवनो अभाव करवानो काळ छे. आमां कांई न कर्युं ने कर्म करे ते खरुं-एम बेसी रह्यो तो तारा हाल भुंडा छे भाई! क्यांय भवसमुद्रमां खोवाई जईश.
जीव पोताना ऊंधा पुरुषार्थथी समजतो नथी; ने सुलटा पुरुषार्थथी पोतानुं स्वरूप तेने समजाय तेवुं छे. कर्म तने कांई करे एवी कर्मनी शक्ति नथी, ने कर्मथी तारामां भूल थाय एवुं तारुं स्वरूप नथी. कह्युं ने के आत्मा दीवानी जेम पर प्रत्ये उदासीन छे. जुओ, आ वस्तुस्थिति छे. जेम दीवो तटस्थ छे तेम आत्मा पर प्रत्ये तटस्थ छे. जेम नदीमां पाणीनो प्रवाह चाल्यो जाय त्यां बन्ने कांठा तटस्थ छे, कांठाने लईने प्रवाह चाले छे एम नथी, तेम आत्मा परने जाणे छे ते तटस्थ-संबंधरहित रहीने जाणे छे. आवो मारग छे भाई!
अहा! अनंतकाळमां अनंतवार एणे अगियार अंग ‘पढ डाला’ , परंतु अरे एणे स्वरूपमां अंर्तद्रष्टि करी नहि! भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप ज्ञाननो सागर प्रभु छे तेने स्पर्शीने ज्ञान प्रगट थाय छे, परथी ज्ञान थतुं नथी. आवी वस्तुस्थिति छे तोपण तेने रागद्वेष थाय छे ते अज्ञान छे.
‘शब्दादिक जड पुद्गलद्रव्यना गुणो छे. तेओ आत्माने कांई कहेता नथी के “तुं अमने ग्रहण कर (अर्थात् तुं अमने जाण);” अने आत्मा पण पोताना स्थानथी च्युत थईने तेमने ग्रहवा (-जाणवा) तेमना प्रत्ये जतो नथी.’
जुओ, शब्दादिक जड पुद्गलद्रव्यना परिणामरूप होवाथी जड छे. तेओ कांई आत्माने कहेता नथी के तुं अमने जाण. तेओ तो पोतपोताना भावथी परिणमी रह्या छे बस. वळी आत्मा पण पोतानुं स्थान छोडी तेमने ग्रहवा तेमना प्रत्ये जतो नथी. अर्थात् आत्मा शब्दादिरूप थई तेमने ग्रहतो- जाणतो नथी. स्वपरने जाणवुं ए तो आत्मानो सहज स्वभाव छे. भाई! प्रत्येक पदार्थनुं द्रव्य, एना गुण अर्थात् शक्ति अने एनी पर्याय-सर्व स्वतंत्र छे; तेमां परनो बिलकुल अधिकार नथी. सम्यग्दर्शन थया पछी विकार थाय छे ते परने लईने थाय छे एम कोई कहे तो ए बराबर नथी.
जेम कोई मुसाफर एक गाम छोडी बीजे गाम जाय त्यां ते गाम तेने कहेतुं नथी के ‘अहीं तुं रोकाई जा’; तेम आत्मा शब्द, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण इत्यादिने जाणे छे तो ते शब्दादि तेने कहेता नथी के ‘तुं अमने जाणवा रोकाई जा’ . वळी
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आत्मा पण पोताना स्थानथी खसीने तेमने जाणवा तेमना प्रत्ये जतो नथी अर्थात् शब्दादिमां तन्मय थतो नथी. ल्यो, आवी वस्तुस्थिति छे. पण अरे! अंदर पोते भगवतस्वरूप चिदानंद प्रभु विराजे छे तेनी सन्मुख ते थतो नथी अने बहार शब्दादि पदार्थोना लक्षमां भरमाई गयो छे!
हवे कहे छे- ‘जेम शब्दादिक समीप न होय त्यारे आत्मा पोताना स्वरूपथी ज जाणे छे, तेम शब्दादिक समीप होय त्यारे पण आत्मा पोताना स्वरूपथी ज जाणे छे.’
शब्दादि पदार्थो दुर हो के समीप हो, आत्मा तेमने पोताना स्वरूपथी ज जाणे छे. ‘स्वरूपथी ज जाणे छे’ -एम कहेवानो आशय एम छे के-जेने निज चैतन्यस्वरूप ज्ञाताद्रष्टा प्रभुनुं अंतरमां भान थयुं छे ते पर पदार्थोने जाणवामां रोकातो नथी, पोताने जाणतां सहज ज तेनो स्वपर प्रकाशक स्वभाव प्रगट थाय छे. हवे कहे छे-
‘आम पोताना स्वरूपथी ज जाणता एवा आत्माने पोतपोताना स्वभावथी ज परिणमतां शब्दादिक किंचित्मात्र विकार करतां नथी, जेम पोताना स्वरूपथी ज प्रकाशता एवा दीवाने घटपटादि पदार्थो विकार करता नथी तेम,....’
शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श ए जडना गुणो छे. तेओ पोताना स्वभावथी ज अनेक स्वरूपे परिणमे छे. पोताना स्वभावथी ज परिणमता तेओ जीवने जराय विकार करता नथी. शुं कीधुं? प्रशंसा के निंदापणे पोते ज परिणमता शब्दो जीवने किंचित् विकार-रागद्वेष उत्पन्न करता नथी. कोई प्रशंसाना शब्दो कहे तेथी राग थई आवे एम जराय नथी. कोनी जेम? तो कहे छे-स्वरूपथी ज प्रकाशता दीवाने घटपटादि पदार्थो विकार करता नथी तेम.
दीवो पोताना स्वरूपथी ज प्रकाशे छे. तेने घटपटादि पदार्थो विकार करता नथी. दीवाना प्रकाशमां कोलसा होय तो ते शुं दीवाने काळो करे छे? जराय नहि. दीवाना प्रकाशमां वींछी होय तो ते शुं? दीवाना प्रकाशने झेरमय करे छे? जराय नहि. दीवाने घटपटादि पदार्थो विकार करता नथी, तेम जीवने पर पदार्थो किंचित्मात्र विकार करता नथी. द्रव्यनो स्वभाव परिपूर्ण परमात्मस्वरूप छे एवुं सांभळीने तेने हरख अने राग थाय तो ते कांई ए शब्दोने लईने नथी. परपदार्थ जीवने विकार करावतो नथी; अने पर वडे जीवमां विकार थाय एवुं जीवनुं स्वरूप नथी.
आवो उपदेश! अजाण्याने एम लागे के जीवनी दया पाळवी, ने दान करवुं- भूख्यांने अनाज देवुं, तरस्याने पाणी पावुं, नागांने कपडां देवां अने रोगीने औषध देवुं-ए तो कांई कहेता नथी ने आवो उपदेश!
हा भाई, आवो उपदेश! सांभळतो खरो प्रभु! परनी कोण दया पाळे अने
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अहीं कहे छे-पोताना स्वरूपथी ज जाणता एवा आत्माने पोतपोताना स्वभावथी ज परिणमतां शब्दादिक किंचित्मात्र विकार करतां नथी. अहा! ‘आवो वस्तुस्वभाव छे तोपण जीव शब्दने सांभळी, रूपने देखी, गंधने सूंघी, रसने आस्वादी, स्पर्शने स्पर्शी, गुण-द्रव्यने जाणी, तेमने सारां-नरसां मानी रागद्वेष करे छे, ते अज्ञान ज छे.’ अहा! परमां रोकाई रहीने रागद्वेष करे ते पोतानो ज अपराध छे, एमां परनो कांई दोष नथी.
हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘षूर्ण–एक–अच्युत–शुद्ध–बोध–महिमा अयं बोद्धा’ पूर्ण, एक, अच्युत अने शुद्ध (-विकार रहित) एवुं ज्ञान जेनो महिमा छे एवो आ ज्ञायक आत्मा ‘बोध्यात्’ ज्ञेय पदार्थोथी ‘काम् अपि विक्रियां न यायात्’ जरा पण विक्रिया पामतो नथी, ‘दीपः प्रकाश्यात् इव’ जेम दीवो प्रकाश्य पदार्थोथी (-प्रकाशावायोग्य घटपटादि पदार्थोथी विक्रिया पामतो नथी तेम.
जुओ, शुं कहे छे? के भगवान आत्मा पूर्ण-ज्ञानानंद स्वभावथी परिपूर्ण एवी वस्तु छे. वळी ते अनंत गुणस्वभावमय अभेद एक छे; तथा अच्युत छे. एटले शुं? के पोतानो जे पूर्ण ध्रुव एक चैतन्यभाव तेमांथी च्युत थतो नथी. अहाहा...! सम्यग्द्रष्टि पुरुष पोतानी पर्यायमां आ निर्णय करे छे के हुं पूर्ण, एक, अचळ, शुद्ध, निर्विकार ज्ञानस्वरूप वस्तु छुं. अहाहा...! आवो एक ज्ञानस्वभाव जेनो महिमा छे एवो ज्ञायक प्रभु, कहे छे, ज्ञेयपदार्थोथी जरापण विक्रिया पामतो नथी. अहाहा...! एनुं स्वरूप ज जाणवुं-देखवुं छे. पर्यायमां जे विक्रिया पामे छे ते पोतानो अपराध छे, कोई ज्ञेयने कारणे विक्रिया पामे छे एम नथी.
अहाहा...! ज्ञान एक जेनो स्वभाव छे ते ज्ञायक प्रभु आत्मा ज्ञेय पदार्थो-ते देव-गुरु-शास्त्र हो के स्त्री-पुत्र-परिवार हो के अन्य हो-ते ज्ञेयने जाणवामात्रथी विक्रिया-राग थाय छे एम नथी, केमके जाणवुं ए तो एनुं स्वरूप छे. भगवान केवळी समस्त ज्ञेयोने-त्रणकाळ त्रणलोकने-केवळज्ञानमां एक साथे जाणे छे, छतां तेमने राग
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थतो नथी. परज्ञेयोने जाणतां जीवने विकार थाय छे एम नथी, परंतु अज्ञानी प्राणी बाह्य चीजोने इष्ट-अनिष्ट अनुकूळ-प्रतिकूळ माने छे तेथी तेने रागद्वेष थाय छे, बाह्य पदार्थो तेने रागद्वेष करे छे एम नथी. आ ठीक छे ने आ अठीक छे एम परज्ञेयोमां ठीक-अठीकनी जूठी कल्पना अज्ञानी करे छे तेथी तेने राग-द्वेष थाय छे, ते परज्ञेयो तेने विक्रिया उपजावता नथी, वा ते ज्ञेयोने जाणवाथी रागादि थाय छे एम नथी.
आ शरीर सुंदर मनोहर छे अने आ घरेणां-झवेरात एनी महान शोभा छे- आम शरीर अने घरेणांमां इष्टपणानी कल्पना-भ्रान्तिथी जीवने तत्संबंधी राग थाय छे, पण ते शरीरादि बाह्य चीज कांई एने राग करावे छे एम नथी. वळी बाह्य ज्ञेयोने जाणतां राग थाय एवो ज्ञाननो पण स्वभाव नथी. जुओ, छे ने अंदर के ज्ञायक आत्मा ज्ञेयपदार्थोथी ‘काम् अपि विक्रियां न यायात्’ जरापण विक्रिया पामतो नथी. भाई! परवस्तुने जाणतां विक्रिया पामे तो केवळी पण विक्रिया पामे, केमके केवळी त्रणकाळ त्रणलोकने जाणे छे. (परंतु एम छे नहि.)
रागनो पण आत्मा जाणनार छे, पण रागने जाणतां एने राग थई जाय एवो एनो स्वभाव नथी. ए तो सातमी गाथामां (भावार्थमां) आवी गयुं के पर वस्तुथी कांई राग थतो नथी, पण पर्यायमां पर तरफ बुद्धि जतां जे रागी छे तेने राग थाय छे. शुं कीधुं? दर्शन, ज्ञान, चारित्र छे ए तो आत्मानी पर्याय छे, ते पर्यायने जाणतां राग थाय एम नहि, परंतु रागी छे तेने पर्यायने-भेदने जाणतां राग थाय छे.
आत्मा वस्तु पूर्ण, अभेद, एकरूप छे. तेमां भेद पाडवो-आ ज्ञान छे, दर्शन छे, चारित्र छे एम भेद पाडवो-ए राग छे. केवळी भगवान भेदने जाणे पण तेमने राग थतो नथी; अहीं तो परने ने भेदने जाणतां रागी जीवने राग थाय छे, केमके तेने परमां ने भेदमां ठीक-अठीकपणानी भ्रान्ति छे, कल्पना छे. परने के भेदने जाणतां राग थाय एम नहि, पण परने जाणतां रागी प्राणीने राग थाय छे एम वात छे. समजाणुं कांई....? बापु! आ तो न्यायनो मार्ग छे.
सातमी गाथाना भावार्थमां छेल्ले कह्युं छे-“अहीं कोई कहे के पर्याय पण द्रव्यना ज भेद छे, अवस्तु तो नथी; तो तेने व्यवहार केम कही शकाय?
समाधानः- ए तो खरुं छे पण अहीं द्रव्यद्रष्टिथी अभेदने प्रधान करी उपदेश छे. अभेदद्रष्टिमां भेदने गौण कहेवाथी ज अभेद सारी रीते मालुम पडी शके छे. तेथी भेदने गौण करीने तेने व्यवहार कह्यो छे. अहीं एवो अभिप्राय छे के भेदद्रष्टिमां निर्विकल्प दशा नथी थती अने सरागीने विकल्प रह्या करे छे; माटे ज्यां सुधी रागादिक मटे नहि त्यां सुधी भेदने गौण करी अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव कराववामां
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जुओ, आमां बहु सरस वात करी छे. पर्याय छे तो पोतानी अवस्था, पण पर्याय अने भेद उपर लक्ष जशे तो सरागीने विकल्प-राग थशे, निर्विकल्पता नहि थाय, तेथी अभेदनी द्रष्टि कराववा पर्याय अने भेदने गौण करी तेने व्यवहार कही त्रिकाळी अभेद वस्तुनो आश्रय कराववा तेने निश्चय कह्यो छे. आवो मारग! भाई! एक न्याय फरे तो आखी वस्तु पलटी जाय. वीतराग थया पछी केवळी भेद अने अभेद सघळुं जाणे छे, पण वीतराग थया बाद भेदने जाणतां राग थाय एम छे नहि. समजाणुं कांई...?
अहीं कहे छे-आ एक शुद्ध ज्ञायक आत्मा ज्ञेयपदार्थोथी जरा पण विक्रिया पामतो नथी. जेम दीवो प्रकाशवायोग्य पदार्थोने प्रकाशवा छतां विक्रिया पामतो नथी. दीवो दीवो ज छे, तेम भगवान आत्मा चैतन्य दीवो छे ते परवस्तुने जाणतां कांई विक्रिया पामतो नथी. ज्ञान ज्ञेयोने जाणे तेथी रागद्वेष उत्पन्न थई जता नथी, पण रागी जीवो तेमां ठीक-अठीकपणुं करे तेथी राग द्वेष उत्पन्न थाय छे. हवे कहे छे-
‘ततः इतः’ तो पछी ‘तद्–वस्तुस्थिति–बोध–वन्ध्य–धिषणाः एते अज्ञानिनः’ एवी वस्तुस्थितिना ज्ञानथी रहित जेमनी बुद्धि छे एवा आ अज्ञानी जीवो ‘किम् सहजाम् उदासीनताम् मुञ्चन्ति, रागद्वेषमयी–भवन्ति’ पोतानी सहज उदासीनताने केम छोडे छे अने रागद्वेषमय केम थाय छे? (एम आचार्यदेवे शोच कर्यो छे.)
भाई! तारो स्वभाव तो ज्ञान छे, छतां तुं ‘बोधवन्ध्य’ ज्ञानथी विधुर-खाली केम थई गयो? तारा स्वभावने तुं केम भूली गयो? जाणवुं-देखवुं बस एवो सहज उदासीनतानो भाव तेने छोडीने अरेरे! तुं रागद्वेषमय केम थयो? अज्ञानीओ प्रति आचार्यदेव आम खेद व्यक्त करे छे. आचार्यदेवने खेद थयो छे ते करुणानो राग छे. पोते मुनि छे ने? केवळी नथी; किंचित् राग हजी विद्यमान छे एटले आवी करुणा थई आवी छे.
सर्वज्ञ परमेश्वर पण तारा ज्ञाननुं ज्ञेय छे. एमने ठीक छे एम मानतां राग थाय छे. आचार्य कहे छे-अरे तने आ राग केम थाय छे? जाणवारूप सहज उदासीनताने छोडीने तुं रागी केम थाय छे? परने जाणतां राग थाय एवो कांई ज्ञाननो स्वभाव नथी, अने परज्ञेयो तने राग करावे एवो ज्ञेयोनो स्वभाव नथी. छतां तुं परने इष्ट- अनिष्ट मानी रागद्वेषमय केम थाय छे?
जुओ, ज्ञानीने राग थाय छे ते पोतानी अस्थिरताने लईने कमजोरीथी थाय छे.
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परज्ञेयोने जाणतां अज्ञानपणानो राग एने थतो नथी. राग थाय छे ते बे प्रकारथी थाय छे-कां तो अज्ञानथी थाय छे अथवा तो कमजोरीथी थाय छे; परने लईने राग थाय छे एम बिलकुल नथी. ज्ञानीने पोतानी कमजोरीवश राग थाय छे, परमां इष्ट-अनिष्टनी कल्पनाजनित राग तेने थतो नथी.
पंचाध्यायीमां आवे छे के-हे ज्ञानी, तारो तो ज्ञान स्वभाव छे; बधुं जाण! जाणवामां क्यां रागद्वेष छे. परमां ठीक-अठीकनी कल्पना करतां रागद्वेष उत्पन्न थाय छे. पंचपरमेष्ठी ठीक छे एवी कल्पना करीश तो तने राग थशे, पंचपरमेष्ठीने परज्ञेयपणे मात्र जाणीश तो राग नहि थाय. ल्यो, आवी वात छे. हवे बीजा साथे आमां क्यां मेळ खाय?
‘ज्ञाननो स्वभाव ज्ञेयने जाणवानो ज छे, जेम दीपकनो स्वभाव घटपटादिने प्रकाशवानो छे. एवो वस्तुस्वभाव छे. ज्ञेयने जाणवामात्रथी ज्ञानमां विकार थतो नथी. ज्ञेयोने जाणी, तेमने सारां-नरसां मानी, आत्मा रागी-द्वेषी-विकारी थाय छे ते अज्ञान छे’
अहाहा...! आत्मा सदा एक ज्ञायकस्वभावी प्रभु छे. तेनो स्वभाव ज्ञेयने मात्र जाणवानो ज छे. ज्ञेयने जाणवामात्रथी कांई विकार थतो नथी. परंतु ज्ञेयोने जाणी तेमां भला-बुरानी कल्पना-भ्रान्ति करवाथी विकार-रागद्वेष उत्पन्न थाय छे, अने ते अज्ञान छे. परमां ठीक-अठीकपणुं मानतां रागद्वेष उत्पन्न थाय ते अज्ञान छे. ज्ञानीने अस्थिरतानो राग थाय तेनी वात नथी. आ तो परज्ञेयोमां इष्ट-अनिष्टपणानी कल्पना करी जीव रागी-द्वेषी थाय छे ते अज्ञान छे एम वात छे. हवे कहे छे-
‘माटे आचार्यदेवे शोच कर्यो छे के-“वस्तुनो स्वभाव तो आवो छे, छतां आत्मा अज्ञानी थईने रागद्वेषरूपे केम परिणमे छे? पोतानी स्वाभाविक उदासीन-अवस्थारूप केम रहेतो नथी?” आ प्रमाणे आचार्यदेवे जे शोच कर्या छे ते युक्त छे, कारण के ज्यां सुधी शुभ राग छे त्यां सुधी प्राणीओने अज्ञानथी दुःखी देखी करुणा उपजे छे अने तेथी शोच थाय छे.’
अहा! मुनिराजने त्रण कषायनो अभाव थयो छे छतां आवो करुणानो शुभराग आवे छे. अहा! साधु एटले परमेष्ठी पद! णमो लोए सव्व त्रिकालवर्ती साहूणं’ एम धवलमां पाठ छे.
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णमो लोए सव्व त्रिकालवर्ती सिद्धाणं,
णमो लोए सव्व त्रिकालवर्ती आइरियाणं,
णमो लोए सव्व त्रिकालवर्ती उवज्झायाणं,
णमो लोए सव्व त्रिकालवर्ती साहूणं.
मूळ पाठ आम छे; पछी टूंकु करी नाख्युं छे. बधा ज बोलमां ‘त्रिकालवर्ती’ शब्द पडयो छे. आम भूत-वर्तमान-भावि तीर्थंकरोने नमस्कार हो एवो शुभभाव मुनिने पण आवे छे. पण ते अज्ञानजनित नथी, चारित्रदोष छे. परथी मने राग थाय एम मानवुं ते अज्ञान छे; मुनिराजने. एवुं अज्ञान नथी. स्वरूपस्थिरता संपूर्ण थई नथी तेथी अशुभथी बचवा एवो शुभभाव आवे छे ते चारित्रनो दोष छे. परने लईने मने राग थाय एम माने ते मिथ्यात्वनो दोष छे. मुनिराजने तो मिथ्यात्व सहित त्रण कषायनो अभाव छे. अहो! मुनिराज तो जाणे त्रण कषायना अभावरूप वीतरागी शान्तिनो समुद्र!
आचार्यदेवने करुणानो भाव थयो छे ते राग छे, चारित्रनो दोष छे; श्रद्धामां कांई दोष नथी, श्रद्धा तो अचल छे, अविचल छे. गाथा ३८नी टीकामां आचार्यदेव स्वयं कहे छे के-अमने जे श्रद्धान प्रगट थयुं छे ते अप्रतिहत छे, मोहने अमे फरीथी अंकुर न उपजे तेम मूळमांथी ज उखाडी दीधो छे, तेथी हवे अमे पडवाना नथी. अमारुं समक्ति अप्रतिहत छे. अस्थिरतावश किंचित् राग आव्यो छे, पण श्रद्धामां भूल नथी.
मुनिराजने शोच थयो छे ते राग छे, एटलुं दुःख पण छे, आनंदनी दशामां एटली कचाश छे. पण ज्यां सुधी अस्थिरतानी दशा छे त्यां सुधी प्राणीओने दुःखी देखी आवी करुणा थई आवे छे. मुनिराजने जेटलो वीतराग-भाव प्रगटयो छे ते मोक्षमार्ग छे, अने जे पंचमहाव्रतादिनो राग आवे छे ते परमार्थे दोष छे, जगपंथ छे, एटलो हजु संसार छे.
अज्ञानीने दुःखी देखीने करुणा उपजी छे एम नहि, पण पोतानी भूमिका अस्थिरतानी छे, सराग छे एटले पर तरफ लक्ष जतां पोताने करुणानो राग थई आव्यो छे. आवी वात छे.
हवे आगळना कथननी सूचनारूप काव्य कहे छेः-
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‘राग–द्वेष–विभाव–मुक्त–महसः जेमनुं तेज रागद्वेषरूप विभावथी रहित छे ‘नित्यं स्वभाव–स्पृशः’ जेओ सदा (पोताना चैतन्य चमत्कारमात्र) स्वभावने स्पर्शनारा छे ‘पूर्व–आगामि–समस्त–कर्म–विकलाः’ जेओ भूतकाळनां तेम ज भविष्यकाळनां समस्त कर्मथी रहित छे अने ‘तदात्व–उदयात्–भिन्नाः’ जेओ वर्तमान काळना कर्मोदयथी भिन्न छे, ‘दूर–आरूढ–चरित्र–वैभव–बलात् ज्ञानस्य सञ्चेतनाम् विन्दन्ति’ तेओ (-एवा ज्ञानीओ) अति प्रबळ चारित्रना वैभवना बळथी ज्ञाननी संचेतनाने अनुभवे छे....
जुओ, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान पछी चारित्रनी वात करे छे. जेने सम्यग्दर्शन-ज्ञान थतां ते ज्ञानी थयो, तेने ज्ञानचेतना छे. तेने कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनानुं स्वामीपणुं नथी छतां एनुं वेदन तेने गौणपणे होय छे. अहीं चारित्रमां ते कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनानो अभाव करे छे. कहे छे-जेमनुं तेज राग-द्वेषरूप विभावथी रहित छे. अहाहा...! स्वरूपनी उग्र रमणता थई तेने चैतन्यतेजमां रागद्वेषनो अभाव छे.
आत्मा अनंतगुणथी शोभायमान शुद्ध चेतनामात्र वस्तु छे. तेनुं ज्ञान-श्रद्धान प्रगट थाय तेमां अनंत गुणनी व्यक्ततानो अंश अनंतमा भागे प्रगट थाय छे. सम्यग्दर्शन थतां भेगो अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद पण अंशे आवे छे. हवे आवी वात संप्रदायमां छे ज क्यां? भाई! आत्मामां जेटला गुणो छे ते बधानो एक अंश व्यक्त थाय तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. ‘सर्व गुणांश ते समकित’ -आम व्याख्या छे. चारित्रमां तो गुणोनी घणी व्यक्तता थाय छे, अने केवळज्ञान थतां पूर्ण व्यक्तता थाय छे. समकितमां सर्व गुणोनो एक अंश प्रगट वेदनमां आवे छे, ज्यारे चारित्रमां उग्र स्वसंवेदन होय छे.
जुओ, चोथा गुणस्थाने त्रण कषाय बाकी छे, अंशे चारित्र छे, स्वरूपाचरण चारित्र छे. संयम नाम पामे एवी स्थिति त्यां नथी. चोथा करतां पांचमा गुणस्थाने व्यक्तता विशेष अंशे छे, अने मुनिराजने तो व्यक्ततानो अंश घणो ज वधी गयो होय छे. मुनिराजने प्रचुर स्वसंवेदन होय छे, तेने तो अंदर अतीन्द्रिय आनंदना उभरा आवे छे. वीतराग आनंद अने शांति जेमां अति उग्रपणे अनुभवमां आवे तेनुं नाम चारित्र छे. चारित्रमां तो घणी व्यक्ततानो अंश बहार पर्यायमां प्रगट थाय छे; छतां ते पूर्ण नथी; पूर्ण तो केवळीने थाय छे.
भाई! देव-गुरु-शास्त्रनी बाह्य श्रद्धा ए परमार्थे समकित नथी अने बहारना व्रत, तप, भक्ति ए कांई चारित्र नथी. व्रत, भक्तिना परिणाम तो राग छे, आस्रव छे. अहीं कहे छे-जेमनुं तेज रागद्वेष रहित थई गयुं छे-जुओ आ चारित्रनी
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अहाहा...! अंदर अनंत गुणथी भरेलो निर्मळानंद चैतन्यबिंब प्रभु भगवान आत्मा छे. आवा आत्मानुं भान थईने चारित्र प्रगट थाय तेनी दशा रागद्वेषथी रहित होय छे. बहारमां देहनी दशा वस्त्ररहित होय छे अने अंदरमां चैतन्यनुं तेज रागद्वेषरूप विभावथी रहित होय छे. पुनमे दरियामां भरती आवे त्यारे दरियो पूरण उछळे तेम केवळज्ञानमां पूरण आनंदनी भरतीथी आत्मा उछळे छे. अहीं हजु चारित्रनी वात छे. तो कहे छे-चैतन्यनुं तेज रागद्वेष रहित थईने घणुं ज खीली गयुं छे अने जेमां प्रचुर आनंदनुं वेदन थाय छे तेनुं नाम चारित्र छे. ल्यो, आवी वात छे. वळी विशेष कहे छे-
‘जेओ सदा पोताना चैतन्यचमत्कारमात्र स्वभावने स्पर्शे छे’ -मुनिराजने छठ्ठे गुणस्थाने जरीक विकल्प आवे पण तरत ज सातमे चढी अंदर आनंदने स्पर्शे छे. अहाहा...! मुनिराज सदा पोताना चैतन्यचमत्कारमात्र स्वभावने स्पर्शनारा एटले अनुभवनारा छे, वेदनारा छे. चोथे अने पांचमे अंदर उपयोग कोई कोईवार जामे, बे दिवसे, पंदर दिवसे महिने, बे महिने जामे, पण दिगंबर भावलिंगी संत मुनिवरने तो वारंवार शुद्ध-उपयोग आवी जाय छे. छठ्ठे गुणस्थाने पंचमहाव्रतनो विकल्प आवे ए तो एने बोजो लागे छे. अहाहा...! निर्मळानंदनो नाथ सच्चिदानंद प्रभु छे तेने व्रतनो विकल्प उठे ते बोजो छे. मुनिराज तत्काल ते बोजाने छोडी पोताना स्वभावने स्पर्शे छे, अनुभवे छे. छठ्ठेथी सातमे वारंवार मुनिराज स्पर्शे छे तेथी अहीं ‘नित्यं स्वभावस्पृशः’ एम कह्युं छे.
अहाहा...! आ समयसार तो केवळज्ञाननो विरह भुलावे एवी अद्भुत अलौकिक चीज छे. कहे छे- ‘जुओ भूतकाळनां तेम ज भविष्यकाळनां समस्त कर्मथी रहित छे’ - जुओ आ चारित्रदशा! भूतकाळना रागथी रहित ते प्रतिक्रमण छे अने भविष्यकाळना रागथी रहित ते प्रत्याख्यान छे. अने वर्तमान रागथी रहित ते आलोचना छे.
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त्रणेय वात कळशमां करी छे. भाई! समस्त कर्मथी रहित एवी दशानुं नाम चारित्र छे बापा! चोथे गृहस्थने अने पांचमे श्रावकने तो आर्त्त-रौद्रध्यान पण होय छे. परने कारणे नहि, पण एवी अस्थिरता ते दशामां होय छे.
जुओ, अष्टापद पर्वत परथी भगवान श्री ऋषभदेव मोक्ष पधार्या तेनी खबर पडतां भरतनी आंखमां आंसु छलकायां. अहा! भरत समकिती छे, ज्ञानी छे, छतां भगवानना विरहमां ते रडे छे. एम के-अरे! भरतक्षेत्रनो चैतन्यसूर्य अस्त थई गयो, भगवानना विरह पडया’ -एम भरतजी रडे छे. त्यारे इन्द्र तेमने समजावे छे के-अरे! भरतजी, आ शुं? तमे तो आ भवे मोक्ष जशो, तेमने आ रुदन न सुहाय. भरत कहे छे-खबर छे, पण अस्थिरतावश राग आवी गयो छे, अमे तो एना ज्ञाता छीए, कर्ता नथी. जुओ, ज्ञानीने पण कमजोर भूमिकामां राग थई जतो होय छे. अहीं मुनिराजने तो रागरहित चैतन्यतेज प्रगटयुं छे, वारंवार आत्मस्पर्श करे छे अने समस्त कर्मथी रहित थया छे एनी वात छे.
जेओ ‘तदात्व–उदधात् भिन्नाः’ वर्तमान काळना कर्मोदयथी भिन्न छे. जुओ, बारमी गाथामां ‘तदात्वे’ शब्द आव्यो छे. परिज्ञायमानः तदात्वे प्रयोजनवान्’ (व्यवहारनय) ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे एम त्यां कह्युं छे. मतलब के सम्यग्द्रष्टिने ज्ञान-दर्शन निर्मळ थयां छे पण हजु पर्यायमां (चारित्रनी) अशुद्धता छे ते ते काळे जाणेली प्रयोजनवान छे. तेने समये समये शुद्धता वधे छे, अशुद्धता घटे छे- ते ते काळे जाणेल प्रयोजनवान छे एम त्यां वात छे. अहीं ‘तदात्व’ एटले वर्तमान जे उदय आवे छे तेनाथी ए भिन्न थयो छे एम वात छे. भाई! आ तो अध्यात्मनुं शास्त्र! बहु गंभीर.
अहाहा...! मुनिराजने आनंदना प्रचुर स्वसंवेदनजनित प्रचुर निजवैभव प्रगट थयो छे. भूतकाळना कर्मथी ते पाछा वळी गया छे ते प्रतिक्रमण छे, भविष्यना कर्मथी पाछो वळ्यो छे ते प्रत्याख्यान छे अने वर्तमान कर्मोदयथी भिन्न थया छे ते संवर अने आलोचना छे. अहाहा...! वर्तमान कर्म उदयमां आवे तेनाथी ए भिन्न पडी गयो छे. प्रभु! तारी मोटपनुं शुं कहेवुं? एनो कांई पार नथी; अने हीणप तो मात्र जाणेली प्रयोजनवान छे, आदरेली नहि. एम के हीणप जाणे तो हीणपने छोडी आगळ वधे छे. समजाणुं कांई...?
आम समस्त कर्माथी भिन्न छे एवा तेओ (-ज्ञानीओ) अति प्रबळ चारित्रना वैभवना बळथी ज्ञाननी संचेतनाने अनुभवे छे- ‘चञ्चत्–चिद्–अर्चिर्मयी’ के जे ज्ञानचेतना चमकती चैतन्यज्योतिमय छे अने स्वरस–अभिषिक्त–भुवनाम्’ जेणे निजरसथी (पोताना ज्ञानरूप रसथी) समस्त लोकने सींच्यो छे.
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अहा! मुनिराज पोताना स्वरूपमां अति द्रढ गाढ-प्रगाढ रमणता करे ते चारित्र छे, अने ते मुनिराजनो निजवैभव छे. जुओ आ निजवैभव! हजारो शिष्य होय ने बहु शास्त्रज्ञान होय, लाखो माणसो एने प्रवचनमां सांभळता होय ते निजवैभव नहि. ए तो बधी बहारनी चीज प्रभु! आ तो अंतरंग स्वस्वरूपमां अति गाढ लीनता-रमणता करे ते चारित्र अने ते निजवैभव-एम वात छे. अहाहा...! आवा चारित्रना वैभवना बळथी ज्ञानी ज्ञाननी संचेतनाने अनुभवे छे. अहाहा...! चारित्रमां अंदर एकाग्रता एवी द्रढ वर्ते छे के एकलो ज्ञानचेतनाना संवेदनमां ते पडयो छे. अहो! आवी अलौकिक मुनिदशा छे भाई! अत्यारे तो बधो फेरफार थई गयो, बहारमां द्रव्यलिंगनांय ठेकाणां न मळे. भाई! आ तने माठुं लगाडवानी वात नथी. आ तो तारा हितनी वात छे प्रभु! अंदर आनंदनो नाथ सच्चिदानंदनो नाथ प्रभु छे एने ढंढोळीने एमां ज लीन-प्रलीन थई प्रचुर अतीन्द्रिय आनंदने वेदे छे एनुं नाम चारित्र छे. समजाणुं कांई...!
अहाहा...! ज्ञानी ज्ञाननी संचेतनाने वेदे छे. केवी छे ते ज्ञान-संचेतना? तो कहे छे-चमकती चैतन्यज्योतिमय छे. अहाहा...! जेनी ज्ञान-पर्यायमां चैतन्यनो चमकतो प्रकाश प्रगटी गयो छे. चोथा गुणस्थाने चैतन्यनो अल्प प्रकाश छे, पण चारित्रमां गाढ अंतर्लीनता थतां चैतन्यना तेजनी भारे चमक अंदर प्रगट थाय छे. अहाहा...! आ तो अंतरदशाने जड भाषामां केम कहेवी? भाषा ओछी पडे छे भाई! ‘चमकती चैतन्यज्योतिमय छे’ -एम कह्युं एमां समजाय एटलुं समजो बापु!
वळी केवी छे ते ज्ञानचेतना? तो कहे छे-जेणे निजरसथी समस्त लोकने सिंच्यो छे. एटले शुं? के एवी ज्ञाननी दशा प्रगटी के तेमां लोकालोकनुं ज्ञान थई जाय छे. निजरसथी-ज्ञानरसथी समस्त लोकने सिंच्यो छे एटले ज्ञानमां छ द्रव्यमय लोक आखो जाणी लीधो छे. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र त्रणे थईने मोक्ष छे; एकला सम्यग्दर्शनथी मुक्ति नथी एम अहीं कहेवुं छे. ज्ञानसंचेतनानुं अति उग्र वेदन थतां ज्ञाननी पूरण दशा प्रगट थई जाय छे, अने ए पूरण ज्ञान प्रगटतां तेमां लोकालोक जणाई जाय छे. आवी वात छे.
‘जेमने रागद्वेष गया, पोताना चैतन्यस्वभावनो अंगीकार थयो अने अतीत, अनागत तथा वर्तमान कर्मनुं ममत्व गयुं एवा ज्ञानीओ सर्व परद्रव्यथी जुदा थईने चारित्र अंगीकार करे छे.’
समकितीने त्रण कषाय विद्यमान छे. तेने हजी राग-द्वेष छे. पांचमा गुणस्थानवर्ती
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श्रावकनेय हजु रागद्वेष छे, आस्रव-बंध छे. दुःख छे. अहीं कहे छे-जेने रागद्वेष गया अने पोताना चैतन्यस्वभावनो अंगीकार थयो एवा ज्ञानीओ सर्व परद्रव्यथी जुदा थईने चारित्र अंगीकार करे छे. अहाहा...! चैतन्यमूर्ति-वीतरागमूर्ति प्रभु आत्मानुं जेने गाढ स्पर्शन-वेदन थयुं छे अने जेने अतीत, अनागत अने वर्तमान एम त्रणेकाळना कर्मनुं ममत्व गयुं छे ते स्वरूपमां ठरवारूप चारित्र अंगीकार करे छे. अहा! आवुं चारित्र कोई अलौकिक चीज छे भाई! पंच परमेष्ठीपदमां जेनुं स्थान छे, जेमां प्रचुर आनंदनी दशा अनुभवाय छे अने जेमां स्वरूपरमणतानुं अतिशय तेज प्रगटे छे एवुं चारित्र लोकमां उत्तम पदार्थ छे.
‘ते चारित्रना बळथी, कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनाथी जुदी जे पोतानी चैतन्यना परिणमनस्वरूप ज्ञानचेतना तेनुं अनुभवन करे छे.
जुओ, चोथा ने पांचमा गुणस्थाने हजु कर्मचेतना ने कर्मफळचेतना होय छे, स्वामीपणे नहि, पण वेदनपणे होय छे. मुनिने कर्मचेतना ने कर्मफळचेतना नथी, तेने ज्ञानचेतना छे. शुं कीधुं? पुण्य-पापना भावनुं करवुं ते कर्मचेतना अने हरख-शोकने वेदवुं ते कर्मफळचेतना-ए मुनिने नथी. एनाथी जुदी निज ज्ञानानंद स्वरूपना परिणमनरूप ज्ञानचेतनानुं अनुभवन तेने होय छे. रागनुं करवुं ने रागनुं वेदवुं मुनिने छूटी गयुं छे, एने तो एकलुं आनंदनुं वेदन छे. अहाहा...! आवा चारित्रवंत मुनि मोक्षनी तद्न नजीक होय छे.
पण लोको कहे छे-तमे (-कानजीस्वामी) मुनिने मानता नथी ने! मुनिने कोण न माने भाई! ए तो परमेश्वर पद छे. बापु! पण यथार्थ मुनि पणुं होवुं जोईए ने! कह्युं ने के-ते चारित्रना बळथी, कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनाथी जुदी जे पोतानी चैतन्यना परिणमनस्वरूप ज्ञानचेतना तेनुं अनुभवन करे छे. अहाहा...! आवी अलौकिक मुनिदशा होय छे.
‘अहीं तात्पर्य आम जाणवुंः- जीव पहेलां तो कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनाथी भिन्न पोतानी ज्ञानचेतनानुं स्वरूप आगम -प्रमाण, अनुमान-प्रमाण अने स्वसंवेदन प्रमाणथी जाणे छे अने तेनुं श्रद्धान (प्रतीति) द्रढ करे छे; ए तो अविरत, देशविरत अने प्रमत्त अवस्थामां पण थाय छे.’
तात्पर्य एटले सार एम जाणवो के जीव पहेलां तो कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनाथी जुदी पोतानी ज्ञानचेतनानुं स्वरूप आगमप्रमाणथी जाणे अने एनुं द्रढ श्रद्धान करे छे. त्यां एने पुण्य-पापना जे भाव थाय ते कर्मचेतना छे. शुं कीधुं? शुभभाव हो के अशुभभाव हो-बन्नेय राग छे, विपरीत भाव छे अने ते कर्मचेतना छे. कर्म
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रागमां हरख थवो अने द्वेषमां कंटाळो थवो, अणगमो थवो-ते हरख-शोकनुं जे वेदवुं थाय ते कर्मफळचेतना छे. कर्मचेतनारूप रागनुं जे कार्य थाय तेनुं फळ सुख, दुःख, हरख, शोकनुं वेदवुं जे थाय कर्मफळचेतना छे. कर्मफळ एटले जडकर्मनुं फळ एम वात अहीं नथी.
आत्मानो जे शुद्ध एक चैतन्यस्वभाव तेनाथी विरुद्ध जे पुण्य-पापरूप शुभा- शुभभाव छे तेने अहीं विकारी कार्यरूप कर्मचेतना कहेल छे, अने तेना फळ तरीके हरख- शोकनुं वेदन थवुं ते कर्मफळचेतना छे. जडकर्म अने जडकर्मनुं फळ-एम आ वात नथी. शुभाशुभ राग थाय तेमां आ ठीक छे एवुं जे हरखनुं-सुखनुं वेदन थाय ते कर्मफळचेतना छे, अने तेमां आ अठीक छे एवुं जे दुःखनुं-शोकनुं वेदन थाय तेय कर्मफळचेतना छे.
आ कर्मचेतना ने कर्मफळचेतना-बन्ने आस्रव छे. बंधनुं कारण छे, दुःखरूप छे, दुःखनुं कारण छे. आत्माना निराकुल आनंदस्वभावथी बंने विरुद्ध भाव छे. पुण्य अने पाप अने तेनुं फळ जे हरख अने शोक तेमां एकाग्र थवुं ते बधुं दुःखनुं वेदन छे भाई! बन्ने चेतना एक साथे ज होय छे. राग वखते ज रागनुं वेदन छे. जुओ समयसार गाथा १०२मां आव्युं छे-
तं तस्स होदि कम्मं सो तस्स दु वेदगो अप्पा।। १०२।।
जे शुभ के अशुभ पोताना भावने करे छे ते भावनो आत्मा खरेखर कर्ता छे, ते भाव तेनुं कर्म थाय छे, अने आत्मा ते भावरूप कर्मनो भोक्ता थाय छे. छे? प्रभु! एकवार तुं सांभळ. आत्मा, अहाहा...! चैतन्यस्वभावथी भरेलो भगवान एकला अनाकुळ आनंदना रसनुं दळ छे. तेमां जेटला पुण्य-पापना भाव तेनी पर्यायमां थाय ते बधा आत्मानी शांति अने आनंदथी विरुद्ध छे. अहीं शुभ-अशुभ भावने कर्म कह्युं. कर्म एटले कार्य-ते कर्मचेतना छे. अने ते काळे तेनुं वेदन थवुं ते कर्मफळचेतना छे. जड (पुद्गल) कर्म अने कर्मफळनी वात नथी. भाई! जे शुभाशुभ भाव थाय ते धर्म नथी, कर्म छे, कर्मचेतना छे. सीधी भाषामां कहीए तो ए बधाय भाव अधर्म छे.
अहीं कहे छे-ते कर्मचेतना अने कर्मफळचेतना ते बन्ने विपरीत, विकारी भाव
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छे, तेनाथी पहेलो शुद्ध चेतनामात्र भगवान आत्माने भिन्न जाणवो. नव तत्त्व कह्यां छे ने? तेमां पुण्य, पाप बे तत्त्वो छे अने एनाथी ज्ञायकतत्त्व भिन्न कह्युं छे. शुभ-अशुभ भाव थाय अने तेनुं वेदन हरख-शोक थाय ते कांई परमार्थे आत्मा नथी, चैतन्यतत्त्व नथी.
भाई! आत्मानुं हित करवुं होय तो सौ प्रथम कर्मचेतना अने कर्म फळचेतनाथी ज्ञायकने भिन्न जाणवो. अहाहा...! पोतानी सहज ज्ञानचेतना ज्ञानस्वरूप छे तेमां एकाग्र थवुं ते ज्ञानचेतना छे. पुण्य-पाप अने तेना फळमां एकाग्र थवानुं छोडीने शुद्ध ज्ञानस्वरूपमां एकाग्र थवुं तेनुं नाम ज्ञानचेतना छे. शुभ-अशुभनुं वेदन छे ते तो ध्रुवस्वभाव जे एक ज्ञायकभाव तेनी उपर उपर छे, अंदर ते प्रवेश करतुं नथी. अहाहा...! आत्मा जे एक ज्ञानस्वरूप छे तेमां एकाग्र थवुं ते ज्ञानचेतना छे. आत्मा कहो के ज्ञानस्वरूप कहो-एक ज छे, केमके आत्मा ज्ञानस्वरूप छे.
अहीं कहे छे-कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनाथी भिन्न पोतानी ज्ञानचेतनानुं स्वरूप प्रथम आगमप्रमाणथी जाणवुं. तीर्थंकरदेवनी दिव्यध्वनि छूटी तेमांथी संतोए शास्त्र रच्यां छे ते आगम छे.
अहा! भगवाननी ॐध्वनि सांभळीने गणधरदेवोए आचार्योए आगमनी रचना करी छे. भगवाननी वाणीमां जे आव्युं तेनुं आगममां कथन छे. ते आगम-प्रमाणथी, अहीं कहे छे, पुण्य-पाप अने तेना फळथी आत्मरूप ज्ञानचेतना भिन्न छे एम प्रथम नक्की करवुं. पंचमहाव्रतना जे परिणाम छे ते राग छे, आस्रव छे, आत्माना चैतन्यस्वभावथी विरुद्ध छे एम शास्त्रमां कह्युं छे, अने एनाथी पोतानी निर्मळ ज्ञानचेतनापरिणति भिन्न छे एम नक्की करवुं एम कहे छे. समजाणुं कांई...? हवे आमां ओला व्यवहारना पक्षवाळा राडो पाडे, पण भाई! महाव्रतना परिणाम छे ते उदयभाव छे, जगपंथ छे, चैतन्यथी विरुद्ध जातिना छे. ल्यो, आम आगम-प्रमाणथी जाणीने प्रथम निर्णय करवो एम कहे छे.
अहाहा....! भगवान आत्मा अंदर पूर्णानंदनो नाथ चिदानंदघन प्रभु छे. अनाकुळ आनंदना रसथी आपूर्ण अर्थात् छलोछल भरेलुं तत्त्व छे. तेमां एकाग्र थई परिणमवुं ते ज्ञानचेतना छे, ते अनाकुळ आनंदरूप छे. अहीं कहे छे-कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनाथी भिन्न पोतानी ज्ञानचेतनानुं स्वरूप आगम-प्रमाणथी जाणीने पहेलां नक्की करवुं अने तेनुं द्रढ श्रद्धान करवुं. आवी वात! समजाणुं कांई...?
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वळी कहे छे-रागथी भिन्न पोतानी ज्ञानचेतनानुं स्वरूप अनुमान-प्रमाणथी जाणीने नक्की करवुं. एटले शुं? के ज्यां ज्यां ज्ञान त्यां आत्मा, अने ज्यां ज्ञान नहि त्यां आत्मा नहि. मतलब के दया, दान, आदिनो राग थाय ते आत्मा नहि, ए तो अनात्मा छे. आ प्रमाणे अनुमान-प्रमाणथी जाणीने रागथी भिन्न ज्ञानचेतनानुं स्वरूप नक्की करवुं.
जुओ, आ सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगट करवानी विधि छे. अहा! प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप पोते छे एमां उपयोगनी एकाग्रता थवी ते ज्ञानचेतना छे. आवी ज्ञानचेतनानुं स्वरूप कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनाथी भिन्न छे एम, कहे छे, पहेलां आगमथी अने अनुमानथी नक्की करवुं.
हवे त्रीजी वातः आगम-प्रमाण अने अनुमान-प्रमाणथी जाणीने-नक्की करीने; हवे कहे छे, स्वसंवेदनप्रमाणथी जाणे छे. ज्ञान अने आनंदना वेदनथी आत्माने जाणे ते स्वसंवेदनप्रमाण छे. चेतना त्रण प्रकारे कही-कर्मचेतना, कर्मफळचेतना अने ज्ञानचेतना. तेमां कर्मचेतना ने कर्मफळचेतना विभाव दशा छे, विकारी दशा छे, अने ज्ञानचेतना निर्विकार निर्मळ दशा छे. ए त्रणेयने आगम, अनुमान अने स्वसंवेदन प्रत्यक्षथी जाणीने श्रद्धान करवुं.
हवे लोकोने बिचाराओने आवो निर्णय करवानी क्यां फुरसद छे? आखो दि’ बायडी-छोकरां अने धंधा-पाणीमां-प्रपंचमां-पापना भावमां चाल्यो जाय. तेने सत्यार्थ वस्तु सांभळवानोय जोग न होय ते क्यारे निर्णय करे? पण भाई! एमां तने मोटुं नुकशान छे बापा! जीवतर धूळधाणी थई जशे अने तुं क्यांय वह्यो जईश भाई! माटे कहे छे के-आत्मानुं हित करवुं होय तो रागथी भिन्न तारी ज्ञानचेतनानुं स्वरूप प्रथम आगमप्रमाणथी अने अनुमानप्रमाणथी नक्की कर अने पछी स्वसंवेदन प्रत्यक्षथी स्वस्वरूपना प्रत्यक्ष वेदनथी यथार्थ निर्णय करी तेनुं श्रद्धान कर.
आ स्वसंवेदन प्रमाणमां आत्माना आनंदनुं प्रत्यक्ष वेदन छे. स्वसंवेदन अर्थात् पोतानुं ‘सं’ नाम प्रत्यक्ष वेदन ते स्वसंवेदन छे अने ते वडे आत्माने जाणीने तेनुं श्रद्धान द्रढ करवुं. के ‘आ आत्मा’ -एम प्रत्यक्ष वेदनमां लईने तेनुं श्रद्धान करवुं स्वसंवेदनमां जाणीने तेनुं (आत्मानुं) द्रढ श्रद्धान करवुं एम कहे छे. (स्वसंवेदनमां जाणे तो श्रद्धान करे एम वात छे).
अरे भाई! क्षणे क्षणे तुं मृत्युनी समीप जई रह्यो छे. देह छूटवानी क्षण तो नियत छे, तेमां शुं फरे एम छे? पोतानी ज्ञानचेतनानुं स्वरूप स्वसंवेदनप्रमाणथी जाणी तेनुं श्रद्धान करवुं ए आ मनुष्यभवमां करवायोग्य कार्य छे. भाई! तुं हमणां नहि करे तो क्यारे करीश? (एम के पछी अवसर नहि मळे.)
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जुओ, अहीं कहे छे- ‘जीव पहेलां तो कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनाथी भिन्न पोतानी ज्ञानचेतनानुं स्वरूप आगमप्रमाण, अनुमानप्रमाण अने स्वसंवेदनप्रमाणथी जाणे छे अने तेनुं श्रद्धान द्रढ करे छे; ए तो अविरत, देशविरत अने प्रमत्त अवस्थामां पण थाय छे.’
चोथा गुणस्थाने अविरत दशामां आवुं स्वसंवेदन अने श्रद्धान होय छे. आ गुणस्थाने हजु पुण्य-पापना भाव, विषयवासनाना भाव होय छे. पण प्रतीतिमां आवी गयुं छे के हुं आस्रवथी भिन्न एक ज्ञायक तत्त्व छुं, पूर्णानंदनो नाथ प्रभु छुं अने रागथी एकता तूटी गई छे, रागनुं एने स्वामित्व नथी, तथापि पुण्य-पापना परिणामथी सर्वथा निवृत्ति नथी.
वळी अंदर शांति अने शुद्धिनी विशेषता थई छे, वृद्धि थई छे ते पांचमुं देशविरत गुणस्थान छे. तेने पण आवुं स्वसंवेदनज्ञान अने श्रद्धान द्रढ होय छे. त्यां पण सर्वविरति नथी. मुनिने छठ्ठा गुणस्थाननी प्रथत्त दशामां पण आवुं स्वसंवेदनज्ञान अने श्रद्धान होय छे. त्यां मुनिने पण संज्वलननो किंचित् राग होय छे; सर्वथा निरास्रव नथी. पंचमहाव्रत समिति, गुप्ति, निजस्तुति, भक्ति, वंदना इत्यादिनो किंचित् राग आवे छे एटले हजु आस्रव छे. जो के आ दशामां शुद्धिनी वृद्धि सविशेष छे, तथापि सर्व रागनो अभाव नथी. आ प्रमाणे स्वसंवेदनस्वरूप ज्ञानचेतनानुं आगम, अनुमान अने स्वानुभवथी वेदन आ त्रणे अवस्थामां-चोथे, पांचमे अने छठ्ठे गुणस्थाने होय छे.
हवे कहे छे- ‘अने ज्यारे अप्रमत्त अवस्था थाय छे त्यारे जीव पोताना स्वरूपनुं ज ध्यान करे छे; ते वखते, जे ज्ञानचेतनानुं तेणे प्रथम श्रद्धान कर्युं हतुं तेमां ते लीन थाय छे अने श्रेणी चडी, केवळज्ञान उपजावी, साक्षात् ज्ञानचेतनारूप थाय छे.’
जुओ, छठ्ठा गुणस्थानमां त्रण कषायनो अभाव छे, पण हजु व्रतादिनो विकल्प छे तेथी ते तद्न निरास्रव नथी. छठ्ठा गुणस्थानवाळाने सास्रवसमकिती कह्यो छे; केमके हजु प्रमाद दशा छे, व्रत, तप, दया आदिना विकल्प छे. तेथी त्यां पण ज्ञानचेतनाथी द्रढ श्रद्धा अने ज्ञान छे. परंतु ज्यारे अप्रमत्त दशा थाय छे त्यारे ते पोताना स्वरूपनुं ज ध्यान करे छे. जो के त्यां अबुद्धिपूर्वकनो राग होय छे पण तेनी अहीं गणत्री नथी. अंदर ध्यानमां एवो जामी जाय छे के ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय अने ध्यान, ध्याता, ध्येयनो कोई भेद ज रहेतो नथी. भाई! आ चारित्रना अंतर-वैभवनी अपूर्व वातो छे. अहो! आ अलौकिक गाथाओ छे.
अहा! प्रमत्त अवस्थानो त्याग थतां सातमा अप्रमत्त गुणस्थाने पोताना स्वरूपनुं
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ज ध्यान होय छे. परमात्मप्रकाशमां आवे छे के-ज्यां सुधी पोताना स्वरूपनुं ध्यान करवानो विकल्प उठे छे त्यां सुधी ते सास्रव छे, निरास्रव नथी. त्यां तो विशेष एम पण वात करी छे के-महाव्रतनो जे शुभराग छे तेने जे उपादेय माने तेने आत्मा हेय छे, अने जेने आत्मा उपादेय छे तेने सर्व राग हेय छे. अहा! मुनिराज सातमे गुणस्थाने सर्व विकल्प तोडीने एक स्वरूपनुं ज ध्यान करे छे. आवी अप्रमत दशा निरास्रव छे. वळी ज्यारे ते पोताना स्वरूपनुं ज ध्यान करे छे ते काळे, जे ज्ञानचेतनानुं तेणे प्रथम श्रद्धान कर्युं हतुं तेमां ते लीन थाय छे अने श्रेणी चढी केवळज्ञान उपजावी साक्षात् ज्ञानचेतनारूप थाय छे.
सम्यग्दर्शनमां श्रद्धान कर्युं हतुं के हुं तो शुद्ध एक ज्ञानस्वरूप छुं, पण हजु आस्रवरहित थयो न होतो, छठ्ठे कांईक अस्थिरता हती. हवे ते अस्थिरता टाळी पोताना स्वरूपमां लीन-स्थिर थाय छे. आ सातमा गुणस्थाननी वात छे. पछी श्रेणी चढी, केवळज्ञान उपजावी साक्षात् ज्ञानचेतनारूप थाय छे.
मुनिराजने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र थयुं छे, पण ज्यां सुधी हुं शुद्ध छुं, पूर्ण एक ज्ञानस्वरूप छुं एवी वृत्तिनुं उत्थान छे त्यां सुधी, जो के त्यां महाव्रतनो विकल्प नथी छतां सास्रव दशा छे. तेने सविकल्प निश्चिय मोक्षमार्ग कहे छे. अने ज्यारे ते अंतर्बाह्य जल्पथी रहित, सर्व विकल्परहित थईने स्वस्वरूपमां ज ठरी जाय छे, लीन थई जाय छे त्यारे समाधिनी दशा प्रगट थाय छे. त्यां स्वरूपस्थिरतानी जमावट वधतां वधतां पूरण आनंद अने पूरण केवळज्ञाननी दशा प्रगट थाय छे अने त्यारे ते साक्षात् ज्ञानचेतनारूप थाय छे.
जुओ, ओली वृत्ति (विकल्प) उठे तेथी केवळज्ञान थाय छे एम नहि. ए वृत्ति- विकल्प तो कृत्रिम उपाधि छे. अने आ बहारनुं शरीर छे ए हाडकानी चमक छे. आ तो अंदर आनंदनो नाथ सहजानंद निर्मळानंद चैतन्यमूर्ति प्रभु छे तेमां उपयोग जामी-ठरी जाय ते जीव श्रेणी चढीने केवळज्ञान उपजावे छे अने साक्षात् ज्ञानचेतनारूप थाय छे.
जुओ, केवळज्ञानी जीवने साक्षात् ज्ञानचेतना होय छे. केवळज्ञान थया पहेलां पण, निर्विकल्प अनुभव वखते जीवने उपयोगात्मक ज्ञानचेतना होय छे. ज्ञानचेतनाना उपयोगात्मकपणानो मुख्य ना करीए तो, सम्यग्द्रष्टिने ज्ञानचेतना निरंतर होय छे, कर्मचेतना अने कर्मफळचेतना नथी होती; कारण के तेने निरंतर ज्ञानना स्वामित्वभावे परिणमन होय छे, कर्मना अने कर्मफळना स्वामित्वभावे परिणमन नथी होतुं.
शुं कीधुं? के जीवने सर्वज्ञपद प्रगट थया पहेलां निर्विकल्प अनुभवना काळे
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उपयोगात्मक ज्ञानचेतना होय छे. आत्मा पूर्णानंदघन चैतन्यघन प्रभु छे. तेनी सन्मुख थतां जे स्वानुभव थयो अने तेने स्पर्शीने जे ज्ञान (स्व-संवेदनज्ञान) थयुं तेने अहीं ज्ञानचेतना कहे छे. धर्मनी पहेली दशा थतां निर्विकल्प अनुभवना काळमां ज्ञानचेतना होय छे.
अज्ञानी जीव अनंतकाळथी आज सुधी कोई दि’ सम्यग्दर्शन पाम्यो नथी; एनो उपयोग शुद्ध चैतन्यमां जोडाणो नथी. एनो वर्तमान उपयोग पुण्य-पाप अने तेना फळमां जोडायेलो होय छे. तेथी अज्ञानीने अनादिथी कर्मचेतना अने कर्मफळचेतना वर्ते छे. हवे ज्यारे जे जीव सम्यग्दर्शन पामे त्यारे ज्ञान अने आनंदनुं दळ एवा आत्मानो एने स्पर्श थाय छे. ते अंदर जाग्रत थईने निज ज्ञानस्वभावने चेते छे. ते काळे तेनो उपयोग शुद्ध निर्विकल्प होय छे. तेना उपयोगमां ध्यान त्रिकाळी द्रव्यनुं होय छे. ते काळे तेने उपयोगात्मक ज्ञानचेतनारूप परिणमन होय छे. बुद्धिपूर्वकनो राग तेने छूटी जाय छे. अंदर चैतन्यस्वरूप भगवान पोते छे तेना वेदनमां उपयोग अंतर्लीन थयो होय छे अने त्यारे अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन थाय छे. आ निर्विकल्प उपयोग छे अने आ निर्विकल्प उपयोगना काळमां निज प्रतीतिरूप सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. आ निर्विकल्प उपयोग वखते जीवने उपयोगात्मक ज्ञानचेतना होय छे. हवे कहे छे-
ज्ञानचेतनाना उपयोगात्मकपणाने मुख्य न करीए तो, सम्यग्द्रष्टिने ज्ञानचेतना निरंतर होय छे. एटले शुं? के सम्यग्द्रष्टिने लब्धरूप ज्ञानचेतना सदाय रहे छे. ज्ञाननो उपयोग स्वस्वरूपथी खसी जतां समकितीने विकल्प आवे छे छतां ते जीवने सम्यग्दर्शन- ज्ञान थयुं छे, ज्ञानचेतना प्रगटी छे ते तेने कायम रहे छे. चाहे तो वेपार धंधामां उभो होय के अन्य विकल्पमां होय, हुं ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा छुं एवुं भान एने निरंतर रहे ज छे; ते कदीय विकल्प साथे तद्रूप थतो नथी. अहो! भगवान केवळी अने तेमना केडायती संतो आवो अद्भुत वारसो मूकी गया छे, पण भाई तुं नजर करे तो ने!
समकितीने कर्मचेतना अने कर्मफळचेतना होती नथी. एटले शुं? तेने पुण्य-पापना विकल्प अने हरख-शोकनुं वेदन होतुं ज नथी एम नहि, पण तेने कर्मना अने कर्मफळना स्वामित्वपणे परिणमन नथी. तेने पुण्य-पापना विकल्पो अने हरखशोकना वेदननुं स्वामित्व नथी, निरंतर ज्ञानना स्वामित्वभावे ज ते परिणमतो होय छे. ते तो पुण्य-पाप आदि भावोनो मात्र ज्ञाता ज रहे छे. पुण्य-पाप आदि भावोनुं परिणमन छे, पण तेने एनुं स्वामित्व नथी. तेथी द्रष्टिनी प्रधानतामां ज्ञानचेतनानी मुख्यता करी, कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनाने गौण गणी ते एनामां नथी एम कह्युं छे. समजाणुं कांई...?