Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 383-389 ; Kalash: 224.

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अहाहा...! हुं तो शुद्ध चैतन्यस्वरूप भगवान छुं एम निज चैतन्यसत्तानो जे अंदर स्वामी थयो ते भले बहार राजपाटमां पडयो होय, छतां ज्ञानचेतनानो तेने निरंतर सद्भाव छे. पूर्ण वीतराग न थाय त्यां सुधी तेने दया, दान, पूजा आदिना ने राजकाजना भाव आवे ते कर्मचेतना छे. छतां ज्ञानचेतनाने मुख्य गणी, कर्मचेतनाने गौण करी ते नथी एम कहेवामां आव्युं छे. समकितीने (पुण्य-पापनुं) परिणमन छे, पण एनुं स्वामित्व नथी. बहारमां क्यांय कर्ता-भोक्तापणानी बुद्धि करतो नथी. आवी वात!

अरे भाई! चारगति ने चोरासीना अवतारमां रझळी-रझळीने तें पारावार दुःख भोगव्यां छे. तारा दुःखनी शुं वात करीए? ए दुःखना जोनाराओने आंखमां आंसु आवी जाय एवा नरक-निगोदनां अकथ्य दुःख तें मिथ्या-श्रद्धानना फळमां भोगव्यां छे. ए मिथ्याश्रद्धान छूटीने सम्यक् श्रद्धान थाय ए महा अलौकिक चीज छे. अने पांचमे, छठ्ठे गुणस्थाने तो ओर कोई आनंदनी अलौकिक दशा प्रगट थाय छे. ज्ञाता-द्रष्टापणानी सहज अद्भुत उदासीन अवस्था तेने प्रगट थई होय छे. अहो! ए केवी अंतरदशा!

हवे कहे छे- ‘अतीत कर्म प्रत्ये ममत्व छोडे ते आत्मा प्रतिक्रमण छे, अनागत कर्म न करवानी प्रतिज्ञा करे (अर्थात् जे भावोथी आगामी कर्म बंधाय ते भावोनुं ममत्व छोडे) ते आत्मा प्रत्याख्यान छे अने उदयमां आवेला वर्तमान कर्मनुं ममत्व छोडे ते आत्मा आलोचना छे; सदाय आवां प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान अने आलोचनापूर्वक वर्ततो आत्मा चारित्र छे.

-आवुं चारित्रनुं विधान हवेनी गाथाओमां कहे छेः- जुओ, भूतकाळना पुण्य-पापना भावनुं ममत्व छोडे ते आत्मा प्रतिक्रमण छे. शुं कीधुं? दया, दान आदि जे शुभ के अशुभ विकल्प छे तेनाथी पाछो फरीने अंदर स्वरूपमां ठरी जाय ते आत्मा प्रतिक्रमण छे. हुं तो एक ज्ञाता-द्रष्टा आतमराम-एम अंतर एकाग्र थई स्वरूपमां लीन थई रमणता करे तेने प्रतिक्रमण कहीए अहो! आवुं एक समयनुं प्रतिक्रमण जन्म-मरणनो अंत करनारुं छे. अनंत अनंत भूतकाळ वीती गयो तेमां जे पुण्य-पापना भाव थया तेनां प्रत्येनुं ममत्व छोडे के-ते भाव हुं नहि, हुं तो ज्ञानानंद सहजानंदस्वरूप प्रभु छुं-एम जाणी तेमां ज अंतर्लीन रमे तेने भगवान जिनेन्द्रदेवे प्रतिक्रमण कह्युं छे.

भविष्यनां कर्म न करवानी प्रतिज्ञा करवी एनुं नाम प्रत्याख्यान एटले पचखाण छे. दया, दान, व्रत, भक्ति आदि शुभभाव तथा हिंसा, जूठ, चोरी इत्यादि अशुभभाव करवा नहि एवी प्रतिज्ञा करीने पोताना स्वरूपमां रमवुं तेनुं नाम प्रत्याख्यान छे.


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भविष्यनां शुभाशुभ कर्म मने न जोईए, मारे तो एक स्वरूपमां ज ठरवुं छे-एम प्रतिज्ञा करीने पोताना स्वरूपमां लीनता-रमणता करे तेने प्रत्याख्यान कहे छे.

वर्तमानमां उदयमां आवेलुं जे कर्म तेनुं जे ममत्व छोडे छे ते आत्मा आलोचना छे. निज ज्ञानानंद-परमानंदमय स्वरूपने जाणीने तेमां ज लीन थई जाय ते संवर छे, आलोचना छे. हवे आमां लोकोने लागे के आ तो बधी निश्चयनी वातो छे. हा, निश्चयनी वातो छे; पण निश्चय एटले सत्यार्थ छे. आवुं निश्चय चारित्र होय त्यां प्रतिक्रमणादिनो जे शुभभाव आवे छे तेने व्यवहार प्रतिक्रमणादि कहीए, पण ए छे तो पुण्यबंधननुं ज कारण, ए कांई मोक्षमार्ग नथी, अने आ जे निश्चय प्रतिक्रमणादि छे ते संवर छे, निर्जरानुं कारण छे अने ते मोक्षनो मारग छे.

आ सम्यग्दर्शन उपरांत चारित्रनी वात छे. स्वस्वरूपमां ठरी जाय त्यारे तेने पुण्य-पापना भाव छूटी जाय तेने चारित्र कहीए. भूतकाळना पुण्य-पापथी छूटवुं, भविष्यना पुण्य-पापथी छूटवुं अने वर्तमान काळना पुण्य-पापना भावथी छूटवुं अने निजानंद स्वरूपमां लीन-स्थिर थवुं तेने भगवान चारित्र कहे छे.

सदाय आवां प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान अने आलोचनापूर्वक वर्ततो आत्मा चारित्र छे. आवा चारित्रनुं विधान हवेनी गाथाओमां कहे छे. आवुं चारित्र मुनिराजोने निरंतर होय छे. पंचमहाव्रतना परिणाम ते चारित्र-एम नहि; स्वरूपनी रमणता ते चारित्र, अने ते मुनिराजने निरंतर होय छे. आवी वात! समजाणुं कांई...?

[प्रवचन नं. ४६९ थी ४७४ * दिनांक २२-१०-७७ थी २७-१०-७७]


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गाथा ३८३ थी ३८६

कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं । तत्तो णियत्तदे अप्पयं तु जो सो पडिक्कमणं।। ३८३।। कम्मं जं सुहमसुहं जम्हि य भावम्हि बज्झदि भविस्सं । तत्तो णियत्तदे जो सो पच्चक्खाणं हवदि चेदा।। ३८४।। जं सुहमसुहमुदिण्णं संपडि य अणेयवित्थरविसेसं । तं दोसं जो चेददि सो खलु आलोयणं चेदा।। ३८५।। णिच्चं पच्चक्खाणं कुव्वदि णिच्चं पडिक्कमदि जो य । णिच्चं आलोचेयदि सो हु चरित्तं हवदि चेदा।। ३८६।।

अतीत कर्म प्रत्ये ममत्व छोडे ते आत्मा प्रतिक्रमण छे, अनागत कर्म न करवानी प्रतिज्ञा करे (अर्थात् जे भावोथी आगामी कर्म बंधाय ते भावोनुं ममत्व छोडे) ते आत्मा प्रत्याख्यान छे अने उदयमां आवेला वर्तमान कर्मनुं ममत्व छोडे ते आत्मा आलोचना छे; सदाय आवां प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान अने आलोचनापूर्वक वर्ततो आत्मा चारित्र छे. -आवुं चारित्रनुं विधान हवेनी गाथाओमां कहे छेः-

शुभ ने अशुभ अनेकविध पूर्वे करेलुं कर्म जे,
तेथी निवर्ते आत्मने, ते आतमा प्रतिक्रमण छे; ३८३.
शुभ ने अशुभ भावी करम जे भावमां बंधाय छे,
तेथी निवर्तन जे करे, ते आतमा पचखाण छे; ३८४.
शुभ ने अशुभ अनेकविध छे वर्तमाने उदित जे,
ते दोषने जे चेततो, ते जीव आलोचन खरे. ३८प.
पचखाण नित्य करे अने प्रतिक्रमण जे नित्ये करे,
नित्ये करे आलोचना, ते आतमा चारित्र छे. ३८६.

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कर्म यत्पूर्वकृतं शुभाशुभमनेकविस्तरविशेषम् ।
तस्मान्निवर्तयत्यात्मानं तु यः स प्रतिक्रमणम्।। ३८३।।
कर्म यच्छुभमशुभं यस्मिंश्च भावे बध्यते भविष्यत् ।
तस्मान्निवर्तते यः प्रत्याख्यानं भवति चेतयिता।। ३८४।।
यच्छुभमशुभमुदीर्ण सम्प्रति चानेकविस्तरविशेषम् ।
तं दोषं यः चेतयते स खल्वालोचनं चेतयिता।। ३८५।।
नित्यं प्रत्याख्यानं करोति नित्यं प्रतिक्रामति यश्च
नित्यमालोचयति स खलु चरित्रं भवति चेतयिता।। ३८६।।

गाथार्थः– [पूर्वकृतं] पूर्वे करेलुं [यत्] जे [अनेकविस्तरविशेषम्] अनेक प्रकारना विस्तारवाळुं [शुभाशुभम् कर्म] (ज्ञानावरणीयादि) शुभाशुभ कर्म [तस्मात्] तेनाथी [यः] जे आत्मा [आत्मानं तु] पोताने [निवर्तयति] *निवर्तावे छे, [सः] ते आत्मा [प्रतिक्रमणम्] प्रतिक्रमण छे.

[भविष्यत्] भविष्य काळनुं [यत्] जे [शुभम् अशुभम् कर्म] शुभ-अशुभ कर्म [यस्मिन् भावे च] ते जे भावमां [बध्यते] बंधाय छे [तस्मात्] ते भावथी [यः] जे आत्मा [निवर्तते] निवर्ते छे, [सः चेतयिता] ते आत्मा [प्रत्याख्यानं भवति] प्रत्याख्यान छे.

[सम्प्रति च] वर्तमान काळे [उदीर्ण] उदयमां आवेलुं [यत्] जे [अनेकविस्तरविशेषम्] अनेक प्रकारना विस्तारवाळुं [शुभम् अशुभम्] शुभ-अशुभ कर्म [तं दोषं] ते दोषने [यः] जे आत्मा [चेतयते] चेते छे-अनुभवे छे-ज्ञाताभावे जाणी ले छे (अर्थात् तेनुं स्वामित्व-कर्तापणुं छोडे छे), [सः चेतयिता] ते आत्मा [खलु] खरेखर [आलोचनम्] आलोचना छे.

[यः] जे [नित्यं] सदा [प्रत्याख्यानं करोति] प्रत्याख्यान करे छे, [नित्यं प्रतिक्रामति च] सदा प्रतिक्रमण करे छे अने [नित्यम् आलोचयति] सदा आलोचना करे छे, [सः चेतयिता] ते आत्मा [खलु] खरेखर [चरित्रं भवति] चारित्र छे.

टीकाः– जे आत्मा पुद्गलकर्मना विपाकथी (उदयथी) थता भावोथी पोताने निवर्तावे छे, ते आत्मा ते भावोना कारणभूत पूर्वकर्मने (भूतकाळना कर्मने प्रतिक्रमतो थको पोते ज प्रतिक्रमण छे; ते ज आत्मा, ते भावोना कार्यभूत उत्तरकर्मने (भविष्यकाळना कर्मने) पचखतो थको, प्रत्याख्यान छे; ते ज आत्मा, वर्तमान कर्मविपाकने _________________________________________________________________ * निवर्ताववुं = पाछा वाळवुं; अटकाववुं; दूर राखवुं.


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(उपजाति)
ज्ञानस्य सञ्चेतनयैव नित्यं
प्रकाशते ज्ञानमतीव शुद्धम्।
अज्ञानसञ्चेतनया तु धावन्
बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि बन्धः।।
२२४।।

पोताथी (आत्माथी) अत्यंत भेदपूर्वक अनुभवतो थको; आलोचना छे. ए रीते ते आत्मा सदा प्रतिक्रमतो (अर्थात् प्रतिक्रमण करतो) थको, सदा पचखतो (अर्थात् प्रत्याख्यान करतो) थको अने सदा आलोचतो (अर्थात् आलोचना करतो) थको, पूर्वकर्मना कार्यरूप अने उत्तरकर्मना कारणरूप भावोथी अत्यंत निवृत्त थयो थको, वर्तमान कर्मविपाकने पोताथी (आत्माथी) अत्यंत भेदपूर्वक अनुभवतो थको, पोतामां ज- ज्ञानस्वभावमां ज-निरंतर चरतो (विचरतो, आचरण करतो) होवाथी चारित्र छे (अर्थात् पोते ज चारित्रस्वरूप छे). अने चारित्रस्वरूप वर्ततो थको पोताने-ज्ञानमात्रने- चेततो (अनुभवतो) होवाथी (ते आत्मा) पोते ज ज्ञानचेतना छे, एवो भाव (आशय) छे.

भावार्थः– चारित्रमां प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान अने आलोचनानुं विधान छे. तेमां, पूर्वे लागेला दोषथी आत्माने निवर्ताववो ते प्रतिक्रमण छे, भविष्यमां दोष लगाडवानो त्याग करवो ते प्रत्याख्यान छे अने वर्तमान दोषथी आत्माने जुदो करवो ते आलोचना छे. अहीं तो निश्चयचारित्रने प्रधान करीने कथन छे; माटे निश्चयथी विचारतां तो, जे आत्मा त्रणे काळनां कर्मोथी पोताने भिन्न जाणे छे, श्रद्धे छे अने अनुभवे छे, ते आत्मा पोते ज प्रतिक्रमण छे, पोते ज प्रत्याख्यान छे अने पोते ज आलोचना छे. एम प्रतिक्रमणस्वरूप, प्रत्याख्यानस्वरूप अने आलोचनास्वरूप आत्मानुं निरंतर अनुभवन ते ज निश्चयचारित्र छे. जे आ निश्चयचारित्र, ते ज ज्ञानचेतना (अर्थात् ज्ञाननुं अनुभवन) छे. ते ज ज्ञानचेतनाथी (अर्थात् ज्ञानना अनुभवनथी) साक्षात् ज्ञानचेतनास्वरूप केवळज्ञानमय आत्मा प्रगट थाय छे.

हवे आगळनी गाथाओनी सूचनारूप काव्य कहे छे, जेमां ज्ञानचेतनानुं फळ अने अज्ञानचेतनानुं (अर्थात् कर्मचेतनानुं अने कर्मफळचेतनानुं) फळ प्रगट करे छेः-

श्लोकार्थः– [नित्यं ज्ञानस्य सञ्चेतनया एव ज्ञानम् अतीव शुद्धम् प्रकाशते] निरंतर ज्ञाननी संचेतनाथी ज ज्ञान अत्यंत शुद्ध प्रकाशे छे; [तु] अने [अज्ञानसञ्चेतनया] अज्ञाननी संचेतनाथी [बन्धः धावन्] बंध दोडतो थको [बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि] ज्ञाननी शुद्धताने रोके छे-ज्ञाननी शुद्धता थवा देतो नथी.


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भावार्थः– कोई (वस्तु) प्रत्ये एकाग्र थईने तेनो ज अनुभवरूप स्वाद लीधा करवो ते तेनुं संचेतन कहेवाय. ज्ञान प्रत्ये ज एकाग्र उपयुक्त थईने तेना तरफ ज चेत राखवी ते ज्ञाननुं संचेतन अर्थात् ज्ञानचेतना छे. तेनाथी ज्ञान अत्यंत शुद्ध थईने प्रकाशे छे अर्थात् केवळज्ञान ऊपजे छे. केवळज्ञान ऊपजतां संपूर्ण ज्ञानचेतना कहेवाय छे.

अज्ञानरूप (अर्थात् कर्मरूप अने कर्मफळरूप) उपयोगने करवो, तेना तरफ ज (- कर्म अने कर्मफळ तरफ ज-) एकाग्र थई तेनो ज अनुभव करवो, ते अज्ञानचेतना छे. तेनाथी कर्मनो बंध थाय छे, के जे बंध ज्ञाननी शुद्धताने रोके छे. २२४.

*
समयसार गाथाः ३८३ थी ३८६ मथाळु

-आवुं चारित्रनुं विधान हवेनी गाथाओमां कहे छेः-

* गाथा ३८३ थी ३८६ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जे आत्मा पुद्गलकर्मना विपाकथी (उदयथी) थता भावोथी पोताने निवर्तावे छे, ते आत्मा ते भावोना कारणभूत पूर्व कर्मने (भूतकाळना कर्मने) प्रतिक्रमतो थको पोते ज प्रतिक्रमण छे;...’

जुओ, अहीं एम सिद्ध करवुं छे के वर्तमान दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि जे परिणाम थाय ते दोष छे, ते आत्मानी दशा नथी. बहु आकरी वात बापा! पण आ सत्यार्थ छे. शुं? के छ कायाना जीवोनी रक्षाना परिणाम ने पांच महाव्रत पाळवाना परिणाम थाय ते दोष छे, गुण नथी. ए दोषथी खसीने निज अंतरस्वरूपमां- ज्ञानानंदस्वरूपमां रमे तेने चारित्र कहीए. हवे आवो वीतरागनो अनादिनो सनातन धर्म छे.

अहाहा...! भगवान आत्मा अनंत दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य, स्वच्छता, प्रकाश ने वीतरागना स्वभावथी अंदर पूरण भरेलो प्रभु छे. अंदर पूरण स्वभाव न भर्यो होय तो अरिहंत अने सिद्धदशा प्रगटे कयांथी? पण एने आ बेसवुं कठण पडे छे. अंदर विश्वास आववो ए दुर्लभ चीज छे; अशकय नथी पण सम्यग्दर्शन थवुं ए दुर्लभ तो अवश्य छे; केमके हुं कोण छुं? -एनो एणे कोई दि’ विचार ज कर्यो नथी.

अहीं कहे छे-पुद्गलकर्मना विपाकथी थता भावोथी जे पोताने निवर्तावे छे. ते आत्मा पूर्वकर्मने प्रतिक्रमणतो थको पोते जे प्रतिक्रमण छे. आठ कर्म छे ते जड माटी धूळ छे, रज छे. लोगस्समां आवे छे ने के- ‘विहुयरयमला’ -अर्थात् भगवान


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अहीं कहे छे-पूर्वनुं बंधायेलुं कर्म पडयुं छे एनो उदय आवतां थता पुण्य-पापना जे भाव तेनाथी पोताने निवर्तावे छे ते आत्मा ते भावोना कारणभूत पूर्वकर्मने प्रतिक्रमणतो थको पोते ज प्रतिक्रमण छे. अहा! जैन परमेश्वरनी दिव्य देशनामां आवेलुं तत्त्व जे अहीं दिगंबर संतो आडतिया थईने जाहेर करे छे के ते आ छे भाई! रुचे एवुं छे, तने रुचे तो ले. कहे छे-पूर्व बांधेलां कर्म छे तेना उदयना निमित्ते थता जे शुभ- अशुभभाव तेनाथी पोताने निवर्तावे छे अर्थात् ते शुभाशुभ भावने जे छोडे छे अने अंदर निजस्वभावमां प्रवृत्ति करे छे ते आत्मा ते भावोना कारणभूत पूर्वकर्मने प्रतिक्रमतो थको पोते जे प्रतिक्रमण छे.

दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा इत्यादिना भाव शुभ छे, ने हिंसा, जूठ, चोरी, कुशील इत्यादिना भाव अशुभ छे. ते भावो बधा पूर्वकर्मना उदयना निमित्ते थयेला भावो छे. स्वस्वरूपमां रमणता द्वारा ते विकारी भावोथी जे आत्मा पाछो फरे छे ते, ते भावना कारणभूत पूर्वकर्मथी पाछो फरे छे. आनुं नाम प्रतिक्रमण छे. अहाहा...! स्वस्वरूपमां प्रवृत्ति द्वारा जे पुण्य-पापना भावोथी निवर्ते छे ते ते भावोना कारणभूत पूर्वकर्मथी निवर्ते छे अने एने भूतकाळना कर्मथी प्रतिक्रम्यो-पाछो फर्यो एम कहेवामां आवे छे. समजाणुं कांई...! अहाहा...! एकेक शब्दे केटलुं भर्युं छे!

भाई! जिंदगी चाली जाय छे हों. अत्यारे (आ अवसरमां) आ समजवानुं करवानुं छे. बाकी आ देहना भरोसे रहेवा जेवुं नथी. जोतजोतामां आ छातीनां पाटियां भींसाई जशे अने क्षणमां हार्टफेल थई जशे. आ देह क्षणमां ज फू थईने उडी जशे. माटे जाग भाई जाग! देह छूटी जाय ते पहेलां समजण करी ले. स्वस्वरूपनी समजण करी हशे तो कल्याण थशे, नहि तो मरीने क्यां जईश भाई! क्यांय नरक-निगोदमां चाल्यो जईश, भवसमुद्रमां खोवाई जईश.

अहाहा...! आत्मा शुभाशुभ भावथी खसीने अतीन्द्रिय उग्र आनंदनी दशामां आव्यो ते पोते ज प्रतिक्रमण छे. पुण्य अने पापना बन्ने भाव दुःख अने आकुळता छे. तेनाथी छूटीने अनाकुळ आनंदस्वरूपमां-निजानंदरसमां प्रवृत्त थई लीन थयो ते पूर्वना कर्मथी निवर्ततो थको पोते ज प्रतिक्रमणमय छे. प्रतिक्रमणनी विधि तो आ छे बापु! तुं बीजी रीते मान पण एथी तने संसार सिवाय कांई लाभ नथी. समजाणुं कांई...! आ एक वात थई


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हवे बीजी वातः- ‘ते ज आत्मा, ते भावोना कार्यभूत उत्तरकर्मने (भविष्यकाळना कर्मने) पचखतो थको, प्रत्याख्यान छे... ,

आ पुण्य-पापना जे भाव तेना कार्यभूत भविष्यकाळनां कर्म छे. तेने स्वरूपनी स्थिरता द्वारा पचखतो थको ते आत्मा ज प्रत्याख्यान छे. पुण्य-पापना भाव आकुळतारूप हता. तेनाथी खसी निराकुळ आनंदनी दशामां स्थिर थयो तेने वीतरागता प्रगटी ते हवे पुण्य-पापना कार्यभूत भविष्यना कर्मथी खसी गयो छे अने तेने प्रत्याख्यान कहे छे. भाई! प्रत्याख्यान कांई आत्माथी बीजी चीज नथी.

एक ज समयमां त्रण वातः जे समये आत्मा पुण्य-पापना भावथी निवर्त्यो ते ज समये ते भावोनां कारणभूत जे पूर्वकर्म तेनाथी निवर्ते छे माटे पोते ज प्रतिक्रमण छे, वळी ते ज समये ते भावोनां कार्यभूत जे भविष्यनां कर्म तेनाथी निवर्ते छे माटे पोते ज प्रत्याख्यान छे अने ते ज समये वर्तमान कर्मना उदयथी निवर्ते छे माटे पोते ज आलोचना छे. आनुं नाम चारित्र छे. भाई! जे शुभाशुभ भाव छे ते अचारित्र छे, अप्रतिक्रमण छे, अप्रत्याख्यान छे, आस्रवभाव छे. तेनाथी खसीने स्वरूपमां एकाग्र थई प्रवर्ते-रमे ते भावसंवर छे, चारित्र छे, प्रतिक्रमण छे, प्रत्याख्यान छे, आलोचना छे. आवी वात छे.

हवे त्रीजी वातः ‘ते ज आत्मा, वर्तमान कर्मविपाकने पोताथी (आत्माथी) अत्यंत भेदपूर्वक अनुभवतो थको, आलोचना छे.’

अहाहा...! जोयुं? ते ज आत्मा, वर्तमान कर्मविपाकथी भिन्न पोताने अनुभवतो थको पोते ज आलोचना छे. आ तो सिद्धांत बापा! पोतानुं स्वरूप तो एकलो आनंद अने शान्ति छे. अहाहा...! वर्तमान कर्मविपाकथी खसी, पुण्य-पापथी खसी, अंदर स्वरूपमां ठरी जवुं ते आलोचना छे, संवर छे. आ एक समयनी स्वरूप-स्थितिनी दशा छे; तेने पूर्वकर्मथी निवर्तवानी अपेक्षा प्रतिक्रमण कहे छे. भविष्यना कर्मथी निवर्तवानी अपेक्षा प्रत्याख्यान कहे छे, अने वर्तमान कर्मविपाकथी निवर्तवानी अपेक्षा आलोचना कहे छे; अने ते चारित्र छे.

आ चारित्रनो अधिकार छे. चारित्र कोने होय? के जेने प्रथम आत्मदर्शन थयुं छे तेने चारित्र होय छे. आत्मा शुद्ध चैतन्यवस्तु परमस्वभावभाव छे तेनी सन्मुख थईने जे ज्ञान (स्वसंवेदन) थाय ते सम्यग्ज्ञान छे, अने तेनुं जे श्रद्धान थाय ते सम्यग्दर्शन छे. आवां ज्ञान-श्रद्धान पूर्वक ज चारित्र होय छे. तेनी विधि शुं छे तेनी आ वात छे. विना सम्यग्दर्शन चारित्र संभवित नथी. कोई सम्यग्दर्शन रहित गमे तेवां व्रत, तप आदि आचरे पण ते चारित्र नथी.

प्रश्नः– पण ए संयम तो छे ने?


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उत्तरः– संयम? संयम नथी; ए असंयम ज छे. अरे भाई! संयम कोने कहेवाय एनी तने खबर ज नथी. ‘संयम’ शब्दमां तो ‘सम्+ यम्’ शब्दो छे. -सम् नाम सम्यक् प्रकारे यम अर्थात् सम्यग्दर्शन पूर्वक यम तेने संयम कहे छे. आत्मा पूरण परमस्वभावभाव वस्तु छे तेनी अंतरमां प्रतीति थवी ते सम्यग्दर्शन छे अने ते सिद्ध थतां निज स्वभावभावमां ज विशेष-विशेष लीन-स्थिर थवुं ते संयम छे, चारित्र छे, अने ते मोक्षमार्ग छे. आवी वात छे. भाई! तने रागनी क्रियामां संयम भासे छे ते मिथ्याभाव छे.

स्वस्वरूपमां लीनता-रमणता थाय ते चारित्र छे. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र एम शुद्ध रत्नत्रय ते मोक्षमार्ग छे. नियमसारमां बीजी गाथामां कह्युं छे के-मार्ग अने मार्गफळ-एम बे प्रकारे जिनशासनमां कथन करवामां आव्युं छे; मार्ग मोक्षोपाय छे अने तेनुं फळ निर्वाण छे. मार्ग शुद्ध रत्नत्रय छे अने तेने व्यवहारनी कोई अपेक्षा नथी एवो ते निरपेक्ष छे. अंदर चैतन्यस्वरूप परमानंद प्रभु छे तेनां द्रष्टि-ज्ञान ने रमणता थाय ते निरपेक्ष निश्चय रत्नत्रय छे अने ते मोक्षमार्ग छे.

जेने सम्यग्दर्शन-ज्ञान थयुं छे तेने हजु अस्थिरताना भाव छे. आ अस्थिरताथी खसीने-निवर्तीने स्वभावमां प्रवर्तवुं-रमवुं-लीन थवुं ते आलोचना छे अने ते ज भूत अने भावि कर्मथी निवर्तवानी अपेक्षा प्रतिक्रमण अने प्रत्याख्यान छे. आ चारित्रनी विधि छे. भाई! व्रत, भक्ति, दया इत्यादि पाळवारूप जे भाव थाय छे ते अस्थिरता छे. तेनाथी तो खसवानी-निवर्तवानी वात छे. तेने ज तुं संयम ने चारित्र मानवा लागे ए तो महा विपरीतता छे. मुनिराजने निश्चय चारित्र साथे ते व्यवहार सहचरपणे भले हो, पण ते चारित्र नथी, ते चारित्रनुं कारण पण वास्तवमां नथी. खरेखर तो ते अस्थिरताथी खसी स्वरूप-स्थिरता जे थाय ते ज चारित्र छे.

लोकोने एम लागे के आ तो ‘निश्चय, निश्चय, निश्चय’नी ज वात छे. पण भाई! निश्चय एटले ज सत्य, व्यवहार तो उपचारमात्र छे. निश्चय साथे व्यवहार हो भले, पण ए बंधनुं ज कारण छे, ए कांई मुक्तिमार्ग के मुक्तिमार्गनुं कारण नथी. व्यवहारथी-रागथी निश्चय-वीतरागता थाय एम माने ए तो विपरीतता छे भाई! अहीं तो भगवान आत्मा परमानंदस्वरूप सत्य साह्यबो पूर्णानंदनो नाथ प्रभु अंदर जे विराज्यो छे तेनुं भान थया पछी जे अस्थिरताना पुण्य-पापना भाव छे तेनाथी निवर्ती अंदर स्वरूपमां लीनता-जमावट करे छे ते आत्मा पोते चारित्ररूप थाय छे एम वात छे. धीमे धीमे समजवुं भाई! अरे! अनंतकाळमां ए सत्य समज्यो नथी! शुं थाय? समजवानां टाणां आव्यां तो शुभमां रोकाई पडयो!

प्रतिक्रमण करुं, प्रत्याख्यान करुं, आलोचना करुं एवा जे विकल्प छे ए तो


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राग छे, ए चारित्र नथी, आत्मानुं ए शुद्ध स्वरूपेय नथी. अहा! पोताना शुद्धस्वरूपना- चैतन्यस्वरूपना आश्रये रागनी एकता तोडीने हवे जे अस्थिरताना रागथीय निवर्ते छे अने स्वभावमां लीन थई प्रवर्ते छे ते आत्मा प्रतिक्रमण छे, प्रत्याख्यान छे, संवर छे. आनुं नाम चारित्र छे.

पुण्य-पाप भला छे, मारा छे एम जे माने छे तेने ‘मिच्छामि दुक्कडम्’ होई शहे नहि. पुण्य-पापना भाव जे वर्तमान थाय छे तेनाथी अत्यंत भेद करी, जुदो पडी स्वस्वरूपमां लीन थई जाय तेने संवर छे अने तेनुं नाम आलोचना छे. तेनां दुष्कृत मिथ्या थाय छे. अहो! आवी वात! पण एने कयां फुरसद छे? भाई! आनुं वांचन, विचार ने खूब मंथन रोज रोज होवुं जोईए. आना संस्कार आ अवसरे पडी गया तो ते कल्याणनुं कारण थशे. बाकी तो समजवा जेवुं छे. एकला पापना सेवनमां रहेनारा तो मरीने कयांय नरक ने ढोरनी गतिमां खोवाई जशे. समजाणुं कांई...!

हवे कहे छे- ‘ए रीते ते आत्मा सदा प्रतिक्रमतो (अर्थात् प्रतिक्रमण करतो) थको, सदा पचखतो (अर्थात् प्रत्याख्यान करतो) थको अने सदा आलोचतो (अर्थात् आलोचना करतो) थको, पूर्वकर्मना कार्यरूप अने उत्तरकर्मना कारणरूप भावोथी अत्यंत निवृत्त थयो थको, वर्तमान कर्मविपाकने पोताथी (आत्माथी) अत्यंत भेदपूर्वक अनुभवतो थको, पोतामां ज-ज्ञानस्वभावमां ज-निरंतर चरतो (विचरतो, आचरण करतो) होवाथी चारित्र छे (अर्थात् पोते ज चारित्रस्वरूप छे).

अहाहा...! रागथी-पुण्य-पापना भावोथी पाछो फरीने पोताना स्वरूपमां ठर्यो छे ते धर्मात्मा पुरुष सदाय प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान अने आलोचना करे छे. तेने सदाय चारित्रदशा वर्ते छे. आ देहनी क्रिया थाय ते प्रतिक्रमण अने चारित्र एम नहि. देह तो माटीनो घडो भगवान! ए तो घडीकमां फूटी जशे; ते क्यां तारी चीज छे? अहीं तो पूर्वकर्मनुं कार्य अने उत्तरकर्मनुं कारण एवा जे पुण्य-पाप आदि भाव धर्मात्माने पोतानी दशामां थाय छे तेनाथी पाछा फरी स्वस्वभाव एवा ज्ञानस्वभावमां वर्तवुं-रमवुं-ठरवुं- चरवुं एने चारित्र कह्युं छे. अहाहा...! परभावोथी निवृत्त थयो थको एक ज्ञानस्वभावमां ज निरंतर चरतो-विचरतो थको पोते ज चारित्रस्वरूप छे. अहो! दिगंबर संतोनी वाणी सचोट रामबाण छे. भाई! तुं निर्णय तो कर के मारग आ ज छे.

अहाहा...! कहे छे- ‘ज्ञानस्वभावमां ज निरंतर चरतो’...., अहा! ज्ञानस्वभाव तो जाणवारूप छे प्रभु! जेनी सत्तामां ए जाणवुं थाय छे ते चेतन छे खरेखर ते चेतननी सत्ताने ज जाणे छे. अहा! जेनी सत्तामां पदार्थोनुं होवापणुं जणाय छे ते चेतनसत्ता छे. अहाहा...! जाणनारो छे ते चेतन छे, अने जे जणाय छे ते पण चेतन


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छे (केमके चेतननी पर्यायमां ज जाणवुं थाय छे). आम जाणनारो जाणनारने ज जाणे छे अने जाणतो थको तेमां ज चरे छे, ठरे छे एनुं नाम चारित्र छे. समजाणुं कांई...? समयसार नाटकमां आवे छे के-

समता, रमता, उरधता, ज्ञायकता सुखभास;
वेदकता चैतन्यता, ए सब जीव विलास.

जुओ, आ जीवनुं वास्तविक परिणमन-विलास बताव्युं छे. अहाहा...! भूत, वर्तमान, भावि कर्मथी खसी एक ज्ञानस्वभावमां एकाकार थई उपयोग तेमां ज स्थिर थाय छे ते चारित्र छे. ते चारित्रस्वरूप सदाय पोते परिणमी रह्यो छे. तेने व्यवहार प्रतिक्रमणादिनो कदीक विकल्प उठे छे, पण ते दोष छे. हवे आवी वात भगवान सर्वज्ञदेवना श्रीमुखेथी दिव्यध्वनिमां आवी छे. पण एने बेसे तो ने! भाई! तुं तो चेतनारो-जाणनारो छो ने प्रभु! कोने? पोताने अहा! पोताने जाणीने पछी तुं पोतामां ज ठरे-रमे ते चारित्र छे, ते मोक्षमार्ग छे. आवो अलौकिक मारग छे.

प्रश्नः– तो मुख्यपणे चारित्र ए ज मोक्षमार्ग छे ने? सम्यग्दर्शन-ज्ञान तो मोक्षमार्गनुं कारण छे.

उत्तरः– भाई! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र-एम त्रण भेद तो समजाववा माटे छे, पण छे तो त्रणे साथे एक समयमां. त्रणे मळीने ज मोक्षमार्ग छे एम यर्थाथ समजवुं.

अहीं चारित्रनी व्याख्या करे छे. तो कहे छे-ज्ञानस्वभाव छे ए तो अबंधस्वभाव छे, ने पुण्य-पापना भाव छे ते बंधस्वभाव छे, कर्मस्वभाव छे; केमके तेओ पूर्व कर्मना निमित्ते थाय छे, ने पोते नवां कर्मनुं निमित्त छे. तेथी पुण्य-पापथी निवर्ती, त्रणे काळना कर्मथी पाछा फरी एक ज्ञानस्वभावमां चरवुं-विचरवुं ते चारित्र छे अने ते मोक्षमार्ग छे. हवे आवी वात दिगंबर धर्म सिवाय बीजे क्यां छे? संप्रदायमां केटलाक कहे छे के तमारे-अमारे कांई फेर नथी; पण मोटो फेर छे भाई! अहाहा...! आ दिगंबर संतोनी वाणी तो जुओ! एक एक गाथामां केटलुं भर्युं छे!

१. वर्तमान पुण्य-पापना भावथी पाछो फरतां पूर्वना कर्मथी पाछो फर्यो ते प्रतिक्रमण छे.

२. पुण्य-पापना भावथी पाछो फरतां तेनुं कार्य जे कर्म तेनाथी पाछो फर्यो ते प्रत्याख्यान छे.


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३. वर्तमानमां पुण्य-पापनुं कारण जे कर्मनो विपाक तेनाथी पाछो फर्यो ते आलोचना छे.

आ रीते ते आत्मा सदा प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना करतो थको, पोताना ज्ञानस्वभावमां ज चरतो होवाथी चारित्र छे, अर्थात् पोते ज चारित्रस्वरूप छे.

नियमसारना आरंभना एक श्लोकमां टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव कहे छे-हे परमात्मा! तुं होतां हुं ओला मोहमुग्ध अने संसारीओ जेवा कामी बुद्ध अने ब्रह्मा-विष्णु-महेशने केम पूजुं? ने ज पूजुं. हुं तो जेणे भवोने जीत्या छे, जन्म- मरणनो नाश कर्यो छे एवा तने वंदुं छुं. जुओ आ मुनिराज! के जेमने भव जीतवानी भावना छे.

वळी आगळ जतां तेओ कहे छे-हमणां अमारुं मन परमागमना सारनी पुष्ट रुचिनी फरी फरीने अत्यंत प्रेरीत थयुं छे ए रुचिथी प्रेरित थवाने लीधे ‘तात्पर्य वृत्ति’ नामनी आ टीका रचाय छे. जुओ एकली नग्नदशा ने बहारमां महाव्रतनुं पालन करे ए कांई दिगंबर नथी, पण अंतरमां निर्मळानंदनो नाथ ज्ञानस्वभावी प्रभु पोते छे तेने ओळखी तेनां श्रद्धा-ज्ञान-रमणता करे ते दिगंबर छे. अहाहा...! नागा बादशाहथी आघा. तेने समाजनी कांई पडी नथी. दुनियाने आ गमशे के नहि एनी एने कांई पडी नथी. दुनियानुं दुनिया जाणे; अमे तो मोक्षमार्गी छीए. अमे तो अंदर आत्मानी रुचि अने ज्ञान-ध्यानमां छीए अने कहीए तो ए ज (मारग) कहीए छीए.

अहाहा...! मुनिराज तो निर्मळानंद प्रभु आत्मामां रमण करनारा ने तेमां चरनारा-विचरनारा छे. तेओ नित्य अतीन्द्रिय आनंदनुं धराईने भोजन करनारा छे. अहाहा...! जेमने आकुळतानी गंधेय नथी एवा अनाकुळ सुखना ढगला छे एवा चारित्रवंत मुनिने अंदर नित्य अतीन्द्रिय आनंदनी भरती उछळे छे. कोईने थाय के मुनिने वनमां अनेक परिषह सहन करवाना थतां केवां दुःख वेठवां पडे? तेने कहीए के भाई! मुनिराजने दुःख वेठवुं पडे ए तारी वात खोटी छे, केमके मुनिराजने अकषायी शांति प्रगटी होवाथी तेओ निरंतर अतीन्द्रिय आनंदनी मोजमां मस्त होय छे. तेने अहीं चारित्र कह्युं छे अने ते मोक्षमार्ग छे.

कोईने लागे के व्यवहारनी तो वात ज करता नथी. तेने कहीए छीए के-भाई! व्यवहार होय छे. ज्यांसुधी पूर्ण वीतराग दशा न थाय त्यांसुधी दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादिनो व्यवहार मुनिराजने होय छे, पण ए बधो राग छे, दुःख छे, बंधननुं कारण छे, मुनिराजने ए कर्तव्य छे एम नथी. तेमां कांई आत्मानी शान्ति


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प्रश्नः– हा, पण तेने व्यवहार करवो तो पडे छे ने? निश्चयनुं ए साधन तो छे ने?

उत्तरः– व्यवहार आवे छे भाई! ए करे छे एम क्यां छे? ए तो मात्र एने जाणे छे बस, -के आ राग छे, बीजी चीज छे. तुं एने निश्चयनुं साधन मान, पण धूळेय साधन नथी सांभळने, केमके व्यवहार-राग छे ए तो कर्मस्वभाव छे, बंधस्वभाव छे अने निश्चय अबंधस्वभाव छे, वीतरागस्वभाव छे. (एने साधन कहेवुं ए तो उपचारमात्र छे)

अहो! शुं ए वीतरागी चारित्र दशा! महावंदनीक दशा छे ए; ए तो परमेष्ठीपद छे भाई! मुनिराज नित्य आवी चारित्रदशाए वर्ते छे,

हवे कहे छे- ‘अने चारित्रस्वरूप वर्ततो थको पोताने-ज्ञानमात्रने-चेततो (अनुभवतो) होवाथी (ते आत्मा) पोते ज ज्ञानचेतना छे, एवो भाव (आशय) छे.’

जुओ, आ सरवाळो कीधो. एम के पुण्य-पापनुं-झेरनुं वेदन त्यागीने, चारित्रस्वरूप थयो थको एक ज्ञानमात्र वस्तु आत्माने ज वेदतो होवाथी पोते ज ज्ञानचेतना छे. तेने कर्मचेतना ने कर्मफळचेतना नथी एम वात छे.

* गाथा ३८३ थी ३८६ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘चारित्रमां प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान अने आलोचनानुं विधान छे. तेमां, पूर्वे लागेला दोषथी आत्माने निवर्ताववो ते प्रतिक्रमण छे, भविष्यमां दोष लगाडवानो त्याग करवो ते प्रत्याख्यान छे अने वर्तमान दोषथी आत्माने जुदो करवो ते आलोचना छे.’

जुओ, आ व्यवहारनी वात करी छे. आमां अशुभने टाळी दोषथी निवर्ताववानो शुभ विकल्प हजु छे. पूर्वे लागेला दोषोथी आत्माने हुं निवर्तावुं एवो जे विकल्प छे ते व्यवहार प्रतिक्रमण छे. व्यवहार प्रतिक्रमण ते शुभभाव छे. तेवी रीते भविष्यमां दोष लगाडवानो त्याग करुं-एवो जे विकल्प छे ते व्यवहार प्रत्याख्यान छे, तेय शुभभाव छे, तथा वर्तमान दोषथी आत्माने जुदो करुं एवो जे विकल्प छे ते व्यवहार आलोचना छे. आ व्यवहार प्रतिक्रमणादिमां अशुभथी छूटी शुभमां आवे छे ते व्यवहार छे, पण ते आत्मरूप नथी. हवे ए ज कहे छे-

‘अहीं तो निश्चयचारित्रने प्रधान करीने कथन छे; माटे निश्चयथी विचारतां तो,


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जे आत्मा त्रणे काळनां कर्मोथी पोताने भिन्न जाणे छे, श्रद्धे छे अने अनुभवे छे, ते आत्मा पोते ज प्रतिक्रमण छे, पोते ज प्रत्याख्यान छे अने पोते ज आलोचना छे.’

जुओ, अहीं निश्चयचारित्र -वीतरागी चारित्रनी प्रधानता छे, अर्थात् व्यवहारनी क्रिया अहीं गौण छे. अहीं तो शुभाशुभ बन्नेय दोषोथी निवृत्त थई आत्मा रूप थई जवुं, उपयोगने स्वरूपलीन करवो ते निश्चय प्रतिक्रमण, निश्चय प्रत्याख्यान अने निश्चय आलोचना छे. पूर्ण वीतरागदशा न थाय त्यां सुधी स्वरूपनी द्रष्टि अने चारित्रनी भूमिकामां व्यवहार प्रतिक्रमणना विकल्प होय छे खरा, पण तेमां अशुभथी निवर्ते बस; आ मर्यादा छे. ज्यारे निश्चयथी विचारतां जे आत्मा त्रणे काळना कर्मोथी पोताने भिन्न जाणे छे, श्रद्धे छे, अनुभवे छे ते पोते ज प्रतिक्रमण छे, पोते ज प्रत्याख्यान छे, पोते ज आलोचना छे.

व्यवहार प्रतिक्रमणादिमां पापथी निवर्तीने शुभभावमां-पुण्यभावमां आव्यो एटली वात छे, पण ए शुभभाव कांई आत्मपरिणाम नथी. एय दोष ज छे. तेथी शुभाशुभ सर्व दोषथी पोताने भिन्न जाणी उपयोगने स्वरूपमां रमाववो, स्थिर करवो ए वास्तविक प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान अने आलोचना छे, अने ते आत्मरूप छे. कह्युं ने के- पुण्य-पापना भावथी खसी स्वस्वरूपमां लीनता-रमणता करे ते आत्मा पोते ज प्रतिक्रमण छे, पोते ज प्रत्याख्यान छे, पोते ज आलोचना छे. अहीं तो आत्माथी भिन्न कोई प्रतिक्रमणादि छे एम वात ज नथी. ज्ञान ते प्रत्याख्यान छे एम आव्युं ने गाथामां (३४ गाथामां). मतलब के-रागनो नाश कर्यो एम कहेवुं ए तो कथनमात्र छे. पोते ज्ञानस्वरूपथी छूटी कदी रागस्वरूप थयो ज नथी, सदाय ज्ञानस्वरूपमां ज रह्यो छे- एम जाणी एवा ज्ञानस्वरूपमां ज लीन-स्थिर थवुं, तेमां ज जामी जवुं ते निश्चय पचखाण छे. आवी वात छे.

‘एम प्रतिक्रमणस्वरूप प्रत्याख्यानस्वरूप अने आलोचनास्वरूप आत्मानुं निरंतर अनुभवन ते ज निश्चयचारित्र छे. जे आ निश्चयचारित्र, ते ज ज्ञानचेतना (अर्थात् ज्ञाननुं अनुभवन) छे. ते ज ज्ञानचेतनाथी (अर्थात् ज्ञानना अनुभवनथी) साक्षात् ज्ञानचेतनास्वरूप केवळज्ञानगम्य आत्मा प्रगट थाय छे.’

ल्यो आ निश्चय चारित्र ते ज ज्ञानचेतना, अने ते ज ज्ञानचेतनाथी साक्षात् ज्ञानचेतनास्वरूप केवळज्ञान प्रगट थाय छे. अहो! आ तो अलौकिक वात छे भाई!

हवे आगळनी गाथाओनी सूचनारूप काव्य कहे छे, जेमां ज्ञानचेतनानुं फळ अने अज्ञानचेतनानुं (अर्थात् कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनानुं) फळ प्रगट करे छेः-


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* कळश २२४ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘नित्यं ज्ञानस्य सञ्चेतनया एव ज्ञानं अतीव शुद्धम् प्रकाशते’ निरंतर ज्ञाननी संचेतनाथी ज ज्ञान अत्यंत शुद्ध प्रकाशे छे; ‘तु’ अने ‘अज्ञान–सञ्चेतनया’ अज्ञाननी संचेतनाथी ‘बन्धः धावन्’ बंध दोडतो थको ‘बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि’ ज्ञाननी शुद्धताने रोके छे-ज्ञाननी शुद्धता थवा देतो नथी.

जुओ, अहीं ज्ञान अने अज्ञाननी संचेतनानुं एम बन्नेनुं फळ कह्युं छे, शुं कहे छे? के भगवान आत्मा सर्वज्ञस्वभावी, वीतरागस्वभावी शुद्ध एक चैतन्यमात्र वस्तु छे. अहाहा....! आवा निजस्वरूपमां एकाग्र थई तेने ज जे वेदे छे, अनुभवे छे तेनी पर्यायमां ज्ञान अत्यंत शुद्ध प्रकाशे छे अर्थात् तेने पवित्रतानी-शुद्धतानी विशेष दशा प्रगट थाय छे. शुं कीधुं? जेमां आ बधुं जणाय छे ते जाणनारो ज्ञानस्वभावी प्रभु आत्मा छे. अहा! ते जाणनारने जाणी, तेमां ज एकाग्रता करी रमवाथी -ठरवाथी अंतरंगमां शुद्धिनी वृद्धि प्रगट थाय छे. ल्यो, आ संवर अने निर्जरा छे. बन्ने साथे छे हों. वर्तमान शुद्धि जे प्रगट थाय ते संवर अने विशेष रमणताथी शुद्धिमां वृद्धि जे थाय ते निर्जरा. अहीं आ चारित्रनी विशेष दशानी वात छे. अहो! आचार्यदेवे बहु टूंकामां मोक्षमार्ग दर्शाव्यो छे.

कहे छे-शुद्ध चैतन्यघनस्वभावी आनंदकंद प्रभु आत्मा छे, तेमां सम्यक् प्रकारे एकाग्र थई रमणता करवाथी ज आत्मानी अत्यंत शुद्ध दशा प्रकाशे छे. जुओ, ‘ज्ञाननी संचेतनाथी ज’ - ‘संञ्चेतनया एव’ एम शब्दो छे. मतलब के कोई व्रत, तप, दया, दान, भक्ति आदिना शुभ विकल्पथी शुद्धिनी उत्पत्ति अने वृद्धि थाय छे एम नहि, पण अनाकुळ अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदनो रसकंद प्रभु आत्मा छे तेनी सन्मुख थई तेमां ज रमणता करवाथी धर्मनी उत्पत्ति अने वृद्धि थाय छे. जुओ, आ समकितीने चारित्र थवानी विधि बतावी छे.

वळी कहे छे- अज्ञाननी संचेतनाथी बंध दोडतो थको ज्ञाननी शुद्धताने रोके छे - ज्ञाननी शुद्धता थवा देतो नथी.

जुओ, शुं कहे छे? के ‘अज्ञाननी संचेतनाथी...’ अहाहा...! आ पुण्य-पापना शुभाशुभ भाव जे अज्ञानीने थाय ते अज्ञानचेतना छे, केमके ते भावमां चैतन्यना स्वभावनो अभाव छे. शुं कीधुं? दया, दान, व्रत, भक्ति आदि ने हिंसा, जूठ, विषयवासना आदिना भाव अज्ञानचेतना छे, अने तेमां एकाग्र थई तेमां जे रमे तेने बंध दोडतो थको ज्ञाननी शुद्धताने रोके छे, अर्थात् तेने शुद्धता प्रगट थती ज नथी; अशुद्धता थाय छे, बंध ज थाय छे.

पुण्य-पापना भाव थाय ते कर्मचेतना छे; अने तेनुं फळ जे सुख-दुःख ते


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कर्मफळचेतना छे. बन्ने अज्ञानचेतना छे. अहा! तेमां जे एकाग्र थाय तेने, कहे छे, बंध दोडतो आवे छे. दोडतो आवे छे एटले शुं? के तेने तत्काल बंध थाय छे. अहा! तेने तत्काल ज दर्शनमोहनीय कर्म बंधाय छे. समजाणुं कांई....?

भाई! कोई दस-वीस लाख रूपियानुं दान करे, जिनमंदिर बंधावे अने तेमां भगवाननी प्रतिष्ठा करावे अने तेमां एकाग्र थई प्रवर्ते तो, अहीं कहे छे, तेने बंध दोडतो आवे छे, तेने तत्काल दर्शनमोहनीयनो बंध थाय छे.

तो शुं तेने पुण्यबंध पण नथी थतो? भाई! दानमां कदाचित् मंदराग कर्यो होय तो पुण्यबंध अवश्य थाय पण साथे ज रागमां एकाग्रता-एकत्व वर्ततुं होवाथी दर्शनमोहनो बंध तत्काल ज थाय छे अने ए दीर्घ संसारनुं मूळ छे. बापु! संप्रदायमां चालती वात अने आ वीतरागनी वाणीमां आवेली वातमां बहु फेर छे, उगमणो-आथमणो फेर छे. शुभरागमां एकाग्र थतां धर्म थाय ए वात तो दूर रहो, एनाथी मिथ्यात्वनो बंध थाय छे.

त्यारे कोई वळी कहे छे-दया, दान, व्रतादिना विकल्प ते धर्मनुं साधन छे. अरे भाई! ए वातनी अहीं ना पाडे छे. तुं जो तो खरो शुं कहे छे? के ज्ञाननी संचेतनाथी ज ज्ञान अत्यंत शुद्ध प्रकाशे छे, अने अज्ञान संचेतनाथी बंध दोडतो थको ज्ञाननी शुद्धताने रोके छे. भाई! आ जैन परमेश्वरनी वाणीमांथी आवेली वात छे. अंदर भागवतस्वरूप भगवान पोते बिराजे छे तेमां एकाग्र थई प्रवर्ततां तत्काल ज्ञान निर्मळ प्रकाशे छे, धर्म प्रगट थाय छे अने अज्ञान नाम रागादिमां-दया, दान, व्रतादिमां-एकाग्र थई प्रवर्ततां तत्काल मिथ्यात्वनो बंध थाय छे. हवे आवी वात छे छतां व्रतादि परिणामथी धर्म थाय एम तुं माने ए तारी मोहजनित हठ सिवाय बीजुं कांई नथी. भाई! जे कोई परिणाममां स्वभावनो अनादर थाय ते परिणामथी बंध ज दोडतो आवे छे. तेनाथी धर्म थतो ज नथी.

अरे भाई! अंदर तुं पवित्रतानो पिंड ज्ञानानंदनो दरियो छो ने प्रभु! अहाहा...! तेमां ज एकाग्र थई त्यां ज तुं रमे एमां तारुं हित छे. अहा! रागनो संबंध तोडी तुं परम एकत्व-विभक्त स्वभावमां एकत्व स्थापी तेमां ज लीन थाय एमां तने सुख थशे, शुद्धता प्रगटशे अने ए ज रीते तने परमानंदस्वरूप परमपद प्राप्त थशे. अहा! पण आवा निजस्वभावनो त्याग करीने तुं शुभरागमां एकाग्र थाय अने त्यां ज रमे तो, आचार्य फरमावे छे, तने बंध दोडतो आवशे, अर्थात् तरत ज तने मिथ्यात्वनुं बंधन थशे. अहो! बहुं टूंका शब्दोमां दिगंबर संतोए बहु चोख्खी वात करी छे. स्वरूपमां रमे तो शुद्धता ने सिद्धपद अने रागमां रमे तो संसार.

अरेरे! स्वरूपनी समजण विना जीव अनंतकाळथी संसारमां रखडे छे. अरे!


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रजकण के रिद्धि वैमानिक देवनी,
सर्वे मान्या पुद्गल एक स्वभाव जो. -अपूर्व०

अहा! तारो आत्मा राग अने रजकणथी भिन्न अंदर बिराजी रह्यो छे. प्रभु! तेमां तुं जाने! तेमां एकाग्र थईने त्यां ज रमने प्रभु! तने शुद्धि उत्पन्न थईने शुद्धिनी वृद्धि थशे. भगवाने एने चारित्र कह्युं छे. भाई! आ तारां अनंत अनंत दुःख निवारवानो उपाय छे. बाकी तुं त्यागी थाय, साधु थाय अने बहारमां नग्न दिगंबर दशाने धारे पण व्रतादिना रागमां एकत्व करे तो, कहे छे, बंध दोडतो थको शुद्धिने रोकी दे छे. भाई! बहारमां पंचमहाव्रत पाळे माटे चारित्र प्रगट थाय एम मार्ग नथी. लोकोने वात बहु आकरी लागे पण मार्ग ज ज्यां आवो छे त्यां शुं करीए? माटे रागनी- व्रतादिना रागनी भावना छोडीने शुद्धोपयोगनी भावना कर. अंदर त्रण लोकनो नाथ सच्चिदानंद भगवान पूरण प्रगट विराजी रह्यो छे तेनी भावना कर, तेमां एकाग्र था, अने तेमां ज रमणता कर. आ मारग छे भाई! भगवान त्रिलोकनाथ जिनेन्द्रदेवनो इन्द्रो अने गणधरोनी सभामां आ पोकार छे. अहाहा.....!

रिद्धि सिद्धि वृद्धि दीसे घटमैं प्रगट सदा ,
अंतरकी लच्छीसौं अजाची लच्छपति हैं ,
दास भगवंत कै उदास रहै जगतसौं ,
सुखिया सदैव ऐसें जीव समकिती हैं .

अहा! तारी सर्व रिद्धि, सिद्धि अने वृद्धिनुं स्थान अंदर भगवान आत्मा प्रगट छे प्रभु! अहाहा....! समकिती धर्मी जीव ए ज्ञानानंदस्वरूप लक्ष्मीना लक्ष वडे सहज ज लक्षपति छे, तेमने कोईनी अपेक्षा नथी. बीजे माग्या विना ज लक्ष-पति छे. अहाहा....! भगवानना दास तेओ जगतथी उदास एवा सदाय सुखी छे. सुखनो आ मारग छे भाई! स्वरूपनुं लक्ष करवुं ने तेमां ठरी जवुं.

अरे भाई! रागनो एक कणियो पण तने काम आवे एम नथी, तारा हितरूप नथी. अहाहा....! ज्ञानादि अनंत गुणनो समुद्र प्रभु अंदर आत्मा छे तेने जेणे रागथी भिन्न पडी संभाळ्‌यो अने तेमां ज जे एकाग्र थयो, लीन थयो, निमग्न थयो तेने धर्म थयो, मोक्षनो मारग थयो अने चारित्र थयुं. परंतु निज ज्ञानानंदस्वरूपने


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छोडीने भले कोई राज्य छोडे, रणवास छोडे, भोग छोडे, परंतु जो शुभरागनी वासना छे तो तेने मोहकर्म दोडतुं आवीने बांधे छे, तेने संसार ज फळे छे.

अहाहा....! रागनी एकताने तोडी जे अंदर आनंदनी खाणने खोले छे ते समकिती छे अने तेमां ज विशेष लीन थाय छे ते चारित्रवंत छे. आवो मारग छे.

* कळश २२४ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘कोई (वस्तु) प्रत्ये एकाग्र थईने तेनो ज अनुभवरूप स्वाद लीधा करवो ते तेनुं नाम संचेतन कहेवाय. ज्ञान प्रत्ये ज एकाग्र उपयुक्त थईने तेना तरफ ज चेत राखवी ते ज्ञाननुं संचेतन अर्थात् ज्ञानचेतना छे. तेनाथी ज्ञान अत्यंत शुद्ध थईने प्रकाशे छे, अर्थात् केवळज्ञान उपजे छे. केवळज्ञान उपजतां संपूर्ण ज्ञानचेतना कहेवाय छे.’

कळशमां ‘संचेतन’ शब्द पडयो छे ने? तेनो भाव शुं? तो कहे छे-वस्तु प्रत्ये एकाग्र थईने तेनो ज अनुभव करवो-स्वाद लेवो तेनुं नाम संचेतन छे. ज्ञान अर्थात् भगवान आत्मा प्रत्ये ज एकाग्र उपयुक्त थईने अर्थात् उपयोगने तेमां ज जोडीने तेना प्रति ज चेत राखवी वा तेमां ज जाग्रत रहेवुं, तेना ज स्वादमां लीन रहेवुं ते ज्ञाननुं संचेतन नाम ज्ञानचेतना छे. सम्यग्दर्शनपूर्वक उपयोगनी अंतर-एकाग्रता थाय तेने अहीं ज्ञाननी संचेतना कही छे. तेनाथी, कहे छे, ज्ञान अत्यंत शुद्ध प्रकाशे छे.

हवे आवुं स्वरूप समज्या वगर व्रत, तप ने उपवास करवा मंडी पडे पण एथी शुं? ए कांई नथी, ए तो एकलो राग छे बापा! अने एनीय पाछी प्रसिद्धि करे, छापामां आवे के आने आटला उपवास कर्यां, पण भाई! ए उपवास नहि पण अपवास नाम माठा वास छे, प्रभु! अने एनी प्रसिद्धि ए तारी पागलपणानी प्रसिद्धि छे. समजाणुं कांई....? रागमां रोकाईने पोतानी निर्मळ चैतन्यनी दशाने रुंधी राखी छे एवा पागलपणानी प्रसिद्धि छे.

भगवान आत्मा सच्चिदानंद प्रभु ज्ञान अने आनंदस्वरूप छे, तेमां एकाग्र थईने तेमां ज लीन थवुं ते ज्ञानचेतना छे. तेनाथी ज्ञान अत्यंत शुद्ध थईने प्रकाशे छे. अहाहा....! जेम मोर गेलमां आवी कळा करे त्यारे एनां पींछां खीले छे, तेम भगवान आत्मा निज स्वभावमां एकाग्र थईने रमे-प्रवर्ते त्यारे पर्यायमां ज्ञान अने आनंदनी कळा खीली नीकळे छे, ज्ञानचेतना खीली नीकळे छे, अने ते वृद्धिगत थई जेम पूनमनो चंद्र सर्व कळाए खीली नीकळे तेम ज्ञानचेतना केवळज्ञानपणे खीली ऊठे छे. आवी वात! स्वस्वरूपमां लीन थईने त्यां ज रमे तेने केवळज्ञान खीली ऊठे छे; अने त्यारे संपूर्ण ज्ञानचेतना कहेवाय छे.


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हवे कहे छे- ‘अज्ञानरूप (अर्थात् कर्मरूप अने कर्मफळरूप) उपयोगने करवो, तेना तरफ ज (-कर्म अने कर्मफळ तरफ ज) एकाग्र थई तेनो ज अनुभव करवो, ते अज्ञानचेतना छे. तेनाथी कर्मनो बंध थाय छे, के जे बंध ज्ञाननी शुद्धताने रोके छे.’

जुओ शुं कहे छे आ? के पुण्य-पाप आदि कर्मरूप अने कर्मफळरूप भावोमां एकाग्र थई तेमां ज उपयोगने रोकी राखे ते अज्ञान चेतना छे; अने तेथी कर्मनो बंध थाय छे जे बंध ज्ञाननी शुद्धताने रोकी राखे छे. हवे आवी चोख्खी वात छे. भाई! शांति अने धीरज राखीने मार्ग समजवो जोईए, आमां कांई वादविवादे पार पडे एवुं नथी. भगवान जिनचंद्र चैतन्यप्रकाशनो पुंज पोते छे तेने भूलीने व्रतादिना रागमां एकाग्र थई वर्ते ते मिथ्यात्वना अंधकारमां ज आथडे छे, तेनुं संसार-परिभ्रमण मटतुं नथी. समजाणुं कांई....!

[प्रवचन नं. ४७प थी ४७७ * दिनांक २८-१०-७७ अने २९-१०-७७]


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गाथा ३८७ थी ३८९
वेदंतो कम्मफलं अप्पाणं कुणदि जो दु कम्मफलं ।
सो तं पुणो वि बंधदि बीयं दुक्खस्स अट्ठविहं।। ३८७।।
वेदंतो कम्मफलं मए कदं मुणदि जो दु कम्मफलं ।
सो तं पुणो वि बंधदि बीयं दुक्खस्स अट्ठविहं।। ३८८।।
वेदंतो कम्मफलं सुहिदो दुहिदो य हवदि जो चेदा ।
सो तं पुणो वि बंधदि बीयं दुक्खस्स अट्ठविहं।। ३८९।।
वेदयमानः कर्मफलमात्मानं करोति यस्तु कर्मफलम् ।
स तत्पुनरपि बध्नाति बीजं दुःखस्याष्टविधम्।। ३८७।।
वेदयमानः कर्मफलं मया कृतं जानाति यस्तु कर्मफलम् ।
स तत्पुनरपि बध्नाति बीजं दुःखस्याष्टविधम्।। ३८८।।

हवे आ कथनने गाथा द्वारा कहे छेः-

जे कर्मफळने वेदतो निजरूप करमफळने करे,
ते फरीय बांधे अष्टविधना कर्मने–दुखबीजने; ३८७.
जे कर्मफळने वेदतो जाणे ‘करमफळ में कर्युं’,
ते फरीय बांधे अष्टविधना कर्मने–दुखबीजने; ३८८.
जे कर्मफळने वेदतो आत्मा सुखी–दुखी थाय छे,
ते फरीय बांधे अष्टविधना कर्मने–दुखबीजने. ३८९.

गाथार्थः– [कर्मफलम् वेदयमानः] कर्मना फळने वेदतो थको [यः तु] जे आत्मा [कर्मफलम्] कर्मफळने [आत्मानं करोति] पोतारूप करे छे (-माने छे), [सः] ते [पुनः अपि] फरीने पण [अष्टविधम् तत्] आठ प्रकारना कर्मने- [दुःखस्य बीजं] दुःखना बीजने- [बध्नाति] बांधे छे.

[कर्मफलं वेदयमानः] कर्मना फळने वेदतो थको [यः तु] जे आत्मा [कर्मफलम्