Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 102.

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कर्मनी पर्यायमां निमित्तकर्ता कहेवामां आवे छे. जेम खाटा-मीठा गोरसना परिणामनो तटस्थ पुरुष जोनार छे, कर्ता नथी बस तेम ज्ञानी ज्ञानावरणादिनो जाणनार छे, कर्ता नथी. अहाहा...! हुं तो चैतन्यमूर्ति जाणगस्वभावी भगवान आत्मा छुं एवुं जेने भान थयुं ते सम्यग्द्रष्टि ज्ञानावरणीयादि कर्म जे बंधाय तेनो जाणनार छे, कर्ता नथी. छ कारणे ज्ञानावरणीय कर्म बंधाय छे एम तत्त्वार्थसूत्रमां आवे छे, ते ज्ञानावरणीय-कर्मनी पर्यायमां अज्ञानीनो राग निमित्तकर्ता कहेवामां आवे छे, ज्ञानी तो निमित्तकर्ता पण नथी. चोथा, पांचमा, छठ्ठा गुणस्थानमां जे ज्ञानावरणादि प्रकृतिनो बंध थाय तेने ज्ञानी जाणे छे पण तेनो कर्ता नथी.

हवे कहे छे-‘परंतु जेवी रीते ते गोरसनो जोनार, पोताथी व्याप्त थईने उपजतुं जे गोरस-परिणामनुं दर्शन (जोवापणुं) तेमां व्यापीने मात्र जुए ज छे, तेवी रीते ज्ञानी, पोताथी (ज्ञानीथी) व्याप्त थईने उपजतुं, पुद्गलद्रव्य-परिणाम जेनुं निमित्त छे एवुं जे ज्ञान तेमां व्यापीने, मात्र जाणे ज छे. आ रीते ज्ञानी ज्ञाननो ज कर्ता छे.’

हुं आम करुं ने तेम करुं एम परद्रव्यनी पर्यायनो जे कर्ता थाय ते मूढ छे, अज्ञानी छे. अहीं कहे छे के गोरसनो जोनार गोरसपरिणामनुं जे दर्शन तेमां व्यापीने मात्र जुए ज छे. देखवाना परिणाममां ते पुरुष व्याप्त छे, पण गोरसना परिणाममां ते व्याप्त नथी. देखनारो गोरसनी पर्याय छे तो तेने देखे छे एम नथी. पोताथी स्वतः देखे छे. खाटा-मीठा परिणामने देखे छे ते स्वतः पोताथी पोताना परिणामने देखे छे. गोरसना परिणामने जोनारने खरेखर तो स्वतः पोताथी पोताना द्रष्टापरिणामनुं ज्ञान थाय छे. जडनी पर्यायने जोनार ज्ञानी जोवाना पोताना परिणाममां व्यापीने मात्र जाणे ज छे.

ज्ञानावरणीय कर्म जे बंधाय ते पर्याय तो जडनी जडथी थई छे. ते ज्ञानावरणीयना बंधमां निमित्त थाय एवो जे विकारी भाव तेनो ज्ञानी कर्ता नथी, ज्ञानी मात्र तेनो ज्ञाता छे. ते परिणामने जाणनारो ज्ञानी ज्ञानावरणीयनी पर्यायमां निमित्त पण नथी, ज्ञानावरणीयनुं जे ज्ञान थयुं ते ज्ञानमां ज्ञानी व्याप्त छे, ज्ञानावरणीयमां व्याप्त नथी.

अरे भाई! जन्म-मरण करीने जीवे अत्यार सुधी अनंत भव कर्या छे अने मिथ्यात्व पडयुं छे त्यां सुधी बीजा अनंत भव करशे केमके मिथ्यात्वना गर्भमां अनंत भव पडेला छे. हजारो राणीओने छोडीने साधु थाय, जंगलमां रहे अने व्रत पाळे पण जडनी क्रियानो कर्ता पोताने माने ते मिथ्याद्रष्टि छे अने ते चार गतिमां रखडपट्टी ज पामे छे.

ज्ञानावरणीय आदि कर्मबंधना परिणाममां, अज्ञानी के जे रागनो कर्ता छे तेना योग अने उपयोग निमित्तकर्ता कहेवामां आवे छे. ज्ञानी समकिती तो स्वतः जाणवावाळा


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पोताना परिणाममां व्यापीने जडकर्मनी पर्यायने जाणे ज छे, करतो नथी. ज्ञानी जडकर्मने जाणवानी जे ज्ञाननी पर्याय तेमां व्याप्त छे. ते ज्ञान-पर्याय स्वपरप्रकाशकपणे पोताथी थई छे. ते ज्ञाननी पर्यायमां ज्ञानावरणादि आठ कर्मनी पर्याय निमित्तमात्र छे.

जुओ, लोजीकथी-न्यायथी वात चाले छे. समजवानी तो पोताने जिज्ञासा होवी जोईए. जेणे रागथी भिन्न थई पोताना ज्ञानानंदस्वभावी ज्ञायकस्वरूपनो अनुभव कर्यो छे ते ज्ञानी जीव ज्ञानावरणीय कर्मनी पर्यायनो कर्ता नथी, जाणनार छे. ज्ञानावरणीय कर्मनी जे पर्याय थाय तेमां ज्ञानी निमित्त पण नथी, निमित्तकर्ता पण नथी. उपादान तो ते ते पुद्गलकर्मनी प्रकृत्ति छे. ज्ञानी तेना निमित्तकर्ता पण नथी केमके ज्ञानावरणीय कर्मनुं निमित्त जे अज्ञान तेनो ज्ञानी कर्ता नथी. ज्ञानी पोताना स्वपरप्रकाशक ज्ञानना परिणाममां व्याप्त थइने ज्ञानना परिणामने करे छेेे अने त्यारे ते ज्ञानमां ज्ञानावरणीय कर्मनी पर्यायने निमित्त कहे छे. खूब गंभीर वात छे.

जुओने! द्रष्टांत पण केवुं सरस आप्युं छे! गोरसना परिणामने देखनारो पुरुष, पोताना गोरसने देखनारा परिणाममां व्याप्त थईने, गोरसना परिणामने देखे छे, पण तेने करतो नथी. तेम ज्ञानावरणीय कर्मनी पर्याय जे पुद्गलथी थई छे तेने देखनार ज्ञानी पोताना ज्ञानमां व्याप्त थईने, ज्ञाननो कर्ता थईने ज्ञातापणे रहे छे. ते ज्ञाननी पर्यायमां ज्ञानावरणीय कर्मनी पर्याय निमित्त छे. ज्ञाननुं उपादान तो पोतानुं छे तेमां जडकर्मनी पर्याय निमित्त छे. निमित्त संबंधी ज्ञाननी पर्याय उपादानथी पोताथी स्वतंत्र थई छे, निमित्तनी कांई एमां अपेक्षा नथी.

अहो! गाथा बहु अलौकिक छे. श्री सीमंधर भगवान पासे आचार्यश्री कुंदकुंददेव विदेहमां गया हता. त्यांथी आ संदेश लईने भरतमां आव्या अने आ शास्त्रो रच्यां छे. जेम परदेशथी कोई पुरुष वतनमां आवे तो पत्नी पूछे के मारे माटे साडी लाव्या? पुत्री पूछे के मारे माटे घडियाळ लाव्या? नानो पुत्र होय ते पूछे के-पप्पा मारे माटे मीठाई-हलवो लाव्या? तेम श्री कुंदकुंदाचार्यदेव विदेहथी भरतमां पधार्या तो भक्तो पूछे के-भगवान! अमारे माटे कांई लाव्या? तो आचार्यदेव कहे छे के तमारा माटे आ माल-माल लाव्यो छुं. भगवाननी आ प्रसादी छे ते लईने प्रसन्न थाओ. कहे छे के चोथा गुणस्थाने ज्ञानीने जे ज्ञानावरणीय कर्म बंधाय तेनो ते कर्ता नथी, जाणनार ज छे. ज्ञानावरणीय कर्मनी पर्याय जडथी पुद्गलथी थाय छे तेमां ज्ञानी निमित्त पण नथी. चोथा गुणस्थाने आ प्रकृति जे बंधाय एनुं ज्ञान स्वयं पोताथी थाय छे, अने त्यारे तेमां ज्ञानावरणीय कर्म तेमां निमित्तमात्र छे.

ज्ञानी कर्मने बांधतो नथी एम अहीं कह्युं छे. अज्ञानी पण जडकर्मने बांधतो नथी, परंतु अज्ञानी रागनो कर्ता छे तो कर्मबंधनी पर्यायमां निमित्तकर्ता कहेवामां


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आवे छे. अहा! भगवाननो मार्ग बहु सूक्ष्म छे भाई! अने एनुं फळ पण महान छे! मोक्षनो मार्ग प्रगटे एना फळमां भविष्यमां अनंत ज्ञान अने अनंत सुख प्रगट थशे अने ते आदि अनंत काळ रहेशे.

रागनो जे कर्ता थाय अने जडकर्मनी अवस्थामां जेनो राग निमित्त थाय ते अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे. परंतु जेने पोताना त्रिकाळी सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मानुं भान थयुं छे तेवो धर्मी जीव जाणे छे के राग अने पुद्गलनी जे क्रिया थाय ते मारी नथी. आवो जेने क्षणेक्षणे विवेक वर्ते छे ते ज्ञानीने जे सम्यग्ज्ञाननी पर्याय प्रगट थई ते ज्ञानावरणीय कर्मनी पर्यायने जाणे ज छे. ते ज्ञान स्वतः पोताथी स्वपरने जाणतुं प्रगट थयुं छे, कर्मनी पर्यायनी तेने अपेक्षा नथी. आ रीते ज्ञानी ज्ञाननो ज कर्ता छे.

ज्ञानावरणीय कर्म छ प्रकारना भावथी बंधाय छे. ज्ञानमां अंतराय करवी, मात्सर्य, प्रदोष, निन्हव, आसादन, उपघात-एम छ प्रकारना भावना निमित्ते ज्ञानावरणीय कर्म बंधाय छे. आ छ प्रकारना भावनो अज्ञानी कर्ता थाय छे. तेथी ज्ञानावरणीयना बंधमां आ अज्ञानीना विकारीभावने निमित्तकर्ता कहेवामां आवे छे. परंतु ज्ञानीने तो आस्रव तत्त्व, अजीव तत्त्व अने निज ज्ञायकतत्त्वनुं भेदज्ञान थयुं छे. माटे ज्ञानी रागनो कर्ता नथी. भेदज्ञाननो उदय थवाथी रागथी भिन्न हुं ज्ञायकतत्त्व छुं एम धर्मी जीव जाणे छे. धर्मीने रागथी भिन्न ज्ञायकतत्त्वनुं जे ज्ञान थयुं ते स्वपरप्रकाशक ज्ञान पोताथी प्रगट थयुं छे अने राग अने जडनी दशा तेमां निमित्तमात्र कहेवामां आवे छे.

आ दशलक्षणी पर्वना दश दिवस वीतरागभावनी विशेष आराधनाना दिवस छे. वीतरागभावनी आराधना कयारे थाय? के रागथी भिन्न शुद्ध चैतन्यस्वभावमय भगवान आत्मानुं भान थाय त्यारे. अहीं कहे छे-एवा आत्मज्ञ पुरुषने जे स्वपरप्रकाशक ज्ञान प्रगट थाय छे ते पोताथी थाय छे अने तेमां राग अने परवस्तु निमित्त छे. परंतु निमित्त छे तो तेनुं ज्ञान थाय छे एम नथी. दया, दान, व्रत आदि विकल्प राग छे, आस्रव छे. आस्रवथी आत्मतत्त्व भिन्न छे. आवुं सम्यग्ज्ञान प्रगट थाय तेने आ आस्रव छे, राग छे एवुं ज्ञान पोताथी पोतामां थाय छे त्यारे ते ज्ञानमां राग निमित्त कहेवामां आवे छे.

दयानो भाव छे ते शुभराग छे, विकार छे. ते भावना काळे जे शाता वेदनीय-कर्म बंधाय ते जडनी पर्याय छे अने ते जडथी थाय छे. अनुकंपानो भाव अने आत्मा-बंनेने जे एक माने छे एवा अज्ञानी मिथ्याद्रष्टिनो अनुकंपानो भाव शातावेदनीय कर्म जे पोताथी बंधाय छे तेनो निमित्तकर्ता छे. परंतु दयाना रागथी पोतानो ज्ञायक भगवान भिन्न छे एवुं भेदज्ञान जेने प्रगट थयुं छे एवो धर्मी जीव दयाना रागने


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करतो नथी, जाणे ज छे. पोताने-स्वने अने रागने-परने जाणतुं स्वपरप्रकाशक ज्ञान तेने पोताथी प्रगट थाय छे अने त्यारे राग तेमां निमित्त छे.

जुओ, सर्व तत्त्व भिन्न भिन्न छे. -शातावेदनीय कर्म जे बंधाय छे ते जड पुद्गलनी पर्याय छे. ए अजीव तत्त्व छे. -दया, दान आदि अनुकंपानो राग थाय ते विकारी भाव आस्रव तत्त्व छे. -रागथी भिन्न भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यमय ज्ञायकतत्त्व छे ते जीवतत्त्व छे. -रागथी भिन्न आत्मानुं जेने भान नथी ते रागनो कर्ता थाय छे. ते राग अने

आत्माने अभिन्न एक माननार मिथ्याद्रष्टि मूढ जीव छे.

-राग अने आत्माने जेणे एक मान्या छे ते अज्ञानीनो शुभराग, ते समये

शातावेदनीय कर्म जे बंधाय तेमां निमित्त होय छे तेथी अज्ञानीना ते शुभरागने
तेनो (जडकर्मनो) निमित्तकर्ता कहेवामां आवे छे.

-ज्ञानीने स्वभावनी द्रष्टि थई छे. कर्मबंध अजीवतत्त्व छे, राग आस्रव तत्त्व छे अने

पोते एनाथी भिन्न ज्ञायकतत्त्व छे एम तेने भेदज्ञान प्रगट होवाथी ते सर्वने
भिन्न भिन्न जाणे छे. तेथी ते रागनो कर्ता नथी पण ज्ञाता ज छे अने तेना
ज्ञानमां राग अने जड कर्मनी पर्याय निमित्त थाय छे.

अहो! आचार्यदेवे गजब वात करी छे. ३२-३३ गाथामां सोळ बोल हता. अहीं कर्मना आठ बोल वधारे छे; २४ बोल छे. भाई! शांतिथी समजवुं. केटलाक राड पाडे छे के ‘एकान्त छे, एकान्त छे;’ अरे भाई! आ चीज शुं छे तेनी तने खबर नथी. आ एकान्त छे पण सम्यक् एकान्त छे.

‘वळी एवी ज रीते ‘‘ज्ञानावरण’’ पद पलटीने कर्म-सूत्रनुं (कर्मनी गाथानुं) विभाग पाडीने कथन करवाथी दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र अने अंतरायनां सात सूत्रो तथा तेमनी साथे मोह, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना अने स्पर्शननां सोळ सूत्रो व्याख्यानरूप करवां अने आ उपदेशथी बीजा पण विचारवां.’

‘दर्शनावरणीय’ नामनी एक जडकर्मनी प्रकृति छे. परमाणुमां ते समये ते प्रकृति थवानी योग्यताथी ते पर्याय थई छे. ते समये दर्शनदोष पोतामां उत्पन्न करी तेनो जे कर्ता थाय छे ते दर्शनदोष अने आत्माने एक माने छे. ते दर्शनदोष दर्शनावरणीय कर्मना बंधमां निमित्तकर्ता कहेवामां आवे छे.

धर्मी जीव सात तत्त्वने भिन्न भिन्न जाणे छे. अजीव, आस्रव अने आत्मा त्रणेने भिन्न भिन्न जाणे छे. अहीं त्रणनी मुख्य वात छे. ज्ञानीने राग अने परथी हुं भिन्न ज्ञायक तत्त्व छुं एम भेदज्ञान थयुं छे. राग अने पर अजीव पदार्थ हुं नहि; हुं तो ज्ञाताद्रष्टा छुं. आवा ज्ञाताद्रष्टाना ज्ञानपरिणमनमां राग अने दर्शनावरणीय कर्म निमित्त छे.


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रमकडानो मोटो वेपारी होय तो लोको कहे के आ रमकडानो राजा छे. अहीं कहे छे- भगवान! तुं ज्ञाताद्रष्टास्वरूप चैतन्यराजा छो. रागनो पण तुं राजा नहि तो रमकडाना राजानी वात कयां रही? जुओ, आचार्यदेव स्वतत्त्व अने परतत्त्वनी भिन्नता बतावी भेदज्ञान करावे छे. रागना भावने पोताना स्वपरप्रकाशक ज्ञानमां जाणनार भेदज्ञानी जीव रागनो र्क्ता नथी, ज्ञाताद्रष्टा ज छे. विकल्प छे ते राग छे अने हुं ज्ञायक छुं एम भेदज्ञाननी करवतथी बन्नेने ज्ञानीए भिन्न पाडी दीधा छे. ते ज्ञानीना ज्ञानमां राग अने रागना निमित्ते बंधातुं कर्म निमित्तमात्र छे.

अज्ञानी रागनो स्वामी थाय छे. तेनो ते राग नवा कर्मबंधनमां निमित्त थाय छे. लोको माने छे के व्यवहारथी धर्म थाय. तेने कहे छे के-प्रभु! तुं सांभळ तो खरो. व्यवहार तो ज्ञानमां परज्ञेयपणे जणाय छे. तेनाथी धर्म केम थाय? महाव्रतादि व्यवहाररत्नत्रयना परिणाम ज्ञानीना स्वपरप्रकाशक ज्ञानमां परज्ञेयपणे निमित्तमात्र छे. एनाथी निश्चय धर्म केम प्रगटे? न प्रगटे. आत्मा ज्ञानस्वरूप छे. पोताना ज्ञानस्वरूपनुं ज्यां भान थयुं त्यां ज्ञाननी पर्याय पोताथी प्रगट थई. ते समये ज्ञानीने राग भले आव्यो; ते राग अने जे नवुं कर्मबंधन थयुं तेने ज्ञानी जाणे ज छे, करतो नथी. ते राग अने कर्मनी पर्याय ज्ञानीना ज्ञानमां निमित्तमात्र छे.

वेदनीयकर्मनी जड प्रकृतिनो कर्ता जडकर्म छे. शातावेदनीय कर्म बंधाय ते परमाणुनी तत्कालिन योग्यता अने उत्पत्ति काळ छे. शुभराग थयो माटे शातावेदनीय कर्म बंधायुं छे एम नथी. ते काळे ज्ञानी राग अने कर्मथी पोताने भिन्न जाणे छे. ज्ञानीने जे स्वपरप्रकाशक ज्ञाननी पर्याय प्रगट थाय तेमां शुभराग अने शातावेदनीय कर्म निमित्त कहेवामां आवे छे.

परने दुःख देवानो जे भाव थयो ते भावना निमित्ते अशातावेदनीय कर्म बंधाय छे. ते भाव आस्रव छे. आस्रव अने आत्माने एक माने ते अज्ञानीना परिणाम अशातावेदनीयना बंधमां निमित्त छे.

प्रथम स्वर्ग-सौधर्मस्वर्गमां ३२ लाख विमान छे. तेनो इन्द्र अने इन्द्राणी शची बन्ने समकिती छे. तेओ एक भव करीने मोक्ष जवानां छे. ते जाणे छे के आ ३२ लाख विमान छे ते परद्रव्य छे. देवना वैभव प्रति लक्ष जतां राग थाय ते आस्रव छे. परंतु ते ज्ञानी छे; तो जे राग आव्यो तेने जाणे ज छे. पोताने जे स्वपरप्रकाशक ज्ञान पोताथी उत्पन्न थयुं छे ते ज्ञानमां राग अने परद्रव्य परज्ञेयपणे मात्र जणाय छे. तो राग अने परद्रव्य ज्ञानमां निमित्त छे एम कहेवामां आवे छे. अहा! उपादान अने निमित्तनुं स्वरूप तो जुओ! बन्ने तद्न स्वतंत्र छे.

अग्निथी पाणी ऊनुं थयुं अने कुंभारे घडो कर्यो एम माननार मूढ मिथ्याद्रष्टि छे केमके तेओ राग अने परद्रव्यने पोतानाथी एकपणे माने छे.


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प्रश्नः– तो शुं चोखा पाके छे ते गरम पाणीथी पाके छे के नहि?

उत्तरः– भाई! गरम पाणीमां चोखा पाके छे ते गरम पाणीथी पाके छे एम नथी. ते चोखा पोताथी पाके छे. चोखानी पाकेली अवस्था पोताथी थई छे, पाणीथी थई छे ए वात त्रणकाळमां नथी. पाणी भिन्न छे, चोखा भिन्न छे. परद्रव्यनी पर्याय बीजुं परद्रव्य करी शके ज नहि आवो सिद्धांत छे.

ज्ञानीने राग आवे छे ते काळे भेदज्ञान करवुं पडतुं नथी. भेदज्ञान सहज ज होय छे. राग अने अजीवनी क्रिया थाय ते काळे सहजपणे भेदज्ञान होय छे. रागनुं अने कर्मबंधनुं ज्ञान पोताथी सहज थाय छे, कर्म अने राग छे तो ज्ञाननी पर्याय उत्पन्न थाय छे एम नथी.

मोहनीय कर्मनी एक जड प्रकृति छे. चारित्रमोहनीयनी पर्यायनी अहीं वात छे. ज्ञानीने दर्शनमोहनीयनी पर्याय होती नथी. नवुं चारित्रमोहनीय कर्म बंधाय तेमां राग द्वेष निमित्त छे. अज्ञानीना राग-द्वेष नवा कर्मबंधनमां निमित्त कहेवाय छे. ज्ञानीने तो जे राग थाय अने जे चारित्रमोहनीय कर्म बंधाय तेनुं ते समये स्वपरप्रकाशक ज्ञान सहज पोताथी थाय छे. तेने ते राग अने कर्मबंधननी पर्याय ज्ञानमां निमित्त थाय छे.

भाई! तत्त्वोनी स्थिति स्वतंत्र छे. राग कर्यो माटे कर्मने बंधावुं पडयुं एम नथी. कर्म बंधाय ए तो अजीव तत्त्व छे. अजीवनी पर्याय अजीवथी थाय छे. अने परद्रव्य प्रत्ये सावधानीनो जे राग छे ते आस्रव छे, दोष छे. ते दोषनो कर्ता थाय ते अज्ञानी छे. तेनो राग चारित्रमोहनीय कर्म बंधाय तेनो निमित्तकर्ता छे. ज्ञानी तो ते दोष अने चारित्रमोहनीय बंधननी पर्यायना ज्ञाता ज छे. तेना ज्ञानमां ते दोष अने जडकर्मनी पर्याय निमित्त कहेवामां आवे छे. आवी उपादान निमित्तनी स्वतंत्रता छे.

निमित्त, उपादान, निश्चय, व्यवहार अने क्रमबद्ध आ पांच विषयमां वर्तमानमां खूब वांधा उठया छे. ‘क्रमबद्ध मानीए तो पुरुषार्थ उडी जाय’ एम केटलाक माने छे पण एमने वस्तुना स्वरूपनी खबर नथी. अरे भाई! क्रमबद्धनो साचो निर्णय करवामां तो अनंत पुरुषार्थ रहेलो छे. संप्रदायमां केटलाक एवुं माने छे के-‘‘केवळी भगवाने जे दीठुं छे तेम थशे; एमां आपणे शुं करी शकीए?’’ तेने पूछीए छीए के-भगवाने जे दीठुं छे तेम थशे ए तो बराबर छे पण केवळी भगवान एक समयमां त्रणकाळ त्रणलोकने जाणे छे एवी ज्ञाननी पर्यायनी जगतमां सत्ता छे एनो स्वीकार तने थयो छे? पोताना ज्ञायकस्वभाव प्रति झुकया सिवाय त्रणकाळ त्रणलोकने एक समयमां जाणनार केवळज्ञाननी सत्तानो स्वीकार थई शक्तो नथी. आवो स्वीकार करवा जाय त्यां पांचेय समवाय सिद्ध थई जाय छे, अने तेमां पुरुषार्थ पण आवी जाय छे.

आत्मामां अनंत गुणो छे. तेमां ज्ञानगुणनी एक समयनी एक पर्यायमां त्रिकाळी द्रव्य, त्रिकाळी गुणो अने तेनी त्रणकाळनी पर्यायोने तथा लोकालोकनी द्रव्य-गुणसहित


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त्रणकाळनी पर्यायोने जाणे तेवुं अचिंत्य सामर्थ्य छे. आवी पर्यायनी सत्तानो स्वीकार अंतरंगमां सर्वज्ञस्वभाव जे पडयो छे तेनुं लक्ष कर्या विना थई शकतो नथी अने आवी पर्यायनी सत्ताना स्वीकार विना भगवाने जे दीठुं तेम थशे एम केवी रीते यथार्थ कही शकाय? प्रवचनसार गाथामां पण एम कह्युं छे के-जे अरिहंत भगवानना द्रव्य-गुण-पर्यायने जाणे ते पोताना आत्माने जाणे छे अने तेनो मोह क्षय पामे छे.

अरिहंत परमात्मानी केवळज्ञाननी पर्यायनुं अद्भुत अचिंत्य सामर्थ्य छे ते एक समयनी पर्यायमां त्रिकाळवर्ती अनंता सिद्धो सहित आखा लोकालोकने जाणवानुं सामर्थ्य छे. भगवानने सर्वज्ञस्वभावमां जे सामर्थ्य छे ते पर्यायमां प्रगट थयुं छे. अरे भाई! जे एक समयनी पर्यायनी आवी ताकात छे एवी अनंत अनंत पर्यायनो पिंड एक ज्ञानगुण छे. अने आवो ज्ञानगुण जे द्रव्यमां छे ए भगवान सर्वज्ञस्वभावी आत्मानी द्रष्टि थतां सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. त्यारे सर्वज्ञस्वभावनी प्रतीति थतां सर्वज्ञनी प्रतीति थाय छे अने एनुं ज नाम पुरुषार्थ छे. पुरुषार्थ कोई बीजी चीज नथी.

अहीं कहे छे-ज्ञानीने राग अने कर्मथी भिन्न पोताना आत्मानुं ज्ञान छे. ते ज्ञानमां रति-अरति आदि परिणाम अने चारित्रमोहनीयकर्मनी पर्याय निमित्त छे. ज्ञानी तेने जाणे छे, करता नथी. आत्मामां चारित्रगुण छे. आवा अनंतगुणनो पिंड प्रभु आत्मा छे. तेमां लीनता- रमणता करवी ते चारित्र छे. आवा चारित्रवंत ज्ञानी जे रतिना परिणाम थाय तेने जाणे ज छे, तेना कर्ता नथी. ज्ञानमां ते रतिना परिणाम निमित्तमात्र छे. अहाहा...! आचार्यदेवे गजब वात करी छे! उपादान अने निमित्तनी स्वतंत्रतानी केवी बलिहारी छे! बनारसीविलासमां आवे छे के-

‘उपादान बल जहां तहां, नहि निमित्तको दाव.’

प्रत्येक द्रव्यनी पर्याय पोताथी स्वतंत्र उत्पन्न थाय छे, तेमां निमित्तनो कांई दाव नथी. (मतलब के निमित्त कांई करतुं नथी).

आयुष्य नामनुं जड कर्म छे. ते परमाणुनी पर्याय छे. आयुष्यनो बंध थवामां जे भाव निमित्त थाय ते भावनो कर्ता थनार अज्ञानी छे. तेनो ते भाव आयुकर्मना बंधनी पर्यायमां निमित्तकर्ता कहेवामां आवे छे.

ज्ञानीने आयुकर्म अने जे भावथी आयुकर्म बंधाय ते भाव-ए बन्नेथी हुं भिन्न छुं एवुं ज्ञान थाय छे अने ते ज्ञानमां आयुकर्म अने तेे भाव निमित्त कहेवाय छे.

समकितीने देव अने मनुष्य-ए बे गतिना आयुनो बंध पडे छे, तिर्यंच अने नरकगतिना आयुष्यनो बंध पडतो नथी. मनुष्य समकितीने देवनुं आयुष्य बंधाय छे अने देवमां होय तेने मनुष्यनुं आयुष्य बंधाय छे. आ आयुष्यकर्म परमाणुनी पर्याय छे. ते समये जे विकारनो परिणाम थाय ते परिणामनो ज्ञानी ज्ञाता ज छे. ते समये


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ज्ञाननी जे स्वपरप्रकाशक पर्याय पोताथी प्रगटी तेमां आयुष्य कर्म अने तेना निमित्तरूप भावने ज्ञानी जाणे छे, तेनो कर्ता नथी. भाई! तारुं स्वरूप तो ज्ञान छे अने ज्ञान-स्वभावथी स्वपरप्रकाशक छे. माटे ज्ञान स्व अने परने जेम छे तेम जाणे छे. जाणवा सिवाय ते बीजुं शुं करे? जेम कागळमां लखे छे के-थोडुं लख्युं घणुं करीने मानजो तेम संतो कहे छे के-भाई! आ थोडुं लख्युं घणुं करीने मानजो. (मतलब के तेनो विस्तार यथार्थ भावे समजजो.)

तत्त्वार्थसूत्रमां सूत्र छे के-‘उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तम् सत्’ आ द्रव्यनुं लक्षण छे. उत्पाद थाय छे ते पोतानी पर्यायमां पोताथी थाय छे. दया, दान, व्रत आदिना परिणाम ते आस्रव छे. ते परिणाम पोताथी उत्पन्न थाय छे; तेमां जड कर्म निमित्त छे पण निमित्तथी ते परिणाम उत्पन्न थाय छे एम नथी. जडकर्म ते कर्ता अने आस्रव तेनुं व्याप्य कर्म एम छे नहि.

अहीं आ गाथाना एक बोलमां निमित्त, उपादान, निश्चय, व्यवहार-ए पांचेयना खुलासा आवी जाय छे. १. शातावेदनीय कर्मनो बंध थयो त्यां ते पर्याय तेना स्वकाळे थई छे. ते काळे जे शुभभाव

आव्यो ते तेना स्वकाळे उत्पन्न थयो छे. आ प्रमाणे क्रमबद्ध सिद्ध थयुं.

२. ज्ञानीने ते राग अने कर्मबंधन ज्ञानमां ते काळे निमित्त छे. आ निमित्त सिद्ध थयुं. ३. ते काळे स्वपरप्रकाशक ज्ञाननी पर्याय पोताथी प्रगट थई छे, निमित्तथी नहि. आ उपादान

सिद्ध थयुं.

४. जे राग आव्यो ते अशुचि छे, जड छे, दुःखरूप छे, ते रागने ज्ञान जाणे छे. आ व्यवहार

सिद्ध थयो.

प. अने ते वखते ज्ञान स्वने जाणे छे ते निश्चय सिद्ध थयो. आ रीते व्यवहारथी निश्चय

थाय ए वात उडी गई. निमित्तथी उपादाननुं कार्य थाय ए वात पण उडी गई. पर्याय
क्रमबद्ध थाय छे माटे अक्रमे-आडुं अवळुं थाय ए वात पण उडी गई. आम पांचे वातनुं
आ गाथामां स्पष्टीकरण आवी जाय छे.

अहाहा...! हुं तो ज्ञायकमूर्ति चैतन्यज्योतिस्वरूप प्रभु ज्ञानना प्रकाशना नूरनुं पूर छुं.

आवुं स्वरूपना लक्षे ज्ञान थतां ते काळे जे जातना रागपरिणाम थाय तेने ते काळे धर्मी जाणे छे. रागसंबंधीनुं ज्ञान अने स्वस्वरूपनुं ज्ञान ज्ञानमां व्याप्त थईने प्रगट थाय छे. ज्ञानी ते ज्ञाननो कर्ता छे पण राग अने ते काळे थता कर्मबंधनो कर्ता नथी. राग अने कर्मबंधनी दशा तो पोताथी उत्पन्न थयेला स्वपरप्रकाशक ज्ञानमां निमित्तमात्र छे.


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भाई! आ तो भगवाननां लोजीक अने कायदा छे. आ समज्या विना धर्म नहि थाय. केवळज्ञाननी एक समयनी पर्याय लोकालोकने जाणे छे अने पोताना स्वद्रव्यने जाणे छे. परंतु ते पर्याय स्वद्रव्यमां प्रवेश करीने स्वने जाणती नथी तथा ते पर्याय लोकालोकने स्पर्श करीने लोकालोकने जाणती नथी. आवी ज्ञाननी एक पर्यायनी ताकात छे. तेवी रीते श्रद्धा, चारित्र इत्यादि अनंतगुणनी पर्यायनी ताकात छे. ज्ञाननी भविष्यनी अनंती पर्यायो ज्ञानगुणमां शक्तिरूपे पडी छे. आवा अनंतगुणनो पिंड प्रभु आत्मा छे. तेनी निर्मळ निर्विकल्प प्रतीति ते सम्यग्दर्शन छे. आ सम्यग्दर्शन अलौकिक चीज छे भाई! आ समकितनी पर्यायमां स्वनी अने परनी, समस्त लोकालोकनी यथार्थ प्रतीति समाई जाय छे. अहो! आ १०१ मी गाथामां ज्ञानानंदनो दरियो उछाळ्‌यो छे! अनंतगुणनो पिंड प्रभु आत्मा निज स्वज्ञेयनुं ज्ञान करी प्रतीति करे ते प्रतीतिनो महिमा अपरंपार छे. आवी प्रतीति थया विना जेटलां पण व्रत, तप आदि करे ते एकडा विनानां मीडां जेवां छे.

अरे भाई! अनंत गुणनो पिंड प्रभु आत्मा छे. तेनी निर्विकल्प प्रतीति करवी ए प्रथम करवा योग्य छे. समकित विना चारित्र होतुं नथी. सम्यग्दर्शन विनानां व्रत-तपने बाळव्रत अने बाळतप एटले मूर्खाई भरेलां मिथ्या व्रत-तप कह्यां छे. प्रभु! सांभळतो खरो नाथ! तारा घरनी चीज शुं छे तेनी तने खबर नथी. भजनमां श्री दोलतरामे कह्युं छे के-

‘हम तो कबहुँ न निजघर आये,
पर घर फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक धराये....हम तो.’

निजानंदस्वरूप निजघरने छोडीने भगवान! तें राग, निमित्त अने पुण्यना घरमां प्रवेश कर्यो छे. त्यांथी निजघरमां आववुं ते भवनो अंत करवानो निर्ग्रंथनो मार्ग छे. रागनी ग्रंथिथी भिन्न पडीने पूर्णानंदना नाथनो अनुभव करवो, तेनी प्रतीति-श्रद्धा करवी एनुं नाम निर्ग्रंथदशा छे. छठ्ठा गुणस्थाने जे निर्ग्रंथदशा छे ए तो कोई अलौकिक दशा छे, बापु!

जेम रूनां धोकडां होय छे तेमां रू बधे ठांसीठांसीने भर्युं छे. तेम भगवान आत्मा ज्ञाननुं धोकडुं, आनंदनुं धोकडुं-ज्ञानानंदस्वरूप गांसडी छे. रागथी भिन्न पडीने जेणे पोताना शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावनुं वेदन कर्युं ते समकिती धर्मी छे. आवा धर्मी जीवने हजु अपूर्णता छे तो राग आव्या विना रहेतो नथी. दया, दाननो शुभराग आवे छे अने कदीक अशुभराग पण आवे छे. जे जातना रागादि अने वासनाना परिणाम थाय ते प्रकारे आत्मा स्वना अने रागादिना ज्ञानपणे स्वतः परिणमे छे. धर्मीने ज्ञाताद्रष्टाना परिणमनमां जे रागादिनुं ज्ञान थाय छे ते ज्ञान पोताथी थाय छे. ते ज्ञानमां रागादि


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भाव अने कर्मबंधन निमित्त कहेवामां आवे छे. धर्मी जीव रागनो कर्ता नथी. ए तो रागना काळे पण पोताना अने परना ज्ञानपणे परिणमतो एवो ज्ञाननो ज कर्ता छे.

अरे! जीव नवमी ग्रैवेयक पण अनंतवार गयो छे अने नरक-निगोदना भाव पण अनंत अनंत कर्या छे. निगोदमां जे एक श्वासमां अढार भव कर्या छे ते मिथ्या-दर्शननुं फळ छे. राग अने अजीव भिन्न चीज छे छतां ते पोतानी चीज छे अने तेनाथी लाभ थाय एवुं माने ते मिथ्यादर्शन छे. ते मिथ्यात्वना कारणे जीवे नरक-निगोदना अनंता भव कर्या छे. भाई! जगतने विश्वास बेसे न बेसे पण चीज कांई फरी जाय एम नथी. अहीं कहे छे के सम्यग्द्रष्टि जीव दया, दान आदि विकल्पना कर्ता नथी, ज्ञाता ज छे. तेवा जीवने पूर्ण वीतरागता थई नथी तो आयुष्यकर्मनी प्रकृति बंधाय छे. सम्यग्द्रष्टि मनुष्यने स्वर्गना आयुनो बंध थाय छे. त्यां आयुष्यना परमाणु बंधाय ते परमाणुना कारणे बंधाय छे. ते समये धर्मीने जे राग आवे छे ते राग अने आयुकर्मनो बंध ते ज्ञानीना ज्ञानमां निमित्त छे. गोरसनुं द्रष्टांत आपीने आचार्यदेवे वस्तुस्वरूप अत्यंत स्पष्ट करी दीधुं छे. ज्ञानीने राग होय ते काळे आयुष्यनो बंध पडे छे. ते अजीवनी पर्याय अजीवथी थाय छे. धर्मी जीव राग अने आयुकर्मनी पर्यायना ज्ञाता ज छे, कर्ता नथी. ज्ञानी तो स्वपरप्रकाशक पोताना ज्ञानमां व्यापीने स्वपरने मात्र जाणे ज छे.

समकिती के साधु जे आत्मज्ञानी धर्मात्मा छे ते आ पंचकाळमां स्वर्गमां ज जाय छे. स्वर्गना आयुष्यनी जे प्रकृति बंधाय छे ते तो परमाणुनी योग्यताथी बंधाय छे. ते काळे जे राग आव्यो तेने आयुना बंधमां निमित्त कहेवामां आवे छे. धर्मी जीवने जे आयुष्य बंधाय अने ते काळे जे राग होय तेनुं ज्ञान होय छे. जीवनो ज्ञानदर्शनस्वभाव छे. ते स्वभावनी जेने द्रष्टि थई छे ते धर्मी जीव राग अने कर्मबंधन थाय तेना ज्ञाताद्रष्टा छे.

स्वर्गमां समकिती होय तेने मनुष्यना आयुनो बंध पडे छे. मिथ्याद्रष्टि जीव तो स्वर्गमांथी नीकळी तिर्यंचगतिमां पण जाय छे, एकेन्द्रियमां पण जाय छे. जे जीव रागने अने पोताने एक करे छे ते मिथ्याद्रष्टि अज्ञानी एकेन्द्रियमां लीलोतरीमां पण चाल्यो जाय छे.

खाणमां-पृथ्वीमां एक कणमां असंख्य जीव छे. पाणीना एक बिंदुमां असंख्यजीव छे, लीमडाना एक पत्तामां असंख्य जीव छे. लीमडाना पत्तामां असंख्य शरीर छे अने एक एक शरीरमां एक एक जीव छे. लसणनी एक कटकीमां असंख्य शरीर छे अने प्रत्येक शरीरमां अनंतानंत जीव छे.


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भाई! आत्माना भान विना व्रत, तप, भक्ति आदिना परिणाम करे तो जीव स्वर्गमां जाय छे. त्यां पण आत्मानुं भान नहि होवाथी आयुनो बंध पडतां कोई मनुष्यमां तो कोई पशुमां जाय छे, तथा कोई एकेन्द्रियमां पण चाल्या जाय छे. दोलतरामजीए कह्युं छे ने के-

‘जो विमानवासी हू थाय, सम्यग्दर्शन बिन दुःख पाय;
तहैंतै चय थावर तन धरे, यों परिवर्तन पूरे करै.’

अज्ञानी जडनी क्रिया अने रागनो कर्ता थाय छे. ज्ञानी रागनो अने कर्मबंधननी क्रियानो कर्ता नथी, ज्ञाता ज छे.

आठमो नंदीश्वरद्वीप छे. तेमां बावन जिनालयनी रचना छे. प्रत्येक जिनालयमां १०८ रतननी प्रतिमाओ शोभायमान छे. त्यां अष्टान्हिका पर्वमां इन्द्र अने इन्द्राणी दर्शन-पूजा आदि करवा माटे जाय छे अने महा महोत्सव उजवे छे. खूब प्रसन्नचित्त थईने नाचे पण छे. पण समकिती छे ने? जे राग भक्तिनो आवे ते रागना अने नृत्य आदि बाह्य क्रियाना ते कर्ता नथी, ज्ञाताद्रष्टा ज छे. अज्ञानी तो रागनो कर्ता थाय छे अने बहारनी शरीरनी जे क्रिया थाय ते हुं करुं छुं एम मानीने मिथ्यात्वनुं सेवन करे छे. खूब गंभीर वात छे भाई!

श्रेणीक राजा क्षायिक समकिती हता. तीर्थंकरगोत्र बांध्युं छे. हमणां प्रथम नरकमां गयेला छे. अहीं हता त्यारे भगवानना समोसरणमां गया हता. त्यां राग आव्यो अने तीर्थंकरगोत्र बंधाई गयुं. परंतु तेना तेओ ज्ञाता छे, कर्ता नथी. त्यां नरकमां छ मासनुं आयुष्य बाकी रहेशे त्यारे मनुष्यगतिना आयुनो बंध थशे. हमणां पण प्रतिसमय तीर्थंकरगोत्र बंधाय छे. परंतु धर्मी जीव राग अने कर्मबंधनी पर्यायना ज्ञाता ज छे. आवती चोवीसीमां प्रथम तीर्थंकर थशे. हमणां व्रत, तप, चारित्र नथी पण स्वानुभवनी दशा थयेली छे. तेमने रागनी मंदताना काळमां मनुष्यना आयुनो बंध पडशे. समकितीने अशुभभाव पण आवे छे. परंतु अशुभना काळमां तेने आयुनो बंध पडतो नथी. सम्यग्द्रष्टिने शुभरागना काळमां आयुष्यनो बंध पडे छे. आवी सम्यग्दर्शननी बलिहारी छे! बापु! सम्यग्दर्शन शुं चीज छे एना महिमानी लोकोने खबर नथी.

अहो! भावलिंगी मुनिवरोए गजब काम कर्यां छे. अंतमुहूर्तमां तेमने छठ्ठुं अने सातमुं गुणस्थान आवे छे. छठ्ठे विकल्प उठे छे अने क्षणभरमां विकल्प तोडीने अप्रमत्तदशामां आवे छे. आवा भावलिंगी दिगंबर संतोने ज्यारे छठ्ठा गुणस्थाने शुभभाव आवे छे त्यारे आगामी आयुनो बंध पडे छे. धर्मी जीव ते शुभभाव अने जे आयुकर्म बंधाय तेने जाणे ज छे, करता नथी. स्वने जाणतां परनुं-रागनुं ज्ञान पोताथी थाय छे. ज्ञाननी पर्याय तो निज उपादानथी उत्पन्न थाय छे. एमां राग अने पर कर्म निमित्त कहेवामां आवे छे.


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समकिती नारकी होय के देव होय, ते मनुष्यगतिमां आवे छे. अने मिथ्याद्रष्टि नारकीनो जीव होय ते कोई मनुष्यमां आवे छे तो कोई तिर्यंचमां जाय छे. अज्ञानीने जे राग थयो अने कर्मबंधन थयुं ते रागनो ते कर्ता थाय छे. अज्ञानी रागने पोतानुं कर्तव्य माने छे. पण भाई! वस्तु तो ज्ञानदर्शनस्वरूप छे, तेनुं राग कर्तव्य केम होई शके?

मिथ्याद्रष्टि देव होय तेमां आठमा स्वर्ग सुधीना कोई देवने तिर्यंचगतिना आयुष्यनो बंध थाय छे. सम्यग्दर्शन विना व्रत-तपना परिणामथी कोई मिथ्याद्रष्टि बीजा स्वर्गे गयो होय त्यांथी कोई एकेन्द्रियमां जन्मे छे. अरे! सम्यग्दर्शन अने मिथ्यादर्शनमां केटलो फरक छे तेनी लोकोने खबर नथी. बाह्य त्यागनो महिमा करे पण सम्यग्दर्शनना अचिंत्य महिमानी तेने खबर नथी.

अढीद्वीप बहार असंख्य सम्यग्द्रष्टि तिर्यंच छे. आखरनो स्वयंभूरमण समुद्र छे. तेमां हजार जोजन एटले चार हजार गाउ लांबा शरीरवाळा मच्छ छे. तेमां कोई पंचमगुणस्थानवर्ती छे. स्वानुभवनी दशा प्राप्त थवाथी अंदर शांति अने आनंद अनुभवे छे. एवा असंख्य तिर्यंचो छे, श्रावक-श्राविकाओ छे. असंख्य मिथ्याद्रष्टिनुं प्रमाण छे तोपण समकिती असंख्य छे. तेने शुभरागना काळमां देवगतिना आयुष्यनो बंध पडशे. मनुष्यगतिनुं आयुष्य तेने बंधातुं नथी. परंतु आयुष्यबंधना कारणरूप जे राग छे तेना ए कर्ता नथी, ज्ञाताद्रष्टा छे. जे कर्म बंधाय तेना पण ज्ञाता ज छे, कर्ता नथी.

कर्मनी १४८ प्रकृति छे. धर्मी कहे छे के ते कर्मना फळने हुं भोगवतो नथी. मूळ प्रकृति ज्ञानावरणादि आठ छे. तेना भेद १४८ छे. तेनो जे उदयभाव छे तेने धर्मी कहे छे के हुं भोगवतो नथी; हुं तो मात्र ज्ञाताद्रष्टा थईने ज्ञानने भोगवनारो छुं.

अहो! आ समयसार भारतनुं अद्वितीय चक्षु छे. समयसार बे छे-एक शब्द समयसार शास्त्र शब्दब्रह्म छे अने बीजो ज्ञानसमयसार भगवान आत्मा चिद्ब्रह्म. त्रणलोकनो नाथ चैतन्यबिंब प्रभु ज्ञानसमयसार छे अने शब्दसमयसार तेने बतावे छे, निरूपे छे. तथापि शब्दसमयसारमां ज्ञानसमयसार नथी अने ज्ञानसमयसारमां शब्द समयसार नथी. भगवाननी ॐध्वनिथी ॐस्वरूप भगवान आत्मा भिन्न छे. आवुं जेने भान थयुं छे ते सम्यग्द्रष्टि छे. खूब सूक्ष्म वात भाई! अहीं कहे छे के भगवाननी ॐध्वनि सांभळवाना रागनो सम्यग्द्रष्टि कर्ता नथी, मात्र ज्ञाता ज छे. अहो! आ तो अलौकिक वात छे! ज्ञानी राग अने बंधनो जाणनार छे, करनार नथी.

हवे नामकर्मनी प्रकृतिनी वात करे छे. आठ कर्ममां एक नामकर्म छे. तेनी प्रकृतिना पेटाभेद ९३ छे. समकितीने तीर्थंकरनामकर्मना बंधना कारणरूप षोडशकारण-


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भावनानो राग आवे छे. ते राग आस्रव अने दुःखरूप छे. भगवान आत्मा आनंदघन-स्वरूप चैतन्यमूर्ति प्रभु छे. तेनुं जेने भान थयुं छे एवा समकितीने कोईने जे वडे तीर्थंकरनामकर्म बंधाय तेवो राग आवे छे, अने तीर्थंकरनामकर्मनो तेने बंध पडे छे. परंतु ज्ञानी जीव ते विकल्प अने बंध प्रकृतिना ज्ञाताद्रष्टापणे ज परिणमे छे; तेना ए कर्ता नथी. अज्ञानीने तीर्थंकरनामकर्मना कारणरूप शुभभाव आवतो ज नथी.

नामकर्मनी ९३ प्रकृति छे. तेमां छेल्ली तीर्थंकरनामकर्मनी प्रकृति छे. जे भावे तीर्थंकरनामकर्म बंधाय ते भाव धर्म नथी. जे भावथी धर्म थाय ते भावथी बंध नहि अने जे भावथी बंध थाय ते भावथी धर्म नहि.

हवे गोत्रकर्मनी प्रकृतिनी वात करे छे. गोत्रकर्मनी प्रकृति बंधाय ए तो जड प्रकृतिनुं कार्य छे, आत्मानुं नहि. गोत्रकर्मना बे भेद छे-नीच गोत्र, उच्च गोत्र, जे शुभ, अशुभ भावथी उच्च, नीच गोत्र बंधाय ते भाव विकार छे. ए शुभाशुभ भावनो अज्ञानी कर्ता थाय छे. तेथी गोत्रकर्मनी पर्यायमां अज्ञानीना विकारी भावने निमित्तकर्ता कहेवामां आवे छे. ज्ञानी तो ते प्रकृति अने ते काळना परिणामना ज्ञाता छे, कर्ता नथी.

भगवान आत्मा ज्ञानदर्शननो पिंड प्रभु छे. एमांथी नीकळे तो ज्ञान, दर्शन अने आनंदनी पर्याय नीकळे छे. एमांथी शुं रागनी पर्याय नीकळे? ना; न नीकळे. परंतु निमित्ताधीन बनीने अज्ञानी रागनो कर्ता थाय छे अने कर्ता थतो थको ते मिथ्याद्रष्टि छे. व्रत- तप इत्यादि वडे चाहे तो स्वर्ग मळी जाय पण आत्माना भान विना ते मिथ्याद्रष्टि छे अने मिथ्यादर्शन रहे त्यां सुधी तेने संसारमां चारगतिना परिभ्रमणनुं दुःख मटतुं नथी.

अंतरायकर्म नामनुं एक जडकर्म छे. एनी दानांतराय, लाभांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय अने वीर्यांतराय-एम पांच प्रकृति छे. अंतरायनी प्रकृति बंधाय तेमां राग निमित्त छे. परंतु ज्ञानी तो जे प्रकृति बंधाय तेना अने ते काळे जे राग आव्यो तेना ज्ञाता ज छे.

आ प्रमाणे कर्मसूत्रनुं विभाग पाडीने कथन करवाथी सात सूत्रो तथा तेमनी साथे मोह, राग, द्वेष, क्रोध, मान माया, लोभ, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन अने स्पर्शननां सोळ सूत्रो व्याख्यानरूप करवां; अने आ उपदेशथी बीजा पण विचारवां.

त्रण कषायोनो जेमने अभाव छे एवा वीतरागी मुनिराज भगवान तुल्य छे. अहाहा...! साचा भावलिंगी मुनिवरोने एक सेकन्डनी निंदर होय छे. एक सेकन्डथी वधारे वखत निद्राधीन रहे तो मुनिपणुं रहेतुं नथी. आवा ज्ञानीने पर तरफ लक्ष जतां जरा रागादि आवी जाय छे. पण तेओ ते रागादि भावना कर्ता नथी, ज्ञाता छे.


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मुनिने छठ्ठा गुणस्थाने आर्त्तध्यानना परिणाम पण आवी जाय छे. पांचमा गुणस्थानवाळाने रौद्रध्यानना परिणाम पण थई जाय छे. परंतु धर्मी जीव ते सघळा रागादि परिणामना ज्ञाताद्रष्टा छे, कर्ता नथी. जे कर्म बंधाय तेना पण ज्ञाता छे, कर्ता नथी. ज्ञानीने क्रोधादि परिणाम पण थई जाय छे पण ते परिणामना ते ज्ञाता ज छे.

‘‘स्वपर प्रकासक सकति हमारी, तातैं वचन भेद भ्रम भारी;
ज्ञेय दशा दुविधा परगासी, निजरूपा पररूपा भासी.’’

ज्ञानीने क्रोध परिणाम थाय तेना ते ज्ञाता ज छे, कर्ता नथी. सम्यग्दर्शन कोई अलौकिक चीज छे भाई! जेने आनंदनो नाथ चैतन्यस्वरूप भगवान चिदानंद जागी गयो छे तेने क्रोध, मान, माया लोभना परिणाम नबळाईथी थई जाय तोपण ते एना ज्ञाताद्रष्टा छे. धर्मीने अंतरमां ज्ञान-दर्शननी प्रवाहधारा सतत चालु ज होय छे.

अज्ञानीने क्रोध, मान, माया, लोभना परिणाम थाय तेमां ते तन्मय होय छे. तेथी ते विकारनो कर्ता थाय छे. अने जे जे कर्मबंधन थाय तेमां तेना विकारी भाव निमित्तकर्ता कहेवामां आवे छे.

तेवी रीते नोकर्म, मन, वचन, काय, पांच इन्द्रियोना जे जे परिणाम थाय तेनो धर्मी ज्ञाता ज रहे छे. ज्ञानी ज्ञाननो ज कर्ता छे, राग अने जडना जे जे परिणाम थाय तेनो ते कर्ता नथी.

[प्रवचन नं. १७१ शेष, १७२ थी १७प चालु * दिनांक ३१-८-७६ थी ४-९-७६]

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अज्ञानी चापि परभावस्य न कर्ता स्यात्–

जं भावं सुहमसुहं करेदि आदा स तस्स खलु कत्ता।
तं तस्स होदि कम्मं सो तस्स दु वेदगो अप्पा।। १०२ ।।
यं भावं शुभमशुभं करोत्यात्मा स तस्य खलु कर्ता।
तत्तस्य भवति कर्म स तस्य तु वेदक आत्मा।। १०२ ।।

वळी अज्ञानी पण परद्रव्यना भावनो कर्ता नथी एम हवे कहे छेः-

जे भाव जीव करे शुभाशुभ तेहनो कर्ता खरे,
तेनुं बने ते कर्म, आत्मा तेहनो वेदक बने. १०२.

गाथार्थः– [आत्मा] आत्मा [यं] जे [शुभम् अशुभम्] शुभ के अशुभ [भावं] (पोताना) भावने [करोति] करे छे [तस्य] ते भावनो [सः] ते [खलु] खरेखर [कर्ता] र्क्ता थाय छे, [तत्] ते (भाव) [तस्य] तेनुं [कर्म] कर्म [भवति] थाय छे [सः आत्मा तु] अने ते आत्मा [तस्य] तेनो (ते भावरूप कर्मनो) [वेदकः] भोक्ता थाय छे.

टीकाः– पोतानो अचलित विज्ञानघनरूप एक स्वाद होवा छतां पण आ लोकमां जे आ आत्मा अनादि काळना अज्ञानने लीधे परना अने पोताना एकपणाना अध्यासथी मंद अने तीव्र स्वादवाळी पुद्गलकर्मना विपाकनी बे दशाओ वडे पोताना (विज्ञानघनरूप) स्वादने भेदतो थको अज्ञानरूप शुभ के अशुभ भावने करे छे, ते आत्मा ते वखते तन्मयपणे ते भावनो व्यापक होवाथी तेनो कर्ता थाय छे अने ते भाव पण ते वखते तन्मयपणे ते आत्मानुं व्याप्य होवाथी तेनुं कर्म थाय छे; वळी ते ज आत्मा ते वखते तन्मयपणे ते भावनो भावक होवाथी तेनो अनुभवनार (अर्थात् भोक्ता) थाय छे अने ते भाव पण ते वखते तन्मयपणे ते आत्मानुं भाव्य होवाथी तेनुं अनुभाव्य (अर्थात् भोग्य) थाय छे. आ रीते अज्ञानी पण परभावनो कर्ता नथी.

भावार्थः– पुद्गलकर्मनो उदय थतां, ज्ञानी तेने जाणे ज छे अर्थात् ज्ञाननो ज कर्ता थाय छे अने अज्ञानी अज्ञानने लीधे कर्मोदयना निमित्ते थता पोताना अज्ञानरूप शुभाशुभ भावोनो कर्ता थाय छे. आ रीते ज्ञानी पोताना ज्ञानरूप भावनो कर्ता छे अने अज्ञानी पोताना अज्ञानरूप भावनो कर्ता छे; परभावनो कर्ता तो ज्ञानी के अज्ञानी कोई नथी.

* * *

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वळी अज्ञानी पण परद्रव्यना भावनो कर्ता नथी एम हवे कहे छेः-

* गाथा १०२ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘पोतानो अचलित विज्ञानघनरूप एक स्वाद होवा छतां पण आ लोकमां जे आ आत्मा अनादि काळना अज्ञानने लीधे परना अने पोताना एकपणाना अध्यासथी मंद अने तीव्र स्वादवाळी पुद्गलकर्मना विपाकनी बे दशाओ वडे पोताना (विज्ञानघनरूप) स्वादने भेदतो थको अज्ञानरूप शुभ के अशुभ भावने करे छे, ते आत्मा ते वखते तन्मयपणे ते भावनो व्यापक होवाथी तेनो कर्ता थाय छे अने ते भाव पण ते वखते तन्मयपणे ते आत्मानुं व्याप्य होवाथी तेनुं कर्म थाय छे.’

आत्मानो अचलित एटले चळे नहि तेवो एक विज्ञानघनरूप स्वाद छे. परंतु एनाथी अजाण अज्ञानी तेमां बे भाग पाडे छे. तेने शुभ-अशुभ जे परिणाम थाय छे ए ज मारुं स्वरूप छे एम मानीने ते शुभाशुभभावरूप विकारना स्वादने अनुभवे छे.

दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि जे परिणाम छे ते मंद छे अने अव्रतना परिणाम तीव्र छे. ते बंने परिणाम पुद्गलनो विपाक छे, आत्मानो स्वभाव नथी. अज्ञानीने ते मंद अने तीव्र रागनो स्वाद आवे छे. भगवान आत्मा विज्ञानघन प्रभु नित्य आनंद-स्वरूप छे. तेनो स्वाद न लेतां शुभराग जे मंद परिणाम छे तेनो अज्ञानी स्वाद ले छे.

दाळ, भात, लाडु, मैसूब इत्यादिनो स्वाद जीवने आवतो नथी. पैसा-करोडोनुं धन होय तेनो पण स्वाद आवतो नथी अने स्त्रीना शरीरनो पण स्वाद आवतो नथी. ए तो बधां जड माटी-धूळ छे. परंतु पोताना विज्ञानघनस्वरूप आत्मानी द्रष्टि नहि होवाथी बहारनी सामग्रीमां अनुराग करीने जे अशुभराग उत्पन्न करे छे ते अशुभरागनो स्वाद जीव ले छे अने ते मिथ्यादर्शन छे.

पाणीनुं पुर चाल्युं जतुं होय अने वच्चे पूल आवी जाय तो पाणीना पुरना बे भाग पडी जाय छे. एम भगवान आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदना प्रवाहनुं एकरूप पुर छे. तेमां अज्ञानी पुद्गलकर्मना विपाकरूप तीव्र अने मंद रागना स्वादवाळी बे दशाओ वडे बे भाग पाडी रागनो स्वाद ले छे. धर्मीनी द्रष्टि तो आनंदघन प्रभु आत्मा उपर होय छे तेथी ते निराकुळ आनंदनो स्वाद ले छे अने एनुं नाम धर्म छे. सच्चिदानंद स्वरूप भगवान आत्माना एकरूप आनंदना स्वादने भेदीने अज्ञानी शुभाशुभ रागनो-विकारनो स्वाद ले छे ते मिथ्यादर्शन छे.

दया, दान, व्रत आदि शुभभाव अने हिंसा, जूठ, चोरी आदि अशुभभाव-ए बन्ने भाव अज्ञानभाव छे केमके आत्मानो ते स्वभाव नथी. अज्ञानी जीव घरबार, कुटुंब-परिवार, पैसा, आबरू, खावुं-पीवुं इत्यादि अशुभभावमां गुंचाई गयो छे.


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तेमांथी खसीने कदीक साधु थाय तो शुभभावमां गुंचाई जाय छे. शुभभावनी क्रियामां ते धर्म मानवा लागे छे. पहेलां अशुभभावने कर्तव्य समजतो हतो, हवे शुभभावने कर्तव्य समजे छे. परंतु भाई! शुभ अने अशुभभाव बन्ने अज्ञानरूप छे. शुभ अने अशुभभाव बन्नेमां ज्ञाननुं-चैतन्यनुं किरण नथी; बन्ने भाव अचेतन छे. दया, दान, व्रत आदिना शुभभाव अचेतन छे केमके ते चैतन्यनी जातिना नथी. ते शुभराग न पोताने जाणे छे, न निकटवर्ती भगवान आत्माने जाणे छे; तेओ तो चैतन्यद्वारा जणावा योग्य छे; माटे तेओ अचेतन छे, अज्ञानरूप छे. आ वात पहेलां गाथा ७२मां आवी गई छे.

अहीं कहे छे के आत्मा परनो कर्ता तो छे ज नहि; पण शुभ अने अशुभ-भावनो जे कर्ता थाय ते अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे. शुभ अने अशुभभाव बन्ने पुद्गलकर्मना विपाकना निमित्ते उत्पन्न थती दशाओ छे. बन्नेनो स्वाद कलुषित छे. शुभभावनो स्वाद कलुषित छे अने अशुभभावनो स्वाद तीव्र कलुषित छे.

जेने विज्ञानघनस्वरूप आत्मानी द्रष्टि अने एना आनंदनो अनुभव नथी ते पुण्य अने पापना बे भाग पाडीने तीव्र अने मंद विकारनो स्वाद ले छे. लाखोना मकानमां रहीने जे खुशी उपजे ते अशुभभाव पाप छे. ते अशुभभावनो स्वाद मीठो नथी, तीव्र कडवो छे. अने दया, दान, व्रत, भक्तिना शुभभाव थाय तेनो स्वाद पण मीठो नथी, कडवो छे. एक आत्माना एकरूप निराकुळ आनंदनो स्वाद ज मिष्ट अने इष्ट छे.

अनंतकाळमां जे प्राप्त थयो नथी ते आत्माना आनंदना अनुभवनी आ वात चाले छे. अहाहा...! आत्मा आनंदकंद प्रभु सुखकंद छे. जेम सक्करकंदनी उपरनी छाल ते सक्करकंद नथी. छालने काढी नाखो तो पाछळ मीठाशनो जे पिंड छे ते सक्करकंद छे. तेम आ भगवान आत्माने शुभाशुभ भाव थाय ते उपरनी छाल छे, ते आत्मा नथी. शुभाशुभभावथी भिन्न अंदर जे आनंदकंद प्रभु विराजे छे ते आत्मा छे. शुभाशुभ भावनुं लक्ष छोडीने अंतर्द्रष्टि करो तो आत्मानुभूति प्रगट थाय छे. अने ए ज सम्यग्दर्शन छे, ए ज धर्म छे.

शुभरागमां धर्म माने ते द्रष्टि ज मिथ्यात्व छे. मिथ्याद्रष्टि जीव विज्ञानघनस्वभावना स्वादने भेदीने-छेदीने शुभाशुभभावना स्वादनुं वेदन करे छे. परंतु ते भाव अज्ञानरूप छे. २८ मूळगुणना पालननो जे शुभराग छे ते अज्ञानरूप छे अने तेनो स्वाद झेर समान कलुषित छे. भाई! आत्माना निराकुळ आनंदना स्वादने भेदीने शुभभाव उत्पन्न थाय छे तो तेनो स्वाद आनंदरूप केम होय? अज्ञानी ते भावनो कर्ता थाय छे.

अरे भाई! जे भावथी तीर्थंकरगोत्र बंधाय ते भाव अज्ञानरूप छे अने एनो स्वाद कलुषित छे. ते कांई आत्मानी चीज नथी. भलभलानां पाणी उतरी जाय एवी आ वात छे. नाटक समयसारमां आवे छे के-


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‘‘करै करम सोई करतारा, जो जानै सो जानन हारा;
जो करता नहि जानै सोई, जानै सो करता नहि होई.’’

अज्ञानी पोताना नित्यानंद सुखकंद प्रभु आत्माना आनंदनो स्वाद तोडीने शुभ- भावनो कर्ता थाय छे. ज्ञाता रहेतो नथी. ज्यारे धर्मी समकितीने आनंदकंद प्रभु आत्मा उपर नजर छे. ते पोताना आनंदना स्वादने तोडतो नथी. ज्ञानीने तो एकरूप आनंदनो स्वाद आवे छे. भगवान! एकवार सांभळ, नाथ! तारी चीज अंदर शुभा-शुभभावथी भिन्न अमृतस्वरूप छे. व्रत अने अव्रतना बन्ने भावथी भगवान आत्मा भिन्न वस्तु छे. आवी ज्ञानानंदस्वरूप पोतानी वस्तुनुं जेने भान थयुं छे ते धर्मीने राग आवे छे पण ते रागनो ज्ञाता रहे छे, कर्ता थतो नथी. अज्ञानी शुभाशुभ रागनो कर्ता थाय छे.

आ गाथा बे हजार वर्ष पूर्वे रचाई छे. तेनी टीका (आत्मख्याति) हजार वर्ष पहेलां अमृतचंद्राचार्यदेवे रची छे. जेम गायना आउमां दूध भर्युं होय ते बळुकी बाई दोहीने बहार काढे तेम गाथामां जे भाव भर्या छे ते भावने आचार्यदेवे टीकामां एकदम खुल्ला करी दीधा छे. कहे छे-अज्ञानी शुभभावरूप कषायनो स्वाद ले छे अने ते भावनो ते कर्ता थाय छे. शुभभाव छे ते कषाय छे अने तेनो स्वाद कलुषित छे. छहढाळामां आवे छे के-

‘‘राग-आग दहै सदा, तातैं समामृत सेईए.’’

चाहे शुभराग हो तोपण ते आग छे, स्वभावने दझाडनारी आग छे. माटे रागथी भिन्न भगवान आत्मानी द्रष्टि करीने समामृतरूप धर्मनुं सेवन कर.

७२मी गाथामां आत्माने भगवान कहीने बोलाव्यो छे. ए भगवान आत्माना एकरूप आनंदना स्वादने तोडीने अज्ञानी शुभ के अशुभभावनो, मंद के तीव्र रागनो स्वाद ले छे ते धर्म नथी, अधर्म छे. भगवान आत्मा तो शुद्धोपयोग वडे प्राप्त थाय तेम छे अने ते शुद्धोपयोग ज धर्म छे. अज्ञानीने आत्मानी खबर नहि होवाथी ते आत्माना स्वादने भेदतो अज्ञानरूप जे शुभाशुभभाव तेने करे छे. ते वखते ते आत्मा तन्मयपणे ते भावनो व्यापक होवाथी तेनो कर्ता थाय छे. अज्ञानी शुभाशुभ राग मारो छे एम मानी ते भावनो तन्मयपणे कर्ता थाय छे. अज्ञानी शुभाशुभ रागमां एकाकार थई गयो होय छे.

मुनिवरोए दांडी पीटीने सत्य वात जगत पासे जाहेर करी छे. दुनिया मानशे के नहि माने एनी लेश पण दरकार राखी नथी. कहे छे-पोताना शुद्ध ज्ञायकभावने भूलीने अज्ञानी शुभ अने अशुभभावमां तन्मय-एकाकार थाय छे अने ए रीते ते


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भावनो ते कर्ता थाय छे. अने ते भाव पण ते वखते तन्मयपणे ते आत्मानुं व्याप्य होवाथी तेनुं कर्म थाय छे. ज्ञानी तो शुभ भावना पण कर्ता नथी तो पछी जडना कर्तानी तो वात ज कयां रही? अज्ञानी कर्ता थईने ज्यां त्यां आ ‘में कर्युं, में कर्युं’ एम परनुं कर्तृत्व माने छे तेने अहीं कहे छे के-भाई! परनुं तो आत्मा कांई करी शक्तो नथी पण शुभाशुभ रागनो जे तुं कर्ता थाय छे ते तारुं अज्ञान छे, मिथ्यादर्शन छे. मिथ्याद्रष्टि जीव ज शुभाशुभ रागनो कर्ता थाय छे.

हवे कहे छे-‘वळी ते ज आत्मा ते वखते तन्मयपणे ते भावनो भावक होवाथी तेनो अनुभवनार (अर्थात् भोक्ता) थाय छे. अने ते भाव पण ते वखते तन्मयपणे ते आत्मानुं भाव्य होवाथी तेनुं अनुभाव्य (अर्थात् भोग्य) थाय छे. आ रीते अज्ञानी पण परभावनो कर्ता नथी.

शुभ-अशुभभावनो अज्ञानी भोक्ता छे. विकारी भावनो भावक होवाथी ते भावनो अज्ञानी भोक्ता छे. आत्मा शरीरनो भोक्ता नथी. शरीर तो जड माटी छे. तेने केम भोगवे? अज्ञानी शरीरने भोगवतो नथी पण शरीरनी क्रियाना काळमां जे अशुभभाव थाय छे तेमां तन्मय थईने ते भावनो ते जीव भोक्ता थाय छे.

सम्यग्द्रष्टि चक्रवर्तीने ९६००० राणीओ होय छे. तेना लक्षे विषयवासनानो जे राग थाय तेनो ज्ञानी कर्ता नथी, ज्ञाता ज छे. धर्मीना ज्ञानमां ते जडनी क्रिया अने राग निमित्त छे धर्मीनो आत्मा जडनी क्रिया अने ते वखतना रागने निमित्त नथी पण धर्मीना ज्ञानमां ते निमित्त छे. ज्ञानीए तो गुलांट खाधी छे, पलटो खाधो छे. ज्यां सुधी पर्यायबुद्धि हती त्यां सुधी रागनो कर्ता अने रागनो भोक्ता हतो. परनो तो ज्ञानी के अज्ञानी कोई कर्ता-भोक्ता नथी. पण ज्यां पर्यायबुद्धि छूटी अने ज्ञायकनुं भान थयुं त्यारथी ते ज्ञाननो कर्ता अने भोक्ता छे, अने जे राग अने जडनी क्रिया थाय ते तेना ज्ञाननां निमित्तमात्र छे. हवे ते आनंदनो कर्ता अने भोक्ता छे; रागनो कर्ता नहि, रागनो भोक्ता पण नहि.

भरत चक्रवर्ती छ खंडना स्वामी हता. समकिती ज्ञानी हता. एक सोनीने संदेह थयो के ९६००० राणीओ अने आवो वैभवनो ढगलो होवा छतां भरत महाराज ज्ञानी कहेवाय छे ते केम संभवे? भरत महाराजने खबर पडतां सोनीने बोलाव्यो अने कह्युं-आ तेलनो भरेलो कटोरो हाथमां राखीने आ अयोध्या नगरीनी शोभा जोवा माटे जाओ. नगरीनी शोभा जोतां तेलनुं एक टीपु पण न ढोळाय ते ध्यान राखो. जो एक टीपु पण ढोळावा पामशे तो तलवारथी शिरच्छेद करवामां आवशे. सोनी तो आखीय नगरी फरीने पाछो आव्यो. त्यारे भरतजीए पूछयु-बोलो महाराज! नगरीनी शोभा केवी? तमे शुं शुं जोयुं? त्यारे सोनीए कह्युं-महाराज! मारुं लक्ष तो आ कटोरा पर हतुं; नगरीनी शोभानी तो मने कांई ज खबर नथी. तो भरत


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महाराजे कह्युं-भाई! ए ज प्रमाणे अमारुं लक्ष आत्मामां चोंटेलुं छे; आ बहारना वैभव शुं छे ए अमने खबर नथी. अमारुं लक्ष आत्माना वैभव पर छे, बहारना वैभव पर नथी.

अज्ञानी शुभ-अशुभ भावनो कर्ता अने भोक्ता छे, पण परनो कर्ता के भोक्ता नथी. ज्ञानी तो रागनो पण कर्ता-भोक्ता नथी, ज्ञाता-द्रष्टा ज छे, त्यां परना कर्ता-भोक्तानी तो वात ज केवी?

आ धन-संपत्ति, बाग, बंगला, मोटर, रोटली, दाळ भात, द्राक्ष, मोसंबी, हलवो इत्यादि बधुं आत्मा भोगवतो नथी. परंतु अज्ञानीने ते काळे जे अशुभ राग थाय छे तेनो ते भोक्ता छे. ज्ञानीने तो स्वभावनी द्रष्टि होवाथी ते काळे थतो जे राग अने परनी क्रिया ते तेना ज्ञानमां निमित्त थाय छे.

पुण्य-पापना भाव थाय ते भाव्य एटले भोगववा योग्य छे, अने अज्ञानी तेनो भावक एटले भोगवनार छे. परंतु परवस्तु दाळ, भात आदि ते आत्मानां भाव्य नथी. आत्मा तेनो भोक्ता नथी. अहाहा...! पुण्यपापना भाव छे ते अज्ञानीनुं भाव्य छे. अने अज्ञानी तेनो भावक-भोक्ता छे; परंतु परवस्तुनो अज्ञानी कर्ता-भोक्ता नथी.

ज्ञानीने पूजा-भक्ति इत्यादि शुभभाव आवे छे, पण तेना तेओ ज्ञाता ज छे, कर्ता- भोक्ता नथी. अहाहा...! ज्ञानानंदस्वरूप भगवान आत्मानी जेने द्रष्टि थई छे ते ज्ञानी तो ज्ञानानंदस्वरूपना कर्ता अने ज्ञानानंदना ज भोक्ता छे. परंतु शुद्ध आत्म-स्वरूपनुं जेने भान नथी ते अज्ञानी रागनो कर्ता अने भोक्ता थाय छे. परनो तो अज्ञानी पण कर्ता-भोक्ता नथी.

* गाथा १०२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘पुद्गलकर्मनो उदय थतां, ज्ञानी तेने जाणे ज छे अर्थात् ज्ञाननो ज कर्ता थाय छे अने अज्ञानी अज्ञानने लीधे कर्मोदयना निमित्ते थता पोताना अज्ञानरूप शुभाशुभ भावोनो कर्ता थाय छे. आ रीते ज्ञानी पोताना ज्ञानभावनो कर्ता छे अने अज्ञानी पोताना अज्ञानरूप भावनो कर्ता छे; परभावनो कर्ता तो ज्ञानी के अज्ञानी कोई नथी.’

भगवान आत्मा निर्मळानंद प्रभु शुद्ध चिदानंदकंद छे. तेनी जेने अंतर्द्रष्टि थई छे ते ज्ञानी कर्मनो उदय थतां तेने जाणे ज छे. आ शुभाशुभभाव थाय छे ते कर्मनो पाक छे, ते धर्म नथी, स्वभावनी चीज नथी एम ज्ञानी तेने पोताथी भिन्न जाणे छे. समकिती भले गृहस्थाश्रममां होय, तेने शुभाशुभ भाव जे थाय छे तेने ते पुद्गल-कर्मना फळपणे पोतानाथी भिन्न जाणे छे. अहाहा...! हुं तो रागथी भिन्न, कर्मथी भिन्न चिदानंदघन प्रभु आत्मा छुं एवुं जेने भान थयुं छे ते धर्मी जीव जे शुभाशुभ भाव थाय तेने जाणे ज छे, ते पोतानुं कर्तव्य छे एम कदीय मानतो नथी.