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पंचमहाव्रतना परिणाम ते कर्मना विपाकनुं फळ छे; ते आत्मा नथी. ज्ञानी ते शुभरागने जाणे ज छे. पोताना ज्ञानस्वरूपमां रहीने ज्ञानी तेने जाणे छे. ज्ञानी तो ज्ञानना कर्ता छे, आनंदना कर्ता छे. अहाहा...! पोतानुं स्वरूप तो शुद्ध प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप छे एम जेने अनुभव थयो छे ते धर्मी जीव पोतानी ज्ञान अने आनंदनी पर्यायना कर्ता छे, पण महाव्रतादिना रागना कर्ता नथी. रागनो कोण कर्ता थाय? रागनो कर्ता थाय ए तो अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि जीव छे. आवी वात छे.
जेने पोताना चैतन्यस्वरूप आत्मानुं भान नथी ते कर्मना उदयना निमित्ते जे अज्ञानरूप शुभाशुभ भावो थाय तेनो कर्ता थाय छे. व्रत-अव्रतना परिणाम मारी चीज छे एम अज्ञानी माने छे. दया, दान, व्रत, भक्ति आदि कर्मना उदये थता भाव छे. अज्ञानी ते मारुं कर्तव्य छे एम मानी तेनो कर्ता थाय छे. बहारना क्रियाकांडमां जे धर्म माने छे तेनुं श्रद्धान मिथ्या छे. ते अज्ञानी पाखंडी छे, ज्ञानी तो रागादि जे थाय तेना ज्ञातापणे ज परिणमे छे, तेनो कर्ता थतो नथी. परभावनो-परद्रव्यना परिणामनो कर्ता तो ज्ञानी के अज्ञानी कोई नथी.
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न च परभावः केनापि कर्तुं पार्येत–
सो अण्णमसंकंतो कह तं परिणामए दव्वं।। १०३ ।।
सोऽन्यदसंक्रान्तः कथं तत्परिणामयति द्रव्यम्।। १०३ ।।
परभावने कोई (द्रव्य) करी शके नहि एम हवे कहे छेः-
अणसंक्रम्युं ते केम अन्य परिणमावे द्रव्यने? १०३.
गाथार्थः– [यः] जे वस्तु (अर्थात् द्रव्य) [यस्मिन् द्रव्ये] जे द्रव्यमां अने [गुणे] गुणमां वर्ते छे [सः] ते [अन्यस्मिन् तु] अन्य [द्रव्ये] द्रव्यमां तथा गुणमां [न सक्रामति] संक्रमण पामती नथी (अर्थात् बदलाईने अन्यमां भळी जती नथी); [अन्यत् असंक्रान्तः] अन्यरूपे संक्रमण नहि पामी थकी [सः] ते (वस्तु), [तत् द्रव्यम्] अन्य वस्तुने [कथं] केम [परिणामयति] परिणमावी शके?
टीकाः– जगतमां जे कोई जेवडी वस्तु जे कोई जेवडा चैतन्यस्वरूप के अचैतन्यस्वरूप द्रव्यमां अने गुणमां निज रसथी ज अनादिथी ज वर्ते छे ते, खरेखर अचलित वस्तुस्थितिनी मर्यादाने तोडवी अशकय होवाथी, तेमां ज (पोताना तेवडा द्रव्य-गुणमां ज) वर्ते छे परंतु द्रव्यांतर के गुणांतररूपे संक्रमण पामती नथी; अने द्रव्यांतर के गुणांतररूपे नहि संक्रमती ते, अन्य वस्तुने केम परिणमावी शके? (कदी न परिणमावी शके.) माटे परभाव कोईथी करी शकाय नहि.
भावार्थः– जे द्रव्यस्वभाव छे तेने कोई पण पलटावी शकतुं नथी, ए वस्तुनी मर्यादा छे.
परभावने कोई (द्रव्य) करी शके नहि एम हवे कहे छेः-
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‘जगतमां जे कोई जेवडी वस्तु जे कोई जेवडा चैतन्यस्वरूप के अचैतन्यस्वरूप द्रव्यमां अने गुणमां निजरसथी ज अनादिथी ज वर्ते छे ते, खरेखर अचलित वस्तुस्थितिनी मर्यादाने तोडवी अशकय होवाथी, तेमां ज (पोताना तेवडा द्रव्य-गुणमां ज) वर्ते छे परंतु द्रव्यांतर के गुणांतररूपे संक्रमण पामती नथी.’
बहु सरस गाथा छे. जेम जगतकर्ता ईश्वर छे एम माननार मिथ्याद्रष्टि छे तेम जैन संप्रदायमां रहीने कोई एम माने के-हुं शरीरने हलावी शकुं छुं, भाषा बोली शकुं छुं, पर जीवनी दया पाळी शकुं छुं तो ते जीव पण मिथ्याद्रष्टि छे. भाई! पंचमहाव्रतना जे परिणाम छे ते शुभभाव छे, आस्रव छे, जड अचेतन छे, झेर छे. मोक्ष अधिकारमां शुभभावने विषकुंभ कह्यो छे. तारी चीज तो अमृतनो सागर प्रभु अनाकुळ आनंदनो रसकंद छे. अने शुभभाव तो एनाथी विपरीत झेर छे. आवा शुभभावनो-झेरनो कर्ता थाय ते मूढ मिथ्याद्रष्टि छे. अरे! सम्यग्दर्शन शुं चीज छे तेनी लोकोने खबर नथी!
अहीं कहे छे के-जगतमां जे कोई चैतन्यस्वरूप के अचैतन्यस्वरूप जेटली वस्तु छे ते बधी पोताना द्रव्यमां, गुणमां निज रसथी ज अनादिथी ज वर्ते छे. आत्मा पोतानी पर्यायमां वर्ते छे अने जड पोतानी (जडनी) पर्यायमां वर्ते छे. आ शरीर हालेचाले ते शरीरनी पर्याय छे. शरीरना परमाणुओ शरीरनी पर्यायमां वर्ते छे. आत्मा तेने हलावे छे वा हलावी शके छे ए वात तद्न खोटी छे.
वीतरागनो मार्ग बहु सूक्ष्म छे भाई! अत्यारे मार्ग लोप थई गयो छे. लोकोए बहारथी घणुं-बधुं विपरीत मानी लीधुं छे. अहीं कहे छे के चैतन्यस्वरूप आत्मा निज रसथी ज निज द्रव्यमां, निज गुणमां एटले निज पर्यायमां अनादिथी ज वर्ते छे. चाहे निर्मळ पर्याय हो के विकारी पर्याय हो, आत्मा निज रसथी ज पोतानी पर्यायमां वर्ती रह्यो छे. आ महा सिद्धांत छे.
जगतमां संख्याए जेटली वस्तु छे-चेतन के अचेतन-ते प्रत्येक वस्तु पोताना द्रव्यमां अने पोतानी पर्यायमां अनादिथी ज वर्ती रही छे. प्रत्येक आत्मा अने प्रत्येक परमाणु पोताना द्रव्यमां अने पोतानी पर्यायमां अनादिथी वर्ती रह्या छे. मतलब के कोई द्रव्य कोई अन्य द्रव्यनी पर्यायने करतुं नथी अने कोई द्रव्य कोई अन्य द्रव्यनी पर्यायमां वर्ततुं नथी. तेथी आत्मा शरीरनी क्रिया करी शके ए वात त्रणकाळमां सत्य नथी. आ पैसा -धूळ जड अजीव तत्त्व छे. ते पोताना द्रव्यमां अने पोतानी पर्यायमां वर्ते छे. तेनुं आववुं -जवुं ते पोतानी जडनी क्रिया छे. छतां हुं (आत्मा) पैसा कमाई शकुं अने पैसा यथेच्छ खर्ची शकुं एम जे माने ते एनां मिथ्या भ्रम अने अज्ञान छे. आत्मा
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(ज्ञानी के अज्ञानी) परनुं कांई करी शकतो नथी. वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे अने भगवाने एम ज जाण्युं अने कह्युं छे. अज्ञानीने खबर नथी तेथी कांई वस्तुस्वरूप बीजी रीते थई जाय एम-नथी.
हुं देशनी सेवा करुं छुं, बीजा जीवोनी दया पाळुं छुं, बीजाओने उपदेश दउं छुं इत्यादि परद्रव्यनी क्रिया हुं करुं छुं एवो अज्ञानीने भ्रम छे. अरे भाई! उपदेशनी भाषा तो जड छे. भाषाना परमाणु पोताना द्रव्यमां अने पोतानी पर्यायमां वर्ते छे. तेने आत्मा केम करी शके? न करी शके.
आ दाळ, भात, रोटली, शाक इत्यादि जे परद्रव्यनी क्रिया थाय ते आत्मा करतो नथी. आ रोटलीना टुकडा आंगळीथी थाय छे एम कोई कहे तो ए बराबर नथी. आंगळी पोताना द्रव्य अने पर्यायमां वर्ते छे अने रोटलीना टुकडा थाय ते रजकणो पोताना द्रव्य अने पर्यायमां वर्ते छे. रोटलीना टुकडा थाय तेने आत्मा तो करतो नथी, ते आंगळीथी पण थता नथी. एक तत्त्वनुं बीजा तत्त्वनुं कांई करी शके नहि ए वीतराग-मार्गनुं कोई अजब रहस्य छे.
प्रश्नः– परस्परोपग्रहो जीवानाम् – एम तत्त्वार्थसूत्रमां कह्युं छे ने?
उत्तरः– हा कह्युं छे; पण एनो अर्थ शुं? उपग्रह-उपकारनो अर्थ त्यां निमित्त-मात्र एम थाय छे. प्रत्येक द्रव्यनी प्रत्येक पर्याय पोताथी थाय छे तेमां जे बाह्य चीज निमित्त होय तेने उपग्रह कहेवामां आवे छे. परनो उपकार (परनुं कार्य) जीव करी शके छे एम त्यां अर्थ नथी. सर्वार्थसिद्धि टीकानी वचनिकामां उपग्रहनो अर्थ पंडित श्री जयचंदजीए निमित्त कर्यो छे. उपग्रह शब्दथी निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं छे. जीव परनो उपकार (कार्य) करे छे एम कदीय नथी. प्रत्येक पदार्थ-जड के चेतन पोताना द्रव्य एटले वस्तुमां अने पोतानी वर्तमान पर्यायमां वर्ते छे. तेनी पर्याय कोई बीजुं द्रव्य करे के बीजुं द्रव्य वर्तावे एम त्रणकाळमां बनतुं नथी. भाई! नव तत्त्वनी भिन्नता जेम छे तेम भासे नहि तेने समकिती केवी रीते प्रगट थाय? न ज थाय.
जगतमां अनंत आत्माओ छे अने अनंतानंत परमाणु-रजकणो छे. प्रत्येक रजकण पोताथी रह्युं छे, परथी नहि. प्रत्येक परमाणुमां कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान अने अधिकरण-एवी छ शक्तिओ छे. तेथी ते दरेक परमाणु पोतानी शक्ति अने पोतानी पर्यायमां वर्ते छे. परनी पर्यायने पोते वर्तावे वा पोतानी पर्यायने पर वर्तावे एम बनवुं त्रणकाळमां संभवित नथी.
जुओ, आ आगममंदिरमां आरस उपर पोणाचार लाख अक्षरो कोतरेला छे. ते अक्षर कोतरवानुं मशीन त्रीस हजारना खर्चे इटालिथी आवेलुं छे. ते मशीननो एक एक रजकण पोतानी शक्तिथी निज रसथी ज पोतानी पर्यायमां वर्ते छे; ते परथी
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वर्ते छे एम नथी. तथा जे कोतरायेला अक्षरो छे तेनो प्रत्येक रजकण पण पोतानी शक्तिथी निज रसथी ज पोतानी पर्यायमां वर्ते छे. मशीनथी अक्षरो वर्ते छे एम नथी. अहाहा...! आत्माथी अक्षरो वर्ते (कोतरायेला) छे एम नथी अने मशीनथी अक्षरो वर्ते (कोतरायेला) छे एम पण नथी. गजब वात छे! जगतमां जे कोई जेटली वस्तु छे ते बधी ज निज रसथी ज एटले के पोतानी शक्तिथी ज पोतानी वर्तमान वर्तमान वर्तती प्रत्येक पर्यायमां वर्ती रही छे. बहु झीणी वात छे, भाई!
प्रश्नः– एक परमाणु बीजा परमाणुना कार्यमां, एक पदार्थ बीजा पदार्थना कार्यमां प्रभाव तो पाडे छे ने?
उत्तरः– अरे भगवान! ए प्रभाव शुं चीज छे? द्रव्य, गुण के पर्याय? अहीं तो कहे छे के एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कार्य करे एम जे माने तेने मूळमां ज भूल छे. जेम एक वत्ता बे बराबर त्रण थाय एने बदले कोई चार कहे अने पछी चार चोक सोळ, सोळ दु बत्रीस एम पलाखां गोठवे पण जे मूळमां ज भूल छे ते भूल तो बधे ज चाली आवे. तेम हुं परनुं कार्य करी शकुं छुं एम माननारी मूळमां ज भूल छे. तेथी हुं वेपारधंधो करुं छुं, कुटुंबनुं भरण- पोषण करुं छुं, छोकरांने भणावुं छुं, परनी दया पाळुं छुं इत्यादि परनुं करुं छुं एम भूल चाली ज आवे छे. भाई! एक द्रव्य बीजा द्रव्यना कार्यमां प्रभाव पाडे छे ए वात छे ज नहि. (केमके प्रभाव ए द्रव्य, गुण के पर्यायथी कोई भिन्न चीज छे ज नहि).
अरे भाई! जड अने चेतन दरेक द्रव्य पोतानी शक्ति अने पोतानी पर्यायमां अनादिथी निज रसथी ज वर्ती रहेलुं छे. खरेखर आ अचलित वस्तुस्थितिनी मर्यादा छे अने आ मर्यादा तोडवी अशकय होवाथी वस्तु तेमां ज एटले के पोताना तेवडा द्रव्य-गुणमां ज वर्ते छे; परंतु द्रव्यांतर के गुणांतररूपे संक्रमण पामती नथी.
जुओ आ सिद्धांत! अचलित वस्तुस्थिति ज एवी छे के परमाणु परमाणुनी पर्यायमां वर्ते अने आत्मा आत्मानी पर्यायमां वर्ते. आत्मा कर्मने बांधे के कर्म आत्माने विकार करावे एवुं वस्तुस्वरूप ज नथी. कर्मथी जीवने विकार थाय छे ए वात सत्यार्थ नथी केमके कर्म जड परमाणुमां वर्ते छे अने विकार आत्मानी पर्यायमां वर्ते छे. विकारी पर्यायने जड कर्म वर्तावे अने जड कर्मनी प्रकृति आत्मा बांधे एवुं त्रण-काळमां बनवा योग्य नथी. केटलाक आ वात सांभळीने खळभळी उठे छे पण भाई! आ तो जैनदर्शननो मूळ सिद्धांत छे. एक द्रव्यनी पर्याय बीजुं द्रव्य त्रणकाळमां करी शके नहि ए जिनशासननो अविचळ सिद्धांत छे. माटे आत्मानी पर्याय बीजाथी थाय अने बीजानी पर्याय आत्माथी थाय ए वात बीलकुल सत्य नथी.
भगवाननी दिव्यध्वनिमां जे आव्युं छे ते श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे परमागममां कह्युं छे, अने एनी श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे आ टीका करी छे तेओ कहे छे-प्रभु! तुं एकवार
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सांभळ. अचलित वस्तुस्थिति ज एवी छे के आत्मा अने परमाणु निज रसथी ज पोतपोतानी पर्यायमां वर्ती रह्यां छे. बीजो बीजानुं करी दे ए वस्तुस्थितिमां ज नथी. आवी वस्तुनी मर्यादा तोडवी अशकय छे. तथापि पोतानी पर्यायने बीजो करे अने बीजानी पर्यायने पोते करे एम जे माने ते अचलित वस्तुस्थितिने (अभिप्रायमां) तोडी नाखे छे अने माटे ते मूढ मिथ्याद्रष्टि छे.
सत्यनी प्रसिद्धि करनार आ सत्शास्त्र छे. आ मस्तकना परमाणु छे ते जीवना आधारे रहेला नथी. तथा उपरना परमाणु छे ते नीचेना परमाणुओना आधारे रहेला नथी. प्रत्येक परमाणुमां कर्ता, कर्म आदि षट्कारकरूप शक्तिओ रहेली छे अने तेथी प्रत्येक परमाणु पोताना कारणे पोतानी पर्यायमां वर्ती रह्यो छे, तेने कोई परनो आधार नथी. देहमांथी जीव चाल्यो जतां देह ढळी जाय छे ते अवस्था देहना कारणे छे, जीवना कारणे नहि. जीव छे तो देह आम टटार रहे छे अने जीव नीकळी जतां देह ढळी गयो एवी मान्यता यथार्थ नथी. देहनी प्रत्येक अवस्थामां देहना परमाणुओ वर्ती रह्या छे, एमां जीवनुं कांई कार्य नथी.
आत्मानां घणां विशेषणो आपवामां आवे छे, जेमके-अनंतगुणना वैभवनी विभूति, परमेश्वर, पुरुषार्थनो पिंड, गुणोनुं गोदाम, शक्तिनुं संग्रहालय, स्वभावनो सागर, शान्तिनुं सरोवर, आनंदनी मूर्ति, चैतन्यसूर्य, ज्ञाननो निधि, ध्रुवधाम, तेजना नूरनुं पूर, अतीन्द्रिय महाप्रभु, ज्ञाननी ज्योति, विज्ञानघन, चैतन्य चमत्कार इत्यादि. वळी भैया भगवतीदासे अक्षरबत्तीसी लखी छे तेमां आत्मानी वात क, ख, ग.... इत्यादि कक्कावारीमां उतारी छे; जेमके-कक्को केवळज्ञाननो कंद, खख्खो खबरदार आत्मा, गग्गो ज्ञाननो भंडार,.. .. इत्यादि. अहीं कहे छे के आवो आत्मा पोताना द्रव्यमां अने पोतानी पर्यायमां सदाय वर्ते छे. आत्मा परद्रव्यमां जतो नथी अने परद्रव्य आत्मामां आवतां नथी. पोतानी पर्याय पोताथी थाय छे, निमित्तथी नहि अने परद्रव्यनुं कार्य ते परद्रव्यथी थाय छे, आत्माथी नहि. आवी ज अचलित वस्तुस्थिति छे.
एक श्रीमंत पासे बे अजब चालीस करोडनी संपत्ति हती. तेमना एक सगाए एकवार तेमने कह्युं के-आटली अढळक लक्ष्मी छे तो हवे तमारे कमावानी शी जरूर छे? आ बधी प्रवृत्तिनी जंजाळ छोडी दो. त्यारे ए श्रीमंते कह्युं के-आ धंधा अमे अमारा माटे करता नथी, केटलाय लोकोना पोषण माटे करीए छीए. जुओ, आ विचारनी विपरीतता! अरे भाई! परनुं तो कोई कांई करतुं नथी. परनी ममता करी करीने पोताना रागद्वेषनुं पोषण करे छे. परना काम हुं करुं छुं एवो तने मिथ्या अहंकार थई गयो छे. अरे भाई! तारी पर्याय ताराथी थाय अने पर जीवनी पर्याय ते ते पर जीवथी थाय. तुं पर जीवनी पर्यायनो कर्ता नथी. प्रभु! कोण कोनी पर्याय
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करे? तारी पर्यायने कोइ बीजो करी दे अने बजानी पर्यायने तुं करी दे ए त्रणकाळमां संभवित नथी.
जुओ, आ पाणी उनुं थाय छे ते पाणीना परमाणुथी पोताथी थाय छे; अग्निथी नहि.
प्रश्नः– पाणी अग्निथी उनुं थतुं देखाय छे ने?
उत्तरः– अरे भाई! तुं संयोगथी देखे छे, पण वस्तुना (परिणमनशील) स्वभावने जोतो नथी. स्वभावथी जोनार ज्ञानीने तो पाणीनी शीत अने उष्ण अवस्थाओमां पाणीना परमाणुओ वर्ती रहेला देखाय छे, अग्नि नहि. अग्नि पाणीमां पेठी ज नथी. अजब वात छे भाई! दुधीना शाकना कटका थाय ते छरीथी थता नथी. दुधीना कटका थवानुं कार्य दुधीना परमाणुओथी थाय छे अने छरीनुं कार्य छरीना परमाणुओथी थाय छे. छरीनुं कार्य जीव करे छे एम नथी अने दुधीना कटका थवानुं कार्य छरी करे छे एम पण नथी. जीव अने परमाणु प्रत्येक पोतपोतानी पर्यायमां वर्ती रह्या छे ए ज वस्तुस्थिति छे. आ चोखा पाके छे ते चोखानी पाकेली अवस्था चोखाना परमाणुओथी थइ छे; पाणीथी चोखा पाकया छे एम नथी. चोखाना परमाणु पोतानी शक्ति अने पोतानी पर्यायमां वर्ती रह्या छे. चोखानी पाकवानी पर्याय परथी थई छे ए वात त्रणकाळमां सत्य नथी. लोकोने आ वात भारे अचरज पमाडे तेवी छे पण ते एम ज छे. अज्ञानी माने छे के हुं पहाडने तोडी शकुं, गढने पाडी शकुं, इत्यादि; पण ए बधो भ्रम छे. परनी पर्यायने कोण करे?
प्रश्नः– केम ईंजनेरो करे छे ने?
उत्तरः– ईंजनेर पोतामां राग करे छे, पण परनुं कांई करी शक्तो नथी. जडनी क्रिया जड परमाणुओथी थाय छे, तेने आत्मा करतो नथी. आवुं स्वतंत्र तत्त्व समज्या विना धर्म केम थाय? एक परमाणुनी पर्याय बीजो परमाणु करी शके नहि एवी अचलित वस्तुनी मर्यादा तोडवी अशकय छे. एक आत्मा जड परमाणुमां कांई करी शके ए अशकय छे.
आ न्यायथी-लोजीकथी वात छे. परमात्मा कहे छे के जगतमां अनंत आत्मा अने अनंतानंत पुद्गलो छे. ते अनंतपणे कयारे रही शके? प्रत्येक द्रव्य पोतानी शक्ति अने पोतानी पर्यायमां वर्ते तो अनंत द्रव्य अनंतपणे रही शके. एकनुं कार्य बीजुं द्रव्य करे तो तेओ एकमेक थई जाय अने अनंत द्रव्यनुं अनंतपणुं रही शके नहि, अनंतपणुं खलास थई जाय. कोई द्रव्य परद्रव्यमां वर्ते तो अनंत द्रव्योनुं अनंतपणुं नाश पामी जाय. भाई! आ वीतरागी शासननुं तत्त्व न्यायथी बराबर समजवुं जोईए.
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आनंदमां झूलनारा संतोने जराक विकल्प आव्यो अने आ शास्त्र शास्त्रना कारणे रचाई गयां. ते विकल्पना ज्ञानी कर्ता नथी. ते विकल्प पोताना अपराधथी आव्यो छे, परना कारणे नहि. दरेक द्रव्य एटले वस्तु पोताना गुण एटले पोतानी पर्यायमां वर्ते छे. बीजानुं कार्य बीजाथी थाय ए वस्तुस्थिति ज नथी. बे कारणथी कार्य थाय एम जे वात आवे छे ए तो कार्यकाळे जे बीजी चीज निमित्त होय छे तेनुं ज्ञान कराववा माटे वात करेली छे. बाकी बे कारणथी कार्य नीपजे छे एम नथी. कार्यनां वास्तविक कारण बे नथी, एक उपादान ज वास्तविक कारण छे.
जगतमां कोई पण वस्तु पोताना द्रव्य-गुणमां ज वर्ते छे. परंतु द्रव्यांतर के गुणांतररूपे संक्रमण पामती नथी. एक द्रव्य बीजा द्रव्यमां प्रवेशे के एक पर्याय बीजानी पर्यायरूपे थाय एम कदीय बनतुं नथी. जीवनी पर्यायनुं संक्रमण थईने शरीरनी अवस्थारूपे थाय एम त्रणकाळमां बनतुं नथी. प्रत्येक वस्तुनी वर्तमान पर्याय संक्रमण पामीने परनी पर्यायने करे एवुं कदीय बनतुं नथी. भाई! परनी दया कोई पाळी शकतुं नथी. आ तो पोतानी स्वदया पाळवानी वात छे. संतोए स्वतंत्रतानो आ ढंढेरो पीटयो छे. छतां जेने वात बेसती नथी ते दुर्भागी छे. शुं थाय? दरेक द्रव्य स्वतंत्र छे ने?
एक द्रव्यनुं बीजा द्रव्यमां संक्रमण न थाय; एक गुण एटले पर्यायनुं अन्य द्रव्यनी पर्यायपणे संक्रमण न थाय. समयसमयमां प्रत्येक आत्मा अने प्रत्येक परमाणु पोतपोतानी पर्यायना कर्ता छे पण परनी पर्यायना कर्ता नथी. भगवान त्रणलोकना नाथ कहे छे के एक द्रव्यनी पर्याय अन्यद्रव्यनी पर्यायने करे एवुं माने ते मूर्ख छे, अज्ञानी छे, मूढ छे, पाखंडी छे. बीजानुं कार्य कोई बीजो केम करे? न करे. अहाहा...! जगतनां अनंत द्रव्यो, एनी दरेक शक्ति अने एनी दरेक पर्याय स्वतंत्र छे.
एक वखत एवो प्रश्न थयेलो के-महाराज! सिद्ध भगवान शुं करे?
त्यारे जवाबमां कह्युं के-सिद्ध भगवान परनुं कांई करता नथी. अहाहा...! पोतानी पर्यायमां अनंत आनंद प्रगट थयो छे तेनुं सिद्ध भगवान वेदन करे छे.
त्यारे ते कहे के-एवा केवा भगवान? भगवान जेवा भगवान कोईनुं कांई न करे! अमे तो बीजानुं भलुं करीए छीए.
जुओ, अज्ञानीनो भ्रम! भाई! कोई द्रव्य कोई अन्य द्रव्यनुं कांई न करी शके ए अचलित वस्तुमर्यादा छे. तेने तोडवी अशकय छे. पोतानी पर्याय परमां न जाय अने परनी पर्याय पोतामां न आवे. तो पछी एक वस्तु अन्य वस्तुने केम परिणमावी शके? द्रव्यांतर के गुणांतररूपे नहि संक्रमती ते अन्य वस्तुने केम परिणमावी शके? कदी न परिणमावी शके. माटे परभाव कोईथी करी शकाय नहि. अज्ञानी पोताना शुभाशुभ
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भावने करे छे पण परभावने करतो नथी अने ज्ञानी पोताना ज्ञाताद्रष्टाना परिणामने करे छे, रागने के परने ज्ञानी करतो नथी.
दुःखीने सहाय करे, भूख्यांने अन्न आपे, तरस्यांने पाणी पाय, नग्नने वस्त्र आपे - इत्यादि परनां कार्य जीव करे छे एवो अज्ञानीनो भ्रम छे. अज्ञानी माने भले पण परनां कार्य त्रणकाळमां कोई जीव करी शक्तो नथी.
भावार्थः– जे द्रव्यस्वभाव छे तेने कोई पण पलटावी शकतुं नथी, ए वस्तुनी मर्यादा छे.
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अतः स्थितः खल्वात्मा पुद्गलकर्मणामकर्ता–
दव्वगुणस्स य आदा ण कुणदि पोग्गलमयम्हि कम्मम्हि। तं उभयमकुव्वंतो तम्हि कहं तस्स सो कत्ता।। १०४ ।।
तदुभयमकुर्वस्तस्मिन्कथं तस्य स कर्ता।। १०४ ।।
आ (उपर कहेला) कारणे आत्मा खरेखर पुद्गलकर्मोनो अकर्ता ठर्यो एम हवे कहे छेः-
ते उभयने तेमां न करतो केम तत्कर्ता बने? १०४.
गाथार्थः– [आत्मा] आत्मा [पुद्गलमये कर्मणि] पुद्गलमय कर्ममां [द्रव्यगुणस्य च] द्रव्यने तथा गुणने [न करोति] करतो नथी; [तस्मिन्] तेमां [तद् उभयम्] ते बन्नेने [अकुर्वन्] नहि करतो थको [सः] ते [तस्य कर्ता] तेनो र्क्ता [कथं] केम होय?
टीकाः– जेवी रीते-माटीमय घडारूपी कर्म के जे माटीरूपी द्रव्यमां अने माटीना गुणमां निज रसथी ज वर्ते छे तेमां कुंभार पोताने के पोताना गुणने नाखतो-मूकतो-भेळवतो नथी कारण के (कोई वस्तुनुं) द्रव्यांतर के गुणांतररूपे संक्रमण थवानो वस्तुस्थितिथी ज निषेध छे; द्रव्यांतररूपे (अर्थात् अन्यद्रव्यरूपे) संक्रमण पाम्या विना अन्य वस्तुने परिणमाववी अशकय होवाथी, पोतानां द्रव्य अने गुण बन्नेने ते घडारूपी कर्ममां नहि नाखतो एवो ते कुंभार परमार्थे तेनो कर्ता प्रतिभासतो नथी; तेवी रीते-पुद्गलमय ज्ञानावरणादि कर्म के जे पुद्गलद्रव्यमां अने पुद्गलना गुणमां निज रसथी ज वर्ते छे तेमां आत्मा पोताना द्रव्यने के पोताना गुणने खरेखर नाखतो-मूकतो-भेळवतो नथी कारण के (कोई वस्तुनुं) द्रव्यांतर के गुणांतररूपे संक्रमण थवुं अशकय छे; द्रव्यांतररूपे संक्रमण पाम्या विना अन्य वस्तुने परिणमाववी अशकय होवाथी, पोतानां द्रव्य अने गुण-बन्नेने ते ज्ञानावरणादि कर्ममां नहि नाखतो एवो ते आत्मा परमार्थे तेनो कर्ता केम होई शके? (कदी न होई शके.) माटे खरेखर आत्मा पुद्गलकर्मोनो अकर्ता ठर्यो.
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आ (उपर कहेला) कारणे आत्मा खरेखर पुद्गलकर्मोनो अकर्ता ठयो एम हवे कहे छेः-
‘जेवी रीते-माटीमय घडारूपी कर्म के जे माटीरूपी द्रव्यमां अने माटीना गुणमां निजरसथी ज वर्ते छे तेमां कुंभार पोताने के पोताना गुणने नाखतो-मूक्तो-भेळवतो नथी कारणे के (कोई वस्तुनुं) द्रव्यांतर के गुणांतररूपे संक्रमण थवानो वस्तुस्थितिथी ज निषेध छे...’
माटीमय घडारूपी जे कार्य छे ते माटीरूपी द्रव्यमां एटले माटीरूपी पदार्थमां अने माटीना गुणमां एटले माटीनी पर्यायमां निजरसथी ज वर्ते छे. माटीमां जे घडारूपी कार्य थयुं ते माटीनी निजशक्तिथी थयुं छे; कुंभारथी-निमित्तथी ते कार्य थयुं नथी. जुओ, निमित्तथी कार्य थाय एवी वात खूब चाले छे पण एनो अहीं निषेध कर्यो छे. निमित्तथी परनुं कार्य थतुं नथी एम अहीं सिद्ध कर्युं छे. भाई! आ रोटलीरूपी जे कार्य थाय छे ते आटाथी थाय छे, बाईथी नहि अने तावडी, वेलण के पाटलीथी पण नहि.
भाई! शुद्ध अंतःतत्त्वना श्रद्धान विना बाह्यक्रियाकांड करीने धर्म थवो माने पण ए (मान्यता) तो मिथ्यात्व छे. पर जीवनी दया पाळवामां धर्म माने ते मिथ्यात्व छे केमके परजीवनी दया आ जीव पाळी शक्तो नथी.
प्रश्नः– दया धर्मनुं मूळ छे एम कहेवाय छे ने?
उत्तरः– हा, पण एनो अर्थ ए छे के रागनी उत्पत्ति न थवी ते स्वदया छे अने ते स्वदया धर्मनुं मूळ छे. पुरुषार्थसिद्धयुपायमां (श्लोक ४४मां) हिंसा-अहिंसाना स्वरूपनुं कथन आवे छे त्यां आ स्पष्ट कर्युं छे. परनी दया पाळवी ए तो नाममात्र कथन छे. परनी दया कोण पाळी शके? बीजा जीवनुं ज्यां सुधी आयु होय त्यां सुधी ते जीवे छे. तेने बीजो जीवाडी शक्तो नथी; तेम बीजो तेने मारी पण शक्तो नथी. बहारनी जे क्रियाओ थाय तेनो आत्मा कर्ता नथी ए मूळ सिद्धांत छे.
भगवान सर्वज्ञदेव एम कहे छे के जे घडारूपी कार्य थयुं तेमां माटी पोते वर्ती रही छे, तेमां कुंभार वर्ततो नथी. हाथनी हलनचलननी क्रिया थाय ते हाथना परमाणुथी थाय छे; ते क्रिया आत्माथी थती नथी. आत्मा तो पोताना गुण अने पर्यायमां वर्ती रह्यो छे. परनी पर्याय थाय तेमां आत्मा वर्ततो नथी. अरे! आंखनी पांपण हाले तेमां पांपणना परमाणु निजरसथी वर्ते छे, आत्मा नहि. पांपण हलाववानी क्रियानो परमाणु कर्ता छे, आत्मा नहि. बापु! तत्त्वनी साची द्रष्टि थया विना या भेदज्ञान थया विना धर्म न थाय.
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अहीं जीव अने अजीवनी भिन्नतानी वात चाले छे. अजीवनी कोई पण क्रियानो अंश जीव करी शके ए वात त्रणकाळ त्रणलोकमां साची नथी. तेवी रीते जीवनी अवस्था -शुभाशुभ भाव के शुद्धभाव-जड कर्मथी थाय एवुं पण त्रणकाळमां संभवित नथी. भाई! जीवादि सातेय तत्त्व भिन्न भिन्न छे. अज्ञानी दया, दान, व्रत आदि आस्रवपरिणामने आत्मा साथे एक करीने रागनो कर्ता थाय छे अने परनां कार्य हुं करी शकुं छुं एम विपरीत माने छे. अरे! लोकोने आ जीव-अजीवना अने आस्रव अने आत्माना भेदनी सूक्ष्म वातनी खबर नथी एटले तेमने बेसवी कठण पडे छे.
अहीं कहे छे के माटीरूपी द्रव्यमां माटीरूप गुण (घट परिणाम) निज रसथी वर्ती रह्यो छे. गुणनो अर्थ अहीं पर्याय थाय छे. तेमां कुंभार पोताना द्रव्यने के पर्यायने नाखतो के भेळवतो नथी. कुंभार घडो करवानो जे राग करे छे ते राग घडारूप पर्यायमां पेसतो नथी. तो ते राग घडारूप पर्यायने केम करे? अज्ञानी जीव राग करे, पण परनुं कार्य कदीय न करे-न करी शके. जे ज्ञानावरणीयादि कर्म बंधाय तेमां निमित्तरूप जे रागादि भाव छे तेनो अज्ञानी कर्ता छे पण जे कर्मनुं बंधन थाय तेनो ते कर्ता नथी. कर्मबंधन थाय ए तो जडनी पर्याय छे. जडनी पर्यायने आत्मा त्रण काळमां करी शके नहि. अहीं आ वात सिद्ध करवा घडानुं द्रष्टांत आप्युं छे.
राग अने आत्मानो जे भेद जाणे छे तेवो समकिती धर्मी जीव रागनो पण कर्ता थतो नथी. जुओ! पहेलांना समयमां मीरांबाईनुं वैराग्यमय नाटक बतावता. तेमां वात एम आवती के चित्तोडना राणा साथे मीरांबाईनां लग्न थयेलां. पण साधुनो संग करतां मीरांबाईने खूब वैराग्य थई गयेलो. राणाए मीरांबाईने कहेवडाव्युं के-‘‘मीरां घरे आवो संग छोडी साधुनो, तने पट्टराणी बनावुं.’’ परंतु मीरांने तो ईश्वरनी भारे लय लागेली. ते लयनी धूनमां राणाने कहेवा लागी-
इश्वरना प्रेममां घेली मीरांए कही दीधुं के में तो मारा नाथनी (इश्वरनी) साथे लग्न करी दीधां छे एटले हवे मने बीजो पति न होय. तेम समकिती धर्मी जीवनी परिणति अंदर रागथी भिन्न पडीने शुद्ध चैतन्य साथे जोडाई गई छे. तेथी ते कहे छे के मारी निर्मळ चैतन्यपरिणतिनो हुं स्वामी छुं, रागनो स्वामी हुं नहि अने राग मारो स्वामी नहि. शुभाशुभ भाव थाय ते विकार छे. तेनो संग हुं न करुं केमके तेनो संग करवो व्यभिचार छे. अहाहा...! हुं तो नित्यानंदस्वरूप चैतन्यमूर्ति ज्ञायकबिंब प्रभु छुं. तेने पुण्य-पापना संगमां जोडवो ते व्यभिचार छे. आम चैतन्यघनस्वरूप निज चिदानंद भगवाननी जेने लगनी लागी ते धर्मी जीव
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निर्मळ ज्ञान अने आनंदनी परिणतिनो कर्ता छे, पण रागनो कर्ता नथी. ज्यां रागनो कर्ता नथी त्यां ते परनो कर्ता होवानी तो वात ज कयां रही?
अहीं एम सिद्ध करवुं छे के परद्रव्यनी पर्यायनो अज्ञानी पण कर्ता नथी. घडारूप कार्य थाय एमां कुंभार पोताना द्रव्यने, गुणने अने पर्यायने ते घडानी पर्यायमां मूक्तो के भेळवतो नथी कारण के कोई वस्तुनुं द्रव्यांतर के गुणांतररूपे संक्रमण थवानो वस्तुस्थितिथी ज निषेध छे. वस्तुस्थिति ज एवी छे के कुंभारनुं आत्मद्रव्य पलटीने घडानी पर्यायमां जतुं नथी, तेमज कुंभारनी रागनी पर्याय पण पलटीने घडानी पर्यायमां जती नथी. तो कुंभार घडाने केवी रीते करे? झीणी वात छे भगवान! तारी ज्ञायक वस्तु तद्न भिन्न छे प्रभु! आत्मा ज्ञायक तो जगतना ज्ञेयोनो ज्ञाता छे, कर्ता नथी. रागनो पण ते खरेखर तो ज्ञाता छे, कर्ता नथी. आत्माने रागनो अने परद्रव्यनी पर्यायनो कर्ता बनाववो ए मोटी मिथ्यात्वरूपी विटंबणा छे.
१. कुंभारनुं द्रव्य पलटीने घडानी पर्यायमां जतुं नथी. २. कुंभारनी जे रागनी पर्याय छे ते पलटीने घडानी पर्यायमां जती नथी. ३. माटे कुंभार माटीनी पर्याय बदलीने घडानी पर्याय करे ए वात त्रणकाळ त्रणलोक
आटामांथी जे रोटली बनवानी क्रिया थाय ते जडनी पर्याय आटाना परमाणुओथी थाय छे. रसोई करनारी बाई तेमां पोतानी पर्यायने नाखती के भेळवती नथी. माटे बाई ते रोटलीनी पर्यायनी कर्ता नथी. बापु! आ वीतरागनो मार्ग कोई अलौकिक छे! जड अने चेतननो-बन्नेनो सदाय प्रगट भिन्न स्वभाव छे. जडनी पर्याय जडथी थाय एमां बीजो पोतानुं द्रव्य के पोतानी पर्यायने नाखतो नथी, मूकतो नथी, भेळवतो नथी. माटे जडनी क्रियाने आत्मा कदीय करतो नथी एम सिद्ध थाय छे. भाई! हुं खाउं छुं, हुं बोलुं छुं, हुं शरीरने हलावी-चलावी शकुं छुं इत्यादि अनेक प्रकारे परद्रव्यनी क्रिया हुं करी शकुं छुं एम मानवुं ए मिथ्याश्रद्धान छे अने एनुं फळ चार गतिनी रखडपट्टी छे.
पोताना गुण-पर्यायने परमां नाख्या-भेळव्या सिवाय परनुं कार्य केम करी शकाय? पोताना गुण-पर्यायने परमां तो नाखी शकाता नथी, केमके वस्तुस्थितिथी ज तेनो निषेध छे. माटे परनां कार्य कोई करी शकतुं नथी ए सिद्धांत छे. लोको बहारनी क्रियानुं कर्तापणुं मानीने मिथ्यात्वनुं सेवन करे छे. पण जेने सत्य मानवुं होय तेणे आ मानवुं पडशे. बाकी असत्य तो अनादिथी मानेलुं ज छे अने तेथी तो संसारावस्था छे. भाई! सर्वज्ञदेवे कहेलां नव तत्त्वोनुं यथार्थ श्रद्धान जेने करवुं होय तेणे आ वात मानवी ज पडशे. निमित्तथी कार्य थाय ए वातनी भगवान लाखवार ना पाडे छे. आ सत्यनो ढंढेरो छे.
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आ पुस्तकनुं पानुं फरे छे ते अवस्था पानाना रजकणोथी थई छे; तेनो कर्ता आंगळी नथी अने आत्मा पण नथी. जगतनी प्रत्येक चीज पोते पोताथी कार्यरूपे परिणमे छे; तेने बीजो परिणमावी शकतो नथी. खूब गंभीर वात छे!
जगतमां अनंत जीव छे अने अनंत अजीव जड पदार्थो छे. ते बधा अनंतपणे कयारे रही शके? अनंत द्रव्यो-प्रत्येक पोताना द्रव्यथी अने पोतानी पर्यायथी पोताना परिणाम करे छे एवुं यथार्थ माने तो अनंत द्रव्यो सिद्ध थशे. परथी परिणमन थाय एम मानतां बधां एकमेक थई जवाथी अनंत भिन्न द्रव्यो रही शकशे नहि. माटे प्रत्येक द्रव्यनुं परिणमन परनिरपेक्ष छे ए मुदनी रकमनी वात छे.
जेम पांच लाख रूपिया टकाना व्याजथी कोईने धीर्या होय ते व्याज भरीने पांच लाख भरवानी ना कहे तो ते मूळ रकमनी ना पाडे छे. ते अनर्थ छे. तेम परद्रव्यनी पर्यायने आत्मा करी शक्तो नथी ए मुदनी मूळ रकमनी वात छे. ए मूळ रकमनी ना पाडे तेने धर्म केम थाय? भलेने बाह्य क्रियाकांड लाख करे तोपण तेने धर्म नहि थाय. भाई! आ भगवाननां मंदिर बन्यां छे ने ते क्रिया आत्माए करी छे एम नथी.
प्रश्नः– कारीगरे तो करी छे के नहि?
उत्तरः– ना; बीलकुल नहि, कारण के कारीगर पोताना द्रव्यने के पर्यायने मंदिरनी पर्यायमां नाखतो के भेळवतो नथी. माटे मंदिर निर्माणनी क्रियानो कर्ता कारीगर नथी. बापु! जड तत्त्व अने चेतन तत्त्वनी सदाकाळ भिन्नता छे. अजीवनी पर्यायनो अंश जो जीव करे तो जीव जड थई जाय. पण एम बनतुं ज नथी. तेम छतां अजीवनी पर्यायने जीव करे छे एम माने ते मिथ्यात्व छे, अज्ञान छे अने तेनुं फळ संसार-परिभ्रमण छे.
खजूरमांथी अंदरना कठण ठळिया जुदा पाडवानी जे क्रिया थाय ते क्रिया आंगळीथी थाय छे एम नथी. वळी आत्माथी पण ते क्रिया थई शकती नथी. जेम कुंभार घडो बनावी शके नहि तेम आत्मा खजूरमांथी ठळिया जुदा पाडी शके नहि. आ सांभळीने केटलाक पोकारी उठे छे के ‘एकान्त छे, एकान्त छे.’ भले कहो, परंतु आ सम्यक् एकान्त छे. मोक्षमार्ग प्रकाशकना चोथा अधिकारमां पंडितप्रवर श्री टोडरमलजीए संसारी जीवोने मिथ्यादर्शननी प्रवृत्ति केवी होय छे तेनुं वर्णन कर्युं छे. त्यां कह्युं छे के-
‘‘संसारी जीव अनादिकाळथी कर्मनिमित्त वडे अनेक पर्याय धारण करे छे, पूर्व पर्यायने छोडी नवीन पर्याय धारण करे छे. त्यां एक तो पोते आत्मा तथा अनंत पुद्गलपरमाणुमय शरीर ए बंनेना एकपिंडबंधानरूप ए पर्याय होय छे. तेमां आ जीवने ‘आ हुं छुं’ एवी अहंबुद्धि थाय छे... वळी जीवने अने शरीरने निमित्त-
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नैमित्तिक संबंध छे तेनाथी जे क्रिया थाय छे तेने पोतानी माने छे.’’ हुं बोली शकुं छुं, हुं खाई शकुं छुं, हुं हाथ हलावी शकुं छुं, आंखथी देखी शकुं छुं, जीभथी चाखी शकुं छुं इत्यादि परद्रव्यनी क्रियानुं कर्तापणुं माने ते बधुं मिथ्याद्रष्टिनुं कर्तव्य (मंतव्य) छे. अरे! आवा सातिशय प्रज्ञाना धारक अति विचक्षण पंडित श्री टोडरमलजीनो द्वेषथी प्रेराईने षड्यंत्र द्वारा क्रोधित करवामां आवेला राजा द्वारा अल्प वयमां ज देहांत थयो हतो! पंडितजीए मिथ्यादर्शननुं स्वरूप अत्यंत स्पष्ट कर्युं छे.
‘राजते शोभते इति राजा.’ जे पोताना ज्ञाताद्रष्टास्वभावनुं अनुसरण करी ज्ञान अने आनंदनी पर्यायने उत्पन्न करे अने ते वडे शोभायमान रहे ते राजा-जीवराजा छे. बाकी रागनी पर्याय अने परद्रव्यनी पर्यायने पोतानी माने ए तो रांको-भिखारी छे. दया, दान, व्रत, तप इत्यादिना रागथी मारुं कल्याण थई जशे एम माननार बहारथी महाराज भले कहेवातो होय तोपण ते रांको-भिखारी छे. भाई! तारी चीज अंदर सर्वप्रदेशे ज्ञान अने आनंदथी भरेली छे. तेमां द्रष्टि दीधा विना ते रागथी प्रगट केम थाय? प्रभु! रागथी प्रगट थाय एवी तारी चीज नथी.
भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवे समयसारना बंध अधिकारमां कह्युं छे के-बीजाने हुं जीवाडी शकुं, बीजाने मारी शकुं, बीजाने सुखी-दुःखी करी शकुं, बीजाने बंध करी शकुं अने बीजाने मोक्ष करी शकुं-एम जे माने ते मिथ्याद्रष्टि छे, मूढ छे. त्यां श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे १७३मां कळश द्वारा कह्युं छे के-‘‘सर्व वस्तुओमां जे अध्यवसान थाय छे ते बधांय (अध्यवसान) जिन भगवानोए पूर्वोक्त रीते त्यागवा योग्य कह्यां छे तेथी अमे एम मानीए छीए के ‘पर जेनो आश्रय छे एवो व्यवहार ज सघळोय छोडाव्यो छे.’ तो पछी, आ सत्पुरुषो एक सम्यक् निश्चयने ज निष्कंपपणे अंगीकार करीने शुद्धज्ञानघनरूप निज महिमामां (आत्मस्वरूपमां) स्थिरता केम धरता नथी.’’
जुओ, एक सम्यक् निश्चयने ज अंगीकार करवानुं कह्युं छे, केमके ते ज एक मोक्षमार्ग छे. व्यवहार क्रियाकांडना अनेक विकल्प कांई मोक्षमार्ग नथी; ए तो बंधनां कारण छे, हेय छे, त्यागवा योग्य छे. भाई! दया, दान, व्रत, भक्ति आदि परिणामनी द्रष्टिथी हठीने त्रिकाळी शुद्ध आत्मद्रव्य उपर द्रष्टि दे तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगट थशे; अन्यथा नहि थाय. कळशमां ए ज कह्युं छे के पर जेनो आश्रय छे एवो व्यवहार ज सघळोय छोडाव्यो छे तो पछी आ सत्पुरुषो एक सम्यक् निश्चयने ज निष्कंपपणे अंगीकार करीने निज महिमामां स्थिति केम धरता नथी? लोकोने आवी सत्य वात सांभळवा मळी नथी एटले नवी लागे छे. पण आ नवी वात नथी. आ तो केवळीओए कहेली वात पुराणी छे. श्रीमद् राजचंद्र थई गया. तेमणे प० वर्ष पहेलां आ वात करी छे पण पोते गृहस्थाश्रमी हता एटले वात विशेष बहार आववा न पामी.
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अहाहा...! एकेक गाथामां जड अने चेतनने तथा राग अने ज्ञानने भिन्न पाडीने वर्णन कर्युं छे. भगवान! शुद्ध चैतन्यस्वरूप एवो तुं परनां काम करे-करी शके ए वात त्रणकाळमां सत्य नथी. मोक्षमार्गप्रकाशकमां अति स्पष्ट कह्युं छे के-‘‘पोतानो स्वभाव दर्शन- ज्ञान छे, तेनी प्रवृत्तिने निमित्तमात्र शरीरनां अंगरूप स्पर्शनादिक द्रव्य इंद्रियो छे. हवे आ जीव ते सर्वने एकरूप मानी एम माने छे के-हाथ वगेरे स्पर्श वडे में स्पर्श्युं, जीभ वडे में चाख्युं, नासिका वडे में सूंघ्युं, नेत्र वडे में दीठुं, कान वडे में सांभळ्युं’’ इत्यादि आ प्रमाणे माननार अज्ञानी मूढ मिथ्याद्रष्टि छे. जडनां कार्य आत्मा करतो नथी अने ते काळे जे राग थाय तेनो अज्ञानी कर्ता थाय छे. मार्ग बहु सूक्ष्म छे भाई! अज्ञानी कहे छे कुंभार विना घडो न थाय. ज्ञानी कहे छे माटी विना घडो न थाय. घडानो कर्ता माटी छे, कुंभार नहि. दुनियानी तद्न निराळो मार्ग छे.
अहीं कहे छे-‘द्रव्यांतररूपे संक्रमण पाम्या विना अन्य वस्तुने परिणमाववी अशकय होवाथी, पोतानां द्रव्य अने गुण बन्नेने ते घडारूपी कर्ममां नहि नाखतो एवो ते कुंभार परमार्थे तेनो कर्ता प्रतिभासतो नथी.’ जुओ, कोई द्रव्य पोतानी सत्ता छोडीने परद्रव्यमां प्रवेश करतुं नथी. वा परद्रव्यरूप थई जतुं नथी. अने द्रव्यांतररूप थया विना अन्य द्रव्यने परिणमाववुं अशकय छे. माटीरूप थया विना माटीने घडापणे परिणमाववी अशकय छे. माटे घडारूप कर्ममां नहि प्रवेशतो एवो कुंभार घडानो कर्ता प्रतिभासतो नथी एम आचार्यदेव कहे छे. आ द्रष्टांत छे.
लोको शुद्ध तत्त्वनी वात भूलीने क्रियाकांडना मार्गे चढी गया छे. व्यवहार करतां करतां निश्चय थशे ए वात पर चढी गया छे. परंतु भाई! दया, दान, व्रत, तप आदि क्रिया, महिना-महिनाना उपवासनी क्रिया-ए तो बधी रागनी क्रिया छे. एनाथी सम्यग्दर्शन अने धर्म थतो नथी. अने एमां बहारनी शरीरादिनी क्रिया तो आत्मा करी शक्तो नथी. तथापि हुं परद्रव्यनी क्रिया करुं छुं एम जो माने तो ए मिथ्यात्व छे, मूढता छे. अनंत केवळीओए अने संतोए आम कह्युं छे.
हवे सिद्धांत कहे छे-‘तेवी रीते-पुद्गलमय ज्ञानावरणादि कर्म के जे पुद्गल-द्रव्यमां अने पुद्गलना गुणमां निजरसथी ज वर्ते छे तेमां आत्मा पोताना द्रव्यने के पोताना गुणने खरेखर नाखतो-मूक्तो-भेळवतो नथी कारण के (कोई वस्तुनुं) द्रव्यांतर के गुणांतररूपे संक्रमण थवुं अशकय छे......’
पुद्गलमय ज्ञानावरणादि कर्म पुद्गलद्रव्यमां अने पुद्गलमय पोताना गुणमां
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एटले पर्यायमां निज रसथी ज वर्ते छे. तेमां आत्मा पोताना द्रव्यने के गुण एटले पर्यायने नाखतो वा भेळवतो नथी. आठ कर्म जे बंधाय तेमां आत्माना द्रव्य-पर्याय पेसतां नथी; केमके आत्मद्रव्यनुं द्रव्यांतर के गुणांतररूपे संक्रमण थवुं अशकय छे. आत्मानुं पुद्गलरूप के पुद्गलकर्मरूप थवुं अशकय छे. माटे जीव (अज्ञानी) राग-द्वेष करे त्यारे एनुं निमित्त पामीने जे जडकर्मनुं बंधन थाय तेनो आत्मा कर्ता नथी.
अरे! आवी वात कदी सांभळवा मळी न होय अने कदाचित् सांभळवा मळी जाय तो ‘एकान्त छे’ एम मानीने जती करे, पण भाई! मिथ्यात्वनो सरवाळो महादुःखरूप आवशे. ए तीव्र दुःखना प्रसंग तने भारे पडशे बापा! अहीं कहे छे के पुण्य-पापना शुभाशुभ भाव अज्ञानभावे जीव करे छे पण ते काळे जे कर्मबंधननी पर्याय थाय तेनो जीव अज्ञानभावे पण कर्ता नथी. कर्मबंधन तो जडनी पर्याय छे अने ते जड पुद्गलथी थाय छे. तेने जीव केम करे? ज्ञानावरणादिनुं कार्य पोताना पुद्गल-द्रव्यमां अने पोतानी पर्यायमां निज रसथी ज वर्ते छे. तेमां आत्मा पोताना द्रव्य-पर्यायने नाखतो नथी, केमके आत्मद्रव्य परद्रव्यमां जाय के आत्मानी पर्याय परद्रव्यनी पर्यायमां जाय एम बनवुं अशकय छे.
अज्ञानी जे विकार करे, शुभाशुभ भाव करे तेटला प्रमाणमां सामे कर्म बंधाय छे; छतां ते कर्मबंधननी पर्यायनो आत्मा कर्ता नथी. जीवे रागादि भाव कर्या माटे कर्मने बंधावुं पडयुं एम नथी. भाई! आत्मा कर्म बांधे अने आत्मा कर्म छोडे ए वस्तुस्थितिमां ज नथी. अज्ञानी पर्यायमां विकारने करे अने विकारने छोडे ए तो छे, पण ते जडकर्मने बांधे वा जडकर्मने छोडे ए वात त्रणकाळमां सत्य नथी. भगवान अरिहंतदेवे कर्म हण्यां एम कहेवुं ए तो निमित्तनुं कथन छे. कर्म तो जड छे; तेने कोण हणे? जेणे पोताना भावकर्मने हण्यां अने अनंतचतुष्टयने प्राप्त थया ते अरिहंत छे. जडकर्म तो पोताना कारणे नाश पामे छे, अकर्मरूप परिणमी जाय छे. जडकर्ममां आत्मानुं कांई कर्तव्य नथी.
जड अने चेतननो सदा प्रगट भिन्न स्वभाव छे. जडनी पर्याय चेतन करे अने चेतननी पर्याय जड करे एम कदीय बनतुं नथी. हजु जड अने चेतन-बे द्रव्यो सदाय भिन्न छे एनी जेने खबर नथी तेने पुण्य-पापना भावथी-आस्रवथी आत्मा भिन्न छे एवी भेदज्ञाननी द्रष्टि कयांथी थाय? अने एवी द्रष्टि थया विना सम्यग्दर्शन कयांथी थाय? अने सम्यग्दर्शन विना ज्ञान अने चारित्र कयांथी थाय? भाई! सम्यग्दर्शन विना बधा क्रियाकांड एकडा विनानां मींडा जेवा छे.
हवे कहे छे-‘द्रव्यांतररूपे संक्रमण पाम्या विना अन्य वस्तुने परिणमाववी अशकय होवाथी, पोतानां द्रव्य अने गुण-बंनेने ते ज्ञानावरणादि कर्ममां नहि नाखतो
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एवो ते आत्मा परमार्थे तेनो कर्ता केम होई शके? (कदी न होई शके.) माटे खरेखर आत्मा पुद्गलकर्मोनो अकर्ता ठर्यो.’
जुओ, आ निष्कर्ष कह्यो. जीव राग करे ते काळे त्यां जे कर्मबंधन थाय छे ते कर्मबंधननी पर्यायने आत्मा केम करी शके? अज्ञानी पोतानी पर्यायमां रागद्वेषना भावने करे पण ते वखते जे कर्मबंधन थाय छे ते रागथी थतुं नथी केमके राग तेमां पेसतो नथी. माटे आत्मा पुद्गलकर्मोनो अकर्ता ठर्यो. जडनी पर्यायनो अज्ञानी जीव पण कर्ता नथी एवुं अकर्तापणुं सिद्ध थयुं.
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अतोऽन्यस्तूपचारः–
जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उवयारमेत्तेण।। १०५ ।।
जीवेन कृतं कर्म भण्यते उपचारमात्रेण।। १०५ ।।
माटे आ सिवाय बीजो-एटले के आत्माने पुद्गलकर्मोनो कर्ता कहेवो ते-उपचार छे, एम हवे कहे छेः-
उपचारमात्र कथाय के आ कर्म आत्माए कर्युं. १०प.
गाथार्थः– [जीवे] जीव [हेतुभूते] निमित्तभूत्त बनतां [बन्धस्य तु] कर्म बंधनुं [परिणामम्] परिणाम थतुं [द्रष्ट्वा] देखीने, ‘[जीवेन] जीवे [कर्म कृतं] कर्म कर्युं’ एम [उपचारमात्रेण] उपचारमात्रथी [भण्यते] कहेवाय छे.
टीकाः– आ लोकमां खरेखर आत्मा स्वभावथी पौद्गलिक कर्मने निमित्तभूत नहि होवा छतां पण, अनादि अज्ञानने लीधे पौद्गलिक कर्मने निमित्तरूप थता एवा अज्ञानभावे परिणमतो होवाथी निमित्तभूत थतां, पौद्गलिक कर्म उत्पन्न थाय छे, तेथी ‘पौद्गलिक कर्म आत्माए कर्युं’ एवो निर्विकल्प विज्ञानघनस्वभावथी, भ्रष्ट, विकल्पपरायण अज्ञानीओनो विकल्प छे; ते विकल्प उपचार ज छे, परमार्थ नथी.
भावार्थः– कदाचित् थता निमित्तनैमित्तिकभावमां कर्ताकर्मभाव कहेवो ते उपचार छे.
माटे आ सिवाय बीजो-एटले के आत्माने पुद्गलकर्मोनो कर्ता कहेवो ते-उपचार छे, एम हवे कहे छेः-
आ लोकमां खरेखर आत्मा स्वभावथी पौद्गलिक कर्मने निमित्तभूत नहि होवा छतां पण, अनादि अज्ञानने लीधे पौद्गलिक कर्मने निमित्तरूप थता एवा अज्ञानभावे
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परिणमतो होवाथी निमित्तभूत थतां, पौद्गलिक कर्म उत्पन्न थाय छे, तेथी ‘‘पौद्गलिक कर्म आत्माए कर्युं’’ एवो निर्विकल्प विज्ञानघनस्वभावथी, भ्रष्ट, विकल्पपरायण अज्ञानीओनो विकल्प छे; ते विकल्प उपचार ज छे, परमार्थ नथी.
भगवान आत्मा स्वभावथी शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप छे. ते नवा कर्मबंधनमां निमित्त नथी. कर्मबंधनने निमित्तरूप एवो जे विकार-रागद्वेष अने पुण्य-पापना भाव-तेनाथी भिन्न शुद्ध चिद्रूप एकरूप वस्तु आत्मा छे. तेथी आत्मा नवा कर्मबंधननुं निमित्त नथी. जुओ, शुद्ध चैतन्यमय वस्तु आत्मामां तो रागादि विकार नथी, पण शुद्ध चैतन्य-सन्मुख थईने जे द्रष्टि थई छे ते द्रष्टिमां पण रागनो निषेध छे. तेथी शुद्ध ज्ञायक-स्वभावी भगवान आत्मानी जेने द्रष्टि थई छे एवो निर्मळ द्रष्टिवंत ज्ञानी पण कर्मबंधनमां निमित्त नथी. अहो! परम अलौकिक वात छे! पूर्ण वीतराग दशा न थाय त्यांसुधी ज्ञानीने अशुभथी बचवा शुभभाव आवे छे, परंतु ज्ञानीनी द्रष्टि स्वभाव उपर स्थिर थई होवाथी ते शुभभावनो कर्ता थतो नथी अने तेथी ते नवा कर्मबंधननुं निमित्त नथी. बहु सूक्ष्म वात छे, भाई!
भगवान आत्मा आनंदनो नाथ प्रभु शुद्ध चैतन्यस्वभावमय शुद्ध वस्तु छे. ते व्यवहाररत्नत्रयना विकल्पथी भिन्न छे. अहाहा...! शुद्ध वस्तुमां अने शुद्ध वस्तुनी द्रष्टिमां- बन्नेमां व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प नथी. तेथी जेम शुद्ध वस्तु प्रभु आत्मा नवा कर्मबंधनमां निमित्त नथी तेम शुद्ध वस्तुनो द्रष्टिवंत ज्ञानी धर्मी जीव पण नवा कर्मबंधनमां निमित्त नथी. जे रागपरिणाम नवा कर्मबंधनने निमित्तरूप थाय ते राग-परिणाम ज्ञानीने नथी केमके ज्ञानी एनाथी भिन्न पडी गयो छे. जे रागपरिणाम थाय तेने ज्ञानी मात्र जाणे ज छे, करतो नथी अने तेथी ज्ञानी नवा कर्मबंधननुं निमित्त नथी. खूब गंभीर वात छे, भाई!
व्यवहार करतां करतां समकित पामीशुं एम केटलाक माने छे पण ए मान्यता तद्न मिथ्याश्रद्धानरूप छे केमके शुद्धनिश्चयनी द्रष्टिमां व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प समातो नथी, भिन्न रही जाय छे. आ अंतरनी वात छे भाई! आमां जराय आघुपाछुं के ढीलुं माने तेने साचुं श्रद्धान नहि थाय. सम्यग्दर्शन प्रगट थवामां व्यवहारनी कोई अपेक्षा नथी. नियमसार (गाथा २ नी टीका)मां शुद्धरत्नत्रयात्मक मोक्षनो मार्ग परम निरपेक्ष छे एम कह्युं छे. धर्मीने पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपनी भावना होय छे; तेने पुण्यरूपी व्यवहारधर्मनी वांछा होती नथी. ज्यां सुधी पूर्ण वीतरागभाव न प्रगटे त्यां सुधी व्यवहारना भाव आवे खरा पण तेनी ज्ञानीने भावना होती नथी.
आनंदकंद निजस्वरूपमां झूलनारा मुनिवरोने छठ्ठा गुणस्थानमां भगवाननी भक्ति, वंदना, स्मरण तथा पंचमहाव्रतना विकल्प आवे छे पण ते बंधनुं कारण छे एम तेओ जाणे छे. शुद्ध चैतन्यनी परिणतिने धरनारा ते मुनिवरोनी द्रष्टि चैतन्यस्वभाव