Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 113-115.

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गुणसण्णिदा दु एदे कम्मं कुव्वंति पच्चया जम्हा।
तम्हा जीवोऽकत्ता गुणा य कुव्वंति कम्माणि।। ११२ ।।

सामान्यप्रत्ययाः खलु चत्वारो भण्यन्ते बन्धकर्तारः।
मिथ्यात्वमविरमणं कषाययोगौ च बोद्धव्याः।। १०९ ।।

तेषां पुनरपि चायं भणितो भेदस्तु त्रयोदशविकल्पः।
मिथ्याद्रष्टयादिः यावत् सयोगिनश्चरमान्तः।। ११० ।।

एते अचेतनाः खलु पुद्गलकर्मोदयसम्भवा यस्मात्।
ते यदि कुर्वन्ति कर्म नापि तेषां वेदक आत्मा।। १११ ।।

गुणसंज्ञितास्तु एते कर्म कुर्वन्ति प्रत्यया यस्मात्।
तस्माज्जीवोऽकर्ता गुणाश्च कुर्वन्ति कर्माणि।। ११२।।

जेथी खरे ‘गुण’ नामना आ प्रत्ययो कर्मो करे,
तेथी अकर्ता जीव छे, ‘गुणो’ करे छे कर्मने. ११२.

गाथार्थः– [चत्वारः] चार [सामान्यप्रत्ययाः] सामान्य *प्रत्ययो [खलु] निश्चयथी [बन्धकर्तारः] बंधना कर्ता [भण्यन्ते] कहेवामां आवे छे- [मिथ्यात्वम्] मिथ्यात्व, [अविरमणं] अविरमण [च] तथा [कषाययोगौ] कषाय अने योग (ए चार) [बोद्धव्याः] जाणवा. [पुनः अपि च] अने वळी [तेषां] तेमनो, [अयं] [त्रयोदशविकल्पः] तेर प्रकारनो [भेदः तु] भेद [भणितः] कहेवामां आव्यो छे- [मिथ्याद्रष्टयादिः] मिथ्याद्रष्टि (गुणस्थान) थी मांडीने [सयोगिनः चरमान्तः यावत्] सयोगकेवळी (गुणस्थान) ना चरम समय सुधीनो, [एते] आ (प्रत्ययो अथवा गुणस्थानो) [खलु] के जेओ निश्चयथी [अचेतनाः] अचेतन छे [यस्मात्] कारण के [पुद्गलकर्मोदयसम्भवाः] पुद्गलकर्मना उद्रयथी उत्पन्न थाय छे [ते] तेओ [यदि] जो [कर्म] कर्म [कुर्वन्ति] करे तो भले करे; [तेषां] तेमनो (कर्मोनो) [वेदकः अपि] भोक्ता पण [आत्मा न] आत्मा नथी. [यस्मात्] जेथी [एते] [गुणसंज्ञिताः तु] ‘गुण’ नामना [प्रत्ययाः] प्रत्ययो [कर्म] कर्म [कुर्वन्ति] करे छे [तस्मात्] तेथी [जीवः] जीव तो [अकर्ता] कर्मनो अकर्ता छे [च] अने [गुणाः] ‘गुणो’ ज [कर्माणि] कर्मोने [कुर्वन्ति] करे छे.

टीकाः– खरेखर पुद्गलकर्मनो, पुद्गलद्रव्य ज एक कर्ता छे; तेना विशेषो-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योग बंधना सामान्य हेतुओ होवाथी चार कर्ता छे; तेओ ज भेदरूप करवामां आवतां (अर्थात् तेमना ज भेद पाडवामां आवतां), _________________________________________________________________ * प्रत्ययो = कर्मबंधनां कारणो अर्थात् आस्रवो


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मिथ्याद्रष्टिथी मांडीने सयोगकेवळी सुधीना तेर कर्ता छे. हवे, जेओ पुद्गलकर्मना विपाकना प्रकारो होवाथी अत्यंत अचेतन छे एवा आ तेर कर्ताओ ज केवळ व्याप्यव्यापकभावे कांई पण पुद्गलकर्मने जो करे तो भले करे; तेमां जीवने शुं आव्युं? (कांई ज नहि.) अहीं आ तर्क छे के “पुद्गलमय मिथ्यात्वादिने वेदतो (भोगवतो) जीव पोते ज मिथ्याद्रष्टि थईने पुद्गलकर्मने करे छे”. (तेनुं समाधानः-) आ तर्क खरेखर अविवेक छे, कारण के भाव्यभावकभावनो अभाव होवाथी आत्मा निश्चयथी पुद्गलद्रव्यमय मिथ्यात्वादिनो भोक्ता पण नथी, तो पछी पुद्गलकर्मनो कर्ता केम होय? माटे एम फलित थयुं के-जेथी पुद्गलद्रव्यमय चार सामान्यप्रत्ययोना भेदरूप तेर विशेषप्रत्ययो के जेओ ‘गुण’ शब्दथी कहेवामां आवे छे (अर्थात् जेमनुं नाम गुणस्थान छे) तेओ ज केवळ कर्मोने करे छे, तेथी जीव पुद्गलकर्मोनो अकर्ता छे, ‘गुणो’ ज तेमना कर्ता छे; अने ते ‘गुणो’ तो पुद्गलद्रव्य ज छे; तेथी एम ठर्युं के पुद्गलकर्मनो पुद्गलद्रव्य ज एक कर्ता छे.

भावार्थः– शास्त्रमां प्रत्ययोने बंधना कर्ता कहेवामां आव्या छे. गुणस्थानो पण विशेष प्रत्ययो ज छे तेथी ए गुणस्थानो बंधना कर्ता छे अर्थात् पुद्गलकर्मना कर्ता छे. वळी मिथ्यात्वादि सामान्य प्रत्ययो के गुणस्थानरूप विशेष प्रत्ययो अचेतन पुद्गलद्रव्यमय ज छे, तेथी एम सिद्ध थयुं के पुद्गलद्रव्य ज पुद्गलकर्मनुं कर्ता (-करनारुं) छे; जीव कर्ता नथी. जीवने पुद्गलकर्मनो कर्ता मानवो ते अज्ञान छे.

* * *

हवे आगळनी गाथानी सूचनिकारूप काव्य कहे छेः-

* कळश ६३ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘यदि पुद्गलकर्म जीवः न एव करोति’ जो पुद्गलकर्मने जीव करतो नथी ‘तर्हि’ तो ‘तत् कः कुरुते’ तेने कोण करे छे? ‘इति अभिशङ्कया एव’ एवी आशंका करीने, -आशंका करीने एटले आपे जे कह्युं ते सत्य न होय एम शंका करीने नहि, पण समजमां न बेसतां आ केवी रीते छे एम यथार्थ समजवानी जिज्ञासा करीने- ‘एतर्हि’ हवे ‘तीव्र–रय–मोह– निवर्हणाय’ तीव्र वेगवाळा मोहनो (कर्ताकर्मपणाना अज्ञाननो) नाश करवा माटे, ‘पुद्गलकर्मकर्तृ सङ्कीर्त्यते’ पुद्गलकर्मनो कर्ता कोण छे ते कहीए छीए; ‘शृणुत’ ते हे ज्ञानना इच्छक पुरुषो! तमे सांभळो. अहाहा...! द्रव्य तो शुद्ध छे; ते कर्मनो कर्ता नथी. तो कर्मनो कर्ता कोण छे ते मिथ्यात्वना नाश माटे कहीए छीए तो हे जिज्ञासु पुरुषो! सांभळो एम कहे छे.

* * *

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समयसार गाथा १०९ थी ११२ः मथाळुं

पुद्गलकर्मनो कर्ता कोण छे ते हवे कहे छेः-

* गाथा १०९ थी ११२ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘खरेखर पुद्गलकर्मनो, पुद्गलद्रव्य ज एक कर्ता छे; तेना विशेषो-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योग बंधना सामान्य हेतुओ होवाथी चार कर्ता छे; तेओ ज भेदरूप करवामां आवतां (अर्थात् तेमना ज भेद पाडवामां आवतां), मिथ्याद्रष्टिथी मांडीने सयोगकेवळी सुधीना तेर कर्ता छे.’

तेर गुणस्थानना जे भेद छे ते बधा अचेतन पुद्गल छे एम अहीं कहे छे. तेर गुणस्थानो भगवान आत्मामां-त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यमां कयां छे? आ वात गाथा ६८मां आवी गई छे.

१. पुद्गलकर्मनो पुद्गलद्रव्य ज एक कर्ता छे. २. एना विशेषो चार-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योग बंधना सामान्य हेतुओ

होवाथी चार कर्ता छे.

३. तेओ ज भेदरूप करतां मिथ्याद्रष्टिथी मांडीने सयोगकेवळी सुधीना तेर कर्ता छे.

जुओ, पहेलां एक कर्ता छे एम कह्युं, पछी तेना चार भेद कह्या अने पछी तेओ ज भेदरूप करवामां आवतां मिथ्याद्रष्टिथी मांडीने सयोगीकेवळी सुधीना तेर कर्ता छे एम कह्युं. अहीं एम समजाववुं छे के आत्मा जे अखंड एक शुद्ध चैतन्यमय द्रव्य छे तेनुं लक्ष कर तो मिथ्यात्वादि जे भाव छे तेनो नाश थई जशे. तेर गुणस्थान छे ते जीवनुं स्वरूप नथी केमके ए तो पुद्गलकर्मना कारणे पडेला भेद छे. तेने पुद्गल-कर्म करे तो करो; एमां आत्माने शुं छे? एम कहीने आत्मा अभेद एक शुद्ध चैतन्यघन वस्तु छे एम सिद्ध करवुं छे. शुद्ध जीवद्रव्य छे ते आ तेर गुणस्थाननुं कर्ता नथी. हवे कहे छे-

‘हवे, जेओ पुद्गलकर्मना विपाकना प्रकारो होवाथी अत्यंत अचेतन छे एवा आ तेर कर्ताओ ज केवळ व्याप्यव्यापकभावे कांई पण पुद्गलकर्मने जो करे तो भले करे; तेमां जीवने शुं आव्युं! (कांई ज नहि.)’

शुं कहे छे? आ तेर गुणस्थानो पुद्गलकर्मनो विपाक छे. माटे तेओ अचेतन छे. तेमां चित्स्वरूप भगवान आत्मानो पाक नथी. जीवनी बधी अशुद्ध पर्यायोने अहीं पुद्गलमां नाखी दीधी छे.

भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यघन आनंदनो नाथ प्रभु छे. पुद्गलकर्मनो विपाक जे मिथ्यात्वथी मांडीने तेर गुणस्थानो छे ते एमां नथी. मिथ्यात्व छे ते पुद्गलकर्मनो


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विपाक छे. ते शुद्ध चैतन्यनुं फळ एटले परिणमन नथी. अहीं आत्मा जे त्रिकाळी शुद्ध वस्तु छे तेनी द्रष्टि कराववी छे केमके आत्माने शुद्ध जाणे ते शुद्धने अनुभवे अने अशुद्धने जाणे ते अशुद्धने अनुभवे-पामे. अहाहा...! आत्मा द्रव्य जे वस्तु छे ए तो सकळ निरावरण, अखंड, एक, प्रत्यक्ष प्रतिभासमय, अविनश्वर, शुद्ध पारिणामिक-परमभाव लक्षण निज परमात्मद्रव्य छे. ते द्रव्यकर्मने केम करे? पर्यायना जे भेद पडे ते पण पुद्गलकर्मनो पाक छे.

मिथ्यात्व छे ते दर्शनमोहकर्मनो पाक छे, अविरति छे ते चारित्रमोहकर्मनो पाक छे, मिथ्यात्वथी मांडीने सयोगीकेवळी सुधीना तेर गुणस्थानो कर्मनो विपाक छे अने तेथी तेओ अत्यंत अचेतन छे. सयोगी गुणस्थान अचेतन छे. सयोगी छे ने? अहाहा...!! चैतन्यमूर्ति भगवान पूर्णानंदस्वरूप परमपारिणामिकस्वभावरूप वस्तु आत्मामां कयां छे ए? नथी. जे पुद्गलकर्मनो पाक छे एवां अचेतन तेर गुणस्थानो-तेर कर्ताओ व्याप्यव्यापकभावे कांई पण पुद्गलकर्मने करे तो करे; तेमां जीवने शुं आव्युं? जीव तो शुद्ध अकर्ता छे; नवुं जे कर्म बंधाय ते आ तेर कर्ताओनुं व्याप्य छे.

खरेखर तो दरेक द्रव्य पोते व्यापक छे अने पोतानी पर्याय ते व्याप्य छे. ए वात अहीं नथी कहेवी. अहीं तो एम कहेवुं छे के तेर गुणस्थानो जे छे ते व्यापक छे अने नवां कर्म बंधाय ते व्याप्य छे. विकारी भाव प्रसरीने नवां कर्म जे व्याप्य तेने बांधे छे-एम अहीं संबंध लेवो छे.

व्याप्यव्यापकभाव खरेखर एक ज द्रव्यमां होय छे. द्रव्य कर्ता ते व्यापक अने तेनुं कर्म वा पर्याय ते एनुं व्याप्य छे. पण अहीं जुदी शैलीथी वात करी छे. आत्मा शुद्ध चैतन्यमय द्रव्य छे अने तेर गुणस्थानो अचेतन छे. चैतन्यस्वभावी प्रभु आत्मा ए तेर अचेतन गुणस्थानने केवी रीते करे? कदी न करे. अचेतन एवां गुणस्थानो शुद्ध आत्मद्रव्यमां छे ज नहि तो पछी आत्मा नवां कर्म बांधे ए कयां रह्युं? अहो! भेदज्ञाननी आ अलौकिक वात छे.

द्रव्य जे छे ए तो शुद्ध चैतन्यघन आनंदकंद प्रभु छे. नवुं कर्म जे बंधाय ते तेर गुणस्थानना कारणे बंधाय छे. गुणस्थान ते व्यापक अने पुद्गलकर्म ते एनुं व्याप्य छे. आत्मा तेमां व्यापक नथी. आत्मा जे तेर अचेतन गुणस्थानमां आवतो नथी ते नवा कर्मबंधनमां केम आवे? कर्मबंधनने ते केवी रीते करे? अहाहा...! शुद्ध द्रव्यनो आश्रय करवानी जेने रुचि जागी छे तेने मिथ्यात्वादि होय ते अल्पकाळमां टळी जाय एवी आ अपूर्व वात छे. कहे छे-तेर गुणस्थानो अचेतन छे, पुद्गल छे. ते नवा कर्मने करे तो करे; तेमां जीवने शुं आव्युं? खूब गंभीर वात छे, भाई! जीव तो शुद्ध चैतन्यमूर्ति सच्चिदानंदस्वरूप भगवान छे. पर्यायमां भले मिथ्यात्वादि हो, पण शुद्ध चैतन्यमयस्वरूपनुं लक्ष करतां ते सर्व छूटी जशे, मटी जशे एम वात छे.


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जयसेन आचार्यनी टीकामां आवे छे के हळदर अने फटकडी बेना मळवाथी लाल रंग थाय, एकथी न थाय. पुत्र थाय ते माता-पिता बेथी थाय; पुत्र एकनो न थाय. तेम जे विकार थाय छे ते चैतन्यनी पर्यायनी योग्यताथी थाय छे तेमां पुद्गल भेगुं छे. एम कहीने ते पुद्गलकर्मनुं कार्य छे एम बताववुं छे. अहीं कहे छे के आ तेर कर्ताओ पुद्गलकर्मने करे तो करे; जीवने एमां कांई नथी. जीव तो शुद्ध चिदानंदमय भगवान छे.

६८मी गाथामां आवी गयुं छे के-जवपूर्वक जे जव थाय छे ते जव ज होय छे. ए न्याये, मिथ्यात्वादि गुणस्थानो मोहकर्मनी प्रकृतिना उदयपूर्वक थतां होईने सदाय अचेतन होवाथी पुद्गल ज छे, जीव नथी. शुद्ध द्रव्यनुं-भगवान सच्चिदानंद-स्वरूपनुं जेने लक्ष थयुं छे तेने भले गुणस्थानो थोडुं पुद्गलकर्म बांधे, ते शुद्धना लक्षे स्वरूपस्थिरतानो उग्र पुरुषार्थ करीने तेर गुणस्थानथी रहित थई अल्पकाळमां मुक्तिने प्राप्त थया विना रहेशे नहि.

आचार्य कहे छे के-हे ज्ञानना इच्छक पुरुष! तुं सांभळ. एकला द्रव्यस्वभावथी जोतां तुं चैतन्यमूर्ति ज्ञाननो पुंज, आनंदरसनो कंद, शुद्ध ज्ञायक प्रभु आत्मा छो. एमां आ मिथ्यात्वादि तेर गुणस्थानो कयां छे? नथी; केमके ए तो बधां पुद्गलकर्मनो विपाक छे, पुद्गलनां फळ छे; चैतन्यनुं फळ नथी. जुओ, अशुद्ध निश्चयथी जे जीवनी पर्याय छे तेने व्यवहार गणीने अहीं पुद्गलकर्मनो विपाक कह्यो छे. आम कहीने आचार्यदेव गुणस्थान-पर्यायनुं लक्ष छोडावीने त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यनुं लक्ष करावे छे. कहे छे-हे भाई! ते तेर कर्ताओ थोडो वखत कर्मबंधनना कर्ता थाओ तो थाओ, तुं शुद्ध चैतन्यमय निज परमात्मद्रव्यनुं लक्ष कर अने तेमां ज रमण कर; तेथी तने सर्व कर्मबंधन मटी जशे. अहो! आचार्यदेवे अद्भुत वात करी छे!

प्रवचनसारनी १८९मी गाथामां निश्चयथी राग अने पुण्य-पापना परिणामनो कर्ता जीव छे एम कह्युं छे. त्यां तो विकारी भाव जीवनी पर्यायमां छे एम बताववुं छे. रागनी पर्यायमां पोतानुं ऊंधुं बळ छे एम त्यां दर्शाववानुं प्रयोजन छे. अहीं सदा एकस्वरूप ज्ञानानंदस्वरूप निज परमात्मानुं लक्ष कराववुं छे. गुणस्थानथी भिन्न शुद्ध चिदानंदमय परमपारिणामिकभावरूप आत्मद्रव्यनुं लक्ष कराववुं छे. तेथी कहे छे के गुण-स्थान छे ते पुद्गलकर्मना विपाकरूप अचेतन छे. तेने शुद्ध चैतन्यमय आत्मा केम करे? न करे. अने तो पछी आत्मा पुद्गलकर्मने केम करे? न ज करे.

शिष्यने आशंका थई के पुद्गलकर्मनो कर्ता आत्मा नथी तो तेनो कर्ता कोण छे? तेने कहे छे के आ मिथ्यात्वादि तेर गुणस्थानो के जे पुद्गलकर्मनो विपाक छे अने अचेतन छे तेओ नवां कर्मबंधनने करे छे. वळी आचार्यदेव प्रेरणा करे छे के तेओ थोडो काळ कर्मने करे तो भले करे; तेथी शुद्ध जीवने कांई नथी. मतलब के तुं शुद्ध


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जीवद्रव्यनुं लक्ष कर; तेथी तने वीतरागपरिणति प्रगट थशे अने अल्पकाळमां सर्व कर्मथी मुक्ति थई जशे.

भगवान आत्मा परिपूर्ण चिद्घनस्वरूप वस्तु छे. ते व्यापक थईने गुणस्थानने करे एम छे नहि. तो पछी नवां कर्म जे बंधाय तेने द्रव्यस्वभाव करे ए वात कयां रही? आ परथी कोई एम माने के विकार थाय छे ते कर्मने लईने थाय छे तो ते बराबर नथी. विकार तो जीवमां अशुद्ध उपादाननी योग्यताथी थाय छे. शुद्ध जीवद्रव्यमां विकार नथी अने विकार उत्पन्न करे एवी कोई एनामां शक्ति-गुण नथी. अशुद्ध उपादाननी योग्यताथी जीवमां विकार पोताथी उत्पन्न थाय छे अने त्यारे पुद्गलकर्मनो उदय तेमां निमित्त होय छे. तेथी निमित्तनी अपेक्षाए तेने पुद्गलनो विपाक कह्यो छे. अहीं द्रव्यस्वभावनी स्थिति सिद्ध करवी छे. तेथी कहे छे-भगवान! तारो स्वभाव शुद्ध चैतन्यघनरूप छे अने आ तेर गुणस्थानो अचेतनस्वभाव छे. आम बेनी भिन्नता सिद्ध करी छे. वळी जड कर्मबंधन थाय तेमां जड कारण छे, चैतन्य कारण नथी. आ तेर गुणस्थान जड छे अने तेओ जड पुद्गलकर्मना कर्ता छे. भाई! आ द्रव्यद्रष्टिनी वात छे. एककोर चैतन्यदळ अने एककोर जडनुं दळ एम बे भाग पाडी दीधा छे. अहाहा...! एककोर राम (आत्मा) अने एककोर आखुं गाम (जड भावो) छे. अचेतन एवां गुणस्थानो अचेतन कर्मने करे तो करो; एमां चेतनने शुं छे? आ प्रमाणे पुद्गलकर्मने कोण करे छे ते आशंकानुं अहीं समाधान करे छे.

भाई! तुं शुद्ध चैतन्यमय शाश्वत महाप्रभु छे अने आ तेर गुणस्थान छे ते प्रत्ययो, आस्रवो छे; ते पुद्गलकर्मनो परिपाक छे. ए आस्रवो थोडो (कर्मनो) आस्रव करो तो करो; तेमां तने (द्रव्यने) शुं छे? तुं तो शुद्ध उपादानस्वरूप प्रभु छे. जे अशुद्ध उपादान छे ते निमित्तने (पुद्गलकर्मने) आधीन-वश थईने वर्ते छे तेथी ते जड अचेतन छे. मिथ्यात्वादि जे चार भेद अथवा तेर भेद छे ए बधा अचेतन छे. अने चेतननो अचेतनमां अने अचेतननो चेतनमां कदीय प्रवेश नथी. अरे! चेतन, अचेतन द्रव्यो परस्पर अडतांय नथी. अहीं एम कहेवुं छे के-प्रभु! तुं तारा शुद्ध चैतन्यस्वभावमय शाश्वत वस्तुनी प्रतीति-विश्वास कर. ते (शुद्ध आत्मा) कदीय पुद्गलकर्मनो कर्ता नथी. हवे कहे छे-

‘अहीं आ तर्क छे के ‘‘पुद्गलमय मिथ्यात्वादिने वेदतो (भोगवतो) जीव पोते ज मिथ्याद्रष्टि थईने पुद्गलकर्मने करे छे.’’ (तेनुं समाधानः-) आ तर्क खरेखर अविवेक छे, कारण के भाव्यभावकभावनो अभाव होवाथी आत्मा निश्चयथी पुद्गलद्रव्यमय मिथ्यात्वादिनो भोक्ता पण नथी, तो पछी पुद्गलकर्मनो कर्ता केम होय?’


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शिष्य तर्कपूर्वक शंका करे छे के-जीव पुद्गलमय मिथ्यात्वादिने वेदे छे तो वेदतो थको ते मिथ्याद्रष्टि थईने पुद्गलकर्मने करे छे. जे वेदे छे ते करे छे एम तर्क छे. तेने कहे छे के भाई! आ तर्क तारो अविवेक छे, केमके शुद्ध चैतन्यमय प्रभु आत्मा जडने भोगवतो नथी. आ तेर गुणस्थानो छे ए तो जड अचेतन छे. तेने चैतन्यमय प्रभु केम भोगवे? अहाहा...! तारुं जीवद्रव्य तो अखंड अभेद परिपूर्ण चैतन्य, चैतन्य, चैतन्यमय वस्तु छे. आवुं शुद्ध जीवद्रव्य अचेतन एवां गुणस्थानने वेदतुं नथी तो पछी पुद्गलकर्मने केवी रीते वेदे? भाई! जीवद्रव्य पुद्गलकर्मने भोगवतुं नथी माटे ते पुद्गलकर्मनुं कर्ता नथी. पुद्गलकर्मने आत्मा वेदे नहि माटे तेनो आत्मा कर्ता पण नथी ए न्याय छे.

भाव्यभावकभावनो अभाव छे माटे आत्मा पुद्गलद्रव्यमय मिथ्यात्वादिनो भोक्ता नथी. आत्मा भावक अने कर्मना विपाकथी नीपजेलां भेदरूप अचेतन गुणस्थान भाव्य-एवा भाव्यभावकभावनो अभाव छे. खरेखर तो आ गुणस्थानो भावक एवा जड पुद्गलकर्मनुं भाव्य छे. पुद्गलकर्म गुणस्थानने भोगवे तो भोगवो; एमां आत्माने शुं छे? आत्मा शुद्ध चैतन्यमय द्रव्य छे अने तेमां पुद्गलमय रागादिनो अभाव छे. तो पछी आत्मा जड रागादिने केम वेदे? न वेदे. अहा! खूब सूक्ष्म अटपटी वात छे प्रभु! उपयोग सूक्ष्म करे तो समजाय एम छे. अहीं कहे छे के अतीन्द्रिय आनंदथी ठसोठस भरेलो शाश्वत सच्चिदानंदस्वरूप भगवान अचेतनमां केम आवे? न आवे. अने जो न आवे तो ते अचेतन गुणस्थान अने पुद्गलकर्मने केम वेदे? (न वेदे.) आ सुखदुःखनी जे कल्पना छे ते जडकर्मरूपी भावकनुं भाव्य छे, आत्मामां-शुद्ध चैतन्यमां तेनो अभाव छे.

भगवान आत्मा सकळ निरावरण अखंड एक प्रत्यक्ष प्रतिभासमय परमात्मा छे. ते अचेतन गुणस्थानमां कयां आवे छे? गुणस्थानो भले थोडां कर्म बांधे ते बांधे, आत्माने तेमां कांई नथी. आत्मा तो आनंद अने शांतिनो त्रिकाळी ध्रुव ढगलो छे. ते अचेतन कर्मनुं फळ जे मिथ्यात्वादि गुणस्थान तेने वेदतो य नथी अने करतो य नथी. अने तो पछी ते पुद्गलकर्मने करे छे ए वात कयां रही?

विकारनुं वेदन ए जीवद्रव्यना स्वरूपमां नथी. जीवद्रव्य तो शुद्ध चैतन्यप्रकाशनो पुंज छे. ए तो जेवो छे तेवो त्रिकाळ छे. परंतु रागनी आडमां ढंकाई गयो छे. ते विकारनी अवस्थाने अहीं अचेतन कहीने तेनाथी भिन्न शुद्धद्रव्यनी द्रष्टि करावी छे, तेथी तो कह्युं के मिथ्यात्वादि अचेतन गुणस्थाने थोडुं अचेतन कर्म करे तो करो, शुद्ध जीवने एमां कांई नथी अर्थात् शुद्ध जीव कर्मनो कर्ता नथी.

आत्मामां बधा भाव्यभावकभावनो अभाव छे. जड पुद्गलकर्मनो विपाक भावक छे अने मिथ्यात्वादि तेर गुणस्थान तेनुं भाव्य छे. वळी तेर गुणस्थान भावक छे अने


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नवां कर्म जे बंधाय ते एनुं भाव्य छे. बन्ने प्रकारे आत्मामां भाव्यभावकभावनो अभाव होवाथी आत्मा न गुणस्थानने वेदे छे, न पुद्गलकर्मने वेदे छे. अने नहि वेदतो एवो ते पुद्गलकर्मनो कर्ता नथी. अहो! चेतन-अचेतनना बे स्पष्ट भाग पाडीने आचार्यदेवे अलौकिक भेदज्ञान कराव्युं छे.

विकृत अवस्था पोताथी पोताना स्वकाळे क्रमबद्ध उत्पन्न थाय छे. क्रमबद्ध थाय छे एवुं ज्ञान करनारने शुद्ध द्रव्यनुं लक्ष होय छे. क्रमबद्धने जाणनारो अकर्ता छे; अने अकर्ता छे एटले ज्ञाता छे. अंदर पोताना शुद्ध ज्ञायकने जाणनारुं ज्ञान, जे रागादि भाव छे ते पोतानो नथी, परनो छे एम जाणीने तेने काढी नाखे छे. आ भेदज्ञाननी क्रिया छे. आवुं भेदज्ञान जेने प्रगट छे एवा धर्मी जीवने निरंतर पर्यायमां आनंदनुं वेदन छे. कर्मनुं फळ जे सुखदुःखनी कल्पना तेने धर्मी वेदतो नथी.

अहीं कहे छे के आत्मा अनंतगुणनो रसकंद चैतन्य महाप्रभु महा-आत्मा छे. तेमां विकार नथी अने विकार करे एवो गुण पण नथी. तो पछी आत्मा विकारने अने मिथ्यात्वादि गुणस्थानने केवी रीते करे अने केवी रीते भोगवे? पर्यायने रागनो संबंध छे, शुद्ध त्रिकाळी द्रव्यने रागनो संबंध छे ज नहि. माटे भगवान आत्मामां रागनुं करवुं य नथी अने रागनुं वेदवुं य नथी. आवो ज शुद्ध द्रव्यस्वभाव छे.

त्रिलोकनाथ सर्वज्ञदेव जिनेश्वरदेवनी आ वाणी छे. तेमां कहे छे के-भगवान! तुं शुद्ध चैतन्यमय एकरूप चिद्रूप छो ने! सदा निरावरण छो ने! जो आवरण होय तो गुणस्थानना भेद पडे. पण तारो द्रव्यस्वभाव तो त्रिकाळ निरावरण छे. तेमां गुण-स्थान केवां? तेर गुणस्थान तो अचेतन छे, पुद्गल छे, जड कर्मनो पाक छे. प्रभु! आनंदनो नाथ एवा तारामां अतीन्द्रिय आनंदनो पाक पाके एवुं तारुं स्वरूप छे. ज्यां राग पाके ते तुं नहि, ए तो पुद्गल छे. राग छे ए तो भावक एवा पुद्गलकर्मनुं भाव्य छे. तेथी आत्मा पुद्गलद्रव्यमय मिथ्यात्वादिनो वेदनारो छे माटे तेनो कर्ता छे एवो तारो जे तर्क छे ते मिथ्या छे, अविवेकथी भरेलो छे. भाई! जेम आत्मा रागनो कर्ता नथी तेम रागनो वेदक पण नथी अने जेम रागनो वेदक नथी तेम रागनो कर्ता पण नथी.

अहाहा...! पूर्णानंदनो नाथ चैतन्यहीरलो शुद्ध चैतन्यस्फटिकरत्न अंदर सदा बिराजे छे. एमां विकारनी झांय कयां छे? अहीं एकलुं शुद्ध द्रव्य सिद्ध करवुं छे. वर्तमान पर्यायमां जे विकार छे ते तेनी पोतानी योग्यताथी छे. पण अहीं विकार सिद्ध करवो नथी. अहीं तो विकारथी भिन्न त्रिकाळ निरावरण शुद्ध चैतन्यमय द्रव्य सिद्ध करवुं छे. सम्यग्दर्शननो विषय जे त्रिकाळी शुद्ध परमात्मद्रव्य ते सिद्ध करवुं छे. तो कहे छे के सकळ निरावरण अखंड एक प्रत्यक्ष प्रतिभासमय शुद्ध पारिणामिकभाव-स्वरूप परमभावलक्षण निज परमात्मद्रव्य ते हुं छुं, खंड ज्ञान ते हुं नहि-एम


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सम्यग्द्रष्टि भावे छे. सम्यग्दर्शन थवा पहेलां पण आवुं निर्विकार निज द्रव्य छे तेनी भावना करवाथी सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. प्रभु! तुं मोटो आवो महाप्रभु छे तेने भूलीने अरेरे! रागनो हुं वेदनारो अने रागनो हुं करनारो एवुं मानवामां गुंचाई गयो! भगवान आत्मा राग अने गुणस्थानने वेदे अने करे एवुं एनुं स्वरूप ज नथी. हवे कहे छे-

‘माटे एम फलित थयुं के-जेथी पुद्गलद्रव्यमय चार सामान्य प्रत्ययोना भेदरूप तेर विशेष प्रत्ययो के जेओ ‘‘गुण’’ शब्दथी कहेवामां आवे छे (अर्थात् जेमनुं नाम गुणस्थान छे) तेओ ज केवळ कर्मोने करे छे, तेथी जीव पुद्गलकर्मोनो अकर्ता छे, ‘‘गुणो’’ ज तेमना कर्ता छे; अने ते ‘‘गुणो’’ तो पुद्गलद्रव्य ज छे; तेथी एम ठर्युं के पुद्गलकर्मनो पुद्गलद्रव्य ज एक कर्ता छे.’

प्रत्यय कहो के आस्रव कहो ते एक ज वात छे. ते बधा पुद्गलद्रव्यमय छे. मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योग ए चार सामान्य प्रत्ययो एटले आस्रवो छे. तेना भेदरूप तेर विशेष आस्रवो के जेओ ‘गुण’ शब्दथी कहेवामां आवे छे तेओ ज केवळ कर्मने करे छे. अने आ ‘गुणो’ एटले गुणस्थानो पुद्गलद्रव्य ज छे. माटे एम सिद्ध थयुं के पुद्गलकर्मनो पुद्गल द्रव्य ज एक कर्ता छे, जीव तो अकर्ता ज छे.

अरे! लोको बिचारा विषयकषायमां गरी गया छे. वेपारंधधा अने बायडी-छोकरांने साचववामां आखी जिंदगी गुमावी दे छे. आवुं तत्त्व समजवानी फुरसद मेळवता नथी. पण भाई! ए विषयकषायनुं फळ बहु माठुं आवशे; ए सहन करवुं महा आकरुं पडशे भाई! अहीं कहे छे के प्रभु! तुं चैतन्यमणिरत्न छो. आवो तुं अचेतन धूळमां केम आवे? आ मिथ्यात्वादि सामान्य चार अने विशेष तेर प्रत्ययो अचेतन पुद्गलमय धूळमय ज छे, केमके तेओ पुद्गलनुं कार्य छे, जीव तेनो कर्ता नथी. वळी तुं एना वेदननी वात करे छे पण चिदानंदघनस्वरूप एवो तुं ए अचेतनने केवी रीते वेदे? अहाहा...! चैतन्यरत्नाकर प्रभु आत्मा अचेतनने केवी रीते वेदे? माटे आत्मा मिथ्यात्वादिने वेदे छे माटे करे छे एवो जे तारो तर्क छे ते जूठो छे. मिथ्याद्रष्टिने पण मिथ्यात्वादि जे प्रत्ययो छे तेनो कर्ता पुद्गल छे, आत्मद्रव्य तेनो कर्ता नथी.

माटे एम फलित थयुं के पुद्गलद्रव्यमय चार सामान्य प्रत्ययो अने तेना भेदरूप तेर विशेष प्रत्ययो के जेनुं नाम गुणस्थान छे तेओ ज केवळ कर्मोने करे छे. भगवान आत्मा गुणस्थानने करतो नथी तो नवां पुद्गलकर्म बंधाय तेने केम करे? तेथी जीव पुद्गलकर्मोनो अकर्ता छे. गुणो ज तेमना कर्ता छे; ते गुणो-गुणस्थानो पुद्गलद्रव्य ज छे; तेथी एम सिद्ध थयुं के पुद्गलकर्मनो पुद्गलद्रव्य ज एक कर्ता छे.

आ तेर अचेतन गुणस्थानो अचेतन कर्मने करे तो करो, एमां आत्माने कांई


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लागतुं वळगतुं नथी एम कहीने आचार्ये शुद्ध चैतन्यमय निज आत्मानी द्रष्टि-द्रव्यद्रष्टि करावी छे.

* गाथा १०९ थी ११२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘शास्त्रमां प्रत्ययोने बंधना कर्ता कहेवामां आव्या छे. गुणस्थानो पण विशेष प्रत्ययो ज छे. तेथी ए गुणस्थानो बंधना कर्ता छे अर्थात् पुद्गलकर्मना कर्ता छे. वळी मिथ्यात्वादि सामान्य प्रत्ययो के गुणस्थानरूप विशेष प्रत्ययो अचेतन पुद्गलद्रव्यमय ज छे, तेथी एम सिद्ध थयुं के पुद्गलद्रव्य ज पुद्गलकर्मनो कर्ता (-करनारुं) छे; जीव कर्ता नथी. जीवने पुद्गलकर्मनो कर्ता मानवो ते अज्ञान छे.’

जे भावथी नवां कर्म आवे ते भावने आस्रव कहे छे. प्रत्ययो एटले के आस्रवो. तेना मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योग एम चार भेद छे. तेने सिद्धांतशास्त्रोमां बंधनां कारणो कहेला छे. ते रीते तेर गुणस्थानो पण बंधनां कारण छे, केमके तेओ पण विशेष प्रत्ययो छे. चार सामान्य प्रत्ययो अने तेर विशेष प्रत्ययो ए बधा बंधना कर्ता छे.

जेम सीडी चढवानां पगथियां होय छे तेम आत्मानी पर्यायमां चौद प्रकारना भाव थाय छे. तेमांथी मिथ्यात्वादि तेर प्रकारना भाव छे ते चार सामान्य प्रत्ययोना विशेष भेदो छे. ते तेर गुणस्थानो पुद्गलकर्मना बंधना कर्ता छे.

गुणस्थानो अशुद्ध निश्चयथी एटले के व्यवहारथी जीवनी पर्यायना भेदो छे. पण अहीं शुद्धनिश्चयनुं कथन छे. भगवान आत्मा अनंत गुणनो पिंड प्रभु शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप वस्तु छे. तेमां आ अचेतन आस्रवो नथी एम अहीं कह्युं छे. अहाहा...! एकलो जाणग-जाणग- जाणग जेनो स्वभाव छे एवा ज्ञानानंदस्वभावी प्रभु आत्मामां परद्रव्य जे शरीर, मन, वाणी, लक्ष्मी, स्त्री, परिवार इत्यादि तो नथी केमके ए तो तद्न भिन्न चीज छे; पण पर्यायमां जे राग थाय छे ते पण आत्मामां नथी. मिथ्यात्वादि सामान्य प्रत्ययो अने गुणस्थानरूप विशेष प्रत्ययो जेओ अचेतन छे ते आत्मामां नथी एम कहे छे.

आत्मामां अनंत गुण छे. तेमां रागनो कर्ता थाय एवो कोई गुण नथी. सामान्य प्रत्ययो चार अने विशेष प्रत्ययो तेर जे अचेतन छे तेनो कर्ता पुद्गलकर्म छे, जीव तेनो कर्ता नथी. तथा जे नवां कर्मबंधन थाय तेनो पण आत्मा कर्ता नथी. तो कोण कर्ता छे? आ गुणस्थानादि जे अचेतन प्रत्ययो छे ते ज नवा पुद्गलकर्मबंधनना कर्ता छे. आ अचेतनभावो-प्रत्ययो आत्माना शुद्ध चैतन्यस्वभावथी भिन्न छे. अशुद्ध निश्चयथी तेमने जीवनी पर्याय कहेवाय छे पण अशुद्ध निश्चय ते व्यवहार छे अने ते व्यवहारनो अहीं निषेध कर्यो छे.


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अरे! आवी शुद्ध तत्त्वनी वात लोकोने सांभळवा मळवी अत्यारे महा मुश्केल छे. आस्रवना मलिन भाव मारा छे एवुं मानीने चोरासीना अनंत अवतार जीव करी चूकयो छे. अने ज्यां सुधी मिथ्यात्वादि भाव मारा छे एम मानशे त्यां सुधी भवनुं परिभ्रमण ऊभुं रहेशे, अनंत जन्म-मरणमां रखडवुं पडशे. भाई! आ अवसर तत्त्वनी समजण करवानो छे. अहीं त्रण वात करी छे-

१. मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योग ए चार सामान्य प्रत्ययो एटले आस्रवो छे. २. तेर गुणस्थानो ते विशेष प्रत्ययो छे; ते पण आस्रवो छे.

३. नवा कर्मबंधनना तेओ कारण छे; आत्मा बंधनुं कारण नथी. भगवान आत्मा

चैतन्यना प्रकाशना नूरनुं पूर छे. रागद्वेषना भाव अने गुणस्थानादिमां शुद्ध
चैतन्यस्वरूप ज्ञायकभावनो अभाव छे अने शुद्ध ज्ञायकमां तेमनो अभाव छे. तेथी
गुणस्थानोने अचेतन कह्या छे.

एककोर आत्मा एकलुं चैतन्यदळ अने बीजीकोर गुणस्थान आदि अनेक भेदरूप अचेतन दळ-बन्नेना तद्न जुदा भाग पाडी दीधा छे. जन्म-मरणना अंत करवानो आ ज मार्ग छे, भाई! अज्ञानीओ रखडवाना मार्गमां भूला पडया छे. अहा! मोटो राजा होय ने मरीने भूंड थाय अने मोटो शेठ होय ने मरीने भेंस थाय! आत्मा चीज शुं छे एनी जेने खबर नथी एना आवा ज हाल थाय. आचार्यदेव अहीं संसारपरिभ्रमणथी छूटवानो मार्ग बतावे छे. कहे छे-

आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदनो कंद प्रभु छे. एमां दया, दान, व्रत, भक्ति अने विषय-कषायना भाव नथी. ए बधा भाव तो आस्रव छे अने ते अचेतन छे. ते भाव नवा कर्मबंधननुं कारण छे.

वेपारधंधा अने कुटुंब-कबीलाने साचववाना भाव ए पापभाव छे. दया, दान, व्रत, भक्ति वगेरे भाव ए पुण्यभाव छे. पुण्य अने पापना बंने भाव बंधनुं कारण छे केमके तेओ अचेतन छे. तेओ अचेतन केम छे? तो कहे छे के ए पुण्यपापना भावोमां चैतन्यनुं किरण नथी. जेम सूर्यनुं किरण प्रकाशमय होय छे तेम चैतन्यप्रकाशनो पुंज प्रभु आत्मा छे तेनुं किरण ज्ञानना प्रकाशमय होय छे. पण आ पुण्यपापना भावमां ज्ञाननुं किरण नथी माटे तेओ अचेतन छे. भाई! आ बार व्रतना परिणाम अने पंचमहाव्रतना परिणाम अचेतन छे, केमके तेमां चैतन्यप्रकाशनुं किरण नथी. कदी सांभळ्‌युं नथी एटले लोकोने आकरुं पडे छे. पण अहीं तो कहे छे के प्रत्ययो-तेर गुणस्थानो बधा अचेतन छे, पुद्गलद्रव्यमय ज छे अने तेओ ज नवा कर्मबंधनां कारण छे.


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बापु! तें आ कदी सांभळ्‌युं नहि! कदी शुद्ध तत्त्व अनुभव्युं नहि! अरे! बहारना ढसरडा करी करीने मरी गयो! आखो दिवस पाप करी करीने तुं चार गतिमां रखडी मर्यो छे. प्रभु! एकवार उल्लास लावीने सांभळ. आ अवसर छे. भगवान त्रिलोकनाथ सर्वज्ञदेवनो हुकम आचार्यदेव तने संभळावे छे. कहे छे के-

भगवान आत्मा अंदर एकलो शुद्ध चैतन्य अने आनंदस्वरूप छे. अने पुण्य-पापरूप जे शुभाशुभ भाव थाय ते आस्रव छे, भगवान आत्माथी बाह्य छे, भिन्न छे. आ हीरा, माणेक, मोती वगेरे छे ते अचेतन पुद्गलद्रव्यमय छे. अने हीरा वगेरे वेचीने धूळ (पैसा) कमावानो जे भाव थाय ते ममतानो भाव पण अचेतन छे. वळी राग मंद करीने पैसा दानमां, पूजा-प्रभावनामां खर्चवानो जे शुभभाव थाय ते पण अचेतन छे; केमके रागमां ज्ञान कयां छे? माटे राग सघळोय अचेतन छे. जेम साकरना गांगडा उपर बाळकनो मेलो हाथ अडकी जाय तो तेना उपर मेल चोंटे छे; ए मेल छे ते साकरथी भिन्न छे, साकरना स्वरूपभूत नथी. तेम भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप साकरनो गांगडो छे; तेमां (पर्यायमां) आ पुण्यपापना भाव छे ते मेल छे अने ए मेल छे ते आत्माथी भिन्न छे, शुद्ध चैतन्यना स्वरूपभूत नथी.

अहाहा...! आ शरीर, मन, वाणी, कर्म, नोकर्म, धन-धान्य आदि धूळ-माटी तो कयांय दूर (भिन्न) रही गयां. अहीं तो कहे छे के मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग एम चार प्रत्ययो अने तेर गुणस्थानरूप विशेष प्रत्ययो-ए सर्व अचेतन छे, पुद्गलद्रव्यमय छे. ते सर्व अचेतनने कोई मारी चीज छे एम माने तो ए मिथ्यात्व छे. मिथ्यात्वना, जूठा श्रद्धानना भावमां अनंतभव करवानो गर्भ पडेलो छे, भाई! माटे स्वरूपनी समजण करीने यथार्थ श्रद्धान करवुं जोईए.

मिथ्यात्वादि चार सामान्य प्रत्ययो अने गुणस्थानरूप तेर विशेष प्रत्ययो अचेतन पुद्गलद्रव्यमय ज छे; तेथी एम सिद्ध थयुं के पुद्गलद्रव्य ज पुद्गलकर्मनुं कर्ता छे. अचेतन जे तेर गुणस्थानरूप पुद्गलद्रव्य छे ते ज पुद्गलकर्मनुं कर्ता छे, आत्मा तेनो कर्ता नथी.

आ काळमां शुद्ध रत्नत्रयरूप धर्म कठण-दुर्लभ थई पडयो छे. जीवोनो समय प्रायः संसारना पापकार्योमां ज व्यतीत थाय छे, अने पुण्य करे छे तो एनांय कांई ठेकाणां नथी. कोईवार तेओ थोडुं पुण्य करे छे पण ए तो ‘एरणनी चोरी अने सोयनुं दान’ एना जेवी वात छे. धनादि खर्चवामां, दान, भक्ति इत्यादिमां राग मंद करे तो थोडुं पुण्य बंधाय पण मिथ्यात्व तेने खाई जाय छे. तेथी महदंशे तो ते पाप ज उपजावे छे. तेने कहे छे के भाई! आत्मा एक ज्ञायकस्वरूप भगवान अंदर बिराजे छे तेनी द्रष्टि कर्या विना बीजी कोई रीते (पुण्य उपजावीने पण) तारा जन्म-मरणना फेरा नहि मटे. प्रभु! तुं नरकना, पशुना, कागडा, कूतरा ने कंथवाना भव अनंतवार करी करीने मरी गयो छे, दुःखीदुःखी थयो छे. हे भाई! तारे जो आ


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भवना दुःखथी छूटवुं होय तो अंदर रागथी भिन्न शुद्ध चैतन्यमूर्ति बिराजे छे तेनी द्रष्टि कर, तेनो ज अनुभव कर तेनुं ज सेवन कर, दया, दान आदि विकल्पमां-रागमां न ऊभो रहे; अंदर जा अने शुद्ध चैतन्यतत्त्वने पकड. तेथी तारुं कल्याण थशे.

आफ्रिकामां बे हजार वर्षथी दिगंबर जिनमंदिर न हतुं. त्यां हमणां जिनालयनुं खातमुहूर्त थयुं. तेमां कोई बे-पांच लाखनुं दान आपे अने तेमां रागनी मंदता करे तो एनाथी तेने पुण्यबंध थाय, पण धर्म न थाय. क्रोड रूपिया आपे तोय शुं? क्रोडनुं धन मारुं छे एम मानीने तेने दानमां खर्चे तो एनी मान्यता मिथ्यात्व छे. अने ए मिथ्यात्व महापाप छे. जन्म-मरणरहित थवानो मार्ग बहु जुदो छे बापु! आकरी पडे पण आ ज वात सत्य छे, प्रभु! अरे भाई! हजु जेने चारगतिमां रझळवाना कारणरूप भावना स्वरूपनी पण खबर नथी तेने धर्म केम प्राप्त थाय?

प्रभु! तुं अनंत अनंत गुणनो पिंड चिन्मात्र चैतन्यहीरलो छो. अहाहा.......! तेनी किंमत शुं? अणमोल-अणमोल चीज भगवानस्वरूपे जिनस्वरूपे अंतरमां विराजी रही छे! कह्युं छे ने के-

‘‘घट घट अंतर जिन बसै, घट घट अंतर जैन;
मत-मदिराके पान सौं, मतवाला समुझै न.’’

अहाहा...! भगवान त्रिकाळ वीतरागस्वरूप प्रभु अंदर विराजे छे; अत्यारे हों! तेनुं त्रिकाळस्वरूप वीतरागता छे. चैतन्यस्वरूप, अकषायरूप, परमानंदमय परमप्रभुता-स्वरूप भगवान द्रव्यस्वभाव छे. तेनाथी विपरीत जे आ पुण्य-पाप अने गुणस्थानना भाव छे ते नवाबंधना कारण छे. आ विकारी भाव संसारनी रझळपट्टीनुं कारण छे. मिथ्यापक्षरूपी मदिराना सेवनथी उन्मत्त थयेलो जीव अरेरे! आ समजतो नथी!

वाणिया घासलेट बाळीने वेपारमां नामुं मेळवे पण भगवान सर्वज्ञदेवनी शुं आज्ञा छे ते जाणीने तेनी साथे पोताना परिणाम मेळवता नथी. परंतु भाई! आ भव (अवसर) भवनो (संसारनो) अभाव करवा माटे छे. तेमां आ वात न सांभळी तो तुं कयां जईश, प्रभु! जेम वंटोळियामां तणखलुं उडीने कयां जई पडशे ते खबर नथी तेम आत्मभानरहित थईने संसारमां रझळतो जीव मरीने कागडे, कूतरे.......कयां चाल्यो जशे? विचार कर.

अहा! पंडित जयचंदजीए केवो सरस भावार्थ कर्यो छे. कहे छे के-तेथी एम सिद्ध थयुं के पुद्गलद्रव्य ज पुद्गलकर्मनुं कर्ता छे; जीव कर्ता नथी. जीवने पुद्गलकर्मनो कर्ता मानवो ते अज्ञान छे.

मिथ्यात्वादि भावो छे ते आस्रव छे, बंधनुं कारण छे केमके तेओ अचेतन छे, पुद्गलद्रव्यमय छे, जीवरूप नथी. द्रव्य वस्तु छे ते तो शुद्ध चिन्मात्र परमब्रह्मस्वरूप


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परमात्मा छे. ते विकार केम करे? कदी न करे तेथी पर्यायमां जे आ विकार थाय छे ते अचेतन पुद्गलद्रव्यमय छे. जेम सूर्यमांथी प्रकाशनां असंख्य किरण नीकळे पण कोलसा जेवुं काळुं अंधकारनुं किरण न नीकळे, तेम चैतन्यप्रकाशनो पुंज प्रभु आत्मा जे चैतन्यसूर्य छे तेमांथी चैतन्यप्रकाशनां किरण नीकळे पण रागादि अंधकारनुं किरण न नीकळे. तेथी पर्यायमां जे रागादि भाव छे, गुणस्थानरूप भाव छे ते चैतन्यना प्रकाशरहित होवाथी अचेतन छे अने अचेतन छे माटे जड पुद्गलद्रव्यमय छे. तथा आ गुणस्थान आदि भावो-आस्रवो बंधना कर्ता होवाथी एम सिद्ध थयुं के पुद्गलद्रव्य ज पुद्गलकर्मोनुं कर्ता छे, जीव कर्ता नथी.

गुणस्थान आदि प्रत्ययो नवा पुद्गलकर्मबंधनना कर्ता छे, शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा कर्ता नथी. आम छे छतां एक ज्ञायकभाव जेनो स्वभाव छे एवो आत्मा पुद्गलकर्मनो कर्ता छे एम मानवुं ते अज्ञान छे, मूढपणुं छे, मिथ्यात्व छे.

[प्रवचन नं. २०९ अने २१० (१९मी वारनां) * दिनांक २-३-७९ थी ३-३-७९]

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न च जीवप्रत्यययोरेकत्वम्

जह जीवस्स अणण्णुवओगो कोहो वि तह जदि अणण्णो।
जीवस्साजीवस्स य एवमणण्णत्तमावण्णं।। ११३ ।।

एवमिह जो दु जीवो सो चेव दु णियमदो तहाऽजीवो।
अयमेयत्ते दोसो पच्चयणोकम्मकम्माणं।। ११४ ।।

अह दे अण्णो कोहो अण्णुवओगप्पगो हवदि चेदा।
जह कोहो तह पच्चय कम्मं णोकम्ममवि अण्णं।। ११५ ।।

यथा जीवस्यानन्य उपयोगः क्रोधोऽपि तथा यद्यनन्यः।
जीवस्याजीवस्य चैवमनन्यत्वमापन्नम् ।। ११३ ।।

एवमिह यस्तु जीवः स चैव तु नियमतस्तथाऽजीवः।
अयमेकत्वे दोषः प्रत्ययनोकर्मकर्मणाम्।। ११४ ।।

अथ ते अन्यः क्रोधोऽन्यः उपयोगात्मको भवति चेतयिता।
यथा क्रोधस्तथा प्रत्ययाः कर्म नोकर्माप्यन्यत्।। ११५ ।।

वळी जीवने अने ते प्रत्ययोने एकपणुं नथी एम हवे कहे छेः-

उपयोग जेम अनन्य जीवनो, क्रोध तेम अनन्य जो,
तो दोष आवे जीव तेम अजीवना एकत्वनो. ११३.

तो जगतमां जे जीव ते ज अजीव पण निश्चय ठरे;
नोकर्म, प्रत्यय, कर्मना एकत्वमां पण दोष ए. ११४.

जो क्रोध ए रीत अन्य, जीव उपयोगआत्मक अन्य छे,
तो क्रोधवत् नोकर्म, प्रत्यय, कर्म ते पण अन्य छे. ११प.

गाथार्थः– [यथा] जेम [जीवस्य] जीवने [उपयोगः] उपयोग [अनन्यः] अनन्य अर्थात् एकरूप छे [तथा] तेम [यदि] जो [क्रोधः अपि] क्रोध पण [अनन्यः] अनन्य होय तो [एवम्] ए रीते [जीवस्य] जीवने [च] अने [अजीवस्य] अजीवने [अनन्यत्वम्] अनन्यपणुं [आपन्नम्] आवी पडयुं. [एवम् च] एम थतां, [इह]


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आ जगतमां [यः तु] जे [जीवः] जीव छे [सः एव तु] ते ज [नियमतः] नियमथी [तथा] तेवी ज रीते [अजीवः] अजीव ठर्यो; (बन्नेनुं अनन्यपणुं होवामां आ दोष आव्यो;) [प्रत्ययनोकर्मकर्मणाम्] प्रत्यय, नोकर्म अने कर्मना [एकत्वे] एकपणामां अर्थात् अनन्यपणामां पण [अयम् दोषः] आ ज दोष आवे छे. [अथ] हवे जो (आ दोषना भयथी) [ते] तारा मतमां [क्रोधः] क्रोध [अन्यः] अन्य छे अने [उपयोगात्मकः] उपयोगस्वरूप [चेतयिता] आत्मा [अन्यः] अन्य [भवति] छे, तो [यथा क्रोधः] जेम क्रोध [तथा] तेम [प्रत्ययाः] प्रत्ययो [कर्म] कर्म अने [नोकर्म अपि] नोकर्म पण [अन्यत्] आत्माथी अन्य ज छे.

टीकाः– जेम जीवना उपयोगमयपणाने लीधे जीवथी उपयोग अनन्य छे तेम जड क्रोध पण अनन्य ज छे एवी जो प्रतिपत्ति करवामां आवे, तो चिद्रूपना अने जडना अनन्यपणाने लीधे जीवने उपयोगमयपणानी माफक जड क्रोधमयपणुं पण आवी पडे. एम थतां तो जे जीव ते ज अजीव ठरे, -ए रीते अन्य द्रव्यनो लोप थाय. आ प्रमाणे प्रत्यय, नोकर्म अने कर्म पण जीवथी अनन्य छे एवी प्रतिपत्तिमां पण आ ज दोष आवे छे. हवे जो आ दोषना भयथी एम स्वीकारवामां आवे के उपयोगात्मक जीव अन्य ज छे अने जडस्वभाव क्रोध अन्य ज छे, तो जेम उपयोगात्मक जीवथी जडस्वभाव क्रोध अन्य छे तेम प्रत्यय, नोकर्म अने कर्म पण अन्य ज छे कारण के तेमना जडस्वभावपणामां तफावत नथी (अर्थात् जेम क्रोध जड छे तेम प्रत्यय, नोकर्म अने कर्म पण जड छे). आ रीते जीवने अने प्रत्ययने एकपणुं नथी.

भावार्थः– मिथ्यात्वादि आस्रव तो जडस्वभाव छे अने जीव चेतनस्वभाव छे. जो जड अने चेतन एक थई जाय तो भिन्न द्रव्यनो लोप थई जाय ए मोटो दोष आवे. माटे आस्रवने अने आत्माने एकपणुं नथी ए निश्चयनयनो सिद्धांत छे.

* * *
समयसार गाथा ११३ थी ११पः मथाळुं

वळी जीवने अने ते प्रत्ययोने एकपणुं नथी एम हवे कहे छेः-

* गाथा ११३ थी ११पः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जेम जीवना उपयोगमयपणाने लीधे जीवथी उपयोग अनन्य छे तेम जड क्रोध पण अनन्य ज छे एवी जो प्रतिपत्ति करवामां आवे, तो चिद्रूपना अने जडना अनन्यपणाने लीधे जीवने उपयोगमयपणानी माफक जड क्रोधमयपणुं पण आवी पडे. एम थतां तो जे जीव ते ज अजीव ठरे-ए रीते अन्यद्रव्यनो लोप थाय.’ _________________________________________________________________ १. प्रतिपत्ति = प्रतीति; प्रतिपादन. २. चिद्रूप = जीव.


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भाषा जुओ, जीव छे ते उपयोगमय जाणन-देखनस्वभाव छे. जेम उष्णता अने अग्नि एक छे तेम भगवान आत्मा अने जाणवा-देखवारूप उपयोग एक छे. आत्मानो जाणन-जाणनस्वभाव अने देखन-देखनस्वभाव आत्मा साथे अभिन्न छे, एक छे. तेम जड क्रोध पण आत्माथी अनन्य ज छे एम प्रतीति करवामां आवे तो जीव, अजीव थई जाय. विकारना परिणाम चाहे तो दया, दान, व्रत, भक्तिना विकल्प होय, तेने क्रोध कहेवाय छे, केमके स्वभावथी ते विरुद्ध भाव छे. जेम आत्मा उपयोगमय परमात्मा छे तेम जो आत्मा रागमय होय तो राग अचेतन होवाथी जीव अजीव थई जाय. गाथा बहु सूक्ष्म छे.

शरीर जड छे ए वात पछी लेशे. अहीं तो शुभभाव जे थाय छे ते विकार-क्रोध अचेतन छे, अने भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्य उपयोगमय छे. ते बन्नेने एक-अभिन्न मानवामां आवे तो जीव छे ते अजीव थई जाय एम कहे छे.

शुद्धद्रव्यार्थिकनयथी आत्मद्रव्य ज्ञायकस्वभावी वीतरागभावरूप सच्चिदानंदस्वरूप टंकोत्कीर्ण शाश्वत नित्य पदार्थ छे. अहाहा...! अतीन्द्रिय सुखरूप अमृतथी तृप्ततृप्त (अतिशय भरेली) वस्तु छे. आवो भगवान आत्मा चैतन्यमय उपयोगथी जाणवा देखवाना स्वभावथी अभिन्न छे, एक छे. ए रीते रागभाव जे क्रोधरूप छे अने अचेतन छे तेनी साथे जीवने एकपणुं मानवामां आवे तो जीव छे ते अजीव थई जाय.

आ दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि भाव छे ते अचेतन छे, केमके तेमां चैतन्यनुं किरण नथी. महाव्रतना परिणाममां चैतन्यनुं किरण नथी. जेम शरीर छे ते स्पर्श-रस-गंध- वर्णसहित अजीव छे केमके तेमां ज्ञाननो अभाव छे तेम रागभाव छे ते स्पर्श-रस-गंध- वर्णरहित अजीव छे केमके तेमां पण ज्ञाननो अभाव ज छे. अहीं कहे छे के आत्मा जेम ज्ञानदर्शनस्वभावथी अनन्य छे तेम जड राग साथे पण अनन्य होय तो चेतन आत्मा अचेतन जड थई जाय. पंचमहाव्रतना परिणाम जो चैतन्यमय आत्माथी अभिन्न होय तो राग अचेतन होवाथी आत्मा चेतन मटी अचेतन थई जाय.

पर्यायमां जे शुभाशुभ राग छे ते जडस्वभाव छे. आवुं सांभळीने अज्ञानीओनां काळजां कंपी ऊठे छे केमके राग मारो अने हुं रागनो कर्ता तथा शुभराग करतां करतां धर्म थाय एवी एने अनादिथी विपरीत बुद्धि छे. तेने अहीं द्रव्यद्रष्टि करावतां कहे छे के भाई! राग छे ते जड छे, आत्मा एनो कर्ता नथी. आत्मा जो रागने करे तो राग जड होवाथी आत्मा जड थई जाय. अहीं गाथामां क्रोध शब्द कह्यो छे. भगवान आत्मा त्रिकाळ शुद्ध चैतन्य उपयोगमय अमृतस्वरूप प्रभु छे. तेने भूलीने व्यवहार-रत्नत्रयना रागनी जेने रुचि छे तेने पोताना भगवानस्वरूप स्वभाव प्रत्ये द्वेष छे. कह्युं छे ने के-‘द्वेष अरोचक भाव.’ परभावनी रुचि अने स्वभावनी जे अरुचि छे ते द्वेष


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छे, क्रोध छे. अहीं कहे छे के उपयोग जेम आत्माथी अनन्य छे तेम जड क्रोध जो आत्माथी अनन्य छे एम मानवामां आवे तो आत्मा जड थई जाय.

पुद्गलकर्मनो कर्ता कोण छे? पुद्गलकर्मनो कर्ता पुद्गलद्रव्य ज छे ए वात गाथा १०९-१०-११-१२ मां आवी गई छे. त्यां तेर गुणस्थानना भावो पुद्गलद्रव्यमय ज छे अने तेओ ज नवा कर्मबंधनना कर्ता छे, आत्मा नहि-ए वात सिद्ध करी छे. अहीं कहे छे के आत्मा शुद्ध उपयोगमय वस्तु छे. ते रागनो कर्ता नथी. आत्मा जो रागने करे तो ते रागमय थई जाय अने तो पछी आत्मा जेम उपयोगमय छे तेम ते जड रागमय पण छे तेम आवी पडे. एम थतां जे जीव छे ते ज अजीव ठरे वा ए रीते अन्यद्रव्यनो लोप थई जाय.

रागनो कर्ता आत्मा नथी एम अहीं सिद्ध करवुं छे. पुण्यपापरूप जे रागादि भाव थाय ते उपर उपर (पर्यायमां) थाय छे. ते विकारी भावनो शुद्ध चैतन्यमां प्रवेश थई शक्तो नथी. जेम पाणीमां तेलनुं बिंदु उपर उपर ज तरे छे, अंदर प्रवेशी शकतुं नथी तेम शुद्ध चैतन्यप्रकाशमय भगवान आत्मामां रागना विकल्पो प्रवेशी शकता नथी, उपर उपर ज रहे छे. अहाहा...! राग आत्मामां पेसी शके नहि अने आत्मा रागमां जाय नहि तो पछी आत्मा रागने केवी रीते करे? कदीय न करे. तेथी कहे छे के जो आत्मा रागने करे एम मानवामां आवे तो आत्मा जेम शुद्ध उपयोगमय छे तेम जड रागमय पण छे एम आवी पडे; अने एम आवतां चेतनस्वरूप जीव अजीव छे एम ठरे वा चेतननो लोप थई जाय. सूक्ष्म वात छे प्रभु!

दुकानना नामाना चोपडा झीणवटथी फेरवे अने सिलक वगेरे बराबर मेळवे पण आ धर्मना चोपडा (परमागम शास्त्र) जुए नहि तो पोताना जे परिणाम थाय छे तेने कोनी साथे मेळवे? भाई! बहु धीरज अने शांतिथी शास्त्र सांभळवुं जोईए, एटलुं ज नहि बहु सूक्ष्म बुद्धि करीने निरंतर शास्त्रनां स्वाध्याय अने मनन करवां जोईए जेथी पोताना परिणामोनी समता-विषमतानो यथार्थ भास थाय. रोज पोते पोतानी मेळे स्वाध्याय-मनन करे तो गुरुए बतावेला अर्थनी पण साची प्रतीति अंतरमां बेसे छे.

आत्मा सर्वज्ञस्वभावी प्रभु शुद्धचैतन्यप्रकाशना नूरनुं पूर छे; अने रागादि भाव जे आस्रव छे ते जड अचेतन छे. भगवाने नव तत्त्व भिन्न-भिन्न कह्यां छे. तेमां जीव छे ते शुद्ध ज्ञायकतत्त्व छे, अने राग छे ते आत्माथी भिन्न आस्रवतत्त्व छे. समयसार गाथा ७२मां आस्रवने जड कहेल छे केमके आस्रवो पोताने जाणता नथी, परने पण जाणता नथी. अहीं कहे छे के आवो शुद्ध चैतन्यप्रकाशनो पुंज प्रभु आत्मा जो जड रागने करे तो ते जड रागमय थई जाय अने एम थतां जीव छे ते ज अजीव ठरे अर्थात् जीवनो लोप थई जाय.


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भाई! जिनेन्द्रदेवे प्ररूपेला धर्मनुं स्वरूप बहु सूक्ष्म अने अलौकिक छे. पूजा, भक्ति, व्रत इत्यादि जे भाव छे ते शुभराग छे, धर्म नथी. धर्म तो शुद्ध वीतराग-परिणति छे अने ते शुद्ध चैतन्यना लक्षे उत्पन्न थाय छे. धर्म छे ते स्वाश्रित परिणाम छे. अहाहा...! आवा स्वाश्रित तत्त्वनी वात सांभळीने जो अंतरथी शुद्ध अंतःतत्त्वनो आदर अने स्वीकार थई जाय तो अनंतसुखमय सिद्धतत्त्वनी प्राप्ति थाय, नहितर निगोदगति तो ऊभी ज छे. भाई! तत्त्वना आदरमां सिद्धत्व अने तेना अनादरमां निगोदगति छे; वच्चे थोडाक भव करवा पडे तेनी अहीं गणतरी नथी. हे जीव! त्रसनो काळ बहु थोडो (बे हजार सागरथी कांईक अधिक) छे एम जाणी तुं तत्त्वद्रष्टि कर, तत्त्वनो आदर कर.

आ समयसार, नियमसार, प्रवचनसार ईत्यादि छे ते संतोनी वाणी छे. तेमां भगवाननी दिव्यध्वनिनो सार भर्यो छे. तेमां संतो कहे छे के-जाग रे जाग, नाथ! तारो आत्मा शुद्ध ज्ञायकस्वभावी भगवान छे. ते जो राग करे तो ते रागमय थई जाय, आस्रवरूप थई जाय, जड थई जाय. एम थतां प्रभु! तारा चैतन्यनो ज नाश थई जाय. पण एम छे नहि; आत्मा रागनो कर्ता छे नहि. पर्यायमां जे राग थाय छे तेनो आत्मा जाणनार छे पण रागनो करनारो कर्ता नथी. ज्ञायकस्वरूप ज आवुं छे.

अहाहा...! शुद्ध ज्ञायकस्वरूपनी जेने द्रष्टि थई छे ते धर्मीने पर्यायमां जे राग थाय छे ते राग तेना ज्ञानमां निमित्त छे. रागनुं जे ज्ञान थयुं ते ज्ञाननो आत्मा कर्ता छे. स्वपरने जाणनारी एवी जे स्वपरप्रकाशक ज्ञाननी पर्याय उत्पन्न थाय तेनो आत्मा कर्ता छे अने ते ज्ञाननी पर्याय एनुं कर्म छे. परंतु राग थाय छे तेनो ते कर्ता नथी. व्यवहाररत्नत्रयनो जे राग थाय छे तेनो ज्ञानी कर्ता नथी, ज्ञाता ज छे.

अहीं कहे छे के देव-शास्त्र-गुरुनी श्रद्धानो राग, शास्त्रज्ञाननो विकल्प अने अणु-व्रत- महाव्रतादिना भाव छे ते शुभराग छे, आस्रव छे. अने भगवान आत्मा शुद्ध ज्ञानमय, उपयोगमय छे. आवो आत्मा जो रागनो कर्ता होय तो आत्मा रागथी अनन्य -एक थई जाय. आत्मा अने आस्रव बे भिन्न तत्त्व एकरूप थई जाय. अने तो पछी रागथी आत्मा अभिन्न ठरतां पोताना चैतन्यनो नाश थई जाय, जीव पोते ज अजीव ठरतां जीवनो लोप थई जाय.

हवे कहे छे-‘आ प्रमाणे प्रत्यय, नोकर्म अने कर्म पण जीवथी अनन्य छे एवी प्रतिपत्तिमां पण आ ज दोष आवे छे.’

पुण्यपापना भाव अने मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योग-ए बधा आस्रवो प्रत्ययो छे, शरीर, मन, वाणी इत्यादि नोकर्म छे अने ज्ञानावरणादि आठ जडकर्म छे. ते बधाने जो आत्मा करे तो ते बधाथी आत्मा अनन्य एटले एक थई जाय अने तो


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पछी ते बधा जडस्वरूप होवाथी आत्मा जड थई जाय अर्थात् चैतन्यद्रव्यनो लोप थई जाय. भगवान आत्मा तो स्वरूपथी शुद्ध ज्ञाताद्रष्टा छे. पुण्यपापना भावनो ज्ञाताद्रष्टा, शरीर-मन- वाणीनो अने नोकर्म-कर्म सर्वनो ज्ञाताद्रष्टा छे. ज्ञाताद्रष्टा छे ते परनो थतो नथी अने परपदार्थो ज्ञाताद्रष्टाना थता नथी. तेथी जीवथी राग अनन्य छे एम मानतां जे दोष आवे छे ते ज दोष प्रत्ययो, कर्म अने नोकर्म आत्माथी एक छे एम मानतां आवे छे. हवे कहे छे-

‘हवे जो आ दोषना भयथी एम स्वीकारवामां आवे के उपयोगात्मक जीव अन्य ज छे अने जडस्वभाव क्रोध अन्य ज छे, तो जेम उपयोगात्मक जीवथी जडस्वभाव क्रोध अन्य छे तेम प्रत्यय, नोकर्म, अने कर्म पण अन्य ज छे कारण के तेमना जड-स्वभावपणामां तफावत नथी (अर्थात् जेम क्रोध जड छे तेम प्रत्यय, नोकर्म अने कर्म पण जड छे). आ रीते जीवने अने प्रत्ययने एकपणुं नथी.’

ल्यो, आ सिद्ध कर्युं के चैतन्यउपयोगमय ज्ञानस्वरूप जीव अन्य छे अने जड-स्वभाव क्रोध अन्य छे. शुभाशुभभाव जड छे अने ते चैतन्यमय आत्माथी अन्य छे. अरे भाई! तारुं चैतन्यतत्त्व कोण छे तेनी तने खबर नथी. प्रभु! तारुं चैतन्यतत्त्व ज्ञानादि अनंत गुणनुं गोदाम छे, अनंत स्वभावनो सागर छे, अनंत शक्तिओनुं संग्रहस्थान छे. ते क्रोधनुं, रागादि भावनुं स्थान नथी. अहाहा...! अमृतथी तृप्ततृप्त (पूर्ण भरेलो) अंदर अमृतनो सागर प्रभु उछळी रह्यो छे. ध्रुव-ध्रुव-ध्रुवस्वरूप त्रिकाळ चिदानंदघनस्वरूप वीतरागस्वरूप भगवान आत्मा छे. तेने रागवाळो माने वा रागनो कर्ता माने तो ते जडरूप थइ जाय. माटे भगवान आत्मा अन्य छे अने जडस्वभाव क्रोध अन्य छे ए ज निर्दोष स्वरूपस्थिति छे. अने जो एम छे तो ए ज रीते आठ कर्म, शरीरादि नोकर्म अने मिथ्यात्वादि प्रत्ययो जीवथी अन्य छे, केमके ते बधाना जडस्वभावपणामां कांई फरक नथी.

जुओ! व्यवहारथी निश्चय थाय एम केटलाक लोकोनो जे पोकार छे तेनो अहीं निषेध करे छे. व्यवहार अन्य छे अने चैतन्यमय वस्तु अन्य छे एम अहीं कह्युं छे. अरे भाई! जेम अंधकारथी प्रकाश न थाय तेम व्यवहार करतां करतां निश्चय न थाय. शुभराग मारुं कार्य अने शुभरागनो हुं कर्ता एवी मान्यताथी अनादि काळथी तुं संसार-सागरमां डूबी गयो छे. आ तारा हितनी वात करतां आचार्य कहे छे के राग अन्य छे अने शुद्ध चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा अन्य छे.

आत्मा ज्ञाननो कर्ता छे पण जे रागपरिणाम थाय तेनो निश्चयथी कर्ता नथी. राग थाय छे पण रागनो कर्ता नथी. आ रीते जीव अने प्रत्ययो एक नथी, जीव अने आस्रवो एक नथी; अन्य-अन्य छे. मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योग-आ बधा