Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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भाग-१ ] ९९

संयोगजनित कही छे. पर निमित्तना सद्भाव अने अभावनी अपेक्षा आवे छे एटले प्रमत्त-अप्रमत्त बधी पर्यायोने संयोगजनित कहीने ए ज्ञायकभाव-स्वभावभावमां नथी एम कह्युं छे.

नियमसारमां औदयिकादि चार भावने आवरणसंयुक्त कह्या छे. त्यां औदयिकभावमां कर्मना उदयना निमित्तनी अपेक्षा आवे छे माटे ते आवरणवाळो छे ए तो ठीक पण उपशम, क्षयोपशम अने क्षायिकभाव तो निरावरण छे छतां निमित्तना अभावनी अपेक्षा आवती होवाथी चारेय भावोने आवरणसंयुक्त कही दीधा छे.

पंडितजीए बहु सरस स्पष्ट कर्युं छे के निमित्तना सद्भाववाळी प्रमत्त दशा अने निमित्तना अभाववाळी अप्रमत्त दशा ए बन्ने संयोगजनित छे अने तेथी नित्यानंद, ध्रुव, प्रभु ज्ञायकमां ए पर्याय-भेदो नथी. भाई! आ समज्या विना जन्म-मरणना फेरा मटे एम नथी. प्रमत्त-अप्रमत्तनी अवस्थाओ आत्मामां नथी. अशुद्धता, द्रव्यद्रष्टिमां गौण छे. अहीं प्रमत्त-अप्रमत्त बन्ने अवस्थाओने अशुद्धतामां नाखी दीधी, केमके बन्ने संयोगजनित छे. आ चौदेय गुणस्थानोनी पर्यायो अशुद्धनयनो विषय छे. अहीं द्रव्यद्रष्टिमां चौदेय गुणस्थानोने अशुद्ध कही गौण करी व्यवहार, अभूतार्थ, असत्यार्थ, उपचार छे एम कहेल छे. चौदेय गुणस्थानो अभावरूप छे तेथी असत्यार्थ छे एम नथी, पण द्रव्यद्रष्टिमां ते गौण छे, लक्षमां लेवा योग्य नथी अने त्रिकाळी द्रव्यमां ए अवस्थाओ नथी तेथी असत्यार्थ-अभूतार्थ कहेल छे. द्रव्यमां तो अशुद्धता छे ज नहीं, पर्यायमां छे ते द्रव्यद्रष्टिमां गौण थई जाय छे.

आ छठ्ठी गाथा बहु सूक्ष्म छे. समयसारनो सार जे ज्ञायक तेनी शरूआत त्यांथी थाय छे. न्यालभाईए द्रव्यद्रष्टिप्रकाशमां लीधुं छे के -आखा समयसारमां छठ्ठी गाथामां सम्यग्दर्शननो खास विषय जे ध्रुव ते आवी गयो छे. छठ्ठी गाथामां सर्वोत्कृष्ट वात आवी छे. हुं प्रमत्त नहीं, अप्रमत्त पण नहीं; कई पर्याय बाकी रही? अहाहा...! द्रष्टिनो विषय जे ज्ञायकबिंब तेमां कोई पर्यायो छे ज नहीं.

वस्तुस्वभावनी द्रष्टिथी जोईए तो स्वभाव त्रिकाळ शुद्ध छे, द्रव्य द्रव्यरूप ज छे. एनी वर्तमान अवस्था परद्रव्यना निमित्ते अशुद्ध थई छे, पण ए गौण छे. आत्मामां बे प्रकारः एक त्रिकाळी स्वभावभाव अने एक वर्तमान पर्यायभाव. त्यां त्रिकाळी स्वभाव जे ज्ञायकभाव ते कदीय प्रमत्त-अप्रमत्त एवा चौद गुणस्थानना भेदरूप थयो ज नथी, निरंतर ज्ञायकपणे शुद्ध रह्यो छे. माटे वर्तमान पर्यायने गौण करी एवा शुद्ध ज्ञायकने द्रष्टिमां लेवो ते सम्यग्दर्शन अने जाणवो ते सम्यग्ज्ञान छे. आ वीतरागमार्गनी मूळ