परमार्थथी एटले वस्तुद्रष्टिथी जोवामां आवे तो अनंत पर्यायोने एक द्रव्य पी गयुं होवाथी एकरूप छे. अहीं पर्याय शब्दनो अर्थ गुण करवो, केमके गुणने सहवर्ती पर्याय कहेवामां आवे छे. समयसार गाथा २९४नी टीकामां आत्मानुं स्वलक्षण बताव्युं छे त्यां गुणने सहवर्ती पर्याय कही छे, अने बदलाती दशाने क्रमवर्ती पर्याय कही छे. गुणो बधा द्रव्यमां एकसाथे रहे छे तेथी गुणने सहवर्ती पर्याय कहेल छे. आ सघळा अनंत गुणोने एक द्रव्य पीने बेठुं छे एटले ते अनंतगुणो द्रव्यमां अभेदपणे छे, कदी भेदरूप थता नथी. माटे द्रव्य एकरूप छे.
वळी ते अनंतगुणोना स्वादो एकमेक मळी गयेला अभेद छे. ज्ञाननो स्वाद, आनंदनो स्वाद, एम बधा स्वाद मळी गयेला अभेद छे. जेम उनाळामां दूधियुं करे छे ने? तेमां बदाम, चारोळी, पिस्ता इत्यादि भिन्न-भिन्न छे, छतां बधातो स्वाद एकरूप छे. एम अनंतगुणोनो स्वाद मळी गयेलो अभेद एक छे. अहा! अशुद्धतानुं लक्ष छोडी, भेदनुं पण लक्ष छोडी एकला ज्ञायक उपर द्रष्टि पडतां अभेद एक मळी गयेला आस्वादवाळुं एकस्वभावी तत्त्व अनुभवमां आवे छे.
जेने आत्मकल्याण करवुं होय, सुखी थवुं होय, जन्म-मरणथी छूटवुं होय तेणे शुं करवुं? तो कहे छे के जे एक ज्ञायकभाव अभेद वस्तु छे तेने अनुभवमां लेवो. आवा एकस्वभावी अभेद आत्मतत्त्व अनुभवनार ज्ञानी पुरुषने दर्शन पण नथी, ज्ञान पण नथी, चारित्र पण नथी. तो शुं छे? तो कहे छे के एक शुद्ध ज्ञायक ज छे. जुओ एकांत कीधुं के एक शुद्ध ज्ञायक ज छे, एकलो अभेद छे. अहाहा! एकलो चैतन्य ज्ञायकभाव, अभेदस्वभाव, एकभाव, सामान्यस्वभाव, नित्यस्वभाव, ध्रुवस्वभाव, सद्रशएकरूपस्वभाव ए ज एक सम्यग्दर्शननो विषय छे. आ तो सर्वज्ञ वीतराग परमेश्वरे कहेलुं अलौकिक वीतराग दर्शन छे.
आ शुद्ध आत्माने कर्मबंधना निमित्तथी अशुद्धपणुं आवे छे ए वात तो दूर रहो एटले के तेमां अशुद्धपणुं तो नथी पण तेमां दर्शन, ज्ञान, चारित्रना भेद पण नथी, कारण के वस्तु अनंतधर्मरूप एक धर्मी छे. वस्तु तो अभेद एक छे.
व्यवहारीजन धर्मोने ज समजे छे. धर्मीने नथी जाणतो. ज्ञान ते आत्मा, दर्शन ते आत्मा एम व्यवहारी जन धर्मोने समजे छे पण अखंड एकरूप धर्मी जे ज्ञायक तेने नथी जाणतो. तेथी वस्तुना कोई असाधारण धर्मोने उपदेशमां लई अभेद वस्तुमां पण