Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१२६ [ समयसार प्रवचन

गच्छति] सन्मुख थई जाणे छे [तं] तेने [लोकप्रदीपकराः] लोकने प्रगट जाणनारा [ऋषयः] ऋषीश्वरो [श्रुतकेवलिनम्] श्रुतकेवळी [भणन्ति] कहे छे; [यः] जे जीव [सर्वं] सर्व [श्रुतज्ञानं] श्रुतज्ञानने [जानाति] जाणे छे [तम्] तेने [जिनाः] जिनदेवो [श्रुतकेवलिनं] श्रुतकेवळी [आहुः] कहे छे, [यस्मात्] कारण के [ज्ञानम् सर्वं] ज्ञान बधुं [आत्मा] आत्मा ज छे [तस्मात्] तेथी [श्रुतकेवली] (ते जीव) श्रुतकेवळी छे.

टीकाः– प्रथम, “जे श्रुतथी केवळ शुद्ध आत्माने जाणे छे ते श्रुतकेवळी छे” ते

तो परमार्थ छे; अने “जे सर्व श्रुतज्ञानने जाणे छे ते श्रुतकेवळी छे” ते व्यवहार छे. अहीं बे पक्ष लई परीक्षा करीए छीएः-उपर कहेलुं सर्व ज्ञान आत्मा छे के अनात्मा? जो अनात्मानो पक्ष लेवामां आवे तो ते बराबर नथी कारण के समस्त जे जडरूप अनात्मा आकाशादि पांच द्रव्यो छे तेमनुं ज्ञान साथे तादात्म्य बनतुं ज नथी (केम के तेमनामां ज्ञानसिद्ध ज नथी). तेथी अन्य पक्षनो अभाव होवाथी ज्ञान आत्मा ज छे ए पक्ष सिद्ध थाय छे. माटे श्रुतज्ञान पण आत्मा ज छे. आम थवाथी ‘जे आत्माने जाणेछे ते श्रुतकेवळी छे’ एम ज आवे छे; अने ते तो परमार्थ ज छे. आ रीते ज्ञान अने ज्ञानीना भेदथी कहेनारो जे व्यवहार तेनाथी पण परमार्थमात्र ज कहेवामां आवे छे. तेनाथी भिन्न अधिक कांई कहेवामां आवतुं नथी. वळी ‘जे श्रुतथी केवळ शुद्ध आत्माने जाणे छे ते श्रुतकेवळी छे” एवा परमार्थनुं प्रतिपादन करवुं अशकय होवाथी, “जे सर्व श्रुतज्ञानने जाणे छे ते श्रुतकेवळी छे” एवो व्यवहार परमार्थना प्रतिपादकपणाथी पोताने द्रढपणे स्थापित करे छे.

भावार्थः– जे शास्त्रज्ञानथी अभेदरूप ज्ञायकमात्र शुद्ध आत्माने जाणे छे ते

श्रुतकेवळी छे ए तो परमार्थ (निश्चय कथन) छे. वळी जे सर्व शास्त्रज्ञानने जाणे छे तेणे पण ज्ञानने जाणवाथी आत्माने ज जाण्यो कारण के ज्ञान छे ते आत्मा ज छे; तेथी ज्ञान-ज्ञानीनो भेद कहेनारो जे व्यवहार तेणे पण परमार्थ ज कह्यो. अन्य कांई न कह्युं. वळी परमार्थनो विषय तो कथंचित् वचनगोचर पण नथी तेथी व्यवहारनय ज आत्माने प्रगटपणे कहे छे एम जाणवुं.

हवे ए प्रश्न उत्पन्न थाय छे के व्यवहारनय परमार्थनो प्रतिपादक केवी रीते छे? एटले के अखंड अभेद जे आत्मा तेमां नाममात्रथी भेद पाडीने कहेवुं के-आ श्रद्धे ते आत्मा, देखे ते आत्मा, जाणे ते आत्मा, एकाग्र थाय ते आत्मा-तेमां व्यवहार परमार्थनो प्रतिपादक केवी रीते छे? वस्तु अभेद छे, तेमां भेद पाडीने कथन करवुं ते व्यवहार छे; एवो व्यवहार निश्चयने बतावे छे ते केवी रीते? आ प्रश्नना उत्तररूप गाथासूत्र कहे छेः-