जे जीव निश्चयथी श्रुतज्ञानवडे आ अनुभवगोचर केवळ एक शुद्ध आत्माने सन्मुख थई जाणे छे तेने लोकने प्रगट जाणनारा ऋषीश्वरो श्रुतकेवळी कहे छे. जुओ, कहे छे-अंतरना भावश्रुतज्ञान द्वारा पोताना आत्माने प्रत्यक्ष वेदे तेने लोकने जाणनार ऋषीश्वरो श्रुतकेवळी कहे छे.
त्रिलोकनाथ तीर्थंकरदेवनी वाणीमां जे आव्युं ते संतोए अनुभवीने कह्युं छे. भाई! एकवार तुं सांभळ. भावश्रुतज्ञान एटले जेमां रागनी के निमित्तथी अपेक्षा नथी एवुं जे स्वने वेदनारुं अरूपी निर्विकल्प ज्ञान तेना द्वारा अखंड एकरूप केवळ शुद्धात्माने अनुभवे, जाणे तेने भावश्रुतकेवळी कहेवामां आवे छे.
अहाहा...! आ आत्मा अखंड, एकरूप, शुद्ध, सामान्य, ध्रुव अनुभवगोचर वस्तु छे. तेनी सन्मुख थई तेने स्वसंवेदनज्ञान द्वारा जे प्रत्यक्ष जाणे-अनुभवे ते सम्यग्द्रष्टि जीव छे. तेने केवळी भगवान अने ऋषीश्वरो भावश्रुतकेवळी कहे छे. आ मुदनी रकमनी वात छे. अरे! जिनेश्वरदेवनो मार्ग लोकोए लौकिक जेवो करी नाख्यो छे. परंतु भगवाननी वाणी अनुसार बार अंगनी रचना थई. ते अनुसार दिगंबर संतोए शास्त्र रच्यां छे. तेमां ज्ञानप्रवाद नामनुं एक शास्त्र छे. तेनो आ एक भाग छे. तेमां कहे छे के अंदर आखुं ज्ञायकनुं दळ जे अनंत अनंत बेहद ज्ञान, आनंद, इत्यादि अनंत गुणोथी भरेलुं अभेद छे तेनी सन्मुख पोतानी ज्ञानपर्यायने करीने जे अनुभवगम्य निजस्वरूपने जाणे-अनुभवे छे ते भावश्रुतकेवळी छे.
भाई! आ तो अध्यात्मनी वात छे, धर्मकथा छे. तेने फरीफरीने कहेवाथी पुनरुक्तिदोष न जाणवो. केमके वारंवार कहेवामां आवे त्यारे वास्तविक तत्त्व ज्ञानमां आवे एवी वात छे.
हवे बीजी रीते कहे छे के-जे जीव सर्व श्रुतज्ञानने जाणे छे तेने जिनदेवो श्रुतकेवळी कहे छे. जे जीव ज्ञाननी पर्यायमां बधा ज्ञेयोने जाणे छे, -छ द्रव्यो तेना गुणो, पर्यायो एम बधा ज्ञेयोने जाणे छे तेने व्यवहार श्रुतकेवळी कहे छे. आत्माने जाणे ए वात अहीं नथी लीधी, ए तो पहेलां निश्चय श्रुतकेवळीमां आवी गई. अहीं तो एक समयनी ज्ञाननी पर्याय जेमां सर्वश्रुतज्ञान एटले बार अंग अने चौद पूर्वनुं जे ज्ञान-ते जाणवामां आवे तेने जिनदेवो व्यवहार श्रुतकेवळी कहे छे. एने श्रुतकेवळी केम कह्यो? कारण के ज्ञान बधुं आत्मा ज छे. ए ज्ञान ज्ञेयोनुं नथी, पण ए ज्ञान आत्मानुं छे.